Saturday, September 24, 2022

मलिक मोहम्मद जायसी : रागात्मकता के अनन्य उपासक


"यात्रीगण, कृपया ध्यान दें। पद्मावत एक्सप्रेस प्लेटफॉर्म संख्या…… . पर आ रही है।" 

विभिन्न रेलवे स्टेशनों पर यह कर्ण प्रिय आवाज़ सुनते ही बरबस ही आँखों में जायसी की झलक तैर जाती है, जबकि आज की पीढ़ी को उनके साक्षात दर्शन भी नहीं हुए हैं। एक साहित्यकार के लिए इससे बड़े गौरव की बात और क्या हो सकती है!


रायबरेली-सुल्तानपुर राष्ट्रीय राजमार्ग पर अमेठी जनपद में एक छोटा सा, अल्हड़ सा अलसाया हुआ कस्बा है, जायस। जी हाँ, जायस नाम ही पर्याप्त है यह बताने के लिए कि यह हिंदी साहित्य का वह स्थान है, जहाँ से गुजरते हुए वह आज विश्व क्षितिज पर जाज्वल्यमान है। 


प्रेम की सूफ़ियाना बातों का ज़िक्र होने पर अतीत की गर्त से मलिक मोहम्मद जायसी का नाम मानस पटल पर चलचित्र की भाँति चलायमान हो जाता है। हिंदी साहित्य के भक्तिकाल में दो काव्यधाराओं का उल्लेख है, निर्गुण और सगुण। जायसी निर्गुण काव्यधारा की प्रेमाश्रयी शाखा के प्रवर्तक कवि माने जाते हैं। इनके जन्मस्थान की सटीक जानकारी नहीं है। कुछ लोग उनका जन्मस्थान जायस के कंचाना मोहल्ले को मानते हैं, जहाँ आजकल स्मृति स्वरूप मात्र एक नाम पट्टिका लगी है। कुछ लोग गाज़ीपुर मानते हैं, जहाँ से सुधाकर जी, मिश्रबंधु, शुक्ल जी, रामनरेश त्रिपाठी व बाबू श्यामसुंदर दास जैसे दिग्गज साहित्यकार आते हैं। इस संबंध में अनेक मत हैं। परंतु उनका जीवन पवित्र नगरी जायस में ही व्यतीत हुआ। पद्मावत ही उनके जायस निवास का संदर्भ है,

"जायस नगर धरम अस्थानू, 

तहाँ आय कवि कीन्ह बखानू।"


एक जनश्रुति यह भी है कि अमेठी के राजा को किसी भिखारी ने बारहमासा गाकर सुनाया था, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने जायसी को बुलाया था। कुछ भी हो लेकिन यह बात सत्य है कि उन्हें अमेठी के राजा का प्रश्रय प्राप्त था। इसका प्रमाण अमेठी के रामनगर में स्थित समाधि से प्राप्त होता है। अपने साहित्य के बहाने वे जायस के प्राचीन इतिहास पर भी प्रकाश डालते हैं। निश्चित रूप से धर्मरूप में जायस की प्रतिष्ठा प्राचीन हिंदू काल से थी। इसे उद्दानगर, विद्यानगर, उजालिक नगर, उदयन आदि नामों से विभूषित किया जाता रहा है। अति प्राचीन काल में यह ऋषि उद्दालक की निवास स्थली हुआ करती थी। महाराज उदयन की राजधानी, ऋषियों की तपोस्थली, गुरु गोरखनाथ की जन्मस्थली और विद्या का केंद्र होने के कारण ही कवि इसे धर्मस्थान की संज्ञा देता है। जायस नगर की धार्मिक महत्ता स्वयं जायसी ने अपनी कृति 'कन्हावत' में बताई है,

"कहउँ नगर बड़ आपनु ठाऊं, सदा सोहावा जायस नाऊं। 

सतजुग हुतौ धरम अस्थानू, वहिया करत नगर उदियानू। 

पुनि त्रेता गएउ द्वापर मुखी, भूंजा राज महारिखि रिखी। 

रहत रिखीसुर सहस अठासी, धनै धंट पोखर चौरासी।"


