Friday, November 5, 2021

आमजनों के प्रखर प्रणेता: जनकवि बाबा नागार्जुन


  

आज गहन है भूख का, धुँधला है आकाश।
कल अपनी सरकार का होगा पर्दाफ़ाश।
अथवा
पेट-पेट में आग लगी है, घर-घर में है फ़ाक़ा
यह भी भारी चमत्कार है, काँग्रेसी महिमा का

अपने बेबाक अंदाज़ और स्वच्छन्द विचारों के लिए नागार्जुन आज भी कहीं सराहे जाते हैं, तो कहीं आलोचना के पात्र बनते हैं। मृत्यु के तीस वर्षों बाद भी जिनकी चर्चा से विद्वानों में बहस छिड़ जाए, ऐसे तेजस्वी कवि व साहित्कार के विषय में जानने की उत्सुकता सहज ही उत्पन्न हो जाती है। प्रस्तुत हैं जनकवि “बाबा नागार्जुन” के जीवन से जुड़ी कुछ रोचक एवं महत्वपूर्ण बातें:

जीवन गाथा:

बाबा नागार्जुन का जन्म १९११ की ज्येष्ठ पूर्णिमा को उनके ननिहाल सतलखा (मधुबनी, बिहार) में हुआ था। उनका वास्तविक नाम वैद्यनाथ मिश्र था। उनका बचपन बहुत कठिन और विषम परिस्थियों में बीता। मात्र छह वर्ष की आयु में उनकी माँ का देहांत हो गया था। पारिवारिक उथल-पुथल एवं आर्थिक तंगी के कारण पिता से भी अपेक्षित स्नेह और मार्गदर्शन नहीं मिल सका। पिता गोकुल मिश्र, जो अधिकतर ख़ानाबदोश रहा करते थे, ने कभी वैद्यनाथ की विधिवत शिक्षा पर ध्यान नहीं दिया। यही कारण था कि उनकी प्रारम्भिक शिक्षा उनके पैतृक गाँव तरौनी (दरभंगा, बिहार) और उसके आस-पास रहते हुए ही हुई। पिता के साथ वैद्यनाथ भी गाँव-गाँव घूमा करते थे। वात्सल्य के अभाव और पिता की अनुशासनहीनता के फलस्वरूप वैद्यनाथ स्वभाव से विद्रोही और तीखे तेवर वाले युवक के रूप में उभरे। यायावरी भी पिता से मिली सौग़ात थी। बीस वर्ष की आयु में उनका विवाह १२ वर्षीया अपराजिता देवी से हुआ था। किन्तु बचपन में डले यायावरी के बीज ने गृहस्थ जीवन में आने के बाद भी पनपना कायम रखा और पत्नी को उनके पिता के घर में ही छोड़कर वैद्यनाथ विधिवत शिक्षा पाने की लालसा में वाराणसी आ गए। यहाँ उन्होंने संस्कृत में विधिवत शिक्षा ग्रहण की। यहीं रहते हुए वे आर्य समाज के सिद्धांतों से प्रभावित हुए। फिर बौद्ध धर्म के प्रति उनमें विशेष आकर्षण जगा। अपने गुरु भाई राहुल सांकृत्यायन के सान्निध्य में उन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाने का निर्णय लिया। इसी क्रम में नवम्बर सन १९३६ में कलकत्ता से दक्षिण भारत होते हुए वे श्रीलंका गए जहाँ केलान्या के बौद्ध मठ में एक भिक्षु के रूप में दीक्षा लेकर बौद्ध धर्म का पालन करने लगे। यहीं वैद्यनाथ मिश्र ने स्वयं को “नागार्जुन” नाम दिया था और आगे चलकर यही नाम उनकी पहचान बन गया। ज्ञातव्य है कि इससे पहले वैद्यनाथ मिश्र ने “वैदेह” तथा “यात्री” छद्मनामों से अपनी कई रचनाएँ प्रकाशित की थीं। बौद्ध दर्शन के अध्ययन के दौरान ही उनमें विश्व राजनीति की समझ विकसित हुई। वे मार्क्स, लेनिन और स्टालिन के विचारों से बेहद प्रभावित हुए और यहीं से उनकी राजनैतिक विचारधारा को दिशा मिली।

भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रति अपने उत्तरदायित्व को समझते हुए वे १९३८ के मध्य में लंका से वापस लौट आये। आते ही उन्होंने कृषक नेता सहजानंद सरस्वती के ‘राजनीति के ग्रीष्मकालीन शिविर’ में भाग लेकर तत्कालीन समाजवादी, साम्यवादी, व कांग्रेसी नेताओं से विभिन्न राजनैतिक आदर्शों के पाठ सीखे। फरवरी १९३९ में अम्बारी किसान आन्दोलन में अपनी सक्रिय भूमिका के लिए उन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। यह पहली बार नहीं था। अपनी क़लम से एक तरफ़ वे जनचेतना, जनजागरण और स्वतंत्रता सैनानियों को श्रद्दांजलि देते थे तो दूसरी तरफ़ इन आन्दोलनों में सक्रिय भूमिका निभाकर अँग्रेज़ों की लाठियों और मार का शिकार भी होते रहे। मगर न तो उनकी क़लम रुकी, न हौसला ही मिटा। १९७४ के अप्रैल में जे पी आंदोलन में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था "सत्ता प्रतिष्ठान की दुर्नीतियों के विरोध में एक जनयुद्ध चल रहा है, जिसमें मेरी हिस्सेदारी सिर्फ़ वाणी की ही नहीं, कर्म की भी है। इसीलिए मैं आज अनशन पर हूँ, कल जेल भी जा सकता हूँ।" और सचमुच इस आंदोलन के सिलसिले में आपात् स्थिति से पूर्व ही उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और इस बार एक लम्बे समय तक उन्हें जेल में रहना पड़ा।

१९४३ के आसपास एक बार फिर नागार्जुन अपनी ख़ानाबदोश भूमिका में आये और इस बार तिब्बत की ओर रुख़ किया। अब तक बौद्ध विचारधारा के प्रति उनका मन उदासीन हो चुका था और जन-आन्दोलनों से भी मन भर चुका था किन्तु उन्होंने फिर कभी हिन्दुत्व नहीं अपनाया, और न ही मार्क्सवादी विचारधारा का परित्याग किया। अपने घुमंतू स्वभाव के कारण वे कभी गृहस्थ जीवन का सुख नहीं उठा सके। हालाँकि उनकी छः संताने हुईं जिनका लालन-पालन उनकी पत्नी अपराजिता ने अकेले ही किया। अपने घर तरौनी का उन्होंने अधिकतर एक विश्रामगृह के रूप में प्रयोग किया। अपनी लेखनी से जनमानस पर अमिट छाप छोड़ने वाले नागार्जुन अपनी संतानों के लिए धन या भूमि की कोई विशेष विरासत नहीं संजो सके।

नागार्जुन का रचना संसार

नागार्जुन ने मैथिली और हिन्दी, दोनों भाषाओं में अप्रतिम रचनाएँ की हैं; किन्तु यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि वाराणसी आने से पहले वैद्यनाथ मिश्र अपनी मातृभाषा मैथिली के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में सहज नहीं थे। वाराणसी प्रवास के दौरान उन्होंने संस्कृत के साथ हिन्दी और बँगला दोनों भाषाओं को साध लिया । उनकी सभी प्रारम्भिक रचनाएँ मैथिली में थीं, जो “यात्री” छद्मनाम से छपती थीं। उनकी पहली प्रकाशित रचना एक मैथिली कविता थी, जो १९२९ में लहेरियासराय, दरभंगा से प्रकाशित 'मिथिला' नामक पत्रिका में छपी थी। उनकी पहली हिन्दी रचना 'राम के प्रति' नामक कविता थी, जो १९३४ में लाहौर से निकलने वाले साप्ताहिक 'विश्वबन्धु' में छपी थी। वाराणसी में रहते हुए उन्होंने 'वैदेह' उपनाम से कई कविताएँ लिखी थीं। १९४१ के बाद से अपनी समस्त हिन्दी रचनाएँ “नागार्जुन” के नाम से ही लिखीं ।

