Thursday, October 6, 2022

शूद्रक : साहसे श्री वसति

 

हमारे देश की समृद्ध भाषा संस्कृत में अनूठे साहित्य का सृजन हुआ है। संस्कृत भाषा साहित्य में दृश्य और श्रव्य दोनों काव्यों का ही अपूर्व विकास दिखाई देता है। आदिकवि वाल्मीकि से भास, कालिदास, अश्वघोष, श्रीहर्ष, भवभूति, भारवि तक, कल्हण, बाणभट्ट, शूद्रक से विशाख दत्त और अन्य अनेक नामों तक भी संस्कृत साहित्य के विकास की अटूट शृंखला बनती जाती है। 

साहित्यशास्त्र में दृश्य तथा श्रव्य काव्य का विभाजन करते हुए दृश्य काव्य के लिए नाटक शब्द का प्रयोग किया गया है। 'काव्येषु नाटकं रम्यं' कहते हुए संस्कृत साहित्य में नाटक की महत्ता प्रतिपादित की गई। नाटक को पाँचवाँ वेद भी कहा गया। संस्कृत साहित्य के कोमल अंग के रूप में नाट्य-साहित्य की विशद परंपरा प्राप्त होती है। भास संस्कृत के पहले नाटककार माने जाते हैं। कालिदास, अश्वघोष, विशाखदत्त, भवभूति जैसे प्रसिद्ध नाटककारों की ही श्रेणी में 'मृच्छकटिक' के रचयिता शूद्रक का नाम आदर से लिया जाता है। 'मृच्छकटिक' उनकी बहुचर्चित कृति है जो अपनी रोचक कथावस्तु और घटना-क्रम के लिए विख्यात है।

शूद्रक को कहीं राजा, कहीं भास और कालिदास की तरह राजकवि और नाटककार कहा गया है। एक मत के अनुसार मृच्छकटिक शूद्रक की एकमात्र प्राप्त रचना कही जाती है। कुछ विद्वान मानते हैं कि उन्होंने दो और ग्रंथों का सृजन किया - वासवदत्ता, पद्मप्रभृतका। 

मृच्छकटिक नाटक जितना प्रसिद्ध है, इसके रचयिता की जितनी ख्याति है, उतना ही दोनों के विषय में असमंजस भी है। शूद्रक का प्रामाणिक जीवन-परिचय प्राप्त नहीं होता, जबकि संस्कृत साहित्य में वे एक सुपरिचित नाम रहे हैं। उनके जीवनकाल और रचनाकाल के विषय में कुछ कहानियाँ भी सुनी जाती हैं। कुछ विद्वान शूद्रक को कल्पित व्यक्तित्व मान लेते हैं। लेकिन शूद्रक का उल्लेख कादम्बरी, कथासरित्सागर, हर्षचरित और राजतरंगिणी जैसी रचनाओं में हुआ है, अतः इन्हें काल्पनिक नहीं माना जा सकता। 

मृच्छकटिक की प्रस्तावना में ऐसे तीन श्लोक दिए गए हैं, जिनमें नाटककार स्वयं अपना परिचय देते हुए अपने लिए भूतकाल का प्रयोग करता है और अपनी मृत्यु का वर्णन करता है। माना जाता है कि नाटक शूद्रक ने ही लिखा लेकिन प्रस्तावना के श्लोक बाद में जोड़े गए। दूसरा विचार यह है कि नाटक किसी अन्य ने लिखा और प्रसिद्धि के लिए शूद्रक का नाम जोड़ दिया। शूद्रक नाम के राजा भी हुए हैं। यह भी माना जाता है कि नाटककार भास ने जो चार अंकों का नाटक-चारुदत्त या दरिद्र चारुदत्त लिखा था, उसी को विकसित करके मृच्छकटिक नाम दिया गया और राजा शूद्रक के नाम से प्रचारित कर दिया गया। 

