Friday, October 21, 2022

डॉ. रमेशचंद्र शाह : कलम की साधना से साहित्यिक इन्द्रधनुष गढ़ता साहित्यकार

 


एक रचनाकार जब कलम व्यवसाय के लिए नहीं अपितु ‘स्वान्तः सुखाय के लिए चलाता है तब उसकी कलम उन कृतियों को जन्म देती है जो मन को सुकून और मस्तिष्क को समृद्धि देने का दम रखती हैं। उसी प्रकार, जो मनुष्य अध्यापन को अपने जीविकोपार्जन का साधन इसीलिए बनाता है क्योंकि यह उसे उपलब्ध अन्य व्यवसायों से ऊँचा और श्रेयस्कर लगता है, तब वह भावी पीढ़ियों का भविष्य सुनहरा और उज्ज्वल बनाने का माद्दा रखता है। और जिस इंसान में इन दोनों का संगम हो, वह यकीनन सुनहरे भविष्य का अप्रतिम इतिहास गढ़ने में सक्षम है।  ख्यातिलब्ध कवि, लेखक, समालोचक, निबंधकार और अध्यापक डॉ. रमेशचंद्र शाह भारतीय साहित्य जगत् का एक ऐसा नाम है जिसने स्वप्रेरणा से साहित्य निर्माण किया और अपने कृति की उत्कृष्टता के बूते पद्मश्री व साहित्य अकादमी पुरस्कार के हक़दार बने। पठन-पाठन में अभिरुचि उन्हें लेखन की और ले गई और ज्ञान का प्रसार शिक्षण की ओर – और इसी अध्यापन को अपना जीवन बनाकर उन्होंने साहित्य के अनेक विधाओं को अपनाया और निरंतर सीखते-सिखाते रहे। प्रस्तुत है उनकी जीवन-गाथा के कुछ अविस्मरणीय पक्ष -

बचपन और शिक्षा:

अल्मोड़ा के नैसर्गिक वादियों में १५ नवम्बर १९३७ को श्रीमती हरिप्रिया देवी और श्री ईश्वरी लाल के घर पुत्र रत्न के रूप में बालक रमेशचंद्र का जन्म हुआ। एक निम्न-मध्यम वर्गीय परिवार के इस लाल की प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। पिता के कार्य के सिलसिले में परित्यक्त पत्रिकाएँ व उपन्यास रद्दी के रूप में घर पर आता था जिनमें से पढ़ने लायक सामग्री मिलने पर उन कागज़ों का प्रयोग न कर, पिता पुत्र को पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे। बालक रमेशचंद्र को ‘टॉलस्टॉय’ की ‘रेज़रेक्शन’ का हिन्दी अनुवाद ‘पुनर्जन्म, प्रेमचन्द की ‘रंगभूमि, डॉन क्विकज़ोट की ‘किंज्योति’ आदि इसी प्रकार उपलब्ध हुईं – तब उन्हें यह तक ज्ञात नहीं था कि जिन पुस्तकों को वे पढ़ रहे हैं उनकी गिनती विश्व के महान् साहित्य में होती हैं। इस प्रकार कई विरल और विपुल साहित्य बचपन से ही रमेशचंद्र को सुलभ होते रहे, और उनके अवचेतन मन पर अमिट छाप छोड़ते चले गए। घर का माहौल तनिक भी साहित्यिक नहीं था और न ही आस-पड़ोस में कोई साहित्य अनुरागी था। किन्तु, पुस्तकों और किस्से-कहानियों का सान्निध्य बालमन पर गहरा असर करता गया और सात-आठ बरस का होते-होते रमेशचंद्र स्वयं कविताएँ लिखने लगा, कहानियाँ गढ़ने लगा। प्रकाशन की औपचारिकता और प्रोत्साहन के भँवर से बेखबर वह बालक अपनी भावनाओं को काग़ज़ों पर उतारता चला गया और उसके मार्ग स्वतः ही खुलते चले गए। साहित्यिक पथ पर अड़चनें भी कम नहीं थीं, किन्तु बाहरी अवरोध से अधिक अंतर्मन का द्वंद्व था जो समय के साथ-साथ छँटता गया।

