Friday, September 23, 2022

मैनेजर पांडेय : विचारशील अध्येता, खोजी आलोचक

 

आलोचना के अपने रचनाकर्म में समाज और समय की महत्ता पर ज़ोर देने वाले मार्क्सवादी विचारक, चिंतक और आलोचक हैं मैनेजर पांडेय। इनके आलोचना क्षेत्र का विस्तार इतना व्यापक है कि उसमें इतिहासकार, समाजशास्त्री, समाजविज्ञानी, अर्थशास्त्री सभी समाहित हैं। वे किसी भी कृति की आलोचना निरपेक्ष होकर नहीं करते, यह बात उन्हें एक महत्त्वपूर्ण आलोचक के रूप में स्थापित करती है। उन्होंने हिंदी की आलोचना को सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के आलोक में, देश-काल और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अधिक संपन्न किया है। रविभूषण के अनुसार, पांडेय जी उन रूढ़िवादी मार्क्सवादियों में नहीं हैं, जो अपने समय से निरपेक्ष होकर, उन्नीसवीं या बीसवीं सदी के प्रारंभ के मार्क्सवादी सिद्धांत हमारे सामने पेश करते हैं। इनके मार्क्सवाद में हम एक तरह का नवीनीकरण देखते हैं। पांडेय जी समय और सभ्यता के समीक्षक हैं। वे शब्द को अर्थ से, अर्थ को अनुभव से, अनुभव को संवेदना से, संवेदना को यथार्थ से, यथार्थ को समाज से और समाज को इतिहास से जोड़ते हैं। इनका ध्यान एक विशेष रचनाकार पर उतना अधिक नहीं होता, जितना अधिक उस समय की प्रवृत्ति पर होता है। वे इतिहास, आलोचना, समाज, संस्कृति, जीवन, साहित्य दृष्टि सब एक-दूसरे से जोड़कर लेखन करते हैं।

मैनेजर पांडेय का जन्म बिहार के गोपालगंज जनपद के लाहोटी गाँव में २३ सितंबर १९४१ को हुआ। गाँव में पढ़ाई का माहौल बिलकुल नहीं था। इन्हें नवीं कक्षा तक पढ़ने के लिए रोज़ाना आठ किलोमीटर पैदल चलकर जाना पड़ता था। बरसात के दिनों में घर से स्कूल के बीच के रास्ते में पानी इतना गहरा होता था कि इन्हें स्कूल के कपड़ों की गठरी बाँधकर ऊपर की ओर करते हुए पानी पार करना पड़ता था। ये घर के पहले साक्षर और गाँव के पहले स्नातक थे। इन्हें स्कूल के एक अध्यापक शेख़ वाजिद से साहित्य पढ़ने की प्राथमिक प्रेरणा मिली। इन्होंने जो पहली पुस्तक पढ़ी, वह थी प्रेमचंद की कहानियों का पहला खंड 'मानसरोवर'। 

बारहवीं से आगे पीएचडी तक की पढ़ाई बनारस से की। यहाँ रहते हुए साहित्य, संस्कृति और राजनीति में समृद्ध होते रहे। यहीं पर वार्डन-शिक्षक विश्वनाथ राय के सान्निध्य में वे चार वर्ष सर्वोदय की गतिविधियों से जुड़े रहे। बनारस में इन्हें 'धूमिल' की संगति से बहुत कुछ सीखने को मिला। छात्र-संगठन के चुनावों से छात्र-राजनीति में सक्रिय हुए। उसी समय वे मार्क्सवादी विचारधारा से ऐसे प्रभावित हुए कि मार्क्सवाद के साथ का वह जुड़ाव उनके जीवन और लेखन में आज भी मौजूद है। अध्यापक शीतिकंठ मिश्र से प्रभावित होकर साहित्यिक आलोचना में पैदा हुई रुचि का विकास उनके जीवन में आज तक हो रहा है। प्रोफ़ेसर जगन्नाथ के निर्देशन में सूरदास पर शोध लिखा। पीएचडी के बाद बरेली कॉलेज, बरेली में दो वर्ष अध्यापन किया, उसके बाद जोधपुर विश्वविद्यालय में छह साल प्राध्यापक रहे। आलोचनात्मक लेखन की व्यवस्थित शुरुआत जोधपुर से ही हुई। 