भास के नाटक 'दरिद्र चारुदत्त' और मृच्छकटिक के कथासूत्र  में पर्याप्त समानता है। अतः शूद्रक का समय भास के बाद होना चाहिए। शूद्रक का आविर्भाव काल नाटक में वर्णित सामाजिक दशा द्वारा भी पुष्ट होता है। क्योंकि प्रामाणिक रूप से शूद्रक मृच्छकटिक के रचयिता रूप में ही जाने जाते हैं, अतः इस कृति को केंद्र में रखकर शूद्रक की सृजनात्मक प्रतिभा को जानने का प्रयास प्रस्तुत आलेख में किया गया है।  

मृच्छकटिक के अंग्रेजी अनुवाद की नाटय प्रस्तुति १९२४ में, न्यूयार्क में की गई। १९०५ में The little clay cart नाम से। मृच्छकटिक का अनुवाद अर्थर राइडर ने किया जिसकी भूमिका में वे कहते हैं,  "The Mricchakatika, or Little Clay Cart, is one of the oldest Indian plays known, probably written about the 2nd century BCE. This is the only work by the author King Shudraka, who preceded the more famous Kalidasa by about five centuries. Little else is known about the author."

शूद्रक के लोकप्रिय नाटक के अनेक अनुवाद उपलब्ध है। १९४१ और १९६७ में वसंतसेना नाम से नाटक का रूपांतरण हुआ। मृच्छकटिक पर अनेक टीकाएँ लिखी गई। एक यथार्थवादी रचना और सामाजिक व्यंग्य के रूप में मृच्छकटिक संस्कृत साहित्य में अनूठी है। भारत तथा सुदूर अमेरिकारूसफ्रांसजर्मनी, इटलीइंग्लैंड के अनेक रंगमंचों पर इसका सफल मंचन हुआ। रांगेय राघव और मोहन राकेश ने मृच्छकटिक का हिंदी अनुवाद किया। १९८४ में गिरीश कर्नाड ने उत्सव नाम से जिस हिंदी फिल्म का निर्माण किया, वह इसी नाटक पर आधारित थी।  

शूद्रक के लोकप्रिय नाटक मृच्छकटिक में दस अंक हैं, प्रत्येक अंक में कई दृश्य हैं। नाटक में अवन्तिपुरी के दरिद्र चरित्रवान विवाहित युवक चारुदत्त की कथा है, जो उदारमना और परोपकारी है। गणिका वसंतसेना चारुदत्त के इन्हीं गुणों पर अनुरक्त है। नाटक अपने समय का दर्पण है, उसमें राज, समाज, लोकव्यवहार, नीति, दुष्टों के स्वभाव और व्यक्ति की नियति का भी अंकन है। एक ओर नाटक में चारुदत्त और वसंतसेना के प्रेमप्रसंग की कथा है, दूसरी ओर आर्यक की राज्यप्राप्ति की राजनीतिक कथा।  

मृच्छकटिक का रोचक कथा सूत्र बताता है कि राजा का साला शकार उज्जयिनी की प्रसिद्ध गणिका वसन्तसेना को पाना चाहता है। अपने दो साथियों के साथ एक अंधेरी रात में वह वसन्तसेना का पीछा करता है। भयभीत वसन्तसेना चारुदत्त के घर में शरण लेती है। चोरों से बचने की बात कहकर वह अपने सारे स्वर्ण-आभूषण चारुदत्त के घर में धरोहर के रूप में छोड़ देती है।

संवाहक नाम का व्यक्ति जो पहले चारुदत्त की सेवा में था, जुए की लत लगने पर बहुत सा धन हार जाता है। बचाव के लिए वह वसन्तसेना के घर शरण लेता है, वह उसे ऋणमुक्त करती है। अब संवाहक बौद्ध-भिक्षु बन जाता है।

नाटक में शर्विलक नाम का ब्राह्मण वसन्तसेना की दासी मदनिका से प्रेम करता है और उसे दासत्व से छुड़ाना चाहता है। वह चारुदत्त के घर में सेंध लगाकर वसन्तसेना द्वारा धरोहर रखे गए सोने के सारे आभूषण चुरा लेता है। चारुदत्त की पतिव्रता पत्नी अपने पति को लोकनिंदा से बचाने के लिए, चुराए गए आभूषणों के बदले में अपनी कीमती रत्नजड़ित माला देती है, चारुदत्त वह रत्नमाला देकर विदूषक मैत्रेय को वसन्तसेना के घर भेजता है।

