Sunday, September 4, 2022

धर्मवीर भारती: मानवीय संवेदना के विलक्षण चितेरे

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“टुकड़े-टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा
उसको दोनों ही पक्षों ने तोड़ा है
पाण्डव ने कुछ कम कौरव ने कुछ ज्यादा
यह रक्तपात अब कब समाप्त होना है
यह अजब युद्ध है नहीं किसी की भी जय
दोनों पक्षों को खोना ही खोना है
अंधों से शोभित था युग का सिंहासन
दोनों ही पक्षों में विवेक ही हारा
दोनों ही पक्षों में जीता अंधापन
भय का अन्धापन, ममता का अंधापन
अधिकारों का अंधापन जीत गया
जो कुछ सुन्दर था, शुभ था, कोमलतम था
वह हार गया....द्वापर युग बीत गया”

अपनी कालजयी कृति 'अंधा युग' के माध्यम से मानवीय अनास्था व दुर्बलता के कुशल चितेरे धर्मवीर भारती पौराणिक संदर्भों में आधुनिक समाज के स्वर खोजते हैं और मानव मन की सतत परतों की सूक्ष्म मीमांसा कर व्यवस्था पर ही प्रश्न उठा देते हैं। सामाजिक विषमताओं पर अपनी क़लम से तीखे प्रहार करने वाले तथा समाज की विद्रूपता को अपनी रचनाओं के माध्यम से अनावृत्त कर आधुनिक भारतीय समाज के यथार्थ रूप को पाठकों के समक्ष अभिव्यक्त करने वाले यशस्वी कवि, कथाकार, नाटककार एवं निबंधकार डॉ. धर्मवीर भारती हिंदी साहित्य जगत का दैदीप्यमान सितारा कहे जाते हैं। आधुनिक समाज में सामान्य जन-मानस के समक्ष उभरती चुनौतियों, दमित आकांक्षाओं , विवशताओं और कष्टों पर केंद्रित उनकी रचनाधर्मिता मानव मन की सभी दमित ऐन्द्रियों को उधेड़ कर पाठकों के समक्ष रख देती है और सुधी पाठक इस मनोवैज्ञानिक जीवंतता को सहज ही अनुभूत कर उठता है। 
 डॉ० धर्मवीर भारती बड़ी कुशलता से अपने शब्दों की परिधि में दृश्यों की अवचेतना को समेट कर न केवल उन्हें जीवंत बना देने का कौशल रखते हैं, बल्कि उसमें चित्रात्मकता जगाने का भी गुण उनमें भरपूर रहा है। यही कारण है कि उनकी हर रचना समय और काल की सीमा को पार कर पाठकों व दर्शकों के मन पर स्थायी प्रभाव छोड़ पाने में सफल सिद्ध होती रही है।  एक ओर समाज में व्याप्त मूल्यहीनता, दूसरी ओर मर्यादा पर निरंतर प्रहार - दोनों ही कष्टकर बिंदुओं को बख़ूबी समेटते हुए भारती अपनी रचनाओं में पाठकों से उनकी निष्ठा और आस्था पर संवाद करते चलते हैं

“मर्यादा मत तोड़ो

तोड़ी हुई मर्यादा

कुचले हुए अजगर-सी

गुंजलिका में कौरव-वंश को लपेट कर

सूखी लकड़ी-सा तोड़ डालेगी।“


नई पीढ़ी के प्रतिष्ठित रचनाकार तथा प्रसिद्ध साप्ताहिक पत्रिका 'धर्मयुग' के संपादक डॉ० धर्मवीर भारती यथार्थवादी लेखक व कवि रहे हैं। एक ओर जहाँ उनकी कविताओं में रागतत्व की प्रधानता दिखती है, तो वहीं उनकी कहानियों, नाटकों व उपन्यासों में मानव मन के मनोवैज्ञानिक और सामाजिक सरोकार प्रत्यक्ष लक्षित होते रहे हैं। उनके लेखन का वैशिष्ट्य ही इस बात में समाहित है कि प्रेम और रोमांस की मौजूदगी जहाँ उन्हें युवा पीढ़ी से जोड़ती है, वहीं इतिहास और समकालीन परिस्थितियों से रूबरू भी करवाती चलती है। और उनके लेखन के सम्मोहन में बंधा पाठक स्वतः ही मध्यवर्गीय जीवन के यथार्थ से जुड़ता चला जाता है। स्वातंत्र्योत्तर भारत में आई संवेदनहीनता से लेकर मध्यवर्गीय जीवन मूल्यों में आई गिरावट तक के संकेत उनकी कविताओं, कहानियों, उपन्यासों, नाटकों तथा आलोचनाओं आदि में स्पष्ट देखे जा सकते हैं।  