वर्ष १९७८ में इनकी नियुक्ति जेएनयू के भाषा संस्थान, भारतीय भाषा केंद्र में हुई। मानवता और जन-संस्कृति के पक्षधर पांडेय जी साहित्य और मनुष्यता की रक्षा के लिए लगातार लिखते, बोलते और संघर्ष करते रहते हैं। मार्क्सवादी विचारधारा में गहरी निष्ठा के बावजूद इन्हें गाँधीवाद, लोहियावाद, अंबेडकरवाद आदि विचारधाराओं में मानवता के हित में जो मिला, उसे लेने से कभी परहेज़ नहीं किया। मैनेजर पांडेय का यह भी कहना है, "अपने समय और समाज के संदर्भ में प्रगतिशील होने के लिए मार्क्सवादी होना आवश्यक नहीं है। अगर कोई रचनाकार अपने समय और जीवन से गहरे स्तर से जुड़ा हुआ है, तो उसकी रचनाशीलता में प्रगतिशीलता होगी।"

पांडेय जी ने भक्तिकालीन कवियों से लेकर वर्तमान लेखकों और चिंतकों तथा उनकी कृतियों पर आलोचनात्मक लेख लिखे हैं। इनकी पुस्तक 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य' ने हिंदी साहित्य और हिंदी समाज को भक्ति आंदोलन और सूरदास के काव्य को देखने की नई दृष्टि दी है। इन्होंने भक्तिकाल के साहित्य को मनुष्य की चेतना जगाने वाला, नई दिशा देने वाला बताया है। इनके विचार से कबीर, सूर, तुलसी, मीरा तथा अन्य भक्तिकालीन कवियों की कविता मनुष्य के सामाजिक-जीवन में जो तरह-तरह की दुविधाएँ और समस्याएँ हैं, उनसे अलग हटकर, मनुष्य-मात्र के रूप में देखने को प्रेरित करती है। जाति-पाँति के भेदभाव से विहीन ये एकता और समानता की कविताएँ हैं, इसलिए आज भी हमारे लिए आदर्श कविताएँ हैं। भक्तिकाल के सभी कवियों की कविताएँ अपनी मातृभाषा में लिखना पांडेय जी ने भक्तिकाल की एक बड़ी विशेषता बताई है। 

पांडेय जी ने कई नई धारणाएँ स्थापित की हैं। सूरदास को आमतौर पर प्रेम और वात्सल्य का कवि बताया गया है, लेकिन इन्होंने सूरदास को किसान-जीवन से जोड़कर जो व्याख्या की है, वह हिंदी में पहली बार सामने आई है। इनके विचार से सूरदास का काव्य राजनीति से मुक्त नहीं है। उनके काव्य में निहित राजनीतिक तेवर को रेखांकित करने का काम मैनेजर पांडेय ने किया है। कबीर को इन्होंने क्रांतिकारी इसलिए माना है, क्योंकि कबीर ने धर्मशास्त्र के पूरे वर्चस्व को तोड़कर, वर्ण-व्यवस्था तोड़ते हुए समाज के बराबरी की बात की है। 

दलित आंदोलन को समझने के लिए पांडेय जी उसकी जड़ों तक गए। इनका कहना है कि दलित रचनाओं को पारंपरिक प्रतिमानों से नहीं समझा जा सकता, उन्हें समझने के लिए दलित-सौंदर्य-शास्त्र आवश्यक है।  

वर्तमान नारीवाद आंदोलन पर इनका कहना है कि यह शहर-केंद्रित आंदोलन है। जब तक स्त्री आंदोलन गाँव की ओर रुख़ नहीं करेगा, स्त्री-मुक्ति के वास्तविक सवालों के उत्तर नहीं मिल सकते। पांडेय जी ने दलित स्त्री की पराधीनता को तीन स्तरों पर बताया है- जाति, लिंग और दलित पुरुष का स्त्री के साथ वह आचरण, जिसका विरोध वह अपने लिए करता है। स्त्री अपने अंदर के दासत्त्व से जब तक मुक्त नहीं होगी, तब तक उसकी मुक्ति असंभव है। पांडेय जी के मत से हिंदी में स्त्री आलोचना का विकास नहीं हुआ है, विमर्श का विकास हुआ है। 