शर्विलक चुराए हुए आभूषण लेकर मदनिका को दासत्व से मुक्त कराने के लिए वसन्तसेना के घर पहुँचता है। चोरी की बात सुनकर मदनिका बहुत दुखी होती है। वह शर्विलक को यह समझाती है कि चोरी के आभूषण वसन्तसेना को सौंप देने से न वह चोर रहेगा, न चारुदत्त के सिर पर ऋण रहेगा और वसन्तसेना के आभूषण उसे वापिस मिल जाएँगे, शर्विलक ऐसा ही करता है। लेकिन वह वसन्तसेना के सम्मुख बात बना देता है कि स्वयं चारुदत्त ने यह स्वर्ण आभूषण भेजे हैं, क्योंकि वे अपने टूटे-फूटे घर में इनकी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। 

अब विदूषक भी वसन्तसेना से मिलता है, वह कहता है कि आपके सोने के आभूषण जुए में गँवा देने के कारण उनके स्थान पर यह रत्नमाला चारु दत्त ने भेजी है, स्वीकार करें। वसन्तसेना सच्चाई जानती है और सोचती है कि चारुदत्त से मिलना उचित होगा।

वसन्तसेना चारुदत्त से मिलने जाती है, किंतु बहुत बारिश के कारण रात उसी के घर रुक जाती है। यहीं वसन्तसेना चारुदत्त के पुत्र रोहसेन को यह जिद करते देखती है कि वह मिट्टी की गाड़ी से नहीं स्वर्ण-शकटिका से खेलना चाहता है। वसन्तसेना सारे आभूषण मिट्टी की गाड़ी में रखकर कहती है कि इससे सोने की गाड़ी बना लेना। वसन्तसेना चारुदत्त से भेंट करने उपवन की ओर निकलती है, पर भूल से उसी स्थान पर खड़ी शकार की गाड़ी में बैठ जाती है। उधर कारागार तोड़कर, रक्षक को मारकर निकल भागा ग्वाले का बेटा आर्यक, बचाव के लिए चारुदत्त के वाहन में चढ़ जाता है और फिर चारुदत्त से शरण माँगता है। चारुदत्त उसे सुरक्षित अपनी गाड़ी में बाहर निकलवा देता है। भूल से शकार की गाड़ी में बैठी वसन्तसेना एक बार फिर शकार के चंगुल में फंस जाती है, शकार का आग्रह न मानने पर वह वसन्तसेना का गला घोंट देता है और उसे मरा समझ कर पत्तों से ढक कर चला जाता है। जुआरी से बौद्ध भिक्षु बन चुका संवाहक मृतप्राय वसन्तसेना को इस दशा में पाकर प्रयत्नपूर्वक पुनर्जीवन देता है।

अब शकार चारुदत्त पर वसन्तसेना की हत्या का आरोप लगाता है। चारुदत्त भी स्वयं को निर्दोष साबित नहीं कर पाता। दुखी होकर चारुदत्त अपने मित्र मैत्रेय की प्रतीक्षा करता है, जो वसन्तसेना के पास उन आभूषणों को लौटाने गया था जो वसन्तसेना ने रोहसेन की मिटटी की गाड़ी के स्थान पर सोने की गाड़ी बना लेने को दे दिए थे। इसी क्षण वही आभूषण लेकर मैत्रेय आ जाता है। किंतु बातचीत करते हुए मैत्रेय से बगल में संभाले हुए वे आभूषण सबके सामने गिर पड़ते हैं और यह मान लिया जाता है कि आभूषणों के लोभ में चारुदत्त ने ही वसन्तसेना की हत्या की है। उसे मृत्युदंड का आदेश देकर वधस्थल की ओर ले जाया जाता है।