युगधारा, आख़िर ऐसा क्या कह दिया मैंने, भूल जाओ पुराने सपने, अपने खेत में समेत १४ हिन्दी कविता संग्रहों, रतिनाथ की चाची, बलचनमा, कुम्भीपाक, गरीबदास समेत ११ हिन्दी उपन्यासों, चित्रा (कविता-संग्रह), पत्रहीन नग्न गाछ, पका है यह कटहल, पारो (उपन्यास), नवतुरिया आदि मैथिली कृतियों, मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा (बँगला) समेत अनेक अविस्मरणीय रचनाओं के रचयिता नागार्जुन को सबसे अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि कहा जाता है। उनकी कविताओं और कहानियों में अपने समय और परिवेश की समस्याओं का प्रत्यक्ष विवरण, चिन्ताओं एवं संघर्षों का वास्तविक चित्रण, तथा लोकसंस्कृति एवं लोकहृदय की गहरी पहचान स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर है। स्वयं बाबा के शब्दों में-

जनता मुझसे पूछ रही है, क्या बतलाऊँ|
जनकवि हूँ साफ़ कहूँगा, क्यों हकलाऊँ|

लगभग अड़सठ वर्षों (सन् १९२९ से १९९७) की लेखनी में बाबा नागार्जुन ने कई कालजयी रचनाएँ की हैं। उनका रचना संसार कविता, उपन्यास, कहानी, संस्मरण, यात्रा-वृत्तांत, निबन्ध, बाल-साहित्य आदि विधाओं से लैस है। उन्होंने विस्तृत मेधा का परिचय दिया है। मौलिक रचना के अतिरिक्त उन्होंने संस्कृत, मैथिली और बँगला से हिन्दी में अनुवाद कार्य भी किया है। अपने प्रिय कवि कालिदास के ‘मेघदूत’ का मुक्तछंद में अनुवाद, जयदेव के 'गीत गोविंद' का भावानुवाद, बँगला उपन्यासकार शरतचंद्र के कई उपन्यासों और कथाओं का हिन्दी अनुवाद तथा कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के उपन्यास 'पृथ्वीवल्लभ' का गुजराती से हिन्दी में अनुवाद किया। वस्तुतः १९४४ और १९५४ के बीच नागार्जुन ने विशेषतौर पर अनुवाद का काम किया। १९६५ में उन्होंने विद्यापति के सौ गीतों का भावानुवाद और फिर उनके अन्य गीतों का भी अनुवाद किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने विद्यापति की 'पुरुष-परीक्षा' (संस्कृत) की तेरह कहानियों का भी भावानुवाद किया जो 'विद्यापति की कहानियाँ' नाम से १९६४ में प्रकाशित हुआ।

समकालीन प्रमुख हिन्दी साहित्यकार उदय प्रकाश के अनुसार "यह ज़ोर देकर कहने की ज़रूरत है कि बाबा नागार्जुन बीसवीं सदी की हिन्दी कविता के सिर्फ़ 'भदेस' और मात्र विद्रोही मिजाज़ के कवि ही नहीं, वे हिन्दी जाति के अद्वितीय मौलिक बौद्धिक कवि थे”। उनके काव्य विस्तार को देखकर कहा जा सकता है कि भाषा पर उनका गज़ब का अधिकार था: देसी बोली के ठेठ शब्दों से लेकर संस्कृतनिष्ठ शास्त्रीय पदावली तक उनकी भाषा के अनेकों स्तर हैं।

'छोटे-छोटे मोती जैसे, उसके शीतल तुहिन कणों को,
मानसरोवर के उन स्वर्णिम, कमलों पर गिरते देखा है,
बादलों को घिरते देखा है'
अथवा
'जन-गण-मन अधिनायक जय हो, प्रजा विचित्र तुम्हारी है,
भूख-भूख चिल्लाने वाली अशुभ अमंगलकारी है'

उनकी कविताओं में कबीर से लेकर धूमिल तक की पूरी हिन्दी काव्य-परंपरा एक साथ जीवंत है।


नागार्जुन: जीवन परिचय

पूरा नाम

वैद्यनाथ मिश्र

छद्म नाम

वैदेह, यात्री, नागार्जुन

जन्म

३० जून १९११

मृत्यु

५ नवम्बर १९९८

पिता

गोकुल मिश्र

माता 

उमा देवी 

पत्नी

अपराजिता देवी

भाषा ज्ञान

मैथिली, संस्कृत, पाली, हिन्दी, बँगला 

कविता संग्रह

युगधारा, सतरंगे पंखों वाली, प्यासी पथराई आँखें, तालाब की मछलियाँ, तुमने कहा था, खिचड़ी विप्लव देखा हमने, हज़ार-हज़ार बाँहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, रत्नगर्भ, ऐसे भी हम क्या! ऐसे भी तुम क्या!!, आख़िर ऐसा क्या कह दिया मैंने, इस गुब्बारे की छाया में, भूल जाओ पुराने सपने, अपने खेत में

उपन्यास

रतिनाथ की चाची, बलचनमा, नयी पौध, बाबा बटेसरनाथ, वरुण के बेटे, दुखमोचन, कुंभीपाक, हीरक जयन्ती, उग्रतारा, जमनिया का बाबा, गरीबदास

बाल साहित्य

कथा मंजरी भाग-१, कथा मंजरी भाग-२, मर्यादा पुरुषोत्तम राम, विद्यापति की कहानियाँ 

मैथिली

चित्रा (कविता-संग्रह), पत्रहीन नग्न गाछ, पका है यह कटहल, पारो (उपन्यास), नवतुरिया

बंगला 

मैं मिलिट्री का बूढ़ा घोड़ा 

पुरस्कार

साहित्य अकादमी पुरस्कार १९६९, भारत भारती सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, राजेन्द्र शिखर सम्मान १९९४, साहित्य अकादमी की सर्वोच्च फ़ेलोशिप से सम्मानित, राहुल सांकृत्यायन सम्मान



सन्दर्भ:
 
 लेखक परिचय
साहित्य के प्रति आकर्षण और काव्य से ख़ासा अनुराग रखने वाली दीपा लाभ लगभग १२ वर्षों से अध्यापन कार्य से जुड़ी हैं और सम्प्रति बियाण्ड-ब्रैकेट्स कम्युनिकेशन्स के माध्यम से हिन्दी व अँग्रेज़ी भाषा में क्रियात्मकता से जुड़े कुछ लोकप्रिय पाठ्यक्रम चला रही हैं|

ईमेल: depalabh@gmail.com; WhatsApp: +91 8095809095

Thursday, November 4, 2021

भले मानुष भाषावैज्ञानिक डॉ॰भोलानाथ तिवारी

भाषाचिंतक डॉ० भोलानाथ तिवारी (४ नवम्बर १९२३ से २५ अक्टूबर १९८९) हिन्दी के भाषावैज्ञानिक, कोशकार एवं मनीषी थे। हिन्दी भाषा विज्ञान को स्थापित कराने, हिंदी के शब्दकोशीय और भाषा-वैज्ञानिक आयाम को समृद्ध करने तथा पाठ्यक्रम में विद्यार्थियों तक पहुंचाने का सर्वाधिक श्रेय डॉ॰ तिवारी जी को मिलता है। 

