रीतिकाल में कवियों ने ब्रजभाषा का जैसा माधुर्ययुक्त, लालित्यमय, मनोहारी और रसनिरूपित काव्य सृजन किया है, वह अतुलनीय है। अपनी काव्याभिव्यक्ति को और अधिक संप्रेषणीय बनाने के लिए रीतिकालीन कवियों ने ब्रजभाषा को परिष्कृत रूप दिया है। रीति परंपरा के रीतिबद्ध आचार्य कवि ग्वाल के काव्य में भी इन्हीं विशिष्टताओं से अलंकृत ब्रजभाषा की बहुत प्रभावशाली प्रस्तुति दिखाई देती है।
कवि ग्वाल रीतिकाल को अपनी समृद्ध काव्य संपदा से सुसज्जित करने वाले ऐसे आलोक हैं, जिनके बाद रीतिकाव्य अपनी पूर्णता को प्राप्त कर अस्त होने लगता है। इनका जन्म मार्गशीर्ष शुक्ल द्वितीया सं० १८४८ (सन १७९३) में हुआ माना जाता है और रचनाकाल सन १८२२ से १८६१ ई० तक माना जाता है। ग्वाल सेवाराम बंदीजन के पुत्र थे। इनके 'रसिकानंद' नामक ग्रंथ से इनके पिता का नाम मुरलीधर राव भी मिलता है। इनके गुरु का नाम दयालजी बताया जाता है। समकालीन कवि नवनीत चतुर्वेदी तथा रामपुर दरबार के अमीर अहमद मीनाई की पुस्तक 'इंतख़ाब-ए-यादगार' के आधार पर ये वास्तविक निवासी वृंदावन के सिद्ध होते हैं। वहीं कालिया घाट पर अब भी इनके मकानों के अवशेष तथा इनके वंशज हैं। मथुरा से भी उनका संबंध रहा है। इनके दो पुत्र खूबचंद (या रूपचंद) तथा खेमचंद थे। ग्वाल कवि ने अपना परिचय देते हुए "यमुना लहरी" में लिखा है,
वासी वृंदा विपिन के भी मथुरा सुखवास,
श्री जगदम्बा दई हमें कविता विमल विकास।
विदित विप्र बन्दी विशद बरने ध्यास पुरान,
ताकुल सेवाराम को सुत कवि ग्वाल सुजान।
कवि ग्वाल भव्य व्यक्तित्व के स्वामी थे व उनकी प्रकृति ओजपूर्ण थी। उन्हें अपने पांडित्य का भी अभिमान था। वे केवल आठ वर्ष के थे तभी उनके पिता की मृत्यु हो गई थी। इनके पालन-पोषण और शिक्षा-दीक्षा की समस्त ज़िम्मेदारी इनकी माता ने निभाई। वृंदावन में दयानिधि गोस्वामी के सान्निध्य में इन्होंने काव्य लेखन की आरंभिक शिक्षा पाई। तत्पश्चात इन्होंने काशी में संस्कृत के काव्यशास्त्रीय ग्रंथों का अध्ययन किया। बरेली के खुशहालराय नामक कवि भी ग्वाल के गुरु रहे।
ग्वाल कवि की यायावरी और देशाटन प्रवृति का प्रभाव था कि उन्हें भिन्न-भिन्न प्रांतों की बोलियों और भाषाओं का विशद ज्ञान था। वाग्विदग्धता भी इनमें उत्तम थी। घुमक्कड़ होने के कारण इन्हें सोलह भाषाओं का अभ्यास था।
काव्य सृजन में पारंगत हो जाने पर ग्वाल ने नामा राज्य के कवि प्रेमी महाराज जसवंत सिंह के दरबार में आश्रय लिया, जहाँ उन्होंने सं० १८७९ में "रसिकानंद" ग्रंथ की रचना की। सरदार लहनासिंह के आश्रय में अमृतसर रहते हुए "कवि दर्पण" तथा "हमीरों" रचे गए। "विजय विनोद" में महाराजा रणजीत सिंह, शेर सिंह तथा लाहौर दरबार के षड्यंत्रों का सजीव चित्रण दर्शाता है कि कवि इन दरबारों में भी उपस्थित रहे। सं० १९१७ में उन्होंने नाभा में भरपूर सिंह के राजाश्रय में रहते हुए "गुरु पचासा" की रचना की। आगे चलकर वे पंजाब की सुकेत मंडी में भी रहे। राजपूत रियासतों में भी उनका आना-जाना था। टोंक के नवाब के लिए उन्होंने खड़ी बोली में कृष्णाष्टक की रचना की। रामपुर के काव्य-रसिक व ग्वाल के शिष्य रहे नवाब इमादादुल्ला खाँ के आश्रय में रहते हुए ग्वाल ने अंतिम साँस ली।
आचार्य-कवि ग्वाल की काव्य मर्मज्ञता से प्रभावित हो कर दूर-दूर से कवि उनसे शिक्षा ग्रहण करने आते थे। इनके शिष्यों की भी एक लंबी सूची है, जिनमें से खड़ग सिंह, किशोर और साधु राम प्रसिद्ध कवि हुए हैं।