वर्ष १९५२ में हाई स्कूल करने के बाद नियमित शिक्षा के लिए रमेशचंद्र अल्मोड़ा के राजकीय इंटर कॉलेज गए जहाँ १९५४ में ज़िला स्तर पर सर्वोच्च अंकों के साथ इंटरमीडिएट उत्तीर्ण किया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी. एस. सी. करने के पश्चात् वे भौतिकी में एम. एस. सी. करना कहते थे किन्तु आर्थिक अड़चन और नेत्रों की समस्या उनके मार्ग का अवरोध बन गए। बाद में मुक्तेश्वर विद्यालय में अध्यापन करते हुए एक व्यक्तिगत परीक्षार्थी के रूप में उन्होंने अगरा विश्वविद्यालय से अंग्रेज़ी साहित्य में एम.ए. किया। अंग्रेज़ी साहित्य और विशेषकर कविताएँ उन्हें इस कदर आकर्षित कर गईं कि मध्यप्रदेश की उच्च शिक्षा सेवा में आने के बाद भोपाल विश्वविद्यालय से ‘यीट्स एण्ड इलियट – पर्सपेक्टिव्स ऑन इण्डिया’ विषय पर शोध कर पी.एच.डी. की उपाधि हासिल की।

इसी बीच १९६४ में विख्यात कवि-कथाकार वीरेंद्र कुमार जैन की पुत्री ज्योत्सना के साथ उनका विवाह हुआ। ज्योत्सना भी उन्हीं की तरह एक पुस्तक-प्रेमी और रचनाकार थीं। पति की तरह ज्योत्सना भी कलम की धनी रहीं - उनके नाम तीन उपन्यास, तीन कथा-संग्रह, तथा दो कविता संग्रह हैं जिनमें उनका उपन्यास ‘अ अस्तु बेहद चर्चित रहा।

शिक्षण और लेखन

अधिकतर साहित्यकारों की तरह डॉ. शाह ने भी कविताओं से अपने लेखन का श्रीगणेश किया था किन्तु एक-एक करके उन्होंने साहित्य की सभी विधाओं में अपनी कलम चलाई और अनुभवों के खट्टे-मीठे स्वाद चखते रहे। कविता के बाद उन्हें सर्वाधिक रूचि ललित-निबन्धों में थी और उन्होंने पाया कि निबंध के अधिकतर धुरंधर जैसे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, बाबू गुलाब राय, पूर्ण सिंह आदि सभी लोकप्रिय अध्यापक रहे हैं। बचपन के दिनों से अध्यापन के प्रति उनका विशेष आकर्षण था। उन्होंने अपने आस-पास यह आम धारणा महसूस की थी कि एक अच्छा लेखक अच्छा अध्यापक नहीं बन सकता है, किन्तु इसकी परवाह किये बिना उन्होंने जीविकोपार्जन के लिए शिक्षण और मन के सुकून के लिए लेखन जारी रखा और दोनों मोर्चों पर सफलता अर्जित कर इस धारणा को गलत साबित कर दिखाया। वे कहते हैं – “पढ़ाने की क्रिया से पढ़ने की स्वतंत्रता कुंठित हो, यह बिल्कुल आवश्यक नहीं है। कविता का अपने पाठक के साथ कुछ वैसा ही सदाबहार रिश्ता होना चाहिए जैसे प्रसाद जी ने मनु और श्रद्धा के मिलन-प्रसंग में दिखाया है – ‘नित्य परिचित हो रहे, फिर भी रहा कुछ शेष!’...”  