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संक्षिप्त परिचय

डॉ० भोलानाथ तिवारी का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर के आरीपुर नामक एक गाँव में हुआ था। “सहज सुभाय छुआ छल नाहीं”  को चरितार्थ करने वाले डॉ॰ भोलानाथ जी का जीवन बचपन से ही संघर्षों के बीच रहा। आप निर्मल मन से भाषानुरागी रहे और सजग चेतना के साथ चले। विपरीत परिस्थितियों एवं विकट गरीबी में पले। स्वाधीनता-संघर्ष में सक्रियता से सहभागी बने। वर्मा बार्डर पर सेना सेवा करते हुए अचेतावस्था से निकलकर पुनर्जन्म मिला। उनका जीवन-संघर्ष कुलागिरी से आरंभ होकर  टाइपिस्ट होते हुए अनुवर्ती अध्ययन के साथ अंततः प्रतिष्ठित प्रोफेसर बनने तक की चमत्कारिक और प्रेरक यात्रा है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से संस्कृत और हिन्दी में एम॰ ए॰ करने के बाद अध्यापन किए और डी फिल तथा  डी॰ लिट की उपाधि से विभूषित किए गए। आप दिल्ली विश्वविद्यालय में रीडर बनकर आए और प्रतिष्ठित प्रोफेसर पद सुशोभित किए। कालांतर में विदेश में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे तथा भारत सरकार में हिन्दी सलाहकार भी प्रतिनियुक्त हुए ।  डॉ॰ तिवारी ने अपने अंतरज्ञान और कर्म में अनन्य आस्था के बल पर सात्विक जीवन जिया और नर को नरोत्तम बनाते हुए श्रेष्ठ गुरुवर्य रहे। 

भाषा साधना

डॉ भोलानाथ तिवारी ने भाषा और भाषा विज्ञान के विविध पक्षों पर निरंतर चिंतन किया। भाषा शिक्षण, भाषा विज्ञान, शैली विज्ञान, अनुवाद विज्ञान और कोश विज्ञान आदि विषयों को साथ लेकर चले। आपने भाषा विज्ञान की आधुनिक प्रवृति का प्रवर्तन किया। आपके द्वारा प्रदत्त परिभाषाएँ अक्सर उद्घृत की जाती हैं। आप जहाँ पहुँच जाते वहाँ “तमसोमां ज्योतिर्मय” जीवंत हो जाता है। आप विद्यार्थियों को भी “जी” कहकर संबोधित करते। प्रोफेसर तिवारी जी कर्मठ, जिज्ञासु, विनम्र, अनुशासनप्रिय और जागरूक भाषा अध्येता थे। आपकी दीर्घकालिक जय यात्रा जीवंत है। 

कृतियाँ

डॉ॰ भोलानाथ तिवारी जी के लगभग अट्ठासी ग्रन्थ प्रकाशित हुए। भाषा-विज्ञान, हिंदी भाषा की संरचना, अनुवाद के सिद्धांत और प्रयोग, शैली-विज्ञान, कोश-विज्ञान, कोश रचना, और साहित्य-समालोचन जैसे ज्ञान-गंभीर और श्रमसाध्य विषयों पर एक से बढ़कर एक  ग्रंथ-रत्नों का सृजन कर उन्होंने कृतित्व का कीर्तिमान स्थापित किया।उनके द्वारा रचित कुछ प्रमुख ग्रन्थ इस प्रकार हैं- 

भाषाविज्ञान, हिन्दी भाषा की संरचना, अनुवाद के सिद्धान्त और प्रयोग, कोश-रचना, साहित्य समालोचन , संपूर्ण अंग्रेज़ी-हिन्दी शब्दकोश, वृहत् हिन्दी लोकोक्ति कोश, अनुवाद कला, अनुवाद-विज्ञान, बैंकों में अनुवाद की समस्याएँ, कार्यालयी अनुवाद की समस्याएँ, अनुवाद की व्यावहारिक समस्याएँ, काव्यानुवाद की समस्याएँ, पारिभाषिक शब्दावली, पत्रकारिता में अनुवाद की समस्याएँ, वैज्ञानिक साहित्य के अनुवाद की समस्याएँ, हिन्दी वर्तनी की समस्याएँ, हिंदी ध्वनियाँ और उनका उच्चारण, मानक हिन्दी का स्वरूप, व्यावहारिक शैली विज्ञान, शैली विज्ञान, भाषा विज्ञान प्रवेश, भाषा विज्ञान प्रवेश एवं हिंदी भाषा, कोश विज्ञान, व्यावसायिक हिन्दी, अमीर खुसरो और उनका हिन्दी साहित्य आदि । इसके अलावा अनेक  वृहत अङ्ग्रेज़ी हिन्दी कोश प्रकाशित हैं। 

डॉ॰भोलानाथ तिवारी जी की दृष्टि पुस्तकों में स्पष्ट दिखती है । पुस्तकें पढ़ने पर अभी भी ऐसा लगता है जैसे कक्षा में पढ़ा रहे हों। इनमें अद्भुत आत्मविश्वास था जिसके कारण निम्नतम से उच्चतम शिखर पर पहुंचे। दिल्ली के मॉडल टाउन एरिया में रहते थे तथा काली फिएट कार खुद चलाते थे। आपात स्थिति  में विद्यार्थियों को गंतव्य तक सहज भाव से पहुंचा देते थे।  पुत्र –पुत्री के जनक थे। “कबिरा आप ठगाइए, और न ठगिए कोय” का उपदेश देते थे। उनकी भाषा साधना शब्दातीत है।

निधन -  वर्ष 1989 में 25 अक्तूबर को आपका देहावसान हो गया । आपकी यशः एवं बेरक्त काया कृतित्व से अमर रहेगी।  

 

C:\Users\DELL\Downloads\WhatsApp Image 2021-08-30 at 19.49.20.jpeg  लेखक परिचय                                             

 डॉ जयशंकर यादव, सेवानिवृत्त सहायक निदेशक, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय

 भारत सरकार एवं दिल्ली विश्वविद्यालय में गुरुवर्य डॉ भोलानाथ तिवारी जी का 

 नवें दशक में एक  सौभाग्यशाली विद्यार्थी। 


 संप्रति बेलगावी, कर्नाटक में निवास। drjaishankar50@gmail.com 

 

Wednesday, November 3, 2021

समन्वय के विराट लोकनायक - तुलसीदास



भक्त शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी वह महान विभूति हैं जिन्होंने हिंदी जगत को मानस जैसा कालजयी और अद्वितीय ग्रंथ प्रदान किया है। वाल्मीकि द्वारा संस्कृत में लिखे आदिकाव्य रामायण को जन-जन तक पहुँचाने और उसे वैश्विक लोकप्रियता के चरम तक ले जाने का श्रेय गोस्वामी तुलसीदास को ही जाता है। लगभग एक दर्जन ग्रंथों के रचयिता गोस्वामी तुलसीदास ने भारतीय संस्कृति में विद्यमान उदात्त और अनुकरणीय तत्वों को अपनी समावेशी प्रकृति के माध्यम से साहित्य में इस तरह से प्रस्तुत किया है कि उनका समूचा काव्य साहित्यिक मानदंडों की उत्कृष्टता से युक्त आदर्श जीवन निर्माण का दुर्लभ मेनिफेस्टो बन गया है ।अयोध्या सिंह उपाध्याय ’हरिऔध’ ने तो तुलसी दास के कविकर्म से अभिभूत होकर यहाँ तक लिख दिया है कि– “कविता करके तुलसी न लसे, कविता लसी पा तुलसी की कला|”

