प्रभा खेतान |
कोलकाता के एक सम्पन्न मारवाड़ी परिवार में पाँचवी बेटी के रूप में जन्म लेना अपने आप में ही परिवार की उपेक्षा मिलने के लिए काफ़ी होता पर यदि वह लड़की रंगरूप में भी काली हो तो उसे माँ की ममता की आशा करने की भूल भी करनी चाहिए थी। बचपन में अम्मा के रहते हुए दाई माँ के दूध और उनकी वात्सल्यमयी गोद में पलने वाली बच्ची को छोटे भैया ‘दाई की बेटी’ कहकर, झोपड़पट्टी में रहने वाले खेदरवा के साथ उसकी शादी करवाने की बात करते। ‘कैसा अनाथ बचपन था। अम्मा ने कभी मुझे गोद में लेकर चूमा नहीं। मैं चुपचाप घंटों उनके कमरे के दरवाज़े पर खड़ी रहती। शायद अम्मा मुझे भीतर बुला लें। शायद... हाँ शायद अपनी रज़ाई में सुला लें! मगर नहीं।’ अपने बचपन को प्रभा ने एक वाक्य, ‘मैं उपेक्षिता थी| आत्मसम्मान की कमी ने ज़िंदगी भर मेरा पीछा किया”, में निचोड़ कर रख दिया। यह एक वाक्य प्रभा के वयस्क जीवन – व्यवसाय, लेखन की दिशा और प्रतिबद्ध-समर्पण को समझने का सूत्र है। एक ऐसा वाक्य जिसको बदलने के लिए प्रभा ने अथक परिश्रम किया, परिवार के विरोध की परवाह न करके कलकत्ते के श्रेष्ठ प्रेसीडेंसी कॉलेज से दर्शन शास्त्र में एम ए और ज्यॉ पॉल सार्त्र के अस्तित्ववाद पर शोध करके पी एच डी, और एक के बाद एक कविता, कहानी, उपन्यास, लेख आदि की रचना की। इस तरह बचपन में अपने अकेलेपन को दूर करने के लिए चिड़ियों से संवाद करने वाली लड़की के आँखों की सुन्दरता की प्रशंसा जब पहली बार किसी ने की तो उसके युवा हृदय के लिए यह एक नई अनुभूति थी। अपने से 18 वर्ष बड़े पाँच संतानों के पिता से प्रेम के बारे में प्रभा लिखती हैं कि उन्होंने ‘पहली बार किसी की बाँहों में खुद को सुरक्षित महसूस किया।’ परिणाम स्वरूप वह मंत्रमुग्ध सी ‘चालीस वर्ष के खेले खाये’ पुरुष की ओर खिंची चली गयी और आजीवन न केवल ‘दूसरी औरत’ होने का अपमान और लांछन सहा, बल्कि उनके पूरे परिवार के दायित्व और उनकी बदसलूकी व्स धोखा सह कर भी पूरी तरह प्रतिबद्ध रही। नारी विमर्श की सशक्त उद्घोषक, सिमोन द बोवूआ की उपेक्षित स्त्री के कथन, ‘कोई जन्म से स्त्री नहीं होती, समाज उसे स्त्री बनाता है’, से बौद्धिक समानुभूति और अपनी अविकल्प प्रतिबद्धता के बीच के विरोधाभास को वह स्वयं ही नहीं समझ पाईं। वह जैसे हिप्नोटिक निद्रा के वश में थीं - जहाँ विवेक और तर्क काम नहीं करते। शायद फ्रायड की भाषा में कहें तो वह डॉ सर्राफ में अपने पिता को खोज रही थी; वह पिता जो पूरे परिवार में एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनसे उसे स्नेह मिला था और जिनको उसने ९ वर्ष की उम्र में ही खो दिया था। 'अन्या से अनन्या' में प्रभा आत्म-विश्लेषण करती हैं, ‘इसे प्रेम कहा जाए, हाँ...नहीं... वैसे सब कुछ देह से शुरू होता है... और फिर एक दिन प्रेम के मीठे से भी मन भर जाता है। बची रहती है-एक रुग्ण निर्भरता, डॉ साहब मेरे लिए सुरक्षा के प्रतीक थे।’ बौद्धिक स्तर पर यह विश्लेषण करते हुए भी कि,’ एक तरह की रुग्ण निर्भरता थी उनपर जिसे मैं प्यार का नाम दे रही थी।‘ व्यावहारिक स्तर पर अपने को अलग कर पाने में असमर्थ रहीं। अपने व्यक्तित्व के विरोधाभास को प्रभा ने कविता में स्वीकारा है:
‘मेरे हैं एक नहीं, तीन मन
एक कविता लिखता है
एक प्यार
और एक केवल
अपने लिए जीता है।‘ (अपरिचित उजाले)
अहल्या में गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या के मिथक से प्रभा ने अनादि काल से स्त्री के पुरुष से छले जाने की नियति स्वीकारी है। आज भी गौतम के श्राप से ग्रस्त अहिल्या अपनी मुक्ति की आशा लगाए बैठी है। वे स्त्री को पुरुष पर निर्भरता की जंजीर तोड़ने का आवाहन करती हैं:
‘लौट आओ
पथरीली गहराइयों से
निकल आओ
समाधि के अंधेरे से...