रीतिबद्ध कवियों के राजाश्रय में रहने तथा अपनी काव्यकला को उनके विलासी और शृंगारिक परिवेश के अनुरूप रचने की विवशता के कारण उनके काव्य में नायक-नायिका के प्रेमालाप प्रसंगों में कायिक, आंगिक और वाचिक भावाभिव्यक्तियों की उद्दीपक प्रकृति ने उन कवियों को सर्वत्र आकर्षित किया है। ग्वाल रचित "छट्ऋतु तथा अन्योक्ति वर्णन" ग्रंथ में तोता, गुलाब, मालती, कदंब, भौंरा, हंस, कमल आदि अन्योक्तियाँ उद्दीपन रूप में ही हैं।
"सरसों के खेत की बिछायत बसंत बनी,
तामें खड़ी चाँदनी बसंती रतिकन्त की।
ग्वाल कवि प्यारो पुखराजन को प्यालो पूरि,
प्यावत प्रिया को करे बात बिलसंत की।"
रीतिकालीन काव्य सृजन परंपरा के निर्वहन के अतिशय मोह का ही परिणाम था कि यमुना लहरी नामक देव स्तुति में भी नवरंग व षट्ऋतु के स्वर सुनाई पड़ते हैं। शृंगारी उद्दीपन के कवित्त भोगनेवालों के उपादानों के आख्यान हैं।
जेठ को न त्रास, जाके पास ये बिलास होंय,
खस के मवास पै, गुलाब उछरयो करै।
बिही के मुरब्बे, चांदी के बरक भरे,
पेठे पाग केवरे में, बरफ परयो करै॥
ग्वाल कवि चंदन, चहल मैं कपूर चूर,
चंदन अतर तर, बसन खरयो करै।
कंजमुखी, कंजनैनी, कंज के बिछौनन पै,
कंजन की पंखी, करकंज तें करयो करै॥
रीतिकालीन काव्य की परंपरानुरूप ग्वाल के काव्य में भी नायिका के नखशिख वर्णन व प्राकृतिक वर्णन है। जो प्रसंगानुसार उद्दीपन के रूप में शृंगार के दोनों रूप, संयोग व वियोग में मुख्य घटक बनकर सर्वत्र विद्यमान है। काव्याभिव्यक्ति में अलंकारों, विशेषतः शब्दालंकारों के प्रति आकर्षण रीतिबद्ध कवियों की महत्त्वपूर्ण प्रवृत्ति कही जा सकती है। भोग-विलास की वस्तुओं के परिगणन, षट्ऋतुवर्णन तथा शृंगारोद्दीपक ऋतु वर्णन से प्रायः काव्य में अस्वाभाविकता आ गई है। हालांकि ऋतुवर्णन विस्तृत है और विदग्धता के साथ किया गया है।
ग्वाल के भक्तिकाव्य 'राधाष्टक' में भी राधारानी के वर्णन में रीतिकालीन परंपरानुरूप ही वर्णन मिलता है,
"बावले बनाव के बिछौने बिछौने बिछे बेसुमार
बोजुरी बिरी बनाय देत बलिहारी में
ग्वाल कवि सुमन सुगन्धित केसर ले ले
सचि सचकुमार सो संघाये सोम भारी में।"
दूसरी ओर ग्वाल ने "श्री कृष्ण जू को नखशिख" में नायक के नखशिख का भी बेहद कलात्मक व लालित्यपूर्ण चित्रण किया है, जिसमें शृंगार से अधिक भक्ति की प्रधानता दिखती है।
"लाज भरे लाग भरे लोभ भरे शोभ भरे
लाली भरे लाड़ भरे लोचन हैं लाल के।"
बौद्धिक कार्य-कौशल के आधार पर रचित ग्वाल का अभिव्यक्ति पक्ष कलात्मक सौंदर्य की दृष्टि से चरमोत्कर्ष पर दिखाई देता है व बहिरंग को विविध वर्णी चित्रों से सजाने के क्रम में काव्य के अंतरंग पक्ष से उपेक्षित सा हो गया है। इसके बावजूद रीतिबद्ध कवि ग्वाल की कविता काव्य कला की कसौटी पर अभिव्यक्ति की कलात्मक प्रस्तुति है, जो हमें कई रूपों में चमत्कृत करती है।
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में, "१९वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के ब्रजभाषा के कवियों में ग्वाल, बेनी ठाकुर, चंद्रशेखर, बाबा दीनदयाल गिरी, प्रताप शाही, पजनेश, द्विज देव आदि की भाषा साफ-सुथरी, माधुर्य युक्त व्यवस्थित और आडंबरहीन हैं।"
ग्वाल ने ठेठ पूरबी, हिंदी, गुजराती और पंजाबी भाषा में भी कुछ कविता और सवैया लिखे। अरबी, फारसी शब्दों का प्रयोग भी इनके काव्य में बहुतायत से मिलता है।
ग्रीष्म की गज़ब धुकी है धूप धाम धाम,
गरमी झुकी है जाम जाम अति तापिनी
