“यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश के एक तिहाई से अधिक लोगों की भाषा को अपने ही देश मे राजभाषा का दर्जा पाने के लिए याचना करनी पड़ रही है!” ये आवाज थी जबलपुर के पहले सांसद, हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार, सेठ गोविंद दास की; जिन्होंने हिंदी के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू से लड़ाई लड़ी। सेठ गोविंद दास ने १९६१ में मिला हुआ पद्मभूषण सम्मान भी लौटा दिया। उन्होंने हिंदी के लिए राजनीतिक पार्टी काँग्रेस की नीतियों से हटकर संसद मे हिंदी का जोरदार समर्थन किया था। हाईकोर्ट मे हिंदी को अधिकृत भाषा बनाने के लिए पहली आवाज भी सेठ गोविंद दास ने ही उठाई थी। हिंदी के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले सेठ गोविंद दास अपनी हिंदी के प्रबल समर्थक थे। विदेशी शासकों द्वारा हिंदी को दोयम दर्जा देकर अंग्रेजी को आगे लाने के लिये किये गये प्रयत्नों का सेठ गोविंद दास ने घोर विरोध किया।
हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाने के लिए तन-मन-धन से समर्पित मूर्धन्य साहित्यकार, स्वाधीनता संग्राम सेनानी, नाटककार सेठ गोविंद दास का जन्म जबलपुर में हुआ था। इनके पिता का नाम जीवनदास, माता का नाम पार्वतीबाई तथा दादाजी का नाम सेठ गोकुलदास था। अश्विन शुक्ल दशमी, उत्तर भारत में यह दिवस विजय का दिवस माना जाता है। इस दिन आर्यों की अनार्यो पर विजय हुई थी जबलपुर में दशहरे के दिन जुलूसों की धूम रहती हैl हिंदू रियासतों में राजाओं का जुलूस निकलता है। जबलपुर में सारे हिंदू त्योहारों में दशहरा महत्त्वपूर्ण है। रामलीला और माँ काली दोनों का जुलूस हनुमान ताल पर आता है और इस तालाब में माँ काली की प्रतिमाओं का विसर्जन होता है।
१६ अक्टूबर सन १८९६ ईसवी (संवत १९५३) के दिन दशहरे का जुलूस हनुमान ताल के लिए राजा गोकुलदास के महल के सामने से जा रहा था। श्री राम तथा माँ काली के जय घोष और बाजे-गाजे से संपूर्ण वायुमंडल गुंजायमान हो रहा था, तभी राजा साहब के महल के द्वार पर एकाएक बंदूकों की आवाज सुनाई दी। महल के आस-पास की भीड़ और जुलूस का जन समुदाय चौंक पड़ा। कुछ लोग तो डर के मारे भागने लगे और कुछ लोग भयाक्रांत हुए की कहीं महल का कोई पहरेदार जनता को अपनी बंदूक का निशाना तो नहीं बना रहा है, किंतु बंदूकों की यह आवाज शीघ्र ही थालियां बजने की झंकार में बदल गई और यह समाचार फैल गया कि राजा साहब को पौत्ररत्न प्राप्त हुआ है। यह खबर सुनते ही दशहरे का जुलूस का उत्साह दुगुना हो गया। हजारों नागरिक राजा साहब को बधाइयां देने दौड़ पड़े। राजा साहब की खुशी का ठिकाना न था। राजा गोकुलदास ने अपने पौत्र का नाम गोविंददास रखा, इस तरह विजयादशमी को गोविंद दास का जन्म हुआ।