अल्मोड़ा के निकट बाड़ेछीना के एक विद्यालय से रमेशचंद्र ने अपने अध्यापन की शुरुआत की थी। तत्पश्चात सालम और मुक्तेश्वर में भी कुछ दिन अध्यापन किया। एम.ए. के उपरान्त उनकी प्रथम नियुक्ति एटा में गंजडुंडवारा डिग्री कॉलेज में हुई। यहाँ एक साल अपनी सेवाएँ देने के बाद १९६१ में मध्य प्रदेश उच्च शिक्षा विभाग के अंतर्गत भोपाल के शासकीय हमीदिया कॉलेज में नियुक्ति हुई। मध्यप्रदेश के विभिन्न महाविद्यालयों में पदोन्नति लेते हुए वे पुनः हमीदिया कॉलेज आ गए। यहीं से १९७७ में अंग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष व प्रोफ़ेसर पद से सेवानिवृत्त होकर वे भोपाल में ही निरंतर रचनाशील रहे। इस दौरान साहित्य सेवा को स्वधर्म मानते हुए अनेकों कृतियों का सृजन किया। वे कहते हैं कि श्रेष्ठ अध्यापक बनने के आलावा उनमें कोई और सांसारिक महत्वाकांक्षा नहीं थी। उन्हें हिन्दी, अंग्रेज़ी, गुजराती तथा कुमाउनी भाषाओं का ज्ञान था, फलस्वरूप उन्हें साहित्य को समझकर उसे नए नज़रिए से पेश करने में बड़ी मदद मिली। वे आधुनिक साहित्य के प्रति विशेष लगाव रखते हैं और कहते हैं– “जिस प्रकार प्राणों के संकट में फँसा हुआ आदमी जीवन में आस्वाद और गुणवत्ता को एकदम नई तरह से अनुभव करता है, उसी तरह आधुनिक साहित्य भी संकट में फँसी मानवता की पुकार के फलस्वरूप जीवनदायी मूल्यों की खोज का, और उन मूल्यों की थाह पाने का जूझता हुआ साहित्य है।”

साहित्य सृजन

रमेशचंद्र शाह का वास्तविक आत्म-बिम्ब काव्य था। उनकी पुस्तक ‘गोबरगणेश’ के अनुसार उनकी पहली कविता संभवतः १९४५-४६ में लिखी ‘विधवा थी। इसी दौरान उन्होंने ‘माता तू है नदी, पिता तू महाकाल की छाया सरीखी पक्तियाँ भी लिखीं। अल्मोड़ा के साप्ताहिक पत्र ‘देवदारु शक्ति में उनकी पहली कविता १९५१ में प्रकाशित हुई थी जो गाँधी पर आधारित थी। लड़कपन की उन कविताओं में १९६१ आते-आते गंभीरता आ गयी थी जब ‘वत्सल दृष्टि नामक कविता ‘धर्मयुग में स्थान पाने में कामयाब रही। उनकी कविताओं में एक ओर प्रकृति सौंदर्य बोध की कविताएँ हैं तो दूसरी ओर आधुनिक संस्कृति के संकट को अभिव्यक्ति देती कविताएँ हैं। अपनी कविताओं में उन्होंने पौराणिक विषयों को आधुनिक बिम्बों में प्रस्तुत करने का अनूठा प्रयास किया है।

कविताओं के बाद निबंध की ओर रुख़ करना स्वाभाविक था। डॉ. शाह के आत्मपरख निबन्धों से यह प्रकट होता है कि प्रकाशन की भूख उनमें नहीं थी – सृजन करना उनकी आत्मिक अवश्यकता थी। उन्हें अपने समकालीन रचनाकारों की तुलना में मान्यता मिलने में विलम्ब अवश्य हुआ, किन्तु एक बार उपस्थिति दर्ज कराने के बाद वे नियमित और निर्बाध गति से सतत् रचनाशील रहे। वे अपनी साहित्य सर्जना को आत्मान्वेषण और आत्मदान की अनिवार्य प्रक्रिया से प्रेरित मानते हैं। उनके निबंध संग्रह ‘रचना के बदले की समीक्षा करते हुए डॉ. सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं – “एक विषय के चारों ओर अनेक स्तरों का मन स्थितियों की अनेक करवटों के साथ अनुभव और अध्ययन, भाव व विचार का गुम्फन आसान काम नहीं। सफल निबंध अनुभव जगत् को तो उद्वेलित करते ही हैं, ज्ञान क्षेत्र का भी विकास करते हैं।”