तुलसीदास जी का जन्म संवत 1554 को उत्तर प्रदेश के राजापुर गाँव में पंडित आत्माराम दुबे के घर हुआ था| तुलसीदास जी का बाल्यकाल बहुत कष्टों में बीता था। किम्वदंती है कि ये बारह महीने तक माता के गर्भ में रहे जिस कारण ये सामान्य बालकों से अलग दीखते थे। जन्म के समय इनके मुख में दाँत थे और रोने के स्थान पर इन्होने राम का नाम लिया, जिस कारण इनका नाम रामबोला पड़ गया। अभुक्त मूल नक्षत्र में जन्म होने के कारण बचपन में ही अनाथ हो जाने के कारण इन्हें माता-पिता के प्रेम से वंचित रहना पड़ा। २९ वर्ष की आयु में भारद्वाज गोत्र की अति सुन्दर कन्या रत्नावली के साथ उनका विवाह हुआ। गौना नहीं होने के कारण रत्नावली अपने मायके में रहती थीं | एक दिन उसके प्रेम में व्याकुल होकर ये अँधेरी रात में उफनती यमुना नदी पार करके रत्नावली के पास जा पहुँचे। रत्नावली इतनी रात गये तुलसी को देखकर आश्चर्यचकित हो गयी और लोक-लाज के भय से उन्हें वापस जाने को कहा। जब तुलसीदास ने उनसे अपने साथ चलने की जिद की तो खीझकर रत्नावली ने इस दोहे में उन्हें शिक्षा दी

अस्थि चर्ममय देह मम , तामें जैसी प्रीत !
ऐसी जो श्रीराम में होत, तो न होति भवभीत |

रत्नावली के उलाहना भरे इस दोहे का तुलसी पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि उन्हें संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को प्रभु श्रीराम की भक्ति में लीन कर दिया|

तुलसी का आविर्भाव एक ऐसे संक्रांति काल में हुआ था जब मूल्यों और परम्पराओं का ह्रास हो रहा था। नागपंथी योगी निराकार ब्रह्म की महत्ता सिद्ध कर रहे थे वहीं विभिन्न दर्शन और मत-मतांतर अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रदर्शन में लगे हुए थे। तुलसीदास जी समाज के मनोविज्ञान को अच्छी तरह समझते थे, अतएव उन्होंने तत्कालीन समाज के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त सामजिक, धार्मिक, भाषिक औए सांस्कृतिक विरोधाभासों में सामंजस्य और सहअस्तित्व की भावना को उत्पन्न किया और एक ऐसे साहित्य की रचना की जो स्वान्तः सुखाय होने के बावजूद सर्वहिताय और लोकमंगलकारी था। उनके साहित्य की इसी मूलभूत भावना के कारण ही आचार्य शुक्ल उसे ’विरुद्धों का सांमजस्य’ कहते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी तुलसी के सम्पूर्ण काव्य को समन्वय की विराट चेष्टा मानते हुए कहते हैं कि - बुद्ध के पश्चात् कदाचित तुलसीदास एकमात्र लोकनायक थे जिन्होंने विभिन्न क्षेत्रों में नेतृत्व करके समाज, धर्म, संस्कृति को दिशा-बोध कराया। लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके, क्योंकि भारतीय जनता में नाना प्रकार की परस्पर विरोधिनी संस्कृतियाँ, साधनाएँ, जातियाँ, आचार, निष्ठा और विचार पध्दतियाँ प्रचलित हैं। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय, भोग और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृति का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, पांडित्य और अपांडित्य का समन्वय है। रामचरितमानस शुरू से अंत तक समन्वय-काव्य है।"

डॉ. राम विलास शर्मा ने तो “तुलसी साहित्य के सामन्त विरोधी मूल्य” तथा “भक्ति आंदोलन और तुलसीदास” शीर्षक निबंधों में कहा है कि- तुलसी साहित्य एक ओर आत्मनिवेदन और विनय का साहित्य है तो दूसरी ओर वह प्रतिरोध का साहित्य भी है।

तुलसीदास ने जनभाषा अवधी में लिखित अपने मानस में भक्त और भगवान के अटूट संबंध के माध्यम से भक्ति की वह पावन धारा प्रवाहित की जिसमें अवगाहन करके भक्त स्वयं को निर्मल बना लेता है। भक्ति की सरलता और समर्पण का ऐसा उदाहरण अन्यत्र दुर्लभ है, तुलसी काव्य-नायक राम हैं - यह राम निर्गुण-निराकार भी हैं और सगुण-साकार भी । वे ‘ब्रह्म’ भी हैं और दशरथ के पुत्र भी। वे मर्यादा पुरुषोत्तम, आदर्श राजा, आज्ञाकारी पुत्र, एक पत्नी व्रती और धीर-गंभीर भी हैं। उनके चरित्र में शील, शक्ति और सौन्दर्य का अनुपम सामंजस्य देखने को मिलता है। तुलसी के राम धर्म, नीति और न्याय पथ पर अविचल रहते हुए धर्म की स्थापना के लिए सतत संघर्षरत रहते हैं, जिस कारण उनके अनुकरणीय और अनुपम चरित्र पर समस्त विश्व सदियों से न्यौछावर होता आया है ।

आचार्य शुक्ल का कहना है- ’’मानव प्रकृति के जितने अधिक रूपों के साथ गोस्वामी जी के हृदय का रागात्मक सामंजस्य हम देखते है, उतना अधिक हिन्दी भाषा के और किसी कवि के हृदय का नहीं। यह एक कवि ही हिंदी को प्रौढ़ साहित्यिक भाषा सिद्ध करने के लिए काफी है।’’ यह सत्य भी है कि मानव चरित्रों की जितनी विविधता मानस में मिलती है वह किसी अन्य ग्रन्थ में दुर्लभ है। यही कारण है कि उनके काव्य में सभी रसों की सुन्दर उद्भावना देखने को मिलती है। मानस में प्रेम के श्रृंगारिक रूप का मर्यादित चित्रण जैसा तुलसी ने किया है वह अत्यंत ख़ूबसूरत है। विवाह के अवसर पर सीता जी द्वारा अंगूठी के नग में श्रीराम के अप्रतिम सौन्दर्य को निहारना कवि की अनूठी कल्पना है वहीं सीता के वियोग में श्रीराम द्वारा वन के चर-अचर प्राणियों से उनके बारे में पूछना विप्रलम्भ श्रृंगार का परिपाक कहा जा सकता है। लक्ष्मण के शक्ति लगने पर मर्यादा पुरुषोत्तम राम के मुख से निकले ये वचन किसी को भी विचलित करने में सक्षम है-

मेरो सब पुरुषारथ थाको
विपति बंटावन बंधू – बाहु बिनु करौ भरोसो काको |

भाषा की दृष्टि से भी तुलसीदास का काव्य अनुपम कहा जा सकता है। उनका रामचरितमानस अवधी भाषा में लिखा है जबकि विनय-पत्रिका और कवितावली आदि रचनाएँ ब्रजभाषा में लिखी गई हैं। उन्होंने अपने युग के साथ-साथ वीरगाथा काल में प्रचलित अनेक छन्दों का अपने काव्य में प्रयोग किया है। दोहा, सोरठा, चौपाई, गीतिका, कवित्त, सवैया, छप्पय, बरवै आदि छन्द तुलसी की काव्य-कला में उत्कर्ष तक पहुँचे हैं ।

तुलसीदास जी का साहित्य देश, काल, धर्म, जाति की परिधियों को अतिक्रमित करके सार्वदेशिक और सार्वकालिक हो गया है। यह वह साहित्य है जिसकी प्रासंगिकता, उपयोगिता और लोकप्रियता हर युग में चिरस्थाई रहेगी। महात्मा गाँधी ने तुलसी की रामराज्य की अवधारणा को समस्त विश्व सभ्यता के लिए आवश्यक बताया है, ऐसा रामराज्य जहाँ सभी मनुष्य सुखी हों, जहाँ कोई छोटा या बड़ा न हो –

