रमेशचंद्र शाह हमारे समय के वरिष्ठ एवं विशिष्ट रचनाकार हैं। उनके रचनाकर्म पर निगाह डालें तो यह प्रश्न उत्तरित करना होगा कि उन्होंने क्या नहीं लिखा? कविता, उपन्यास, कहानी, डायरी, साक्षात्कार, बाल साहित्य, नाटक, निबंध, आलोचना और संस्मरण भी! काव्यानुवाद जोड़ दें तो इस लंबी सूची के संदर्भ में उन्हीं का कहा उद्धृत करना उचित लगता है, "मुझे जब लगता है कि मैं किसी एक विधा में अपने को ठीक-ठीक व्यक्त नहीं कर पा रहा हूँ तो मैं दूसरी विधा को चुन लेता हूँ।"
'अपनी श्रेष्ठ रचना का लिखा जाना बाकी' मानने वाले लेखक का नवीनतम काव्य संग्रह 'बंधु थे पड़ाव सभी' २०२१ में आया, जिसमें उनकी नई और कुछ पुरानी असंकलित कविताएँ हैं।
रमेशचंद्र शाह का जन्म अल्मोड़ा में १५ नवंबर, वर्ष १९३६ में हुआ। उनकी आरंभिक शिक्षा गृह नगर से आरंभ होकर इलाहाबाद और आगरा तक फैली हुई है। इसी तरह आजीविका क्रम भी पहाड़ से मैदान की ओर ले आया। उन्होंने यीट्स और इलियट पर शोध किया। अध्यापन उनके जीवन का सार रहा, हमीदिया कॉलेज, भोपाल उनकी अधिक स्थिर कार्यस्थली रही। यहाँ से वे अँग्रेज़ी विभाग के अध्यक्ष रूप में सेवा निवृत्त हुए। कालांतर में वे निराला सृजन पीठ के निदेशक रहे।
उनकी सहधर्मिणी ज्योत्स्ना मिलन साहित्यिक अभिरुचि संपन्न लेखिका थीं। पुत्रियाँ शंपा और राजुला स्वभावतः कलात्मक संस्कार संपन्न हैं। शाह जी स्वतंत्रता को सबसे बड़ा जीवन मूल्य और साहित्यिक मूल्य मानते हैं। जीवन और लेखन से पहाड़ नहीं छूटेगा - यह भी उनकी मान्यता है।
रमेशचंद्र शाह बहुपुरस्कृत लेखक हैं। उनके उपन्यास 'पूर्वापर' को भारतीय भाषा परिषद, कोलकता ने पुरस्कृत किया तो 'गोबर गणेश' उपन्यास और 'छायावाद की प्रासंगिकता' कृति मध्य प्रदेश साहित्य परिषद द्वारा पुरस्कृत हुए। संस्कृति विभाग, मध्यप्रदेश द्वारा सृजनात्मक अवदान के लिए शिखर सम्मान हेतु चयनित किए गए। काव्य संग्रह 'नदी भागती आई' के लिए भवानीप्रसाद मिश्र पुरस्कार दिया गया। उनका निबंध संग्रह 'स्वधर्म और कालगति' पुरस्कृत हुआ। २००१ में के० के० बिरला फाउंडेशन का व्यास सम्मान 'आलोचना का पक्ष' कृति के लिए प्रदान किया गया। २००४ में वे पद्मश्री से सम्मानित हुए। यात्रावृत्त 'एक लंबी छाँह' के लिए केंद्रीय हिंदी संस्थान का राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार दिया गया। 'विनायक' उपन्यास के लिए उन्हें २०१४ में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्रदान किया गया, जिसे वे अपने पहले उपन्यास गोबर गणेश का ही विस्तार मानते हैं।
रमेशचंद्र शाह का उपन्यास 'किस्सा गुलाम' आठ भारतीय भाषाओं में अनूदित हुआ। साहित्य प्रकाशनों की एक लंबी सूची उनकी सृजनशीलता को सहज ही रेखांकित करती है। विभिन्न विधाओं के अतिरिक्त उनका नाम अज्ञेय और प्रसाद पर साहित्य अकादमी के मोनोग्राफ, पत्र संकलन, काव्यानुवाद, नाटक, बाल साहित्य और संपादन में भी है। उनका आत्मकथ्य प्रकाशनाधीन है।
रमेशचंद्र शाह कवि भी हैं और चिंतक भी। उनके चिंतन का सार इन पंक्तियों में पा सकते हैं, "पवन और प्रकाश लुटाने वाली खिड़की अपने आप में खालीपन है, खिड़की दीवार का न होना है। अगर हम भी खाली कर दें अपने मन को, सारी कल्पनाओं और तथाकथित विचारों से, तब सच को हम तक आने, हम पर छाने में कोई रुकावट न होगी।" उनकी कविताओं में आज के समय के तमाम वाजिब सवाल सिर तानते हैं, जब हम बैठे-बैठे, खड़े-खड़े, पड़े-पड़े, खाते-खाते थक जाते हैं तो जीते-जीते क्यों नहीं थकते भला?