इसी परिप्रेक्ष्य में ये पंक्तियाँ भी ध्यातव्य हैं,

"जायस नगर मोर अस्थानू

नगरक नाँव आदि उदयानू

तहाँ देवस दस पहुने आएऊं

भा बैराग बहुत सुख पाएउँ।"


जहाँ तक जन्मकाल की बात है तो उसका संदर्भ उनकी रचना 'खरावट' है,

"भा अवतार मोर नव सदी, 

तीस बरख ऊपर कवि बदी।"


स्पष्ट रूप से यह पंक्ति उनके जन्म का समय ८३० हिजरी निर्धारित करती है। मलिक उनकी पदवी व जायसी निवास स्थान संदर्भित करता है। उनके माता-पिता का भी कोई विवरण नहीं मिलता है। कहा जाता है कि उनके माता-पिता साधारण कृषक थे और कृषि ही उनकी आजीविका थी। जायसी का विवाह जायस में ही हुआ था। जनश्रुतियों के अनुसार वे घर में भाई से रुष्ट होकर अपनी ससुराल में ही रहा करते थे; वहीं पर साहित्य सृजन करते थे। कुछ विद्वान उन्हें हिंदू धर्म से संबद्ध करते हैं, उनमें गार्सा-द-तासी भी हैं। वे जायसी को जायसी दास बताते हैं। लाला सीताराम लिखते हैं, "He was evidently the descendant of a Hindu convert and had received, as will be shown afterwards, a sufi training."  


उपरोक्त विचार कहाँ तक सही हैं, इसका कोई साक्ष्य नहीं है। बहरहाल जो भी हो, जायसी एक सच्चे दीन मुसलमान थे। उनकी गुरु परंपरा यही इंगित करती है। अपने गुरु और मित्रों का भी उन्होंने उल्लेख किया है। सैयद अशरफ़ उनके दीक्षागुरु (पीर) थे, जिसका स्पष्ट विवरण उनकी कृति पद्मावत में मिलता है,

"सैयद अशरफ पीर पियारा, 

जेहि मोहि पंथ दीन उजियारा।"


जहाँ तक ज्ञान प्राप्ति की बात है, उन्हें अनेक श्रेष्ठ गुरुजनों का सान्निध्य प्राप्त हुआ था, जिसका विवरण उन्होंने स्वयं किया है,

"गुरु मेहदी खेवक मै सेवा, चले उताइल जेहि का खेवा। 

अगुआ भयउ शेख बुरहानू, पंथ लाई मोहि दीन्ह गियानू। 

अलहदाद भल तेहि कर गुरु, दीन दुनी रोशन सुरखुरु। 

सैयद मोहमद कै वै चेला, सिद्ध पुरुष संगम जेहि खेला। 

दानियाल गुरु पंथ लखाए, हजरत ख्वाज खिजिर तेहि पाए। 

भए प्रसन्न ओहि हजरत ख्वाजे, लिए मेरई जँह सैयद राजे। 

ओहि सेवत मैं पाई करनी, उघरी जीभ, प्रेम कवि बरनी।"


फ़क़ीर और संत प्रसिद्धि आदि से परे रहते हैं, किंतु जायसी में प्रसिद्धि की लालसा थी। शायद इसका कारण उनका निसंतान होना था। कहा जाता है कि एक दुर्घटना में उनके पुत्रों की मृत्यु हो जाने के बाद उन्हें गृहस्थ जीवन से बैराग हो गया और वे सूफ़ी संत हो गए,

"औ मैं जानि गीत अस कीन्हा, मकु यह रहै जगत में चीन्हा। 

केई न जगत जस बेंचा, केई न लीन्ह जल मोल?

जो यह पढ़ै कहानी, हम्ह संवरै दुई बोल।"


कहते हैं जायसी कुरूप थे, जिसका साक्ष्य उनकी यह पंक्ति है,

"एक नयन कवि मोहमद गुनी

मोहमद बाईं दिसि तजा, एक सरवन एक आँख।"


जायसी की आध्यात्मिकता व चिंतनशीलता देखकर शेरशाह विस्मित हो गया था। एक बार जब जायसी शेरशाह के दरबार में पहुँचे तो शेरशाह उन्हें देखकर हँसने लगे। इस पर जायसी ने कहा,

"मोहि का हंससि की कोहरहि.."