राजा गोकुलदास पौत्र जन्म से प्रसन्न थे। वे हर्षातिरेक से महल में आने वाले सभी लोगों को गोविंद दास को अवश्य दिखाते। उस समय प्रकाश व्यवस्था का अभाव था इसलिए रात्रि को आने वाले अतिथि को नवागंतुक शिशु का मुंह अच्छे से दिख जाए और प्रकाश की कमी न रहे इसलिए राजा गोकुलदास अपने हाथ से बच्चे के मुख के निकट लालटेन ले जाते थे। इस तरह के प्रदर्शन से बच्चा रोने लगता था। रानी की चिंता बढ़ जाती थी और वह हमेशा "राई-नून"(सरसों के दाने और नमक) का प्रबंध रखती थीं। बच्चे को किसी की नजर न लगे इसलिए रात में बच्चे पर राई-नून अवश्य उतारा जाता। गोविंद दास गौर-वर्ण के थे; इससे पहले राजा साहब के सभी कुटुंबी सांवले थे। गोविंद दास के गौर-वर्ण को लेकर राजा गोकुलदास और उनकी रानी प्रसन्न रहा करती थीं।
बालक गोविंद दास का जन्म चांदी के पालने और मखमली गद्दे, सोने की चम्मच, कटोरी आदि रईसी में हुआ था, किंतु राजा गोकुलदास अपने पूर्वजों के सदृश्य धर्मनिष्ठ थे इसलिए वे गोविंद दास पर ऐसे ही संस्कार डालना चाहते थे। जब गोविंद दास खिलौनों से खेलने योग्य हो गए तब वे उन्हें राम और कृष्ण की मूर्तियों से पहचान करवाने लगे। बालक गोविंद दास इन खिलौनों को सुंदरा कहते।
५ वर्ष की अवस्था में गोविंद दास का पाटी पूजन किया गया। राजा गोकुलदास ने गोविंद दास की घर पर ही पढ़ाई प्रारंभ की। जिस समय गोविंद दास का पठन-पाठन का दौर शुरू हुआ उस समय अंग्रेजी भाषा और अंग्रेजी सभ्यता हावी हो चुकी थी, इसलिए राजा गोकुलदास ने गोविंद दास को ऊंची से ऊंची शिक्षा देने के लिए घर में ही योग्य अध्यापक रखें। अंग्रेजी के साथ ही उन्हें हिंदी का भी ज्ञान दिया गया। गोविंद दास प्रतिभा संपन्न बालक थे, अच्छे से पढ़ रहे थे, इस बीच राजा गोकुलदास ने ११ वर्ष में जबलपुर रियासत में सीकर राज्य के पोद्दार सेठ लक्ष्मीनारायणजी बियानी की पुत्री गोदावरी देवी से गोविंद दास की सगाई कर दी। गोविंद दास की उम्र विवाह के समय मात्र ११ वर्ष थी।
राजा गोकुलदास के जीवन, ठाट-बाट, शान-ओ-शौकत के एक पक्ष के साथ ही दूसरा पक्ष धर्मनिष्ठा, नैतिक चरित्र, व्यापार में अधिक से अधिक परिश्रम करके घर को, कुटुंब को मजबूती प्रदान करना और जनता की सेवा करना यह दूसरा पक्ष भी सबल था। वे हमेशा अपने पौत्र गोविंद दास को अपने साथ रखते थे। जबलपुर के महल में गोविंद दास साथ-साथ रहते और व्यवसाय के साथ दौरे पर उनके साथ रहते। वयस्क हो चुके गोविंद दास पर सेठ गोकुलदास के चरित्र की अमिट छाप पड़ी। सेठ गोविंद दास भी धर्मनिष्ठ, साधन संपन्न किंतु परिश्रमी, चरित्रवान बने। वे नित्य प्रति धार्मिक ग्रंथ सुनते, भगवत सेवा करते, उचित समय पर उचित काम करते। उनकी दिनचर्या घड़ी के कांटे के साथ-साथ चलती थी। सेठ गोकुलदास की अनुशासनप्रिय जीवन शैली गोविंद दास में भी उतर गयी थी, इस तरह सेठ गोकुलदास के चरित्र का प्रभाव सेठ गोविंद दास पर पड़ा।
मानव जीवन बाल्यावस्था में जो कुछ देखता-सीखता है, उसका मन-मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ता है। सेठ गोविंद दास ने बाल्यावस्था और तेरह वर्ष की अवस्था तक अपने पितामह के साथ रहकर जो कुछ सीखा, देखा, सुना, अनुभव किया उसका प्रभाव उनके चरित्र पर पड़ा। मानव जीवन में १२-१३ वर्ष की आयु अवस्था से १८-२० वर्ष की अवस्था तक महत्त्वपूर्ण समय माना जाता है। इस समय में मनुष्य का संपूर्ण विकास मानसिक और आत्मिक