दैहिक दैविक भौतिक तापा, रामराज नहीं काहुहिं ब्यापा।।
सब नर करहिं परस्पर प्रीती, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीती।।

यह गोस्वामी तुलसीदास के व्यक्तित्व और उनके राममय साहित्य का चमत्कार ही कहा जाएगा कि न केवल भारत बल्कि समस्त विश्व उनका मुरीद बना हुआ है। विश्व के विभिन्न देशों की भाषाओं में जहाँ मानस का अनुवाद किया जा रहा है, वहीं विश्व के विभिन्न विश्वविद्यालयों में उस पर शोधकार्य भी किए जा रहे हैं। मॉरिशस में तो हिंदी प्रचारिणी संस्था आदि विभिन्न हिंदी संस्थाओं द्वारा तुलसी जयंती पर हिंदी दिवस मनाने की परंपरा रही है। ऐसा करने के पीछे मुख्य भावना यह है कि मॉरिशसवासी इस द्वीप में हिंदी को जन-जन तक पहुंचाने का श्रेय तुलसी और उनके मानस को देते हैं। रूस के प्रसिद्ध हिंदी विद्वान् वारान्निकोव ने न केवल मानस का रूसी में भावानुवाद किया बल्कि मरने के बाद अपनी कब्र पर मानस की चौपाई को उत्कीर्ण करने की इच्छा भी व्यक्त की। उनकी अंतिम इच्छा के फलस्वरूप ही आज भी उनके गाँव स्थित उनकी कब्र पर उत्कीर्ण तुलसी की यह चौपाई मानस की लोकप्रियता का निनाद करती देखी जा सकती है –

भलो भलाइहि पै लहई, लहई निचाइहि नीचु,
सुधा सराहिअ अमरताँ गरल सराहिए मीचु |



गोस्वामी तुलसीदास: जीवन परिचय

जन्म

संवत् १५५४ , राजापुर गांव (वर्तमान बांदा जिला) उत्तर प्रदेश

निधन

संवत १६८० ,असीघाट

गुरु 

बाबा नरहरिदास

माता-पिता  

आत्माराम दुबे और हुलसी

कर्मभूमि 

चित्रकूट, काशी और अयोध्या

साहित्यिक रचनाएँ 

श्रीरामचरित मानस महाकाव्य, गीतावली दोहावली, कवितावली, रामाज्ञाप्रश्नावली, विनयपत्रिका, रामलला-नहछू, पार्वतीमंगल, जानकीमंगल, बरवै रामायण,कृष्ण गीतावली और वैराग्य संदीपनी

संदर्भ सूची:
  • डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी – हिंदी साहित्य की भूमिका , पृष्ठ -१०१
  • आचार्य रामचन्द्र शुक्ल : हिंदी साहित्य का इतिहास , पृष्ठ -११८ संस्करण: २००७
  • रामविलास शर्मा : परंपरा का मूल्यांकन पृष्ठ- ९४ राजकमल प्रकाशन नई दिल्ली- ११०००२
                            
लेखक परिचय:

लेखन: 
डॉ नूतन पाण्डेय,भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय में सहायक निदेशक पद पर पदस्थ हैं और 2015 से 2019 तक भारतीय उच्चायोग, मॉरीशस में राजनयिक के रूप में पदस्थ रहीं। भाषा विज्ञान, प्रवासी साहित्य में विशेष रूचि है। आपकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हैं।


शोध:
डॉ. शंभू बाबय प्रभु देसाई: एम. ए., साहित्य रत्नाकर, पी.एच.डी. हिंदी, गोवा विश्वविद्यालय से। कार्यकाल में कुल 37 राष्ट्रीय पुरस्कार (गृहमंत्रालय, राजभाषा विभाग, भारत सरकारसे) प्राप्त।





Tuesday, November 2, 2021

कबीर - कल आज और कल के कवि





कुछ लोगों की मुलाक़ात का असर थोड़े समय रहता है और वक़्त की राह पर एक धूमिल सी याद बन कर रह जाता है| वहीं कुछ व्यक्तित्व जीवन में इतना प्रभावित करते हैं कि गुज़रते समय के साथ उनका प्रभाव प्रगाढ़ होता जाता है और वे जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन जाते हैं। कबीर के साथ मेरा सम्बन्ध कुछ ऐसा ही रहा है। उनसे मेरा पहला परिचय सात-आठ वर्ष की आयु में तब हुआ जब पहली बार मेरा ध्यान अज़ान की तरफ गया। जब मैंने यह जानना चाहा कि क्या सुबह होने वाले इस शोर से लोगों को परेशानी नहीं होती, क्या अज़ान करने वाले इसके बारे में नहीं सोचते तो किसी ने जवाब में यह दोहा पढ़ दिया-

कांकर पाथर जोरि कै मस्जिद लिओ बनाय।
ता चढ़ी मुल्ला बांग दे क्या बहरा हुआ खुदाय।।


और साथ ही निम्नलिखित दोहा पढ़कर यह भी बताया कि कबीर ने हर धर्म से जुड़े आडम्बरों पर प्रहार किया है-

पाहन पूजै हरी मिले, तो मैं पूजूँ पहार,
तातै यह चाकी भली, पीस खाए संसार।

बाद में भी उनके कई दोहे पढ़े और सभी एक से बढ़कर एक लगे-

गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागुं पाय,
बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो बताय।

समय के साथ उनके हर शब्द, दोहे, और साखी बहुत सच्चे और अपने-से लगने लगे। यह समझ में आने लगा कि किसी भी बुराई को हटाने के लिए सबसे पहले खुद को टटोलना और माँझना होगा -

बुरा जो देखन मैं चल्या, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजै आपनो, मुझसे बुरा न कोय।।

आपसी बैर और वैमनस्य के भाव अक्सर शब्दों से शुरू होते हैं; अगर उन्हें ह्रदय के तराज़ू में तौल कर बोला जाए तो दुनिया का अलग ही रूप हो| अपने सरल शब्दों में कबीर ने लोगों को जोड़ने, मानवता को सर्वोपरि रखने और अपने ह्रदय में बैठे हरि को तलाशने की बातें की हैं| वहीं कुरीतियों और बाह्य आडम्बरों पर जमकर प्रहार भी किए हैं। उनके शब्द आपसी भेदभाव और झूठी शान की अग्नि में जलते हृदयों पर सावन की फुहार या पुरवाई का काम करते हैं।

हर प्रकार के अंधकार से समाज को मुक्त करने वाले साहित्य के इस सूरज को बीसवीं सदी के मध्य तक महज़ मामूली सितारा ही समझा गया। “सूर सूर तुलसी ससी” दोहा इसका सशक्त प्रमाण है। उन्हें साहित्य के यथोचित सोपान पर प्रतिष्ठित करने का सराहनीय काम क्षितिजमोहन सेन द्वारा सम्पादित ‘कबीर के पद’ से प्रारम्भ हुआ। क्षितिमोहन सेन द्वारा संपादित ‘कबीर के पद’ एक नए ढंग का प्रयास है जो ‘भक्तों के मुख से’ सुनकर संग्रहित हैं। इसकी प्रामाणिकता के लिए उन्होंने किसी पोथी की मुखापेक्षिता नहीं रखी।