कविताओं में भी उन्होंने अपनी यात्राओं की स्मृतियाँ अंकित की हैं, नन्हा स्टेशन बिरूर हो या मानिकगढ़ की नदी, चाहे चिड़ियों की सोहबत हो या बहुत दूर तक साथ चलती पर्वतमाला, यात्रा बीतने पर भी कवि के अंतःपटल से ये दृश्य नहीं बीतते! नृशंसता पर टिके अतिजीवन का विरोधी यह कवि असीम आत्मा को देने का हिमायती है। हर किसी के सामने उघड़ आने को बेमानी मानता यह कवि अपनी उस बुनियादी गड़बड़ी को भी पहचानता है, जिसकी वजह से वह पेड़, पहाड़, आसमान और बादलों की तरह नहीं हो पाता, जिन्हें घिरने, छंटने, गरजने-बरसने की कोई जल्दी नहीं, उस प्यासी धरती की तरह नहीं हो पाता जिसे तर-ब-तर होने या सूखने की कोई जल्दी नहीं। प्रकृति अपनी सहज लय में गतिमान है, इंसान को ही हड़बड़ी क्यों है? कवि रिश्ते को खंडहर हो जाने से बचा पाने की चिंता में जीता है। वह प्रकृति की निकटता के उस सुख में बहता है, जहाँ हवाएँ बहुत उदार, देवदार स्निग्ध, वत्सल शांत हैं और रेशमी वीचियों में लहकता चीड़ का एकांत है। 'शब्द कभी झूठे नहीं होंगे' कहने वाले कवि को भरोसा है कि शब्द उससे कभी भी झूठ नहीं बोलेंगे। कवि के अंतरंग का साक्षात्कार कराने वाली बहुत-सी भावभीनी कविताएँ सहज ही प्रभावित करती हैं,
धीरे धीरे फुर्सत पाकर
मुझे घेर कर बैठ गया सब
कमरों का खालीपन
कितने वर्षों से है तेरे मन की तुझसे
अनबन?
कवि की यह जागृत सोच हमें भी सजग करती है,
‘कहाँ जा रहे हैं अब हम सब
जुते प्रगति के भीषण रथ में’
उनके विविधतापूर्ण लेखन में कुमाउँनी कविताओं का संकलन 'उकाव हुलार' भी है, उन्होंने कुमाउँनी में गद्य भी लिखा, जिसका संकलन आ चुका है।
'आवाहयामि' उनके लिखे अनूठे संस्मरणों की वह पुस्तक है, जिसे पढ़ना एक नए लोक में प्रविष्ट होना है। आज़ादी के बाद के हिंदी साहित्य संसार का यह अनूठा परिचय अज्ञेय, जैनेंद्र, मुक्तिबोध, निर्मल वर्मा, विजयदेव नारायण साही से जुड़े अज्ञात पहलुओं को साकार करता है। पुस्तक स्मृतियों और पत्रों के मिश्रण का विरल उदाहरण है। इन संस्मरणों में वे अज्ञेय को जीवन की तमाम कटुताओं के बावजूद सौम्य और शांतमना पाते हैं। अज्ञेय, जैनेंद्र के चिंतक रूप की बजाय रचनाकार रूप की अधिक सराहना करते हैं। इन्हीं संस्मरणों में प्रेमचंद के उस अँग्रेज़ी लेख का परिचय मिलता है, जिसमें वे जैनेंद्र को "the most understanding fiction writer in Hindi" कहते हैं। यहीं विजयदेव नारायण साही का महत्वपूर्ण कथन आता है, "हिंदी भी अपना तेज तभी प्रकट करती है जब कोई लोहिया उसे छेड़े", इस पंक्ति का संदर्भ लोहिया को अँग्रेज़ी भाषणों से हिंदी की ओर मोड़ने से जुड़ता है, जब उनसे कहा गया, "आप जैसा बोलते है, वैसा ही लिखिए।"