स्तर पर भी होता है। गोविंद दास के जीवन पर एक ओर उनके दादाजी, पिताजी के जीवन का प्रभाव पड़ा तो दूसरी ओर उनकी मां की तपस्वी-वृत्ति का भी प्रभाव पड़ा। इस तरह वे सच्चरित्र व्यक्तित्त्व के रूप में निखरे। भगवान ने उन्हें सुंदरता और आरोग्य दिया था, अपार संपत्ति भी दी थी। उन्होंने घोड़े की सवारी, अंग्रेजी, नृत्य, स्केटिंग आदि भी सीखी थी। वे अंग्रेजी परिधान पहनते थे, अच्छी अंग्रेजी बोलते थे, टेनिस और बिलियर्ड्स भी खेलते थे। पश्चिमी सभ्यता में इस तरह रंग जाने के पश्चात भी अंग्रेजी भोज्य पदार्थों और मदिरा से दूर रहते थे। वेश्याओं की सभाएं उन्होंने देखी-सुनी लेकिन पत्नी के प्रति निष्ठावान रहे। वे अपनी माता को दिए वचन के प्रति प्रतिबध्द रहा करते थेl एक बार गोविंद दास के चचेरे भाई जमुनादास के विवाह में दिल्ली से बिब्बोजान नामक वेश्या आयी थीl बिब्बोजान के संगीत और हाव-भाव का युवक गोविंद दास पर प्रभाव पड़ा और वे बिब्बोजान की व्यक्तिगत महफिल में गए, किंतु बिब्बोजान का संगीत, उनकी तान, तबले की ठनक, सारंगी के स्वर के साथ घुंघरू की आवाज गोविंद दास के माताजी के कानों पर जब पहुंची तब वे शेरनी की तरह बादल महल की ओर झपटी और महफिल से गोविंद दास का हाथ पकड़कर खींच लायीं। गोविंद दास मां की आज्ञा का पालन करते हुए चुपचाप उनके पीछे चल दिए। उनकी मां ने बादल महल की इस व्यक्तिगत महफिल पर इस तरह गाज गिरायी की उसके बाद उस महल में कभी कोई महफिल नहीं सज पायी। वे गोविंद दास से गरज कर बोली “मैं तेरे पीछे सवा हाथ की नाक लिए घूमती हूं, जीवन में मैंने बहुत सहा है अब मुझमें सहनशक्ति नहीं, इन वेश्याओं ने सोने के इस घर को मिट्टी बना दिया। इन वेश्याओं का नामो-निशान मिटाना संभव नहीं है, पर तेरे कारण मैं सवा हाथ की लंबी नाक लिए घूमती हूं। क्या वही मेरी नाक कटा देगा तू? अब भी प्राइवेट महफिले कराएगा?” मां का स्वर सुनकर गोविंद दास रोते-रोते उनके चरणों में गिर पड़े और उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि वह कभी भी ऐसी हरकत नहीं करेंगे। यह घटना गोविंद दास के जीवन की महत्त्वपूर्ण घटना मानी गयी है।
कालचक्र अपनी गति से बढ़ता जा रहा था और गोविंद दास की प्रवृत्ति साहित्य में बढ़ती जा रही थीl उन्होंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं के ग्रंथों का ग्रंथालय तैयार कर लिया था, कुछ ही दिनों में उन्होंने शारदा भवन नामक पुस्तकालय खोला। पाश्चात्य साहित्यकार रेनॉल्ड और देवकीनंदन खत्री की रचनाएं पढ़ते हुए उन्होंने कुछ तिलस्मी उपन्यास लिखें। १२ वर्ष की अवस्था में ‘चंपावती’ नामक तिलस्मी उपन्यास लिखा। कुछ पद्य, कुछ गद्य और कुछ उपन्यास भी लिखे। प्रारंभ से ही वल्लभ संप्रदाय के ललित उत्सव, रामलीला, पारसी नाटक कंपनियों के अभिनय से आप प्रभावित थे, जिसके चलते आपकी नाटक रचना की ओर प्रवृत्ति बढ़ी। हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी नाटकों का उन्होंने अच्छा अध्ययन किया था। १९१६ में आपने शारदा भवन पुस्तकालय की स्थापना की। श्री शारदा साहित्यिक मासिक के प्रकाशन और शारदा पुस्तक माला का प्रारंभ किया। १९१९ में पुस्तकालय में संपन्न हुए वार्षिक उत्सव के लिए आपने ‘विश्व प्रेम’ नाटक लिखा और अभिनीत भी किया।