इससे पहले, सन १९१४ में, रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने गीतांजलि का अनुवाद करते समय ही कबीर के पद से सौ रचनाओं का भी अंग्रेजी में अनुवाद किया था। वर्ष १९१२-१३ में रवीन्द्रनाथ टैगोर के लंदन दौरे के दो नतीजे निकले। पहला, उन्होंने अपनी ही बांग्ला कविता संग्रह - गीतांजलि- का अंग्रेजी अनुवाद कर साहित्य का नोबेल पुरस्कार अपने नाम किया था| और दूसरा, ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’ के नाम से मध्यकालीन भारतीय संत कबीर के दोहों का अंग्रेजी अनुवाद किया था| गीतांजलि से उन्हें मिले सम्मान के बावजूद, इसे भारत से बाहर अब कम ही पढ़ा जाता है और ‘वन हंड्रेड पोयम्स ऑफ कबीर’ अपने पहले संस्करण से ही लोकप्रियता के नए आयाम गढ़ रही है और आज भी लगातार छप रही है।

भारत में कबीर की गरिमा और प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित करने में आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की पुस्तक “कबीर” की भी अकल्पनीय भूमिका रही है। नामवर सिंह जी ने अपनी आलोचनाओं के माध्यम से कबीर के विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है| वे लिखते हैं कि अक्सर अकेले दिखने वाले कबीर उदास हैं और उनका दुःख विस्फोटक और विध्वंसक है। वस्तुतः वह आत्मा की धधकती हुई आग है जिसमें इस भ्रष्ट संसार को ख़ाक कर देने की अकूत ताक़त है। नामवर सिंह जी ने लिखा है- “कबीर ने आडम्बरों से दबे समाज में सभी चीज़ों को नकारा और इस प्रक्रिया में सभी धर्मों के ईश्वर को भी नकार दिया। लेकिन वह सर्वनिषेधवादी नहीं हैं, वह उस तत्व को स्वीकारते हैं जो घट-घट में बसा हुआ है, जो निर्गुण है|”

इस शृंखला में एक और महत्वपूर्ण नाम हिंदी के प्रमुख आलोचक, कवि, चिंतक और कथाकार पुरुषोत्तम अग्रवाल का है। उनकी कबीर पर पुस्तक ‘अकथ कहानी प्रेम की- कबीर की कविता और उनका समय’ को नामवर सिंह ने हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की किताब ‘कबीर’ के बाद कबीर पर सबसे महत्वपूर्ण विमर्श माना तो अशोक बाजपेयी ने इसे कबीर का पुनराविष्कार कहा है।

अभी इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवाँ साल चल रहा है और अफगानिस्तान की वर्तमान स्थिति मन विचलित करने वाली है। दुनिया का इतिहास ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है जब धर्म, संप्रदाय, जाति, वर्ग आदि के आधार पर लोगों को बाँटा गया है, लड़ाया गया है। अब तक कहा जाता था कि बँटवारे का सबसे बड़ा कारण धर्म है। अफगानिस्तान में तो एक ही मज़हब के लोग रहते हैं; फिर भी इतना वैर-भाव कैसे? क्यों होती हैं ऐसी वारदातें? क्यों पहुँच जाते हैं हम इन चरम स्थितियों तक? इन सवालों से विचलित होने पर कबीर के दोहे अनायास ही मन को सुकून दे जाते हैं:

मोको कहाँ ढूँढ़े बन्दे, मैं तो तेरे पास में
न मैं देवल न मैं मस्जिद, न काबे कैलास में

कबीर अपने युग की जनसाधारण की भाषा बोलते थे| उनकी भाषा सरल और भाव गूढ़ है - इसीलिए सहजता से हमारे अंतर्मन में उतर आती है| भाषा पर कबीरदास का ज़बरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। भाषा कुछ कबीर के सामने लाचार सी नज़र आती है।

कबीर का आविर्भाव १४ वीं सदी में हुआ, जब धर्म के क्षेत्र में बड़ी अस्तव्यस्तता आ गयी थी। सिद्धजन और योगीजन विभिन्न प्रकार के अन्धविश्वास फैला रहे थे, शास्त्रों का ज्ञान रखने वाले भी रूढ़ियों और आडम्बरों में बंध गए थे। ऐसे परिवेश में कबीर इन विषमताओं पर प्रहार करते रहे, कहते रहे इंसानियत ही परम धर्म है। सच्चे मनुष्य के ह्रदय में ही भगवान वास करता है।

रहना नहिं देस बिराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े घुल जाना है।

उनके जन्म की कोई आधारभूत जानकारी नहीं है। कबीर के धर्म को लेकर भी स्पष्ट मत नहीं है| मुसलमान उन्हें मुसलमान जुलाहा बताते हैं तो हिन्दू उन्हें काशी का निवासी| उनके जीवन का मुख्य भाग वाराणसी में ही बीता। कबीर का जन्म सन् १३९८ में काशी में और मृत्यु सन् १५१८ में मगहर में मानी जाती है। बीजक कबीर वाणी का प्राथमिक ग्रन्थ माना जाता है।

कबीर पढ़े -लिखे नहीं थे| उन्होंने स्वयं कहा है -

मसि कागद छूओ नहीं कलम गहौं नहि हाथ
चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात।

कबीर ने जहाँ जो देखा, उसी को अपना अनुभव मानकर ज्ञान दिया। अहं को भक्ति का सबसे बड़ा शत्रु बताया। उनके अनुसार अहंकार त्यागने पर ही मनुष्य ईश्वर का सच्चा भक्त बनता है और उसके शुद्ध अन्तःकरण से संसार का कल्याण हो सकता है। परोपकार पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि नदियाँ और वृक्ष सभी परमार्थ के लिए ही जन्म लेते हैं और वे ही साधु हैं - परमार्थ के कारन ही साधुन धरा शरीर।

कबीर का कहना था कि जीव-ब्रह्म के मिलन में माया ही बाधा डालती है, ज्ञानी वही है जो माया को दुत्कारता है-

माया महा ठगनी हम जानी
तिरगुन फांस लिए कर डोले बोले मधुरे बानी

कबीर एक ऐसे मानव समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे जिसमें जाति-धर्म का भेदभाव न हो। वे एक ऐसी बिरादरी के लिए कार्यरत रहे, जो सत्य पर आधारित था, जिसमें सब सम्मलित हों, जो आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक सुख और सांस्कृतिक मूल्यों पर आधारित हो। वे हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती थे और यह चाहते थे कि यह एकता मैत्री भाव से हो। उस समय समाज दिग्-भ्रमित था| उन्होंने दोनों समाजों को न केवल समन्वय के पथ पर चलने का आदेश दिया था, अपितु आर्थिक संकट दूर करने का भी प्रयास किया। उनका यह प्रयास आज समाजवाद के नाम से विख्यात है। कबीर सत्कर्म के पक्षपाती थे। उन्होंने स्वयं जीवन भर चरखा कात कर श्रम किया और लोगों को भी सदैव श्रम करने के लिए प्रेरित किया। साधना को परिश्रम के संस्कारों से बाँधना कोई कबीर से सीखे। डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि साधना के क्षेत्र में वे युग-युग के गुरु थे, उन्होंने संत काव्य का पथ प्रदर्शन कर साहित्य क्षेत्र में नव निर्माण किया था।

समाज में कबीर को जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है। बचपन में उनसे हुई मुलाक़ात आज गहरी होती जा रही है और मुझे पूरा विश्वास है कि आने वाले कल में भी किसी भी द्वंद्वात्मक स्थिति से निकलने में वही मेरी लाठी होगी।

संदर्भ:
  • ५,७, - कबीर, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी
  • https://www.india-seminar.com/2011/623/623_peter_friedlander.htm
  • कबीर का दुःख, नामवर सिंह
  • कबीर का सच, नामवर सिंह
  • कबीरदास परिचय, श्री अनंतदास
 