कहानियों से भी उनका बहुत गहरा नाता है। कहानी लिखने की प्रेरणा उन्हें अपने आस-पास के वातावरण से मिली। आठवीं-नवीं कक्षा में रची कहानियाँ अल्मोड़ा के नैसर्गिक सुन्दरता और आस-पड़ोस के अनुभवों का चित्रण थीं। फिर पढ़ाई और अंग्रेज़ी साहित्य से साक्षात्कार का ऐसा दौर आया जब शाह का कहानी लेखन लगभग छूट-सा गया था। दस-बारह सालों के अंतराल के बाद कहानियों ने पुनः उनके जीवन में स्थान पाया और हमें ‘जंगल में आग’, ‘मोहल्ले का रावण’, ‘मानपत्र’ जैसे कहानी-संग्रहों की सौग़ात मिली। उनकी कहानियों में भावुकता नहीं मिलती बल्कि ये मानवीय चरित्र और मानव-नियति के प्रश्नों में उलझती हैं। उनके कहानी-संग्रह में संभावनाएँ कूट-कूट कर भरी हुई हैं। अपने कथ्य, शिल्प और भाषा-संस्कार के कारण ये बहुत जीवंत लगती हैं और पाठकों को देर तक बाँधे रखने में सक्षम हैं। उनकी कहानियों में समकालीन जीवन का बहुआयामी यथार्थ अपनी पूरी सच्चाई में अंकित होता है। उनकी समकालीन कुमुद शर्मा का कहना है, “रमेशचंद्र शाह ने प्रेमचन्द और यशपाल की परंपरा को आत्मसात कर उसे युगबोध की गहरी संवेदनशीलता और प्रबुद्ध रचनात्मक दृष्टि से समन्वित करके अपनी रचनाधर्मिता के लिए रास्ता तलाशा।

कविता, कहानियों के बाद बारी आई उपन्यास की - हालाँकि इस बीच निबंध, समालोचना, अनुवाद आदि भी जारी रहे। उनके उपन्यासों में ‘गोबर गणेश, ‘किस्सा ग़ुलाम, ‘पूर्वापर, ‘विनायक, ‘पुनर्वास, ‘आख़िरी दिन, ‘आप कहीं नहीं रहते विभूति बाबू, ‘सफ़ेद पर्दे पर, ‘कमबख्त इस मोड़ पर, ‘असबाब-ए-वीरानी आदि हैं। उनके उपन्यासों में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण, राजनीति और गुलामी, आतंकवाद, धर्म और समाज, मित्रता, स्त्री-पुरुष सम्बन्ध, पुनर्जन्म जैसी परिकल्पना, परिवार, संस्कृति वृद्धावस्था, मानवीय रिश्ते, स्नेह जैसे विविध विषय एवं दृष्टिकोण मिलते हैं। अपने पहले उपन्यास ‘गोबर गणेश’ से ही उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार दिए जाने की चर्चा थी, किन्तु नियति ने उनके लिए कुछ और सोच रखा था। लगभग ७८ पुस्तकों के प्रकाशन के बाद २०१४ में ‘विनायक उपन्यास के लिए अंततः उन्हें ‘साहित्य अकादमी से नवाज़ा गया। डॉ. शाह कहते हैं, “मेरी किताबें कम-से-कम छह बार साहित्य अकादमी के लिए शोर्त्लिस्ट की गईं, लेकिन मुझे सुख केवल इस बात का है कि जिस ‘विनायक के लिए अंततः मुझे साहित्य अकादमी मिला वह मेरे पहले उपन्यास ‘गोबर गणेश’ का ही विस्तार है।”