वर्तमान भारत में मार्क्सवाद की स्थिति के बारे में पूछे जाने पर ये कहते हैं, "देश में मार्क्सवाद का भविष्य कमज़ोर, अंधकारमय और धुंधला लग रहा है। वर्तमान को देखते हुए भविष्य की चिंता अगर करें, तो मार्क्सवादी आलोचक, साहित्यकार रहेंगे, जीवन-जगत को देखने की दृष्टि के रूप में मार्क्सवाद होगा; लेकिन यदि जन-आंदोलन न होंगे तो मार्क्सवादी राजनीति और साहित्य कमज़ोर हो जाऐंगे।" 

भाषा की राजनीति पर इन्होंने लिखा है, "भाषा दिलों को जोड़ती है। इसी प्रक्रिया में वह पलती और बढ़ती है; लेकिन भाषा की राजनीति उसे नफ़रत और दहशत का साधन बना देती है। …शासकवर्ग जिस भाषा का उपयोग करता है, उसके उपयोग और अर्थ को नष्ट करने की कोशिश भी वह करता है।"

सजग और समर्थ आलोचक मैनेजर पांडेय जितने अच्छे आलोचक हैं, उतने ही कुशल अध्यापक भी हैं। अकादमिक क्षेत्र में इनका बड़ा योगदान है। उच्च शिक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में विस्तार का कार्य पांडेय जी ने किया है। 'साहित्य का समाजशास्त्र' और 'साहित्य की इतिहास दृष्टि' इन दो विषयों को गंभीरता से लेने वाले ये पहले रचनाकार हैं। इनसे पहले इन विषयों की सार्थकता का उल्लेख हुआ था, लेकिन इनको अकादमिक आधार इन्होंने अपनी पुस्तक 'साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका' में दिया, "साहित्य के समाजशास्त्र का मुख्य उद्देश्य है- समाज से साहित्य के संबंध की खोज और उसकी व्याख्या। ऊपरी तौर पर समाज से साहित्य का संबंध जितना सरल और सहज दिखाई देता है, उतना वह होता नहीं है। गहरे स्तर पर छान-बीन करने के दौरान उसकी जटिलताएँ सामने आती हैं।"

कई भूली-बिसरी रचनाओं का संपादन करके उनसे पाठकों का परिचय करवाने का महत्त्वपूर्ण काम किया है पांडेय जी ने। मुंशी नवजादिक लाल श्रीवास्तव द्वारा लिखे क़रीब ३० देशों के आज़ादी के इतिहास और मुग़ल बादशाहों के ब्रजभाषा काव्यों के संकलन और संपादन का काम पांडेय जी ने किया है। इसके अलावा आज़ादी के पहले अँग्रेज़ों द्वारा प्रतिबंधित कई कृतियों का संपादन भी इनके हाथों हुआ है। 

पांडेय जी विद्यार्थियों के साथ विचारधारा को लेकर भी कभी भेद-भाव नहीं करते, इनके लिए विद्यार्थी केवल विद्यार्थी है। इनकी कक्षा में समाजशास्त्र तथा दूसरे विषयों के विद्यार्थी और शोधार्थी भी जाते थे। छात्र इन्हें बहुत पसंद करते थे, ज़रूरत पड़ने पर ये उनके अभिभावकों की भी भूमिका निभाते थे; इसलिए इनके छात्र इनके साथ व्यक्तिगत समस्याएँ तक साझा करते थे। इनके दरवाजे सबके लिए खुले रहते हैं। पांडेय जी से पढ़े विद्यार्थी इन्हें नारियल की तरह बाहर से कड़क और भीतर से तरल बताते हैं। 

अपने लेखन के संदर्भ में वे कहते हैं, "कोई भी लेख लिखने से पहले मैं उसकी गहरी खुदाई करता हूँ।" उनकी इस बात को आगे बढ़ाते हुए रविभूषण कहते हैं, "वे खुदाई ही नहीं, जुताई भी गहरी करते हैं। खुदाई और जुताई गहरी होने के बाद उनकी फसलें लहलहाती हैं।" ये हिंदी आलोचना में ही नहीं, भारतीय आलोचना में भी इस समय गहरी खुदाई करने वाले अकेले आलोचक हैं।