डॉ० धर्मवीर भारती का जन्म २५ दिसंबर १९२६ को इलाहाबाद के अतरसुइया मुहल्ले में  पिता चिरंजीवलाल वर्मा और माता श्रीमती चंदा देवी के घर में हुआ था। इनकी आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। बाद में इन्हें डी.ए.वी.हाई स्कूल में दाखिल किया गया। अभी वे आठवीं कक्षा में ही थे कि दुर्भाग्यवश पिता का देहांत हो गया और आर्थिक कठिनाइयों ने घेर लिया। हालाँकि परिवार के स्नेह और माँ के मुँहबोले भाई अभय कृष्ण जौहरी के प्रोत्साहन ने पढ़ाई रुकने न दी, मगर इस आर्थिक संकट और पारिवारिक विपदा ने उन्हें अतिसंवेदनशील तथा तर्कशील अवश्य बना दिया। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से उन्होंने प्रथम श्रेणी में एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। इतना ही नहीं, हिंदी में सर्वोच्च अंक प्राप्त करने के लिए उन्हें चिंतामणि घोष पुरस्कार प्राप्त हुआ था। तदुपरांत डॉ० धीरेंद्र वर्मा के निर्देशन में 'सिद्ध साहित्य' पर शोध प्रबंध लिखकर १९५४ में उन्होंने पी० एच० डी० की उपाधि प्राप्त की।

 

 धर्मवीर भारती को प्रारंभ से ही उच्च कोटि के आचार, विचार तथा संस्कार मिले थे। इनका प्रभाव उनके व्यक्तित्व व साहित्य पर सदैव लक्षित होता रहा। धर्मवीर भारती के चिंतन तथा रचनात्मकता पर बहुत गहरा मगर सकारात्मक प्रभाव डाला उनके आरंभिक आर्यसमाजी संस्कारों, विश्वविद्यालय के साहित्यिक वातावरण तथा देश में निरंतर उत्पन्न राजनैतिक हलचलों ने। साथ ही उन पर रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत के अध्ययन का भी गहरा असर पड़ा। गहन अध्ययन में निरंतर रत रहने वाले भारती को प्रसाद और शरदचंद्र का साहित्य बहुत पसंद था। सामाजिक रूप से सक्रिय धर्मवीर भारती समाज के आर्थिक विकास के लिए मार्क्स के सिद्धांतों को आदर्श मानते थे, मगर साथ ही मार्क्सवादी कट्टरता के वे विरोधी भी थे। इसी कट्टरतावादी दृष्टिकोण से  ऊब कर भारती का मोहभंग हुआ मार्क्सवादी विचारधारा से। अध्ययन की ओर रुझान उन्हें प्रारंभ से ही रहा था। उनके अध्ययन के शौक के विषय में स्वयं उनकी पत्नी पुष्पा भारती ने ‘प्रभासाक्षी’ में अपने अनुभव साझा करते हुए बताया, कि “डॉ० भारती कितना पढ़ते थे, इसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। उन्होंने बहुत कम उम्र में बहुत कुछ पढ़ लिया था। उनकी आदत स्कूल से सीधे पुस्तकालय जाने की रहती थी। डॉ० भारती का बचपन गरीबी में बीता था। मुफ़लिसी इतनी थी कि वह किसी पुस्तकालय का सदस्य नहीं बन सकते थे। लेकिन उनकी लगन देखकर इलाहाबाद के एक लाइब्रेरियन ने उन्हें अपने विश्वास पर पुस्तकें पाँच−पाँच दिन के लिए देना शुरू कर दीं। इसके बाद तो उन्हें जैसे किताबी खजाना ही मिल गया।”  इसी दौरान उन्होंने छहों भारतीय दर्शन, वेदांत तथा वैष्णव और संत साहित्य पढ़ा और यहीं से भारतीय चिंतन की मानववादी परंपरा उनके चिंतन का मूल आधार बन गई।  


वे मानते थे कि जनता सहानुभूति चाहती है, अपने कष्ट, विवशताओं और दु:खों को दूर करने के लिए व्यवस्था का आश्रय चाहती है। मगर वे क्षुब्ध हो जाते थे, यह देख कर कि जनतंत्र की अवधारणा के हिमायती सत्ताधारी तंत्र तो हथिया बैठे, परंतु जन को उपेक्षित कर दिया गया है। उन्होंने इसी विडंबना और विवशता को स्वर दिया अपनी रचनाओं के माध्यम से।  


“जब कोई भी मनुष्य
अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।
नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-
उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।"