अर्थात - तुम मुझ पर हँस रहे हो या मुझे बनाने वाले कुम्हार पर हँस रहे हो।


यह सुनकर शेरशाह अति लज्जित हुआ, जायसी से क्षमा-याचना की और उनका अनुयायी हो गया। 


जायसी के पद्मावत को विश्व साहित्य में कालजयी स्थान प्राप्त है। हिंदी साहित्य में जायसी को प्रतिष्ठित करने का श्रेय गार्सा-द-तासी से प्रारंभ होता है। असाधारण बात यह है कि पद्मावत की भाषा अवधी और लिपि फ़ारसी है, इस बाबत भी जानकारी तासी से ही प्राप्त होती है। जहाँ तक हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की बात है, वह प्रख्यात भाषा मर्मज्ञ ग्रियर्सन से आरंभ होती है। जायसी के संदर्भ में उनका मत कुछ इस प्रकार है, "उन्होंने अपने युग की शुद्धतम भाषा में पद्मावत नामक दार्शनिक महाकाव्य लिखा।"


आचार्य शुक्ल ने पद्मावत को भक्ति काल का 'वेद वाक्य' और डॉ० नगेंद्र ने 'रोमांचक शैली का कथा-काव्य' कहा है। जायसी को हिंदी में अप्रितम स्थान दिलाने में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का बड़ा योगदान रहा है। 'जायसी ग्रंथावली' में उन्होंने उसे एक व्यापक फलक प्रदान किया है। 


दार्शनिकता, सूफ़ी-प्रेम, लौकिकता, इतिहास और कल्पना का अनूठा संगम है, पद्मावत। इस संदर्भ में विद्वानों के मध्य वैचारिक मतभेद हो सकते हैं, किंतु साहित्यिक दृष्टिकोण से यह हिंदी की अनुपम धरोहर है। मसनवी शैली में रचित पद्मावत की कथा दो भागों में चलती है, प्रथम भाग में राजा रतनसेन (जीव का प्रतिरूप) और महारानी पद्मावती (परमात्मा का प्रतिरूप) के जन्म से लेकर मिलन तक का वर्णन मिलता है। दूसरे भाग में जौहर का मर्मस्पर्शी चित्रण है।अभिव्यंजना, रूपक और रहस्यवाद का आवरण लिए यह एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। सिंहल द्वीप, चित्तौड़, दिल्ली, राणा रतनसेन, रानी पद्मिनी, महारानी नागमती, राघव चेतन, अलाउद्दीन समेत इतिहास को समेटे दोहे और चौपाई में रचित यह महाकाव्य अद्भुत है। कुछ लोग इसे अवधी का प्रथम काव्य मानते हैं, किंतु मिश्र बंधुओं का मत इससे भिन्न है। वे मानते हैं कि पद्मावत से १५ वर्ष पूर्व दादर निवासी हरप्रसाद पुरुषोत्तम ने 'धर्मस्वमेघ' नामक बड़ा ग्रंथ तैयार किया था। 


जायसी इस कथा के बहाने भारतीय संस्कृति और इतिहास का भी चित्रण करते हैं। स्तुति खंड में जब गुरु-वंदना से कथानक का प्रारंभ होता है, तभी शेरशाह का ज़िक्र कर अपने समकालीन इतिहास का परिचय देते हुए वे आगे बढ़ते हैं। भारतीय हिंदू देवी-देवताओं की भी कवि को सम्यक जानकारी है, जिसे उन्होंने इस महाकाव्य में संदर्भित किया है। प्रकृति चित्रण के द्वारा भावनात्मक रहस्यवाद का निखरा हुआ रूप है, यह कृति। कन्या पद्मावती के सौंदर्य वर्णन में कवि ने बहुत ही उच्च प्रतिमान गढ़े हैं,