नामवर सिंह के साथ पांडेय जी का लंबा साथ रहा। पहले जोधपुर में, बाद में जेएनयू में दोनों ने एक ही समय अध्यापन किया था। पांडेय जी के नामवर और रामविलास शर्मा जी के साथ कुछ मतभेद थे, लेकिन मन-भेद कतई नहीं। उनके चित्त की जो विशालता लोगों के साथ संबंधों में है, वही हमें उनके लेखन में देखने को मिलती है। 

पांडेय जी के सेवा-निवृत्ति विदाई-समारोह में नामवर सिंह ने कहा था, "कुछ व्यक्ति होते हैं जिनकी जगह दिगंत भी नहीं भर सकता। भारतीय भाषा केंद्र के बारे में यही कह सकता हूँ। बेशक पांडेय जी जैसा कोई न तो है और न दूसरा होगा। ऐसा व्यक्ति जिसने बिना किसी लाभ-लोभ के बेबाक़ी के साथ साहित्यिक सच कहा हो, आलोचना को निहायत समकालीनता की क़ैद से मुक्त किया हो, साथ ही ज़रूरी समकालीन सवालों की अनदेखी पर सवाल उठाया हो। भाषा में चमत्कार की जगह उसे शब्द और कर्म से जोड़ा हो, अख़बारी आलोचना और गंभीर आलोचना में मिट रहे फ़र्क को सैद्धांतिक और व्यावहारिक रूप में ज़ाहिर किया हो और आलोचना को लोक-धर्मी बनाया हो। हिंदी आलोचना पर पांडेय जी के ये वे शुभ प्रभाव हैं, हिंदी समाज जिनका सदैव ऋणी रहेगा।"

संस्कृत-साहित्य के विद्वान राधावल्लभ त्रिपाठी ने इन्हें खुली सोच, उदार दृष्टि से साहित्यिक परंपराओं को साथ लेकर चलने वाला एकदम सुलझा हुआ समीक्षक बताया है। लेखक गोपेश्वर सिंह के अनुसार मैनेजर पांडेय अपने समय के साहित्यिक संघर्ष की रणनीति तैयार करने वाले आलोचक हैं। 

मैनेजर पांडेय ने आलोचना की मशाल न केवल ख़ुद जलाए रखी है, बल्कि उसके अनेक वाहक भी तैयार किए हैं। नए लेखकों और विचारकों के लिए इनकी राय है कि वे अपने समाज और समय को देखें और उसकी ख़ामियों और ख़ूबियों को अपनी रचनाओं-आलोचनाओं में पूरी सत्यता से उतारें। उसी से उनका साहित्य और भारतीय समाज बेहतर होगा। 

अब तक अनेक पुस्तकों समेत 'मेरे साक्षात्कार', 'मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ', 'संवाद-परिसंवाद' और 'बतकही' ये चार साक्षात्कार-संवाद-संकलन प्रकाशित हो चुके हैं। विदेशों के भारतविद तथा समाजशास्त्र, सामाजिक आंदोलन एवं वर्तमान मुद्दों पर कार्यरत लोग और शोधार्थी इन्हें जानते हैं। मैनेजर पांडेय जी इक्यासीवें साल में प्रवेश कर रहे हैं। हम कामना करते हैं कि हमारे समय का यह महत्त्वपूर्ण आलोचक स्वस्थ रहे और स्वस्थ आलोचना के प्रतिमान विकसित करता रहे।  

इनके जीवन से जुड़े कुछ तथ्य

  • ग्यारह वर्ष की उम्र में पांडेय जी की माँ गुज़री, तेरहवें वर्ष में विवाह हुआ। 

  • पांडेय जी के पिता की नहर में डूबकर हुई मृत्यु के तुरंत बाद इंदिरा गाँधी की हत्या से दिल्ली में पैदा हालात के कारण वे अपने गाँव तीन दिन बाद ही जा पाए थे, जिसका उन्हें अफ़सोस है। 

  • वर्ष २००१ में पुलिस ने इनके इकलौते पुत्र आनंद की हत्या की। 

  • छात्र-जीवन में हिंदी और भोजपुरी दोनों भाषाओं में कविता लिखते थे। अभी भी गाँव जाने पर इनके पुराने मित्र इन्हें कवि जी कह कर बुलाते हैं। 