पत्रकारिता के प्रति विशेष प्रेम और लिखने-पढ़ने की अपनी रुचि के चलते धर्मवीर भारती ने स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दिनों में ही कुछ समय अभ्युदय पत्रिका में काम किया और फिर संगम पत्रिका के उप संपादक के रूप में भी कार्य करना प्रारम्भ किया। १९५० का दशक उनके जीवन का सबसे रचनात्मक काल था। उन्होंने इसी दौरान उपन्यास, नाटक, कविताएँ, निबंध और आलोचनात्मक रचनाएँ लिखीं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रवक्ता के तौर पर उनकी नियुक्ति ने उनके समक्ष साहित्य तथा रचनात्मकता के कई नए आयाम खोले। अपने अध्यापन कार्य के दौरान ही 'हिंदी साहित्य कोश' के संपादन में भी उन्होंने अपना सहयोग दिया। इसी दौर में उन्होंने परिमल नामक एक संस्था की स्थापना की और एक बहुत महत्वपूर्ण पत्रिका ‘निकष’ निकाली। इस पत्रिका की चतुर्दिक प्रशंसा हुई किंतु विडंबना देखिए, अर्थाभाव के कारण तीन अंकों के बाद ही इस पत्रिका को बंद करना पड़ गया। हालांकि उस पत्रिका को लोग आज तक भी नहीं भूले हैं। उसी समय में उन्होंने 'आलोचना' नामक पत्रिका का संपादन भी किया। वर्ष १९६० में हिंदी साप्ताहिक पत्रिका धर्मयुग में प्रधान संपादक के पद पर नियुक्ति मिलने पर उन्होंने भारतीय ज्ञानपीठ के संस्थापक रमा जैन और शान्ति प्रसाद जैन के आग्रह को न टालते हुए यह कार्यभार संभालने हेतु बम्बई (अब मुंबई) आना स्वीकार कर लिया। उनके कुशल संपादन में धर्मयुग को देश की सबसे लोकप्रिय साप्ताहिक पत्रिका का दर्जा हासिल हुआ और हिंदी पत्रकारिता को नवीन ऊँचाइयाँ हासिल हुईं। वर्ष १९८७ तक उन्होंने बड़ी प्रज्ञा और निष्ठा के साथ धर्मयुग के प्रधान संपादक का पद संभाला। उनके विचारप्रधान संपादन के अंतर्गत प्रत्येक मुद्दा बड़ी ही निष्पक्षता और तटस्थ विचारधारा के साथ पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया गया। धर्मवीर भारती ने सन् १९७१ में भारत पाक युद्ध के दौरान युद्ध स्थल पर जाकर इस युद्ध की विभीषिका का प्रत्यक्ष अनुभव किया और अपने उन अनुभवों को 'धर्मयुग' में प्रकाशित किया। युद्धस्थल पर मृत्यु को लगभग सामने देखने का प्रत्यक्ष अनुभव उन्हें हुआ मगर इससे विचलित हुए बिना उन्होंने केवल ब्रह्मपुत्र के जलनाद का स्वर हृदयंगम किया। उनकी पत्नी पुष्पा भारती बताती हैं कि "युद्धस्थल पर ब्रह्मपुत्र नदी के पास हलचल देखकर पाकिस्तानी सेना द्वारा तोप का गोला दाग दिया गया जो निशाना चुकने के कारण सीधा ब्रह्मपुत्र में आ गिरा। इस हमले में धर्मवीर भारती बाल-बाल बच गए और तुरंत सेना के अधिकारी उन्हें सकुशल बचाकर बालू में रेंगते हुए सुरक्षित स्थल पर लौटा लाए। मृत्यु से यूँ साक्षात्कार का अनुभव पूछे जाने पर भारती ने कहा कि मुझे और तो कोई विचार नहीं आया, बस ब्रह्मपुत्र के जल में विस्फोट से कई फ़ीट ऊपर उछल कर पुनः पानी में गिरती बालू के कारण जो बूँदों का संगीत उभर कर आया, मैं वही सुन रहा था।" मृत्यु को इस तरह सामने देख कर भी जल की बूँदों में जीवन के संगीत को सुन पाने में सक्षम धर्मवीर भारती का जीवन के सौंदर्य व प्रेम के प्रति यह आग्रह ही उनके आस्थावादी दृष्टिकोण और विशवास के स्वर का सात्विक संचालक है।   

 

धर्मवीर भारती को प्रारंभ से ही सुदूर यात्राओं का बहुत शौक रहा। 'यात्रा चक्र' में उन्होंने लिखा:

 

"यात्राएँ,यात्राएँ - रोमांचक यात्राएँ 

बचपन से यही मेरा ख़्वाब था 

कौन चाहता था कवि बनना, लेखक बनना?