नयन जो देखी कवँल भइ, निरमर नीर सरीर। 

हँसति जो देखी हंस भइ, दसन जोति नग हीर॥ 


षड्ऋतु और बारहमासा में संयोग व वियोग शृंगार का बहुत ही मार्मिक चित्रण है। बारहमासा एक ऐसा अनमोल ख़ज़ाना है, जिसके बलबूते जायसी हिंदी साहित्य के आकाश में सप्तऋषि की भाँति सुशोभित है। बारह महीने की प्रत्येक अवस्था का ऐसा सांगोपांग विरह चित्रण साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है,

"चढ़ा आसाढ़, गगन घन गाजा। साजा बिरह दुन्द दल बाजा।  

भा बैसाख तपनि अति लागी। चोआ चीर चंदन भा आगी। 

अगहन दिवस घटा, निसि बाढी। दुभर रैनि, जाइ किमि गाढ़ी? 

पूस जाड़ थर-थर तन काँपा। सुरुज जाइ लंका-दिसि चाँपा।

लागेउ माघ, परै अब पाला। बिरह काल भएउ जड़ काला। 

फागुन पवन झकोरा बहा। चौगुन सीउ जाइ नहिं सहा। 

रकत ढुरा माँसू गरा, हाड़ भएउ सब संख। 

धनि सारस होइ ररि मुई, पाउ समेटहि पंख।"


इस संदर्भ में आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन इसकी महत्ता प्रतिपादित करता है, "वेदना का अत्यंत निर्मल और कोमल स्वरूप, हिंदू दांपत्य जीवन का अत्यंत मर्मस्पर्शी माधुर्य, अपने चारों ओर की प्राकृतिक वस्तुओं और व्यापारों के साथ विशुद्ध भारतीय हृदय की साहचर्य भावना तथा विषय के अनुसार भाषा का अत्यंत स्निग्ध, सरल और अकृत्रिम प्रवाह देखने योग्य है।"


आचार्य शुक्ल ने नागमती के विरह-वर्णन को पद्मावत का सबसे सशक्त पक्ष बताया है। उनके अनुसार वियोग में वह रानी का अस्तित्व भूलकर एक साधारण स्त्री की तरह व्यवहार करती है। उसका विरह इतना तीव्र हो जाता है कि जैसे सारी प्रकृति उसके भावों से ही संचालित होने लगती है। पलास और कुंदरू के फल उसके रक्त से ही रंग लेकर लाल हो गए हैं। नागमती वृक्ष से जुड़े ऐसे पीले पत्ते के सामान हो गई, जिसे हवा का झोंका कभी भी गिरा सकता है। जिस पंछी के सामने वह बात करती है, वह वहाँ से उड़ जाता है और जिस तरुवर पर जाकर बैठता है, वह निपत्ता हो जाता है।  


वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर रचित 'अख़रावट' सृष्टि रचना और दार्शनिकता का अद्भुत काव्य है, जिसे जनमानस की भाषा में सहज व सुंदर ढंग से पिरोया गया है। जगत की अस्थिरता का आध्यात्मिक दृष्टिकोण 'अख़रावट' के निम्नलिखित दोहे में प्रतिपादित हुआ है,

"पानी महँ जस बुल्ला, तस यह जग उतिराइ। 

एकहि आबत देखिए, एक है जगत बिलाइ"


'आख़िरी कलाम' मृत्यु के बाद प्राणी की दशा का चित्रण करता है। 'चित्ररेखा' में कन्नौज के राजकुमार प्रीतम कुंवर व चंद्रपुर की राजकुमारी चित्ररेखा की प्रेम-कथा का अनुपम वर्णन है। 


समृद्ध भाव पक्ष के साथ उत्कृष्ट कला पक्ष जायसी के साहित्य की अद्वितीय विशेषताएँ हैं। सामाजिक, सांस्कृतिक और जनमानस को झंकृत करते हुए सहज, सरल और अवधी भाषा में रचित उनका साहित्य हिंदी की अनमोल धरोहर है। रक्त और प्रेमाश्रुओं में भिगोकर रचा गया पद्मावत ही उनकी अक्षय प्रसिद्धि का कीर्ति स्तंभ है, जिसकी पताका संपूर्ण विश्व में फहरा रही है। 