  • रामचंद्र शुक्ल को हिंदी का सर्वश्रेष्ठ आलोचक मानते हैं, फणीश्वरनाथ रेणु उनके प्रिय कथाकार हैं और नागार्जुन तथा राजकमल चौधरी उनके प्रिय कवि रहे हैं। 

  • राजेंद्र यादव के साथ इनकी दोस्ती ऐसी अनोखी थी कि कोई इन्हें फ़ोन पर बात करते देखता-सुनता तो उसे इनके बीच वाद-विवाद लगता, लेकिन असलियत में मन-मुटाव ज़रा भी नहीं था।  

  • लोहिया, जयप्रकाश नारायण, राजनारायण के साथ घनिष्ठ संबंध रहे। इनके साथ उठना-बैठना, सीखना-सिखाना होता था। 

  • सप्ताह में एक बार जेएनयू के पुस्तकालय ज़रूर जाते हैं। 

  • विनोदी, स्पष्टवादी एवं प्रभावी वक्ता हैं। एक-एक शब्द का अतिस्पष्ट उच्चारण इनके वक्तव्य को विशेष बनाता है। 

  • बाबा नागार्जुन के साथ इनके व्यक्तिगत संबंध थे, वे दिल्ली आने पर इनके साथ रहा करते थे।

  • ये दाराशिकोह के गंभीर अध्येता हैं। 

  • जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र से प्रोफ़ेसर एवं अध्यक्ष पद से सेवा-निवृत्त। 

  • जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय अध्यक्ष रह चुके।  

मैनेजर पांडेय जी के कुछ वाक्य, जो सूक्तियों की तरह हैं, 

  • आलोचना अपने समय की विवेक-चेतना का प्रतिनिधित्व करती है। 

  • आलोचना पुरोहिती नहीं कि यजमान की जय-जयकार करके कल्याण चाहा जाए। 

  • आलोचना जब नितांत रचनाजीवी होती है तो वह अनिवार्यतः परोपजीवी हो जाती है। 

  • कविता ख़बर भी होती है, लेकिन ऐसी ख़बर जो हमेशा ख़बर बनी रहती है। 

  • उपन्यास मध्ययुगीनता के विरुद्ध आधुनिकता की अभिव्यक्ति करनेवाला साहित्यिक रूप है। 

  • केवल राख ही जानती है जलने का अनुभव। 

  • सुविधा की राजनीति दुविधा की भाषा में व्यक्त होती है। 

  • जो लोग जोड़-तोड़ की कला से अभूतपूर्व साहित्यकार बन जाते हैं, वे कुछ ही समय बाद भूतपूर्व भी हो जाते हैं। 

  • सार्थकता हमेशा सामाजिक होती है, सफलता हमेशा व्यक्तिगत होती है। 

  • साहित्य का काम है सामाजिक संवेदनशीलता पैदा करना और सामाजिक संवेदनशीलता से साहित्य की रचना संभव होती है। 

  • मनुष्य का जीवन जीना, जानना, सोचना, अनुभव करना और रचना करना भाषा में ही संभव होता है। 

  • आलोचना रचना की व्याख्या करती हुई, उसे व्यापक पाठक समुदाय तक पहुँचने में मदद करती हुई खुद सामाजिक बनती है और रचना को भी सामाजिक बनाती है। 

  • ज्ञान के ऐसे दो अनुशासन हैं, जो आलोचना को विकसित और समृद्ध करने में मदद दे रहे हैं; पहला है इतिहास और दूसरा समाजवाद।


मैनेजर पांडेय : जीवन परिचय

जन्म

२३ सितंबर १९४१, गाँव लोहाटी, जनपद - गोपालगंज, बिहार 

पत्नी

श्रीमती शारदा देवी

संतान

स्व० आनंद पांडेय (पुत्र), तीन पुत्रियाँ 

व्यवसाय

अध्यापन, लेखन, अनुवाद 

कर्मभूमि

बरेली, जोधपुर, दिल्ली 

शिक्षा

  • बीए, एमए - डीएवी कॉलेज; बनारस विश्वविद्यालय, बनारस 

  • पीएचडी - काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी

साहित्यिक रचनाएँ

साक्षात्कार संकलन

  • मेरे साक्षात्कार (१९९८)