वैसे पुरस्कारों का सिलसिला तो लेखन के शुरूआती दिनों से ही आरम्भ हो गया था जब उनकी कहानी ‘स्मारक (‘कहानी’ पत्रिका में प्रकाशित) को वर्ष १९७४ का सर्वश्रेष्ठ कहानी घोषित किया गया था। तदुपरांत, १९७८ में ‘गोबर गणेश’ के लिए मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद् का अखिल भारतीय पुरस्कार; ‘छायावाद की प्रासंगिकता के लिए ‘आचार्य नन्द दुलारे वाजपेयी पुरस्कार; कविता संग्रह ‘नदी भागती आई’ के लिए १९८८-८९ का ‘भवानी प्रसाद मिश्र अखिल भारतीय पुरस्कार’ तथा १९८७-८८ में साहित्यिक उपलब्धियों के लिए ‘शिखर सम्मान से अलंकृत किया। साहित्य सेवा के लिए २००४ में उन्हें पद्मश्री और २००१ में व्यास सम्मान से भी सम्मानित किया गया था।

एक रचनाकार की दृष्टि से उन्होंने साहित्य के हर क्षेत्र में अपना योगदान दिया – कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध, समालोचना, अनुवाद, नाटक, यात्रा-वृत्त, संस्मरण, पत्र-लेखन – और आने वाली पीढ़ी के लिए एक विपुल साहित्य संग्रह-प्रस्तुत किया है। उनकी यात्रावृत्त के लिए उन्हें २००५ में केन्द्रीय भाषा संस्थान, आगरा का ‘महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन पुरस्कार प्रदान किया गया। उनकी वैविध्य रचनाओं को विविध पुरस्कारों से समानित किया जाना इस बात का प्रमाण है कि डॉ. शाह ने जो लिखा पूरी निष्ठा, लगन और ईमानदारी के साथ लिखा। उनके द्वारा रचा यह साहित्यिक इन्द्रधनुष अपने विविध रंगों की ऊष्मा से आज भी उर्जावान और अनुमप है।  

सन्दर्भ:

लेखक परिचय :

दीपा लाभ : दैनिक हिन्दुस्तान, दैनिक हरिभूमि, आजतक और प्रज्ञा चैनल से होते हुए नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ फैशन टेक्नोलॉजी के मुंबई, बैंगलोर, भुवनेश्वर और पटना केंद्रों में अपनी सेवाएं देने के बाद पूर्ण रूप से अध्यापन को समर्पित हैं। इसी क्रम में, हिन्दी व अंग्रेज़ी भाषा के क्रियात्मक प्रयोगों से संप्रेषण सुदृढ़ करने के विभिन्न प्रयासों पर शोध करते हुए कुछ कोर्स तैयार कर ऑनलाइन व ऑफलाइन ट्रेनिंग में संलग्न हैं। शोध और लेखन उनकी रोजमर्रा के कामों में शुमार है। इन दिनों ‘हिन्दी से प्यार है’ नामक वैश्विक हिन्दी स्वयं सेवी समूह में उनकी सक्रिय भागीदारी है तथा इसी समूह की एक परियोजना ‘साहित्यकार तिथिवार’ के तीन सदस्यीय प्रबंधन टीम की एक सदस्या हैं।

 ईमेल - journalistdeepa@gmail.com

व्हाट्सएप - +91 8095809095

3 comments:

  1. दीपा, बहुमुखी प्रतिभा के धनी डॉ रमेशचंद्र शाह के जीवन और साहित्यिक यात्रा से सिलसिलेवार ढंग से परिचय करवाया है, उनके जीवन के सभी पक्षों को दर्शाया है तुमने। इस श्रमसाध्य कार्य के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद।

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  2. दीपा जी नमस्ते। आपका लिखा एक और बढ़िया लेख पढ़ने को मिला। आपके लेख के माध्यम से रमेशचंद्र शाह जी के जीवन एवं सृजन को जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. दीपा, रमेशचंद्र शाह जी के विविध रचना-क्षेत्रों में से कहानी-क्षेत्र पर ध्यान केंद्रित कर उसे बखूबी यह आलेख खोलता है और उनके संवेदनशील व्यक्तित्व का परिचय देता है। बहुत अच्छा लगा इन्हें थोड़ा और बेहतर जानकर। इस भेंट के लिए साभार बधाई।

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