बाबू गुलाबराय के शब्दों में, "जायसी महान कवि हैं, उनमें कवि के समस्त सहज गुण विद्यमान हैं। उन्होंने सामयिक समस्या के लिए प्रेम की पीर की देन दी। उस पीर को उन्होंने शक्तिशाली महाकाव्य के द्वारा उपस्थित किया। वे अमर कवि हैं।"


मलिक मोहम्मद जायसी : जीवन परिचय

मूल नाम

मोहम्मद

जन्म

लगभग १४९२ ई०, जायस, अमेठी, उत्तर प्रदेश

निधन

लगभग १५४२ ई०, (५ रज्जब ९४९ हिजरी)

गुरु 

सैयद अशरफ़(प्रांरभिक गुरु), शेख बुरहान(दीक्षा गुरु)

भाषा

फ़ारसी, अवधी 

कर्मभूमि 

जायस  

शाहे-वक्त

शेरशाह

साहित्यिक रचनाएँ

उपलब्ध और प्रमाणिक

  • पद्मावत

  • आख़िरी कलाम

  • अखरावट

  • चित्ररेखा

  • कहरानामा

  • मसलानामा

अनुपलब्ध और अप्रमाणिक

  • कन्हावत

  • पौस्तीनामा

  • नैनावत

  • परमार्थ जपजी 

  • सखरावत

  • चंपावत

  • इतरावत

  • मरकावत

  • चित्रावत

  • सुर्वानामा

  • मोराईनामा

  • सोरठ

  • मेखरावटनामा 

  • होलिनामा

  • लहतावत

  • सकरानामा

  • मुकरानामा

  • मुखहरानामा


संदर्भ

  • पद्मावत, संपादन - आचार्य रामचंद्र शुक्ल
  • पद्मावत, संपादन - वासुदेव शरण अग्रवाल
  • Bibliotheca Indica: Collection of Oriental Works published by The Asiatic Society of Bengal
  • सुधाकर चंद्रिका
  • www.wikipedia.org

लेखक परिचय

मनीष कुमार श्रीवास्तव


अध्यापक

मास्टर ऑफ फिजिक्स

प्रकाशित रचनाएँ- हाइकु कोश सहित कई साझा संग्रह

एक एकल संग्रह हाइकु कविता पर ‘प्रकाश : एक द्युति( हाइकु क्षितिज)

ईमेल - Manish24bhitari@gmail.com

10 comments:

  1. जायसी पर बहुत सुंदर, सटीक, प्रवाहमयी भाषा में जीवनीनुमा लेख के लिए मनीष जी को बधाई।

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  2. पठनीय व संग्रहणीय आलेख। साधुवाद!

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  3. मनीष, सूफ़ी कवि जायसी पर शोधपरक आलेख उदाहरणों समेत, सहज और दिलचस्प तरीके से लिखने के लिए आपको बधाई और धन्यवाद। मेरी कामना है कि आपकी लेखनी से इससे भी उम्दा रचनाएँ निकलती रहें।

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    1. आपके संपादन ने आलेख की खूबसूरती बढ़ा दी

      आपका ढेर सारा आभार एवं हार्दिक धन्यवाद🙏🙏

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  4. मनीष जी, जायसी पर आपने उनके क़द को सुशोभित आलेख प्रस्तुत किया है। पहली पंक्ति से आख़िरी तक प्रवाहमय और रोचक। आपको सुंदर लेखन की बधाई और आभार।

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    Replies
    1. आपकी स्नेहिल प्रतिक्रिया से बहुत सम्बल मिलता है
      आपका सादर आभार 🙏🙏

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  5. मनीष जी नमस्ते। आपने जायसी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख उनके साहित्य का बढ़िया परिचय दिया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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    Replies
    1. आप हमेशा से उत्साहित करते हैं
      आपकी प्रेरक टिप्पणी अनमोल है
      आपका सादर आभार एवं हार्दिक धन्यवाद🙏🙏

      Delete

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