  • मैं भी मुँह में ज़बान रखता हूँ (२००६)

  • संवाद-परिसंवाद (२०१३)

  • बतकही (२०१९)

किताबें

  • शब्द और कर्म (१९८०)

  • साहित्य और इतिहास (१०९१)

  • भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य (१९८२) परि० संस्करण (१९९७)

  • साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका (१९८९)

  • आलोचना की सामाजिकता (२००५)

  • उपन्यास और लोकतंत्र (२०१३)

  • हिंदी कविता का अतीत और वर्तमान (२०१३)

  • आलोचना में सहमति-असहमति (२०१३)

  • भारतीय समाज के प्रतिरोध की परंपरा (२०१३)

  • साहित्य और दलित दृष्टि; शब्द और साधना

  • बहस दर बहस 

अनुवाद एवं संचयन

  • संकट के बावजूद (विदेशी लेखकों के कुछ चुनिंदा साक्षात्कार एवं आलेख)

  • अनभै साँचा (प्रकाशित मौलिक आलेखों एवं दो साक्षात्कारों का संग्रह)

  • मैनेजर पांडेय : संकलित निबंध (२००८)

संपादित पुस्तकें

  • देश की बात

  • मुक्ति की पुकार 

  • सीवान की कविता 

  • नागार्जुन : चयनित कविताएँ 

  • सूर संचयिता 

  • पराधीनों की विजय यात्रा 

  • आचार्य द्विवेदी की स्मृति में (द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ) २०१५ 

  • मुग़ल बादशाहों की हिंदी कविता २०१६ 

  • लोकगीतों और गीतों में १८५७ 

आलोचना कर्म पर केंद्रित कृतियाँ

आलोचना का आत्मसंघर्ष - २०११, सं० रवि रंजन 

दूसरी परंपरा का शुक्ल पक्ष - २०१६, कमलेश वर्मा, सुचिता वर्मा 

मैनेजर पांडेय : शिनाख़्त - २०२१, संपादक : डॉ० अर्चना त्रिपाठी और डॉ० मिथिलेश कुमार शुक्ल 

पुरस्कार व सम्मान

  • शलाका सम्मान (हिंदी अकादमी दिल्ली) २०१६-१७

  • राष्ट्रीय दिनकर सम्मान (बिहार) 

  • गोकुल चंद आलोचना पुरस्कार (रामचंद्र शुक्ल शोध संस्थान, वाराणसी)

  • सुब्रह्मयम भारती सम्मान (दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, चेन्नई)


संदर्भ

लेखक परिचय

डॉ० सरोज शर्मा

शिक्षा - एमए, पीएचडी, भाषा विज्ञान (रूसी भाषा); 
कार्यानुभव - रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद
विशेष - वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।

4 comments:

  1. Very Informative and I agree with his views of Marxism !🙏

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  2. सरोज, मैनेजर पांडेय का परिचय तुम्हारी कलम से पाकर मज़ा आ गया। ताज्जुब होता है यह जानकर कि कर्म-क्षेत्र इतना विस्तृत होने के बावजूद भी पांडेय जी की दृष्टि की पैठ कितनी गहरी थी। मार्क्सवाद को किताबी सिद्धांतों के परे व्यावहारिक समझ के साथ अपने व्यक्तित्त्व और कृतित्व में उतारने वाले मैनेजर पांडेय जी को सादर नमन। मैनेजर पांडेय जी सदा सक्रिय, स्वस्थ और व्यस्त रहें, उन्हें जन्मदिन बहुत मुबारक हो। तुम्हें इस आलेख के लिए बधाई और आभार।

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  3. सरोज जी नमस्ते, आपने बहुत ही सुंदर तरीके से विशद विवरण दिया
    बेहतरीन आलेख👍👍
    🙏
    🙏🙏

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  4. सरोज जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपके लेख के माध्यम से मैनेजर पाण्डे जी को पुनः जानने का अवसर मिला। आपने उनके व्यापक साहित्य सृजन का विस्तृत परिचय दिया। जब भी उनको सुनने का अवसर मिला और हर बार उनका बेबाक अंदाज प्रभावित करता रहा। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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