तुम अपना उत्तर स्वयं
ग्रहण करो
वरण की स्वतंत्रता।‘
प्रभा की आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बनने की कटिबद्धता और निर्यात व्यवसाय में सफलता के बीज भी बचपन में पड़ चुके थे, जब वे अपनी अम्मा को घरखर्च के लिए पहले बाबूजी और बाद में बड़े भैया के सामने हाथ फैलाते देखती थीं। कॉलेज में परीक्षा की फीस देने से बड़े भैया के इंकार करने पर प्रभा ने आर्थिक स्वतंत्रता का संकल्प लिया और उसके लिए चाहे जितनी जी-तोड़ मेहनत और देश-विदेश की यात्रा क्यों न करनी पड़े, वे सदैव तत्पर रहीं। परिवार पर निर्भरता तोड़ते हुए आगे बढ़ीं। समाज के प्रतिमानों के विरुद्ध उद्योग जगत में सफलता पाई, कोलकाता चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स की प्रथम महिला अध्यक्षा बनीं। उनकी आत्मनिर्भरता के पीछे वह सामाजिक स्थिति है जिसमें उन्होंने अपनी माँ और भाभियों को घुटते देखकर उनकी तरह दमघोँटू, पराश्रित जीवन नहीं बिताने का निश्चय किया था। पर आर्थिक रूप से आत्म निर्भर होने के बावजूद मानसिक निर्भरता से बाहर न आ पाने की त्रासदी ‘अन्या से अनन्या’ में पारदर्शी है। वस्तुत: उनका समस्त साहित्य आत्मकथात्मक है, चाहे वह ‘पीली आँधी’ या ‘छिन्नमस्ता’ की कविताएँ हों, उनके मूल में स्त्री की संघर्ष गाथा है। अभिव्यक्ति की ईमानदारी से दु:स्साहस की दहलीज़ को लांघने वाला साहस उनके साहित्य की शक्ति है। इसे जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का साहस कहें या श्रीमदभगवत गीता में दुर्योधन के कथन का साक्ष्य देकर ‘जानामि धर्मं न च में प्रवृत्ति:, जानाम्यधर्मं न चमें निवृत्ति:’ कहें?