लेखक परिचय


प्रगति टिपणीस पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रहते हुए यथासंभव हिन्दी के प्राचर-प्रसार में संलग्न हैं| इन्होंने अभियांत्रिकी में शिक्षा प्राप्त की है। यह रुसी भाषा से हिंदी और अंग्रेजी में अनुवाद करती हैं और फिलहाल एक पांच-सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं।

Monday, November 1, 2021

प्रभा खेतान: नारी विमर्श की सशक्त आवाज़

प्रभा खेतान

विकीपीडिया में प्रभा खेतान का परिचय प्रभा खेतान फाऊण्डेशन की संस्थापिका, अध्यक्षा, फिगरेट नामक महिला-स्वास्थ्य-केंद्र की संस्थापिका, १९६६-१९७६ तक चमड़े तथा बने-बनाए वस्त्रों की निर्यातक, हिंदी भाषा की लब्ध-प्रतिष्ठित उपन्यासकार, कवयित्री, नारीवादी चिंतक तथा समाज सेविका, कलकत्ता के चेम्बर ऑफ कॉमर्स की एकमात्र महिला अध्यक्षा और केंद्रीय हिंदी संस्थान की सदस्या के रूप में है। ये समस्त विवरण सत्य हैं और उनकी बहुआयामी प्नतिभा का प्रदर्शन करते हैं| अपने बलबूते पर निर्यात का सफल व्यापार करके प्रभा ने मारवाड़ी समाज की स्त्रियों के लिए एक कीर्तिमान स्थापित किया है| बारह वर्ष की आयु में पहली कविता प्रकाशित करने के उपरांत ६ कविता संग्रह, ८ उपन्यास, २ लघु उपन्यास, अनुवाद, आत्मकथा तथा पत्रिकाओं का सह-सम्पादन किया। 

कोलकाता के एक सम्पन्न मारवाड़ी परिवार में पाँचवी बेटी के रूप में जन्म लेना अपने आप में ही परिवार की उपेक्षा मिलने के लिए काफ़ी होता पर यदि वह लड़की रंगरूप में भी काली हो तो उसे माँ की ममता की आशा करने की भूल भी करनी चाहिए थी। बचपन में अम्मा के रहते हुए दाई माँ के दूध और उनकी वात्सल्यमयी गोद में पलने वाली बच्ची को छोटे भैया ‘दाई की बेटी’ कहकर, झोपड़पट्टी में रहने वाले खेदरवा के साथ उसकी शादी करवाने की बात करते। ‘कैसा अनाथ बचपन था। अम्मा ने कभी मुझे गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रहती। शायद अम्मा मुझे भीतर बुला लें। शायद... हाँ शायद अपनी रज़ाई में सुला लें! मगर नहीं।’ अपने बचपन को प्रभा ने एक वाक्य, ‘मैं उपेक्षिता थी| आत्मसम्मान की कमी ने ज़िंदगी भर मेरा पीछा किया”, में निचोड़ कर रख दिया। यह एक वाक्य प्रभा के वयस्क जीवन – व्यवसाय, लेखन की दिशा और प्रतिबद्ध-समर्पण को समझने का सूत्र है। एक ऐसा वाक्य जिसको बदलने के लिए प्रभा ने अथक परिश्रम किया, परिवार के विरोध की परवाह न करके कलकत्ते के श्रेष्ठ प्रेसीडेंसी कॉलेज से दर्शन शास्त्र में एम ए और ज्यॉ पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद पर शोध करके पी एच डी, और एक के बाद एक कविता, कहानी, उपन्यास, लेख आदि की रचना की। इस तरह बचपन में अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए चिड़ियों से संवाद करने वाली लड़की के आँखों की सुन्दरता की प्रशंसा जब पहली बार किसी ने की तो उसके युवा हृदय के लिए यह एक नई अनुभूति थी। अपने से 18 वर्ष बड़े पाँच संतानों के पिता से प्रेम के बारे में प्रभा लिखती हैं कि उन्होंने ‘पहली बार किसी की बाँहों में खुद को सुरक्षित महसूस किया।’ परिणाम स्वरूप वह मंत्रमुग्ध सी ‘चालीस वर्ष के खेले खाये’ पुरुष की ओर खिंची चली गयी और आजीवन न केवल ‘दूसरी औरत’ होने का अपमान और लांछन सहा, बल्कि उनके पूरे परिवार के दायित्व और उनकी बदसलूकी व्स धोखा सह कर भी पूरी तरह प्रतिबद्ध रही। नारी विमर्श की सशक्त उद्घोषक, सिमोन द बोवूआ की उपेक्षित स्त्री के कथन, ‘कोई जन्म से स्त्री नहीं होती, समाज उसे स्त्री बनाता है’, से बौद्धिक समानुभूति और अपनी अविकल्प प्रतिबद्धता के बीच के विरोधाभास को वह स्वयं ही नहीं समझ पाईं। वह जैसे हिप्नोटिक निद्रा के वश में थीं - जहाँ विवेक और तर्क काम नहीं करते। शायद फ्रायड की भाषा में कहें तो वह डॉ सर्राफ में अपने पिता को खोज रही थी; वह पिता जो पूरे परिवार में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनसे उसे स्नेह मिला था और जिनको उसने ९ वर्ष की उम्र में ही खो दिया था। 'अन्या से अनन्या' में प्रभा आत्म-विश्लेषण करती हैं, ‘इसे प्रेम कहा जाए, हाँ...नहीं... वैसे सब कुछ देह से शुरू होता है... और फिर एक दिन प्रेम के मीठे से भी मन भर जाता है। बची रहती है-एक रुग्ण निर्भरता, डॉ साहब मेरे लिए सुरक्षा के प्रतीक थे।’ बौद्धिक स्तर पर यह विश्लेषण करते हुए भी कि,’ एक तरह की रुग्ण निर्भरता थी उनपर जिसे मैं प्यार का नाम दे रही थी।‘ व्यावहारिक स्तर पर अपने को अलग कर पाने में असमर्थ रहीं। अपने व्यक्तित्व के विरोधाभास को प्रभा ने कविता में स्वीकारा है: 

‘मेरे हैं एक नहीं, तीन मन

एक कविता लिखता है

एक प्यार 

और एक केवल 

अपने लिए जीता है।‘  (अपरिचित उजाले)

अहल्या में गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के मिथक से प्रभा ने अनादि काल से स्त्री के पुरुष से छले जाने की नियति स्वीकारी है। आज भी गौतम के श्राप से ग्रस्त अहिल्या अपनी मुक्ति की आशा लगाए बैठी है। वे स्त्री को पुरुष पर निर्भरता की जंजीर तोड़ने का आवाहन करती हैं:

‘लौट आओ 

पथरीली गहराइयों से 

निकल आओ

समाधि के अंधेरे से...

तुम अपना उत्तर स्वयं 

ग्रहण करो

वरण की स्वतंत्रता।‘

प्रभा की आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने की कटिबद्धता और निर्यात व्यवसाय में सफलता के बीज भी बचपन में पड़ चुके थे, जब वे अपनी अम्मा को घरखर्च के लिए पहले बाबूजी और बाद में बड़े भैया के सामने हाथ फैलाते देखती थीं। कॉलेज में परीक्षा की फीस देने से बड़े भैया के इंकार करने पर प्रभा ने आर्थिक स्वतंत्रता का संकल्प लिया और उसके लिए चाहे जितनी जी-तोड़ मेहनत और देश-विदेश की यात्रा क्यों न करनी पड़े, वे सदैव तत्पर रहीं। परिवार पर निर्भरता तोड़ते हुए आगे बढ़ीं। समाज के प्रतिमानों के विरुद्ध उद्योग जगत में सफलता पाई, कोलकाता चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स की प्रथम महिला अध्यक्षा बनीं। उनकी आत्मनिर्भरता के पीछे वह सामाजिक स्थिति है जिसमें उन्होंने अपनी माँ और भाभियों को घुटते देखकर उनकी तरह दमघोँटू, पराश्रित जीवन नहीं बिताने का निश्चय किया था। पर आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के बावजूद मानसिक निर्भरता से बाहर न आ पाने की त्रासदी ‘अन्या से अनन्या’ में पारदर्शी है। वस्तुत: उनका समस्त साहित्य आत्मकथात्मक है, चाहे वह ‘पीली आँधी’ या ‘छिन्नमस्ता’ की कविताएँ हों, उनके मूल में स्त्री की संघर्ष गाथा है। अभिव्यक्ति की ईमानदारी से दु:स्साहस की दहलीज़ को लांघने वाला साहस उनके साहित्य की शक्ति है। इसे जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का साहस कहें या श्रीमदभगवत गीता में दुर्योधन के कथन का साक्ष्य देकर ‘जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति:, जानाम्यधर्मं न चमें निवृत्ति:’ कहें?   