नहीं, मैं तो चाहता था नेवी  में भर्ती होना।

नीली टोपी, सफ़ेद वर्दी, हाथ में  दूरबीन 

अथाह सागर में उत्ताल तरंगों को 

चीरता जहाज़! जहाँ मुझे कोई अछूत अपरिचित 

द्वीप दिखे वहीं उतर पडूँ। अकेले

घने जंगलों बियावान चट्टानों 

के बीच भटकता हुआ।"  


 अनेक आधिकारिक यात्राएँ करने का सुअवसर उन्हें प्राप्त भी हुआ जिनका प्रभाव उनके साहित्य में स्पष्टतया देखा जा सकता है। सन् १९६१ में उन्हें  'कामनवेल्थ रिलेशन्स कमेटी' के आमंत्रण पर इंग्लैंड तथा यूरोप की यात्रा का अवसर मिला, और फिर १९६२ में मौका मिला जर्मन यात्रा का। सन् १९६६ में धर्मवीर भारती ने भारतीय दूतावास के अतिथि रूप में इंडोनेशिया तथा थाईलैंड की यात्राएँ कीं। धर्मवीर भारती की बहुत महत्वपूर्ण यात्रा रही, भारत पर चीन के आक्रमण के सोलह वर्ष बाद भारतीय पत्रकारों के प्रतिनिधि मंडल के तौर पर नए दौर के अग्रदूत के रूप में। इन सभी यात्राओं ने भारती के बाह्य अनुभवों को तो समृद्ध किया ही, साथ ही उनमें एक विस्तृत चेतना का भी निर्वहन किया जिसने उनके साहित्यकार मन के अनुभवों को पुष्ट और परिमार्जित भी किया। 


धर्मवीर भारती को सबसे अधिक सफलता मिली है प्रेम कहानियों के सृजन में। शायद इसीलिए भारती को प्रेम की पीर का रचनाकार भी कहा गया। प्रेम के जिस सार्थक, गहनतम और ट्रेजेडी रूप का चित्रण धर्मवीर भारती के बहुचर्चित उपन्यास 'गुनाहों का देवता' में मिलता है, वह अन्यत्र दुर्लभ है। 

  प्रेम के प्लेटॉनिक रूप का सशक्त चित्रण करता यह उपन्यास धर्मवीर भारती के शुरुआती दौर का  सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला उपन्यास है। 'गुनाहों का देवता' १९४९ में प्रकाशित हुआ था, जिसकी भूमिका में उन्होंने लिखा, "इस उपन्यास का लिखना वैसा ही रहा है जैसा पीड़ा के क्षणों में पूरी आस्था से प्रार्थना करना।" 


गुनाहों का देवता मात्र कोई साधारण प्रेमकथा भर नहीं है, बल्कि इसमें मानवीय मनोविश्लेषण के स्वर भी गूँजते हैं।  इस उपन्यास में जहाँ प्रेम की गहराई के स्वर लक्षित होते हैं, वहीं मानव हृदय का गंभीर विश्लेषण भी प्रदर्शित है ,

“मनुष्य का एक स्वभाव होता है। जब वह दूसरे पर दया करता है तो वह चाहता है कि याचक पूरी तरह विनम्र होकर उसे स्वीकार करे। अगर याचक दान लेने में कहीं भी स्वाभिमान दिखाता है तो आदमी अपनी दानवृत्ति और दयाभाव भूलकर नृशंसता से उसके स्वाभिमान को कुचलने में व्यस्त हो जाता है।“


इस उपन्यास की लोकप्रियता का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि इसके अब तक पेपरबैक और सजिल्द मिलाकर डेढ़ सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं, जो किसी भी हिंदी उपन्यास के लिए एक बड़ी उपलब्धि है। इस उपन्यास पर एक फिल्म का निर्माण प्रारंभ हुआ था, जिसका नाम रखा गया था ‘एक था चंदर एक थी सुधा'। उस दौर के चर्चित अभिनेता अमिताभ बच्चन और जया भादुड़ी इस फिल्म के लिए चयनित किए गए और निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गया मगर दुर्भाग्य से अर्थाभाव के कारण इस फिल्म का निर्माण कार्य पूरा न हो सका और दर्शक इस अपूर्व प्रेमकथा को परदे पर देखने से वंचित ही रह गए। इस उपन्यास में धर्मवीर भारती ने नारी हृदय के अंतर को बड़ी सुंदरता से परिभाषित किया है,


 “अगर आप किसी औरत के हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही वह जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, याचना कर रहे हैं, सांत्वना दे रहे हैं या सांत्वना मांग रहे हैं। क्षमा मांग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का आरंभ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं? स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं? यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का?”


‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ उनका दूसरा अनुपम उपन्यास है, जिस पर आधारित फ़िल्म का निर्माण सुप्रसिद्ध निर्देशक श्याम बेनेगल ने किया। इस फ़िल्म को १९९३ के राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा गया था। धर्मवीर भारती की परिपक्व भाषा गांभीर्य और माणिक मुल्ला की बयानगी के अलग ही अंदाज़ से सजा यह लघु उपन्यास दो स्तरों पर अपनी पकड़ बनाता चलता है। पहले तो यह निम्न-मध्यम वर्ग के समक्ष खड़ी रोज़मर्रा की समस्याओं को बखूबी उधेड़ता है और फिर समाज की मानसिकता पर आधारित प्रेम की पृष्ठभूमि को एक अनूठा कलेवर प्रदान करता है।  ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ अपने शाब्दिक प्रतीकों से अलग अपने कथ्यात्मक स्वरुप में अपनी पहचान क़ायम करता है। इस में धर्मवीर भारती ने लघुकथाओं को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करने की एक अलग प्रकार की शैली अपनाई। माणिक मुल्ला के माध्यम से मानो स्वयं धर्मवीर भारती ही कह रहे हैं-  


“पर कोई न कोई चीज़ ऐसी है जिसने हमेशा अँधेरे को चीरकर आगे बढ़ने, समाज-व्यवस्था को बदलने और मानवता के सहज मूल्यों को पुनः स्थापित करने की ताकत और प्रेरणा दी है। चाहे उसे आत्मा कह लो, चाहे कुछ और। और विश्वास, साहस, सत्य के प्रति निष्ठा, उस प्रकाशवाही आत्मा को उसी तरह आगे ले चलते हैं जैसे सात घोड़े सूर्य को आगे बढ़ा ले सकते हैं।“


धर्मवीर भारती को सर्वाधिक ख़्याति प्राप्त हुई अपने गीतिनाट्य ‘अंधा युग’ के प्रकाशन के साथ। सन् १९५५ में प्रकाशित यह गीतिनाट्य महाभारत के युद्ध का आश्रय लेकर मानव के आत्मपीड़न, अनास्था और अविश्वास के विचलित स्वरों तथा मानव मूल्यों और नैतिकता के विघटन के परिप्रेक्ष्य में सामान्य जन की निराशा, हताशा व विवशता को अभिव्यक्त करता है। ‘अंधा युग’ में प्राचीन कथा और पौराणिक पात्रों के माध्यम से आधुनिक संवेदनाओं को अभिव्यक्ति दी गयी है। अंधा युग की कथा का हर बिंदु, हर संदर्भ, वर्तमान युग की समस्याओं और स्थितियों को संकेतित करता है । पुरातनता में तलाशते आधुनिक चेतना के संदर्भ ‘अंधा युग’ को सार्थक ही नहीं, कालजयी भी बना देते हैं।  

“युद्धोपरान्त,
यह अंधायुग अवतरित हुआ
जिसमें स्थितियाँ, मनोवृत्तियाँ, आत्माएँ सब विकृत हैं
है एक बहुत पतली डोरी मर्यादा की
पर वह भी उलझी है दोनों ही पक्षों में
सिर्फ कृष्ण में साहस है सुलझाने का
वह है भविष्य का रक्षक, वह है अनासक्त
पर शेष अधिकतर हैं अंधे
पथभ्रष्ट, आत्महारा, विगलित
अपने अंतर की अंध गुफ़ाओं  के वासी 
यह कथा उन्हीं अंधों की है;
या कथा ज्योति की है अंधों के माध्यम से”

 ‘अंधा युग’ का वैशिष्ट्य इस बात में समाहित है कि इसमें भारती ने गीता में प्रतिपादित अनासक्त जीवन दर्शन को आधुनिक सन्दर्भों में परिभाषित किया है। 'अंधा युग' के मंचन के साक्षी बने उनके दर्शक सहज ही नेपथ्य में गूँजती कृष्ण की वंशी की मधुर तान और धीर गंभीर वाणी के ओज से बंधे आत्मा परमात्मा के सम्बन्ध को आत्मसात करते चलते हैं।   

“प्रभु हूँ या परात्पर
पर पुत्र हूँ तुम्हारा, तुम माता हो !
मैंने अर्जुन से कहा-
सारे तुम्हारों कर्मों का पाप-पुण्य, योगक्षेम
मैं वहन करूँगा अपने कंधों पर
अट्ठारह दिनों के इस भीषण संग्राम में
कोई नहीं केवल मैं ही मरा हूँ करोड़ों बार
जितनी बार जो भी सैनिक भूमिशायी हुआ
कोई नहीं था
वह मैं ही था
गिरता था जो घायल होकर रणभूमि में।
अश्वत्थामा के अंगों से
रक्त, पीप, स्वेद बन कर बहूँगा
मैं ही युग-युगान्तर तक
जीवन हूँ मैं
तो मृत्यु भी तो मैं ही हूँ माँ।”