पाश्चात्य नाटककार बर्नार्ड शा, शेक्सपियर, इब्सन, ओनील की नाट्य शैलियों का आपके नाटकों पर विशेष प्रभाव दिखाई देता है। शेक्सपियर के रोमियो, जूलियट, एज यू लाइक, प्रिंस ऑफ टायर, विंटर्स टेल नामक प्रसिद्ध नाटकों से प्रभावित होकर सेठ गोविंद दास ने ‘सुरेंद्र सुंदरी’, ‘कृष्ण-कामिनी’, ’होनहार’, ‘व्यर्थ संदेश’ नामक उपन्यासों की रचना की। आपने ‘बाणासुर-पराभव’ नामक काव्य रचना की। ‘विश्व प्रेम’ नाटक को सराहना मिलने के पश्चात आपने प्रतीक नाटक भी लिखे। ‘विकास’ आपका स्वप्न नाटक था। ‘नव रस’ नाट्य रूपक था। हिंदी में मोनो ड्रामा ‘एकल नाटक’ की पहल गोविंद दास जी ने ही की थी। आपके नाटकों की मुख्यधारा भारतीयता है जिनके विषय पौराणिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, राष्ट्रीय और राजनीतिक धरातल पर केंद्रित है। कुछ एकांकी एक पात्रीय भी हैं। पौराणिक नाटकों में सबसे पहले आपने ‘कर्त्तव्य’ नाटक लिखा जिसमें पूर्वार्द्ध में रामचरितमानस और उत्तरार्द्ध में कृष्ण के जीवन के विशिष्ट प्रसंगों का चित्रण है। भगवान राम को सेठ जी ने जागरुक आत्मा के महापुरुष के रूप में चित्रित किया है। महाभारत के एक चरित्र कर्ण को लेकर लिखित नाटक ‘कर्ण’ में उन्होंने स्वगत कथनों के माध्यम से एक अवैध संतान के रूप में कर्ण के और ऐसे पुत्र की माता के रूप में कुंती के मनोविज्ञान का विश्लेषण किया है। ‘स्नेह या स्वर्ग’ गीति-नाट्य में यूनान के पौराणिक आख्यान को भारतीय रूप देकर जागरुक व्यक्तित्त्व की नारी का चित्रण किया है। ‘हर्ष’ में स्वच्छंदतावाद नाट्य-कला के साथ बुद्धिवादी नाटकीय पद्धति का समन्वय किया है। ‘शशि गुप्त’ चंद्रगुप्त और चाणक्य की प्रसिद्ध कथा का स्मरण कराता है। ‘सप्त रश्मि’, ‘एकादशी’, ‘पंचभूत’, ‘चतुष्पथ’, ‘आपबीती-जगबीती’ इत्यादि आप के प्रसिद्ध एकांकी हैं। आपने १९३४ में आदर्श चित्र लिमिटेड नामक फिल्म कंपनी की स्थापना की थी, जिसमें आपने ‘कुलीनता’ नाटक को ‘धुआंधार’ नाम देकर फिल्मीकरण किया था। सेठ गोविंद दास के नाटकों में राष्ट्रीयता की प्रबल भावना परिलक्षित होती है। उनके नाटक राष्ट्रीय चेतना से भरे हैं। ‘हर्ष’ नाटक में उन्होंने भारत मां के प्रति श्रद्धा सुमन अर्पित किए हैं, उन्होंने अपने देश के प्रति अभिमान की भावना व्यक्त की है। ‘कर्त्तव्य’, ‘विकास’ और ‘कुलीनता’ में इतिहास की गौरवगाथा प्रस्तुत की है। उन्होंने विश्व बंधुत्त्व की भावना को अपने नाटकों में बताया है। तत्कालीन भारत देश की दुर्दशा अपमानजनक परिस्थितियां, पराधीन जनता का चित्रण ‘कुलीनता’ नाटक में किया है जिसमें जाति-प्रथा पर घोर विरोध व्यक्त किया है। ‘दलित कुसुम’ में स्त्रियों पर किए गए सामाजिक अत्याचारों के प्रति आक्रोश प्रकट किया है। ‘पाकिस्तान’ नाटक में देशभक्त महफूज खान अंग्रेजी शासन के शोषण अत्याचार से त्रस्त होकर कहता है- “ऐसी विदेशी लूटने वाली डाकू सरकार नहीं जिसका काम उस देश का अर्थात अर्थ को चूस कर विलायत को लाल बनाना... जिसने यहां के अन्नदाता किसानों को मुट्ठी भर अनाज के लिए मोहताज कर भिखमंगा बना दिया।” इस तरह सेठ गोविंददास ने देश के किसानों और गरीबों का यथार्थ चित्रण अपने नाटकों में प्रस्तुत किया है। साहित्य सर्जना में आपने अधिकतर नाटक और एकांकी लिखे हैं।