इसी समय प्राण बचाने वाले बौद्ध भिक्षु बने संवाहक के साथ आकर वसन्तसेना शकार की दुष्टता व्यक्त कर देती है और चारुदत्त झूठे आरोप से मुक्त हो जाता है। राज्य में नए राजा आर्यक का आगमन होता है, वह न केवल आरोप मुक्त चारुदत्त को राज्य देता है, बल्कि झूठा आरोप लगाने के कारण शकार को मृत्यु-दंड भी देता है। किंतु चारुदत्त के कहने पर शकार को भी क्षमा कर दिया जाता है। पतिव्रता धूता चारुदत्त के लिए मृत्यु-दंड का समाचार सुनकर अग्नि-प्रवेश को तत्पर हो उठती है, चारुदत्त उपस्थित होकर इस दुखद घटना को रोकता है। राजा आर्यक प्रसन्न होकर वसन्तसेना को 'वधू' के पद से विभूषित करता है। सुखद घटनाओं के साथ नाटक समाप्त होता है।

इस प्रकार यह 'प्रकरण' मानवीय मूल्यों के प्रति समर्पित चरित्रों की गाथा बन जाता है।  नाटक के कितने ही अंश शूद्रक के रचनाकर्म की गहनता को सूचित करते हैं। चारुदत्त चोरी से दुखी है, पत्नी के त्याग ने उसके अंतर्मन को आंदोलित किया, इसी बहाने उसके कथन से तत्कालीन समाज की सच्ची झलक मिल जाती है। पुरुष-प्रधान समाज-व्यवस्था में एक नारी का आगे बढ़कर पति के बोझ को कम करने को आना भी पुरुष के अहम को कचोट जाता है। मित्र और पत्नी का मुसीबत में साथ देना चारुदत्त के जीवन की निधि है, यथार्थ-चित्रण के साथ प्रेम की महिमा का बखान नाटककार का उद्देश्य है। 

शूद्रक छोटी-छोटी बातों से साधारण जीवन का सच रूपायित करते हैं, नाटक की विशेषता युग की सामाजिक-पारिवारिक-राजनीतिक दशा की परिचायक शैली है जो स्पष्ट, सहज और अकृत्रिम है।


'मृच्छकटिक' का अर्थ है -मिटटी की गाड़ी। नायक चारुदत्त दानी प्रवृत्ति के कारण दरिद्र हो चुका है। उसका पुत्र मिटटी की गाड़ी से खेलता है। वैभवशाली गणिका वसन्तसेना इस मिटटी की गाड़ी को अपने स्वर्णाभूषणों से भर देती है और बालक से कहती है कि इससे सोने की गाड़ी बनवा लेना। नाटक में यह घटना बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। आगे आने वाला नाटकीय उद्वेलन इसी प्रसंग की देन है। 


मृच्छकटिक की कहानी सामान्य जन की कहानी है। राजा है, पर मुख्य कथा राजा की नहीं है। मुख्य पात्र तो परिस्थितियों की मार से निर्धन बना चारुदत्त है। उसके गुणों पर मोहित होने वाली नायिका भी कोई  रानी नहीं, नगर की अपूर्व सुंदरी गणिका है। जुए में सब कुछ हारने वाला संवाहक भी सामान्यजन का प्रतिनिधि है, धूता चारुदत्त की समर्पिता पत्नी है, शर्विलक और मदनिका भी समाज के साधारण वर्ग से संबंध रखते हैं। इसी कारण मृच्छकटिक परंपरागत नाटकों से भिन्न है। वसन्तसेना गणिका होने के बावजूद पैसे का लोभ छोड़कर निर्धन चारुदत्त से प्रेम करती है। ब्राह्मण पुत्र शर्विलक प्रेम में पड़ कर चोर बनता है। संवाहक जुआरी से बौद्ध भिक्षु का चोला धारण करता है। यह पात्रगत विविधता ही नाटक की विशेषता है। नाटक मुख्य रूप से प्रेम के पवित्र रूप को सामने लाता है। चारुदत्त के प्रति वसन्तसेना का प्रेम गंभीर और एकनिष्ठ है, चारुदत्त के मन का भाव भी उदात्त है। धूता के लिए भी सर्वश्रेष्ठ आभूषण चारुदत्त है, बहुमूल्य रत्नावली नहीं।