वस्तुतः जीवन के शाश्वत मूल्य और विवेचनाएँ जब पौराणिक सन्दर्भों का जामा पहन कर आधुनिक चेतना की तलाश करती हैं, तब संत्रस्त मानव की संवेदना मुखरता से अभिव्यक्ति पाती है।  इस कृति में जहाँ एक ओर कौरवों और पांडवों के माध्यम से समाज और व्यवस्था के प्रति प्रश्न बिखरे हुए हैं, वहीं नवनिर्माण और नवचेतना के प्रति धर्मवीर भारती की अटूट आस्था  के मुखरित स्वर भी पनपे हैं। 

इस गीतिनाट्य का अनेक बार मंचन अलग-अलग निर्देशकों ने अपनी दृष्टि और अपने संदर्भों के अनुसार किया है और यही बात इस रचना को कालातीत बनाती है, जब हर पाठक इसके कथ्य में सांगोपांग डूबकर अपने ही अर्थ खोज निकाले। और इस दृष्टि से धर्मवीर भारती ने इसमें रंगमंच-निर्देशको के लिए ढेर सारी संभावनाएँ छोड़ी हैं। इसे नाट्यकारों की पाठशाला कहा जाता है।


धर्मवीर भारती की रचनाधर्मिता की व्याख्या ‘कनुप्रिया’ की चर्चा किए बिना पूर्ण हो ही नहीं सकती।  कृष्ण के प्रेम में आकंठ सराबोर कनुप्रिया में भावाकुल तन्मयता के स्वर मुखरित हैं। वह कृष्ण की जन्म जन्मांतर की संगिनी, उनकी अनन्य सखी है जो कृष्ण प्रेम के अपार सागर में डूबकर ही सार्थक हुई है। तन्मयता के मधुर राग में पुलक कर राधा कहती है, 
“घाट से लौटते हुए 
तीसरे पहर की अलसाई वेला में 
मैंने अक्सर तुम्हें कदम्ब के नीचे 
चुपचाप ध्यानमग्न पाया 
मैंने कोई अज्ञात वनदेवता समझ 
कितनी बार तुम्हें प्रणाम कर सर झुकाया 
पर तुम खड़े रहे अडिग, निर्लिप्त, वीतराग, निश्चल!
तुमने कभी उसे स्वीकारा ही नहीं!  
दिन पर दिन बीतते गए और मैंने तुम्हें प्रणाम करना भी छोड़ दिया 
पर मुझे क्या मालूम था कि वह अस्वीकृति ही 
अटूट बंधन बनकर 
मेरी प्रणामबद्ध अंजलियों में, कलाइयों में इस तरह 
लिपट जाएगी कि कभी खुल ही नहीं पाएगी।”  

धर्मवीर भारती ने अपने खंड काव्य 'कनुप्रिया' में बड़ी कुशलता से राधा के माध्यम से स्त्री हृदय के विभिन्न भाव प्रस्तुत किए हैं। वे नारी मन की वेदना के ही नहीं, बल्कि नारी की लज्जा, संकोच, संशय, उदासी और समर्पण भाव के भी बड़े कुशल चितेरे हैं। धर्मवीर भारती की राधा कृष्ण के प्रति प्रेम में पूर्ण समर्पित होकर भी अवगुंठित है।  वह कहती है,

“यह जो मैं कभी कभी चरम साक्षात्कार के क्षणों में 

बिलकुल जड़ और निस्पंद हो जाती हूँ 

इनका मर्म तुम समझते क्यों नहीं साँवरे!

तुम्हारी जन्म जन्मांतर की रहस्यमयी लीला की  

एकांत संगिनी मैं 

इन क्षणों में अकस्मात् 

तुम से पृथक नहीं हो पाती मेरे प्राण,

तुम यह क्यों नहीं समझ पाते कि लाज 

सिर्फ जिस्म की नहीं होती 

मन की भी होती है 

एक मधुर नाम 

एक अनजाना संशय ,

एक आग्रह भरा गोपन ,

एक निर्व्याख्या वेदना, उदासी जो मुझे बार-बार चरम सुख के क्षणों में भी 

अभिभूत कर लेती है।” 

 

कनुप्रिया में धर्मवीर भारती ने स्थापित किया है कि 'प्रेम अपनी लघुता में भी महान होता है।' 
'कनुप्रिया' में राधा कृष्ण से युद्ध की विभीषिका और उससे उत्पन्न विषाद पर प्रश्न करती है। साथ ही प्रश्नचिह्न लगाती है कृष्ण के न्यायोचित विवेक की सार्थकता पर,