आपके नाटकों की भाषा खड़ी बोली है। इन नाटकों में तत्सम, तद्भव, देशज और उर्दू जैसे शब्दों का समावेश हुआ है। भाषा में जीवंतता और प्रवाह उल्लेखनीय है। आपकी भाषा शैली में संवादों में भावनाओं, संवेदनाओं की अभिव्यक्ति पर विशेष जोर दिया गया है। आपके नाटकों में चरित्र चित्रण और संवादों की जीवंतता मुख्यतः रेखांकित की जाती है। सेठ गोविंद दास भारतीय संस्कृति के प्रबल अनुरागी, हिंदी भाषा के पक्षधर थे। अंग्रेजी के बढ़ते प्रभुत्त्व और हिंदी भाषा की चिंता के चलते उन्होंने तन-मन-धन से हिंदी की सेवा की। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के यशस्वी सभापति सिद्ध हुए। हिंदी भाषा के हित के लिए उन्होंने कांग्रेस की नीति से हटकर अपनी विचारधारा दृढ़ता पूर्वक संसद में रखी। उन्हें भारत की भाषा हिंदी के प्रबल समर्थक के रूप में आज भी जाना जाता है। बात हिंदी के आंदोलन की हो या राजनीतिक मूल्यों की समाज के उत्थान की हो या देश की आर्थिक संरचना बनाने की सेठ गोविंद दास जी एक सशक्त कर्मयोगी की तरह आजीवन कर्म में निरत रहे। वे निर्भीक, साहसी, दृढ़ विश्वासी थे।
सन १९६८ में देश में हिंदी को सम्मानजनक स्थान दिलाने हेतु आंदोलन चल रहा था, इस आंदोलन में सेठ गोविंद दास की महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। उन्होंने १९६८ में भारत भ्रमण किया। इस संदर्भ में सेठ गोविंद दास ने स्वयं कहा है कि- “व्यापार कुशलता एवं राजभक्ति से मैं दूर ही रहा, सामाजिक कितना बन पाया कहा नहीं जा सकता, राजद्रोही अवश्य बन गया।” फिरंगियों के शासनकाल में वे रचनात्मक विद्रोही बन गए थे। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिलाना चाहते थे।
१९२० में नागपुर कांग्रेस में महाकौशल क्षेत्र से उन्होंने कांग्रेसी प्रतिनिधि की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। नागपुर कांग्रेस में बापू की अहिंसावादी नीति को कांग्रेस ने स्वतंत्रता आंदोलन के जन अस्त्र के रूप में स्वीकार किया। सेठ जी इसी समय शाही-जीवन त्याग कर गांधी जी के अनुयायी बन गये। उन्होंने असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्हें त्वचा पर अत्यधिक कष्ट होने पर भी वे मोटी खादी पहनते थे। मोटी खादी के कारण उनकी मुलायम चमड़ी पर घाव भी हो गए थे। उनका सबसे बड़ा झगड़ा कोलकाता की स्लैंडर अर्बथनाथ कंपनी की विलायती कपड़े की एजेंसी से हुआ। दीवान बहादुर जीवनदास अर्थात उनके पिताजी और उनके बीच इस विषय पर जिस तरह का वाद-विवाद हुआ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। पिता- पुत्र का यह झगड़ा महीनों चला और अंत में सेठ गोविंद दास की विजय हुई। दीवान बहादुर साहब को वार्षिक आमदनी से हाथ धोने पड़े। कोलकाता ही नहीं वरन हिंदुस्तान के किसी भी हिस्से में इतनी बड़ी आमदनी का विलायती कपड़े का व्यापार किसी भी व्यापारी ने नहीं छोड़ा था, किंतु गोविंद दास जी ने विदेशी कपड़ों का व्यापार तुरंत छोड़ दिया।