जैसा शूद्रक के समय का समाज था, वैसा ही आज का समाज भी है। न्यायपालिका का भ्रष्टाचार, उच्च वर्ग से साँठ-गाँठ के बल पर काम निकालने की प्रवृत्ति, जुए की लत लगने पर सब कुछ हार जाना, निरीह जनों को सताना, उच्चकुल का होने पर भी चोरी जैसे कामों में लगना - ये तमाम सत्य आज के जीवन में भी विद्यमान हैं। नाटक में जो घटित हो रहा है वह कहीं भी, कभी भी हो सकता है। यह यथार्थ चित्रण अपनी जगह, किंतु नाटक का संदेश कुछ और भी है। नाटककार चोरी, झूठ, बेईमानी, धोखेबाजी, छल-कपट और अन्याय के खिलाफ सच्चाई, ईमानदारी सदाशयता का संघर्ष दिखाकर सदवृत्तियों की जीत भी दिखाता है, और सदाचारी को बचाता है। यही नाटकीय प्रासंगिकता का चरम बिंदु है। जब चारुदत्त वधस्थल पर पहुँचकर मृत्यु के मुख में जाने ही वाला था, तब एकाएक सब सँवर जाता है। नाटकीय प्रसंग में ऐसा दिखाना अच्छार्ई में विश्वास बनाए रखना है,। यही नाटक का संदेश है। इसीलिए मृच्छकटिक सामाजिक चिंताओं से जुड़ी हुई एक प्रगतिशील कृति के रूप में आज भी अपना महत्त्व बनाए हुए है। 


नाटक की प्रासंगिकता रूढ़ियों के त्याग में भी है। उदाहरण के लिए गणिका का ब्राह्मण से विवाह, निम्न वर्ग से सेनापति का चयन, मध्यवर्ग के आर्यक को राजा बनते दिखाना इसी तरह का रूढ़ी त्याग है। नाटक के नीतिपरक कथन भी प्रासंगिक हैं, जब शूद्रक कहते हैं, साहसे श्री वसति और सर्व शून्यं दरिद्रस्य तो यह, सदा-सदा का सत्य है। साहसी का साहस ही उसका वैभव है और दरिद्र के लिए इस संसार में है ही क्या? जीवन के ऐसे ही उतार-चढ़ावों की यथार्थ व्यंजना के कारण मृच्छकटिक एक लोकप्रिय नाटक रहा है। इसकी कथावस्तु तत्कालीन समाज का पूर्ण रूप से प्रतिनिधित्त्व करती है। नाटक की भाषा सुंदर संस्कृत एवं प्राकृत है।

 

शूद्रक : जीवन परिचय 

जन्म

मत वैभिन्य, विकीपीडिया के अनुसार - छठी शताब्दी 

व्यवसाय 

कवि, राजा, नाटककार 

रचना समय

मत वैभिन्य 

साहित्यिक रचनाएँ

  • मृच्छकटिक

  • वासवदत्ता

  • पद्मप्रभृतका

 

संदर्भ

  • संस्कृत साहित्य का इतिहास - आचार्य बलदेव उपाध्याय।
  • मृच्छकटिक, पीडीफ संकलनकर्ता डॉ० रमाशंकर त्रिपाठी, काशी हिंदू विश्वविद्यालय।  

लेखक परिचय

डॉ० विजया सती
पूर्व एसोसिएट प्रोफ़ेसर, हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय 
पूर्व विजिटिंग प्रोफ़ेसर, ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त हंगरी 
पूर्व प्रोफ़ेसर, हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़, सिओल दक्षिण कोरिया  
राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति और उनका प्रकाशन।
संप्रति - स्वांतः सुखाय लिखना-पढ़ना।

2 comments:

  1. विजयाजी, मज़ा आ गया, आपने 'मृच्छकटिक' के बारे में इतने विस्तार से लिखा है कि लगता है पूरा नाटक पढ़ लिया। शूद्रक पर रोचक, प्रवाहमय, गंभीर और हृदयग्राही आलेख पटल पर लाने के लिए आपको हार्दिक बधाई और धन्यवाद।

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  2. विजया जी नमस्ते। आपने संस्कृत के सुप्रसिद्ध साहित्यकार शूद्रक जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा। आपके लेख के माध्यम से उनके नाटक सृजन को विस्तार से जानने का अवसर मिला। इस रोचक लेख को पढ़ने में आनन्द आया। आपको इस रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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