“हारी हुई सेनाएँ, जीती हुई सेनाएँ
नभ को कँपाते हुए,युद्ध-घोष, क्रंदन-स्वर,
भागे हुए सैनिकों से सुनी हुई
अकल्पनीय अमानुषिक घटनाएँ युद्ध की
क्या ये सब सार्थक है?
चारों दिशाओं से
उत्तर को उड़-उड़ कर जाते हुए
गृद्धों को क्या तुम बुलाते हो
(जैसे बुलाते थे भटकी हुई गायों को)”

‘अंधा युग' में उन्होंने युद्ध की निरर्थकता को प्रमाणित किया है, तो 'कनुप्रिया' उसकी पुष्टि करती है। और तब लगता है मानो ‘अंधा युग’ की पूर्णता 'कनुप्रिया' के साथ हो रही है।  
डॉ० धर्मवीर भारती को उनकी रचनात्मक प्रतिभा और लेखन के लिए प्रत्येक क्षेत्र में भरपूर सराहना मिली। १९६७ में भारती को संगीत नाटक अकादमी का सदस्य मनोनीत किया गया। उनकी रचनाश्रेष्ठता और गुणधर्मिता के लिए सन् १९७२ में भारत सरकार ने उन्हें पद्मश्री से अलंकृत किया। १९९७ में  हिंदी साहित्य अकादमी, महाराष्ट्र  ने हिंदी की सर्वश्रेष्ठ रचना को प्रतिवर्ष 'धर्मवीर भारती महाराष्ट्र सारस्वत सम्मान' देने की घोषणा की। १९९९ में युवा कहानीकार उदय प्रकाश के निर्देशन में साहित्य अकादमी दिल्ली के लिए धर्मवीर भारती पर वृत्त चित्र का निर्माण हुआ। अपने जीवन काल में अनेक सम्मान तथा पुरस्कार प्राप्त करने वाले मूर्धन्य साहित्यकार धर्मवीर भारती ने  ४ सितम्बर १९९७ को इस असार संसार को त्याग कर नींद में ही मृत्यु को वरण कर लिया। अपनी रचनाओं के द्वारा समूची मानवीय संस्कृति की प्रगति की राह में रोड़ा बनी व्यवस्था को चुनौती देते डॉ० धर्मवीर भारती का जाना निस्संदेह हिंदी साहित्य जगत के लिए अपूरणीय क्षति है।  

धर्मवीर भारती : जीवन परिचय 

जन्म / मृत्यु 

२५ दिसंबर १९२६ / ४ सितम्बर १९९७

माता 

 चन्दा देवी

पिता

चिरंजीवलाल वर्मा 

पत्नी  

पुष्पा भारती

जन्मस्थान

इलाहाबाद

शिक्षा 

इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में 'सिद्ध साहित्य' विषय पर पी. एच. डी.

कार्यक्षेत्र

कवि, कथाकार, नाटककार एवं निबंधकार

पुरस्कार व सम्मान 

१९७२  पद्मश्री से अलंकृत

१९८४  वैली टर्मेरिक द्वारा सर्वश्रेष्ठ पत्रकारिता पुरस्कार 

१९८८  महाराजा मेवाड़ फाउण्डेशन का सर्वश्रेष्ठ नाटककार पुरस्कार 

१९८९  संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार, राजेंद्र प्रसाद शिखर सम्मान,भारत भारती सम्मान १९९४  महाराष्ट्र गौरव , व्यास सम्मान

रचना संसार 

उपन्यास 

सूरज का सातवाँ घोड़ा

गुनाहों का देवता

नाटक / एकांकी

नदी प्यासी थी

 नीली झील

आवाज़ का नीलाम

अंधायुग (काव्य नाटक)

निबंध संग्रह 

ठेले पर हिमालय

कहनी-अनकहनी

पश्यंती

कहानी संग्रह 

बंद गली का आखिरी मकान  

चाँद और टूटे हुए लोग 

मुर्दों का गाँव         

आलोचना

 सिद्ध साहित्य

मानव मूल्य और साहित्य

काव्य ग्रंथ

ठंडा लोहा

कनुप्रिया

सात गीत वर्ष

आलोचना 

प्रगतिवाद : एक समीक्षा         

मानव मूल्य और साहित्य    

अनुवाद 

आस्कार वाइल्ड की कहानियाँ

देशांतर (कविता संकलन)