रमेशचंद्र शाह जी दार्शनिक और वैचारिक उन्मेष के लेखक हैं। उनका समग्र कथा साहित्य उनके अनुभवों की देन है। अपने उपन्यासों में जैसे वे अपना ही जीवन जी लेते हैं। ये रचनाएँ पर्वत प्रदेश के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, पारिवारिक अनुभव खंडों से होती हुई नगर-महानगरों की दूरी तय करती हैं। आलोचना संदर्भ में छायावाद पर उनका सुचिंतित मूल्यांकन महत्त्वपूर्ण है। उनके निबंधों की दुनिया बौद्धिक और भावप्रवण एक साथ है। डायरी, संस्मरण, पत्र और कहानियाँ लेखक के निर्द्वंद्व खुले अंतर्मन का सटीक परिचय हैं।
हिंदी जगत के इस वरिष्ठ एवं विशिष्ट सृजक का, कोरोनाकाल की भयावहता के बीच नए डिजिटल मंच पर अनवरत सक्रिय बने रहना प्रशंसनीय है। विगत और वर्तमान को अपनी गहन-सूक्ष्म अंतर्दृष्टि से विवेचित-विश्लेषित करते रमेशचंद्र शाह जी के साहित्यिक अवदान के प्रति हम नतमस्तक हैं।
संदर्भ
- लेखक से संवाद और उनका समग्र रचनात्मक साहित्य
आपके विगत आलेखों की भांति यह आलेख भी पाठक, लेखक और स्वयं आलेखक में परस्पर जुड़ाव उत्पन्न करता है। आपको न केवल अपने विषय अर्थात् लेखक के बारे में पूरी जानकारी है, उसे पाठकों तक समुचित रूप से संप्रेषित करने के लिए कोई कोर-कसर भी नहीं छोड़तीं('घनानंद' याद है) । आपका श्रम,गहन अध्ययन एवं लेखन-कौशल आपके आलेखों में स्पष्ट परिलक्षित होता है। इसके लिए आप बधाई की पात्र हैं। हम जैसे अनेक पाठकों की ओर से आपका आभार!
ReplyDeleteखयाल आ रहा है कि रमेशचन्द्र शाह एक उत्तम त्रैमासिक पत्रिका 'चिन्तन सृजन' का संपादन भी करते हैं। यदि मैं भूल नहीं कर रहा तो उनकी प्रतिभा का यह एक और आयाम है तथा इसका उल्लेख भी किया जाना चाहिये।
ज्योत्स्ना मिलन साहित्य में बहुत सुपरिचित नाम है। इसी आलेख ने अवगत कराया कि वे एवं श्री रमेशचन्द्र शाह दंपती हैं।
किन्तु आपने उनके लिए 'थीं' शब्द का प्रयोग किया; मन आशंका से काँप रहा है।
विजया, आपके अन्य आलेखों की तरह रमेशचंद्र शाह के जीवन और कार्य से परिचय कराता यह आलेख भी रोचक, ज्ञानवर्धक, सटीक और प्रवाहमय है। कुछ उदाहरण तो आसानी से याद रह जाने वाले हैं - ‘कहाँ जा रहे हैं अब हम सब जुते प्रगति के भीषण रथ में’। इस दमदार आलेख के लिए आपको बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteDr.manju bhatt sada ki tarah bahut hi sahaj swabhavik shaily me likha lekh.lekhak ke vicharon se saralta se parichit karvata hai ye lekh
ReplyDelete.bhavishya me aise hi uttam lekh padhne ko milenge aisi aasha hai.
विजया जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपके लेख के माध्यम से रमेशचंद्र शाह जी के विस्तृत साहित्यिक सृजन का सुंदर परिचय मिला। उनकी कविताओं के लेख में सम्मिलित अंश भी मनभावन हैं। आपको इस रोचक एवं जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteविजया जी नमस्ते। बहुत बढ़िया लगा रमेशचंद्र शाह की सोच और विवेचना को आप द्वारा प्रस्तुत उद्धरणों से समझकर। आपका लेख प्रवाहमय और समग्रता लिए हुए है। इस सुन्दर लेखन हेतु आपको आभार और बधाई।
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