१९३० में महात्मा गांधी ने नमक कानून तोड़ने का निश्चय किया। इस नमक सत्याग्रह में सेठ जी की भूमिका विशेष रूप से रेखांकित की गयी है। रानी दुर्गावती स्मारक, तिलवारा घाट जबलपुर में कोई महत्त्वपूर्ण सभा में सेठ गोविंद दास ने कहा- “ब्रितानी सरकार अब ज्यादा दिन नहीं टिकेगी। यह सरकार मानवाधिकार की बात करती है और नमक जैसे सामग्री के निर्माण पर पाबंदी लगा दी है।” फिरंगी पुलिस ने सेठ गोविंद दास को यहीं गिरफ्तार कर दिया और यहां से जेल भेज दिया। उन्होंने जेल में ब्रिटिश साम्राज्यवाद की अनेक यातनाएं सही, किंतु यहीं उन्होंने रचनाधर्मिता भी जारी रखी।
अपनी जेल यात्राओं के दौरान उन्होंने हर्ष, कुलीनता, विश्वासघात, पर्दा आदि नाटक लिखें। इस बीच उनकी पत्नी अत्यंत बीमार हुई। पति-पत्नी का परस्पर अत्यधिक प्रेम था। उन दोनों को एक-दूसरे से मिलने की अत्यंत उत्कंठा थी। ऐसी परिस्थिति में सरकार कुछ शर्तों पर गोविंद दास जी को छोड़ने को तैयार हो गयी। कुछ समय पश्चात उन्हें जेल भेज दिया गया। इस दौरान उन्होंने ‘विकास’, ‘दलित कुसुम’, ‘बड़ा पापी कौन’, ‘सिद्धांत स्वातंत्र्य’ और ‘ईर्ष्या’ जैसे नाटकों की रचना की।
प्रथम विश्व युद्ध के अंतिम दौर में सेठ जी ने राष्ट्रीय हिंदी मंदिर की स्थापना की। इस संस्था ने धीरे-धीरे उन्हें हिंदी जगत का नक्षत्र बना दिया। सेठ गोविंद दास जी ५२ वर्षों तक सांसद रहे। इस अवधि में उन्हें मिस्त्र, स्विट्जरलैंड, यूनान, फ्रांस, कनाडा, इंग्लैंड, अमेरिका, जापान, चीन, बर्मा इत्यादि देशों में जाने का अवसर मिला। विदेशों में उन्हें भारतीय साहित्य और संस्कृति के राजदूत नाम से जाना जाता था। सन १९५५ से १९५२ तक सेठ गोविंद दास अखिल भारतीय मारवाड़ी सम्मेलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे। उन्होंने अपनी सामाजिक गतिविधियों से समाज को नवजागरण का संदेश दिया। उन्होंने अनेक अनुकरणीय और प्रेरक कार्य किये जो आज भी स्मरण किये जाते हैं।
साहित्य जगत ने सेठ गोविंद दास को उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए जबलपुर विश्वविद्यालय द्वारा डॉक्टरेट की उपाधि दी गयी। हिंदी साहित्य सम्मेलन ने साहित्य वाचस्पति, राजस्थान साहित्य अकादमी ने मनीषी की उपाधि से सम्मानित किया।
सेठ गोविंद दास के राजनीतिक जीवन के दौरान ही मार्क्सवादी शक्तियां भारत में अपने पैर फैलाने लग गयी थीं। उधर यूरोपीय विचारधारा भी देश में प्रवेश कर गयी थी। इन दो विचारधाराओं के बीच हिंदी और भारतीय संस्कृति कसमसा रही थी। सेठ जी ने भारतीय चिंतन जीवन-धारा और हिंदी पर हो रहे सांस्कृतिक हमले का विरोध किया। उन्होंने देश की जनता को चेताया- “हमें न तो साम्यवादी विचारधारा और न ही यूरोपीय विचारधारा की आवश्यकता है। हमारी विचारधारा हमारी माटी में उपजेगी, हमारे चिंतन से सामने आएगी हम जब अपने ह्रदय से गुलामी के दिनों में बनी तस्वीरों से अंग्रेजों द्वारा गढ़े गए झूठे इतिहास से मुक्त होंगे तभी हमारा भारतवर्ष समुन्नत होगा।” सेठ गोविंद दास शत-प्रतिशत भारतीय थे, उनकी आत्मा में मां भारती बसती थी।