परिवारिक विरोध की परवाह न करके प्रेसिडेंसी कॉलेज में दर्शन-शास्त्र में एम ए और सार्त्र के अस्तित्ववाद पर शोध करते समय एक और दुनिया की खिड़की खुली जो अम्मा और भाभी की दमघोटू दुनिया से नितांत भिन्न थी। बंगाली सहपाठियों की जागरूक बौद्धिकता, वामपंथी विचारधारा और समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने का पागलपन की सीमा तक जाने वाला उत्साह प्रभा की बौद्धिकता को तराश रहा था। प्रभा खेतान की आत्मकथा, ‘अन्या से अनन्या’ 60 के दशक के कलकत्ते के राजनीतिक वातावरण की जीवंत कौमेंटरी है। प्रेसिडेंसी कॉलेज के प्रसंग कोलकाता के बुद्धिजीवी बंगाली युवा पीढ़ी के वस्तुस्थिति के प्रति असंतोष, मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति सहानुभूति का जीवंत ऐतिहासिक विवरण होने के कारण अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रभा ने इस परिदृश्य को उभरते और बढ़ते देखा, मार्क्सवाद को चिंतन के स्तर पर प्रश्नांकित किया। सिमोन द बोवुआ के ‘द सैकंड सेक्स’ का भावानुवाद, ‘स्त्री उपेक्षिता’,’शब्दों का मसीहा सार्त्र’, आदि के वैचारिक मंथन की पृष्ठभूमि में उनकी नारी विमर्श की ओजस्वी आवाज़ को आत्मसात किया जा सकता है। सार्त्र, सिमोन द बौवुआ और अल्बेयर कामू के दर्शन से साक्षात्कार करने के बाद वे भारतीय चिंतन प्रक्रिया में आती हैं। कॉलेज में डॉ चैटर्जी की सलाह थी, ‘शंकराचार्य का अद्वैत वेदांत पढ़ लो तो तुम्हारे मानस की ज़मीन पुख़्ता हो जाएगी।‘ उसके बीज तो बचपन के एकाकीपन में ही पड़ चुके थे, अब वैचारिक खाद मिलते ही उनकी रचनाओं को वैचारिकी का वृहत कैनवस मिला। वे नवजागरण की चेतना को अपनी दृष्टि से देखती हैं, उनका चिंतन परक साहित्य उनके बौद्धिक आयाम को उजागर करता है। वे पूरी ईमानदारी और आवेग से पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री पर अंकुश रखने के हथखंडों का पर्दाफाश करती हैं। स्त्री को अधीनस्थ रखने के लिए पितृसत्ता जिस तरह से संस्कृति को हथियार बनाती है, उसका अंवेषण पुरातन मिथकों के माध्यम से अत्यंत प्रभावी रूप से किया गया है। विदेश यात्रा ने उनके अनुभव की ज़मीन का विस्तार किया। अपनी विदेश यात्रा के दौरान उनका जिज्ञासु मन पश्चिम के तथाकथित विकसित समाज में स्त्री के प्रति आदिम दृष्टिकोण की भनक सुनते ही सजग हो जाता। जीवन मूल्यों की तलाश उन्हें वहाँ भी सजग और सक्रिय बनाए रही। व्यावसायिक संदर्भ में पश्चिम के लोगों का भारतीयों को गरीब और दौयम दर्जे का समझना उनके आत्मसम्मान को आघात पहुँचाता है। आत्मकथा में अपने से बाहर जाकर एक विशद कैनवस पर सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक विश्लेषण करना उनके लेखन की शक्ति और महती उपलब्धि है। वस्तुत: उनका सम्पूर्ण लेखन चिंतन–प्रधान है और उसमें अंतर्निहित प्रश्न है एक अनुत्तरित प्रश्न जो प्रभा ‘उपनिवेश मे स्त्री’ में पूछती हैं, ‘’स्त्री पूर्ण मानव है, वह संसार की आधी आबादी है फिर क्यों विकास में, हर परिवर्तन के पीछे खड़ी नज़र आती है?’’
संदर्भ:
- विकिपीडिया
- अन्या से अनन्या – प्रभा खेतान
- अहल्या – प्रभा खेतान
- उपनिवेश में स्त्री – प्रभा खेतान
- अहल्या – प्रभा खेतान
- छिन्नमस्ता – प्रभा खेतान
- अपरिचित उजाले – प्रभा खेतान
- प्रभा खेतान उत्सव – वाणी डिजिटल
साहित्यकार तिथिवार के शुभारम्भ के लिए हार्दिक शुभकामनाएं| प्रभा खेतान जी के आलेख से इसका आगाज़ होना अत्यंत प्रभावशाली है| अरुणा जी की कलम ने बेहतरीन अंदाज में यह लेख प्रस्तुत किया है| "हिन्दी से प्यार है" परिवार की और से टीम साहित्यकार तिथिवार को ढेरों बधाइयाँ एवं शुभकामनाएं|
ReplyDeleteहार्दिक बधाई
ReplyDeleteइस ज्ञानवर्धक और रोचक परियोजना की शुरुआत पर इससे जुड़े सभी बुद्धिजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएँ। परियोजना का आगाज़ हिंदी साहित्य के एक मुख्य स्तम्भ और नारी विमर्श की सशक्त आवाज़ से हुआ है, आशा है कि आगे के आलेख भी दिलचस्प होंगे।
ReplyDeleteलेख बेबाक और विचारोत्तेजक बन पड़ा है! वरिष्ठ लेखिका अरुणा जी को बधाई!