परिवारिक विरोध की परवाह न करके प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शन-शास्त्र में एम ए और सार्त्र के अस्तित्ववाद पर शोध करते समय एक और दुनिया की खिड़की खुली जो अम्मा और भाभी की दमघोटू दुनिया से नितांत भिन्न थी। बंगाली सहपाठियों की जागरूक बौद्धिकता, वामपंथी विचारधारा और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का पागलपन की सीमा तक जाने वाला उत्साह प्रभा की बौद्धिकता को तराश रहा था। प्रभा खेतान की आत्मकथा, ‘अन्या से अनन्या’ 60 के दशक के कलकत्ते के राजनीतिक वातावरण की जीवंत कौमेंटरी है। प्रेसिडेंसी कॉलेज के प्रसंग कोलकाता के बुद्धिजीवी बंगाली युवा पीढ़ी के वस्तुस्थिति के प्रति असंतोष, मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति सहानुभूति का जीवंत ऐतिहासिक विवरण होने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रभा ने इस परिदृश्य को उभरते और बढ़ते देखा, मार्क्सवाद को चिंतन के स्तर पर प्रश्नांकित किया। सिमोन द बोवुआ के ‘द सैकंड सेक्स’ का भावानुवाद, ‘स्त्री उपेक्षिता’,’शब्दों का मसीहा सार्त्र’, आदि के वैचारिक मंथन की पृष्ठभूमि में उनकी नारी विमर्श की ओजस्वी आवाज़ को आत्मसात किया जा सकता है। सार्त्र, सिमोन द बौवुआ और अल्बेयर कामू के दर्शन से साक्षात्कार करने के बाद वे भारतीय चिंतन प्रक्रिया में आती हैं। कॉलेज में डॉ चैटर्जी की सलाह थी, ‘शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत पढ़ लो तो तुम्हारे मानस की ज़मीन पुख़्ता हो जाएगी।‘  उसके बीज तो बचपन के एकाकीपन में ही पड़ चुके थे, अब वैचारिक खाद मिलते ही उनकी रचनाओं को वैचारिकी का वृहत कैनवस मिला। वे नवजागरण की चेतना को अपनी दृष्टि से देखती हैं, उनका चिंतन परक साहित्य उनके बौद्धिक आयाम को उजागर करता है।  वे पूरी ईमानदारी और आवेग से पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री पर अंकुश रखने के हथखंडों का पर्दाफाश करती हैं। स्त्री को अधीनस्थ रखने के लिए पितृसत्ता जिस तरह से संस्कृति को हथियार बनाती है, उसका अंवेषण पुरातन मिथकों के माध्यम से अत्यंत प्रभावी रूप से किया गया है। विदेश यात्रा ने उनके अनुभव की ज़मीन का विस्तार किया। अपनी विदेश यात्रा के दौरान उनका जिज्ञासु मन पश्चिम के तथाकथित विकसित समाज में स्त्री के प्रति आदिम दृष्टिकोण की भनक सुनते ही सजग हो जाता। जीवन मूल्यों की तलाश उन्हें वहाँ भी सजग और सक्रिय बनाए रही। व्यावसायिक संदर्भ में पश्चिम के लोगों का भारतीयों को गरीब और दौयम दर्जे का समझना उनके आत्मसम्मान को आघात पहुँचाता है। आत्मकथा में अपने से बाहर जाकर एक विशद कैनवस पर सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक विश्लेषण करना उनके लेखन की शक्ति और महती उपलब्धि है। वस्तुत: उनका सम्पूर्ण लेखन चिंतन–प्रधान है और उसमें अंतर्निहित प्रश्न है एक अनुत्तरित प्रश्न जो प्रभा ‘उपनिवेश मे स्त्री’ में पूछती हैं, ‘’स्त्री पूर्ण मानव है, वह संसार की आधी आबादी है फिर क्यों विकास में, हर परिवर्तन के पीछे खड़ी नज़र आती है?’’

प्रभा खेतान: संक्षिप्त परिचय

जन्म 

मृत्यु 

१ नवंबर, १९४२ 

२० सितंबर, २००८  

शिक्षा 

दर्शन शास्त्र में स्नातकोत्तर, कोलकाता विश्वविद्यालय
“ज्यां पॉल सार्त्र के अस्तित्त्ववाद” पर पीएचडी

कृतियाँ 

कविता संग्रह

अपरिचित उजले,सीढ़ीयां चढ़ती ही मैं,एक और आकाश की खोज में, कृ्ष्णधर्मा मैं, हुस्नोबानो और अन्य कविताएं, अहिल्या 

उपन्यास

आओ पेपे घर चले,तालाबंदी, अग्निसंभवा, एडस, छिन्नमस्ता, अपने-अपने चहरे, 

पीली आंधी ,स्त्री पक्ष 

लघु उपन्यास

शब्दों का मसीहा सार्त्र, बाजार के बीच:बाजार के खिलाफ

अनुवाद

द सेकेंड सैक्स, स्त्री उपेक्षिता

आत्मकथा

अन्या से अनन्या 

पुरस्कार 

रत्न शिरोमणि’ इंडिया इंटरनेशनल सोसाइटी फॉर यूनिटी द्वारा ; 

‘इंदिरा गांधी सॉलिडियरिटी एवार्ड’, इंडियन सॉलिडियरिटी काउसिंल द्वारा; 

‘टॉप पर्सनाल्टी एवार्ड (उद्योग)’, लायन्स क्लब द्वारा ; 

‘उद्योग विशारद’, उद्योग टेक्नोलॉजी फाउण्डेशन द्वारा; 

प्रतिभाशाली महिला पुरस्कार’ भारत निर्माण संस्था द्वारा; 

‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार’ केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा; 

‘बिहारी पुरस्कार’ के.के. बिड़ला फाउण्डेशन द्वारा; भारतीय भाषा परिषद व डॉ. प्रतिभा अग्रवाल नाट्य शोध संस्थान द्वारा सम्मान।


संदर्भ:

  1. विकिपीडिया
  2. अन्या से अनन्या – प्रभा खेतान
  3. अहल्या – प्रभा खेतान
  4. उपनिवेश में स्त्री – प्रभा खेतान
  5. अहल्या – प्रभा खेतान
  6. छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान
  7. अपरिचित उजाले – प्रभा खेतान
  8. प्रभा खेतान उत्सव – वाणी डिजिटल

लेखक परिचय

डॉ अरुणा अजितसरिया, एम बी ई, देश-विदेश के हिंदी, अंग्रेज़ी और फ्रेंच साहित्य के अध्ययन और समीक्षा में रुचि रखती हैं| सम्प्रति केम्ब्रिज विश्वविद्यालय की अंतरराष्ट्रीय शाखा में हिंदी की मुख्य परीक्षक और प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं।

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कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...