भीजे खसबीजन झलेहू ना सुखात स्वेद,
गात न सुहात बात दावा सी डरापिनी।
दिया है खुदा ने खुसी करो ग्वाल कवि,
खाव पियो, देव लेव, यहीं रह जाना है।
ग्वाल कवि का महत्त्व रीति आचार्य की दृष्टि से बहुत महती है। उन्होंने "दूषण दर्पण" में हिंदी कवियों की कविताओं के उदाहरण संकलित करके उनका दोष विवेचन किया है। ग्वाल कवि से पहले दोष विवेचना को इतना अधिक महत्त्व किसी कवि ने नहीं दिया था।
कुछ विद्वानों के मतानुसार रीतिकाल के कवियों में आचार्य और कवि दोनों एक ही व्यक्ति के होने का परिणाम उत्कृष्ट काव्य रचना की दृष्टि से बहुत संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता। संस्कृत साहित्य में कवि और आचार्य दो भिन्न-भिन्न श्रेणियों के व्यक्ति रहे। हिंदी काव्य क्षेत्रों में यह भेद लुप्त सा हो गया। इस एकीकरण का प्रभाव अच्छा नहीं पड़ा। आचार्यत्व के लिए जिस सूक्ष्म विवेचना या पर्यालोचन की शक्ति की अपेक्षा होती है, उसका विकास नहीं हुआ। कविगण एक ही दोहे व अपर्याप्त लक्षण देकर अपने कवि कर्म में प्रवृत्त हो जाते थे। काव्यांग का विस्तृत विवेचन, तर्क द्वारा खंडन-मंडन नए सिद्धांतों का प्रतिपादन आदि कुछ ना हुआ।
आचार्य नगेंद्र कहते है कि हिंदी में रीति काव्य प्रायः उपेक्षा का ही भागी रहा है। द्विवेदी युग के आलोचकों ने इस कविता को नीतिभ्रष्ट कहकर तिरस्कृत किया, छायावाद के प्रतिनिधि कवि-लेखक इसको अति ऐंद्रिय और स्थूल कहकर हेय समझते रहे और आज का प्रगतिशील समीक्षक इसे सामंतवाद की अभिव्यक्ति मानकर प्रतिक्रियावादी कविता कहता है।
एक तथ्य यह भी है कि ग्वाल जैसे रीतिबद्ध आचार्य कवियों के रीति निरूपण की यह प्रवृति अपनी विशिष्ट पृष्ठभूमि और परंपरा के साथ आई थी, जो आगे चल कर इस युग की प्रवृति का द्योतक बनी। यह काल हिंदी साहित्य के इतिहास में काव्य को अपनी प्रौढ़ता तक पहुँचाने वाला काल सिद्ध हुआ है।
संदर्भ
दे० प्रभुदास मितल, ग्वाल कवि के ग्रंथों की समीक्षा, ब्रजभारती, वर्ष ११ (सं० २०१०) अंक ४, पृ. २७-३६।
हिंदी साहित्य कोश, भाग २, संपादक डॉ० धीरेंद्र वर्मा, ज्ञान मंडल लिमिटेड वाराणसी, द्वितीय संस्करण १९८६, पृष्ठ १६५-१६६)
हिंदी साहित्य का अद्यतन इतिहास, डॉ० मोहन अवस्थी, सरस्वती प्रेस इलाहाबाद, संस्करण १९७३, पृष्ठ १५२-१५३)
आचार्य रामचंद्र शुक्ल, हिंदी साहित्य का इतिहास, पृष्ठ- १८१)
लेखक परिचय
लतिका बत्रा
लेखक एंव कवयित्री
शिक्षा - एमए, एमफिल, बौद्ध विद्या अध्धयन
प्रकाशित पुस्तकें - उपन्यास (तिलांजलि), तीन कवयित्रियों का साँझा काव्य संग्रह (दर्द के इन्द्र धनु), आत्मकथात्मक उपन्यास (पुकारा है जिन्दगी को कई बार ...डियर कैंसर), साँझा लघुकथा संग्रह (लघुकथा का वृहद संसार)
व्यंजन विशेषज्ञ, फूड स्टाईलिस्ट (गृहशोभा, सरिता, गृहलक्ष्मी जैसी पत्रिकाओं में कुकरी कॉलम)
ई मेल - latikabatra19@gmail.com
मोबाईल नं - 8447574947
लतिका जी नमस्ते। कवि ग्वाल पर आपका लिखा बढ़िया लेख पढ़ने को मिला। आपके लेख के माध्यम से उनके सृजन की विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteलतिका जी, आप ने एक बार फिर अपने आलेख के माध्यम से सार्थक जानकारी सुव्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत की है। कवि ग्वाल और रीतिकाल के कवियों एवं उनके प्रति उपेक्षा भाव की भावना के बारे में भी पता चला। इस शोधपरक लेख के लिए आपको साभार बधाई
ReplyDeleteविशद व्याख्या के साथ सुंदर प्रस्तुति
ReplyDelete👍👍🙏