ReplyDeleteसुंदर आलेख । जो प्रभा जी के व्यक्तित्व को पहले नहीं जानते , उन्हें बहुत अच्छा परिचय मिल जाता है । लेखिका एवं सम्पादक बधाई के पात्र हैं । 👍💐
ReplyDeleteबहुत रोचक ढंग से प्रभा जी का विवरण
ReplyDeleteअनूप सर,HSP टीम और लेखिका को ढेरों बधाई👌👌
अरुणा जी ने प्रभा खेतान जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को बखूबी समेटा हैं | उन की लेखनी कहीं मार्मिक लगती हैं और कहीं रोमांच सा पैदा करती हैं |
ReplyDeleteसुंदर आलेख। सार्थक पहल।
ReplyDeleteआदरणीय अनूप जी व पूरी व्यवस्थापक समिति को बधाइयाँ💐💐
प्रभा जी 6 नंबर होची मिन्ह सारणी में रहती थी मैं 8 नंबर में बहुत परिचय तो नहीं था पर उनका व्यक्तित्व कोलकाता में किसी से छुपा नहीं कोई बड़ी गस्ती ऐसी नहीं थी जो इनके घर न आती हो। हमारे कोलकाता की शान थी।
ReplyDeleteनारी विमर्श पर मार्मिक और भावपूर्ण अभिव्यक्ति के लिए बधाई अरुणा जी!
ReplyDeleteअरूणाजी द्वारा लिखित यह एक अत्यंत सुंदर आलेख है जिससे प्रभा जी के व्यक्तित्व का बहुत अच्छा परिचय मिल जाता है । उन्होंने अपनी सशक्त लेखनी से प्रभा जी के जीवन का अत्यंत सुन्दर, भावपूर्ण तथा रोचक चित्रण किया है। बहुत बहुत बधाई अरूणाजी। 'पीली आंधी ' पढ़कर मैं प्रभाजी के लेखन से बहुत प्रभावित हुई ।
ReplyDelete-आशा बर्मन,हिंदी राइटर्स गिल्ड कैनेडा
विदुषी लेखिका प्रभा खेतान उन विरल लेखिकाओं में -से एक हैं जिन्होंने अपने सत्सृजन से हिन्दी में एक प्रतिमान स्थापित किया है। पाठक प्रभा जी के साहित्य-यात्रा से अच्छी तरह परिचित हैं। उनकी शब्द-साधना वाकई स्त्री-विमर्श की साधना है। नारी-शोषण के प्रति समाज में ऊर्जस्वित चेतना जगाने में उनके शब्द मुखर हैं। दर्द की गहन अनुभूति उनकी रचनाओं में होती है। उनके लेखन की विशेषता है कि वह अन्य महिला रचनाकारों की तरह यूटोपिया नहीं गढ़तीं, बल्कि जिये,देखे, सुने की यथार्थ अभिव्यक्ति उनकी कृतियों में हुई है। वस्तुतः किसी जीवन्त सृजन के लिए अनुभव और अनुभूति की प्रामाणिकता की अभिव्यक्ति प्रमुख है। समकालीन समाज में नारी-जीवन की नानाविध विसंगतियों और विद्रूपताओं के साथ शोषण की प्रवृत्तियों का प्रामाणिक दस्तावेज है प्रभा खेतान का साहित्य। लेखिका की बहुआयामी पकड़ जन-जीवन-जगत की अन्य दृश्यों-,परिदृश्यों के परिप्रेक्ष्य में नारी-जगत के प्रति
ReplyDeleteविशिष्ट संवेदना और चेतनापरक है जिसमें स्त्री-विमर्श के नये-नये कपाट खुलते हैं। एक बात और यह कि प्रभा खेतान के पारदर्शी सृजन में सम्प्रेषण की अद्भुत क्षमता है। निश्चय ही रचनात्मक ऊर्जा,सृजनात्मक संकल्पना और साधना के महतप की ऐसी तपी हुई कृतियां हैं जो अपनी उम्दा प्रभाववत्ता से दूर तक पाठकों को प्रेलित-प्रभावित करती रहेंगी।
डॉ. अरुणा अजितसहिता ने ऐसी सशक्त शब्द-शिल्पी के उजले व्यक्तित्व और महत्वपूर्ण सृजन के पक्षों को उद्घाटित करते पाठकों प्रेरित करने का प्रशंसनीय प्रयास किया है। साधुवाद!
डॉ.राहुल नयी द्ल्ली(भारत)
ReplyDeleteडॉ.राहुल, नयी दिल्ली (भारत)
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