संपादन 

संगम (पत्रिका)  सहायक संपादक

निकष (पत्रिका)  सहायक संपादक

आलोचना (पत्रिका)   सहायक संपादक

धर्मयुग (पत्रिका)   प्रधान संपादक

हिंदी साहित्य कोश (ग्रंथ)   सहयोगी संपादक

अर्पित मेरी भावना (भगवती चरण वर्मा अभिनंदन ग्रंथ)   संपादक

संदर्भ :
  • धर्मवीर भारती विकिपीडिया 
  • धर्मवीर भारती की काव्य विशेषताएँ  - हिंदी कुञ्ज 
  • धर्मवीर भारती - भारत कोश,  ज्ञान का हिंदी महासागर 
  • साहित्य विचार और स्मृति - पुष्पा भारती, धर्मवीर भारती
  • प्रभा साक्षी : २५ दिसंबर २०१३ अंक 
  • कनुप्रिया - धर्मवीर भारती 
  • अँधा युग - धर्मवीर भारती 
  • गुनाहों का देवता - धर्मवीर भारती 
  • सूरज का सातवाँ घोड़ा - धर्मवीर भारती 
  • यात्रा चक्र : धर्मवीर भारती
  • धर्मवीर भारती जी की पत्नी पुष्पा भारती जी से बातचीत
लेखक :
विनीता काम्बीरी
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विनीता काम्बीरी  शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन में हिंदी प्रवक्ता हैं तथा आकाशवाणी दिल्ली के एफ. एम. रेनबो चैनल में हिंदी प्रस्तोता हैं।
आपकी कर्मठता और हिंदी शिक्षण के प्रति समर्पण भाव के कारण अनेक सम्मान व पुरस्कार आपको प्रदत्त किए गए हैं जिनमें यूनाइटेड नेशन्स के अंतर्राष्ट्रीय विश्व शान्ति प्रबोधक महासंघ द्वारा सहस्राब्दी हिंदी सेवी सम्मान,  पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा नेशनल वुमन एक्सीलेंस अवार्ड और शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार द्वारा राज्य शिक्षक सम्मान प्रमुख हैं। मिनिएचर-पेंटिंग करने, कहानियाँ और कविताएँ लिखने में रुचि है।
ईमेल: vinitakambiri@gmail.com

6 comments:

  1. विनीता जी, आपने धर्मवीर भारती के व्यापक और विविध रचना-कर्म कैन्वस का संतुलित और समग्र-सा परिचय इस आलेख में बख़ूबी दिया है। कितना मुश्किल रहा होगा, क्या दिया जाए और क्या नहीं, यह निर्धारित करना। भारती जी ने कड़ी साधना कर कैसे साहित्य और पत्रकारिता को नए आयाम दिलवाए, इसका अच्छा निचोड़ आपके आलेख में है। इस सुन्दर लेखन के लिए आपको बधाई और आभार।

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  2. आदरणीया वीनीता जी,
    महान कथाकार डॉ धर्मवीर भारती जी के जीवन और साहित्यिकसंसार का संदर्भ जानकर ख़ुशी हुई। अपने इस लेख में भारती जी के रचनाधर्मिता की विशेषताओं को बखूबी जोड़ा है। कुशल शब्दशैली का इस्तेमाल करके उनके व्यक्तित्व और सार्थकता को प्रमाणित किया है। आपकी लेखन प्रतिभा इतनी सुस्पष्ट और ज्ञानवर्धक है कि धर्मवीर जी की रचनाश्रेष्ठता और गुणधर्मिता बहुत करीब से अवगत हो रही है। आपके शोधपरक और व्यापक आलेख के लिए आभार और अनंत शुभकामनाएं।

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  3. विनीता जी नमस्ते। आपने धर्मवीर भारती जी पर बहुत अच्छा लिखा। आपके सभी लेख रोचक एवं जानकारी भरे होते हैं। धर्मवीर भारती जी को लगभग हर हिंदी प्रेमी ने पढ़ा होगा और उनसे जुड़ाव महसूस किया होगा। आपके लेख ने एक बार फिर उनसे जुड़ने का अवसर दिया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  4. विनीता जी, आपने एक और अच्छा लेख हम पाठकों को उपलब्ध करवाया है। आपने विलक्षण प्रतिभा के धनी धर्मवीर भारती के विराट रचना-कर्म का बहुत सुंदर परिचय दिया है।उनका हिंदी के लिए योगदान और उनके बहुमुखी व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम को सिलसिलेवार ढंग से रेखांकित किया है।
    आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  5. विनीता जी, धर्मबीर भारती जी पर आपका लेख पढ कर हम आपकी लेखनी के कायल हो गए है,खासतौर पर हम हिंदी भाषियों के किये, इस लेख के लिए हार्दिक
    शुभकामनाएं।आशा है कि भविष्य में भी इस तरह क लेख लिख कर हमे दु

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  6. ,भविष्य में भी हमे दूसरे अन्य रचनाकारों पर आपके लेखों का इंतजार रहेगा

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