सेठ गोविंद दास जी सरल स्वभाव के और मृदुल भाषण के धनी थे। अत्यंत सादगी से वे जन समुदाय को आकर्षित करते थे। वे प्रभावशाली वक्ता भी थे। उनके भाषण में यथेष्ट विद्वत्ता रहती थी और ऊर्जा भी। जिस सभा में वे भाषण देते थे वहाँ हर श्रोता उनके भाषणों को याद रखता था। सेठ गोविंददास कुशल राजनीतिज्ञ मूर्धन्य साहित्यकार रहे। हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और उसे राष्ट्रभाषा बनाने के प्रयत्नों में आपका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा। सन १९७४ में आपका मुम्बई (महाराष्ट्र) में देहावसान हुआ।
सेठ गोविंद दास द्वारा संस्थापित संस्थाएं जबलपुर में ही नहीं, पूरे महाकौशल क्षेत्र में अनेक शिक्षण संस्थाएं, समाजसेवी संस्थाएं आज भी सेवाएं दे रही हैं, जिनमें हितकारिणी महासभा प्रमुख है। ऐसे सेवाभावी, प्रेरक व्यक्तित्त्व, साहित्य जगत, भारतीय स्वाधीनता संग्राम के जाज्ज्वल्यमान नक्षत्र सेठ गोविंद दास को कोटिशः नमन!
संदर्भ:-
सेठ गोविंद दास- रत्नकुमारी देवी
हिंदी साहित्य कोश, भाग-2, नामवाची शब्दावली संपादक- धीरेंद्र वर्मा, ब्रजेश्वर शर्मा, रामस्वरूप चतुर्वेदी, रघुवंश संयोजक ज्ञान मंडल लिमिटेड वाराणसी
हिंदी नाट्य साहित्य में राष्ट्रीय भावना की परंपरा एवं सेठ गोविंद दास के नाटक- डॉ रशीद नजर उद्दीन तहसील दार वॉल्यूम 6
सेठ गोविंद दास पर निबंध (गूगल द्वारा)
दिव्य नर्मदा शनिवार, २२ जनवरी २०११
हिंदी के अनन्य भक्त एवं कर्मयोगी सेठ गोविंद दास- हनुमान सरावगी (गूगल द्वारा)
लेखक परिचय
डॉ. वसुधा गाडगिल
लेखक और अनुवादक- कहानी, लघुकथा, कविता, संस्मरण, जीवनी, यात्रा-वृतांत लेखन, हिंदी- मराठी में अनुवाद लेखन।
हिंदी भाषा, साहित्य पठन-पाठन, तकनीकी युग में देवनागरी को अपनाने, हिंदी भाषा को युवाओं से जोड़ने हेतु प्रत्यक्ष तथा आभासी कार्यशालाओं का आयोजन करने जैसे अकादमिक कार्यों में सहभागिता।
प्रकृति, जल-संरक्षण और स्वच्छता अभियान में स्वैच्छिक सेवा और प्रेरक लेखन हेतु महापौर इंदौर, हेल्प बॉक्स नेचर संस्था, भोपाल विभिन्न साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
निवास- इंदौर, मध्यप्रदेश (भारत)
वसुधा जी नमस्ते। सेठ गोविंददास के जीवन और कृतित्व से मिलवाता अच्छा लेख आपने प्रस्तुत किया। इस सुंदर लेखन के लिए आपको सधन्यवाद बधाई।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रगतिजी
Deleteवसुधा जी नमस्ते। आपने सेठ गोविंद दास जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। मेरे लिए तो बिल्कुल नई जानकारी थी। लेख से उनके जीवन एवं सृजन की विस्तृत जानकारी मिली। उनका संघर्ष एवं योगदान वन्दनीय है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteशिवानन्द सिंह 'सहयोगी',मेरठ।
ReplyDeleteसेठ गोविंद दास पर गागर में सागर भरा आलेख। बहुत रोचक और ज्ञानवर्धक।