कहानी आधुनिक युग में गद्य-साहित्य का विकास है, किंतु इसके प्रमाण इससे पूर्वकाल में भी प्राप्त होते हैं। यूँ तो नई कहानी यानी समकालीन कहानी की शुरुआत सन ६० के बाद से मानी जाती है, जिसके प्रवर्तक कथाकार थे, डॉ० शिवप्रसाद सिंह। उनका जन्म १९ अगस्त १९२८ को बनारस के जलालपुर गाँव (उत्तर प्रदेश) में एक जमींदार परिवार में हुआ था। इनका जन्म कहीं-कहीं १९२९ भी दर्ज़ है। पर यह अप्रामाणिक है। उनकी प्रारंभिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई। उनके व्यक्तित्व के विकास में उनकी दादी, पिता और माँ का विशेष योगदान रहा। उन्होंने १९४९ ई० में उदयप्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण कर १९५१ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहीं से एमए (हिंदी) करने के उपरांत आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के निर्देशन में 'सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' विषय पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। १९५६ से वे वहीं प्राध्यापक रहे। १९८८ में अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त होने के बाद डॉ० सिंह 'प्रोफेसर एमेरिटस' भी रहे। वे छठे दशक के उन विशिष्ट रचनाकारों में थे जिनकी रचनाओं में भारतीय चित्र तथा गहरी संवेदना और समकालीन यथार्थ के द्वंद्व का सूक्ष्म एवं कलात्मक रूपांकन हुआ है।
उन्होंने साहित्य की विविध विधाओं - उपन्यास, कहानी, निबंध, नाटक, रिपोर्ताज़, आलोचना आदि में महत्वपूर्ण सृजन किया। किंतु उनकी प्रतिभा एक कथाशिल्पी के रूप में विशिष्ट कही जा सकती है। उन्होंने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए, वे प्रेमचंद और फणीश्वरनाथ रेणु से पृथक थे। पृथक्करण की यह अद्वितीयता उन्हें हिंदी कथा-साहित्य में एक नए, उर्वर 'प्लेटफार्म' पर प्रतिष्ठित करती है। वे एक बौद्धिक साहित्यकार थे। उनकी अद्भुत बौद्धिकता, तार्किकता और विलक्षण प्रज्ञा-प्रतिभा ने हिंदी साहित्य को आंदोलित किया। उनके जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव आए। परिस्थितियाँ विद्रूप हुईं पर वे अपने अप्रतिम धैर्य और हिम्मत से उनका मुकाबला करते रहे। लेकिन बेटी की आकस्मिक मौत ने साहित्य के महाबली को तोड़ दिया।
साहित्य और दर्शन के विशिष्ट विद्यार्थी डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने शीर्षस्थ कथाशिल्पी होने के साथ ही अनुशीलन, संपादन, चिंतन और निबंध लेखन के क्षेत्र में अपनी पृथक पहचान बनाई। उपन्यास सृजन की कलात्मकता ने उन्हें अतिरिक्त सम्मान दिया। उनकी कहानियों और उपन्यासों में समकालीन समाज का यथार्थ बिंब दिखाई देता है। 'आर-पार की माला', 'कर्मनाशा की हार', 'शाखामृग', 'इन्हें भी इंतजार है', 'मुर्दा सराय' उनके बहुचर्चित कहानी-संग्रह हैं, तो 'अलग-अलग वैतरणी', 'गली आगे मुड़ती है', 'नीला चाँद' और 'वैश्वानर' प्रसिद्ध कथात्मक कृतियाँ हैं। डॉ० नामवर सिंह का यह कहना है कि "शिवप्रसाद सिंह को उपन्यास लिखने की प्रेरणा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के 'चारुचन्द्र' से मिली", पर इससे सहमत नहीं हुआ जा सकता। इन कृतियों ने उनके विरल व्यक्तित्व को विशेष ऊँचाई दी। उनकी 'कर्मनाशा की हार' और 'गली आगे मुड़ती है' और 'नीला चाँद' कृतियाँ प्रकाशित हो आलोचना से रूबरू हुईं थी। 'गली आगे मुड़ती है' उपन्यास भी स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के टूटते हुए गाँव की कहानी है। टूटते गाँव में अभी भी कुछ टूटने को बाकी है। वास्तव में यह टूटना जड़ता और अज्ञानता का टूटना नहीं है, मूल्यों और संबंधों का टूटना है, विवेक और संवेदनाओं का टूटना है। साथ ही साथ ज़मींदारी और जाति-पाँति का भी टूटना है। किंतु यह कितनी बड़ी विडंबना है कि बुरी चीजें टूटकर भी नहीं टूटी और अच्छी चीजें टूटने लगीं तो फिर टूटती ही गईं। गाँव में वही जड़ता, अंधविश्वास, विवेकहीन, स्वार्थांध, सामान्य लोगों की अधकचरी सोच बरकरार है।
'कर्मनाशा की हार' कहानी का कथ्य कुछ इस प्रकार है, "काले सांप का काटा आदमी बच सकता है, हलाहल पीने वाले की मौत रुक सकती है, किंतु जिस पौधे को एकबार कर्मनाशा का पानी छू ले, वह फिर हरा नहीं हो सकता। कर्मनाशा के बारे में किनारे के लोगों में एक और विश्वास प्रचलित था कि यदि एकबार नदी बढ़ आए तो बिना मानुस की बलि लिए लौटती नहीं। हालाँकि थोड़ी ऊँचाई पर बसे वालों को इसका कोई खौफ़ न था, इसी से बाढ़ के दिनों में, गेरू की फैले हुए अपार जल को देखकर खुशियाँ मनाते, दो-चार दिन की यह बाढ़ उनके लिए तब्दीली बनकर आती।" उन्होंने अपनी कहानियों को ग्रामोन्मुखी बनाकर सामाजिक विसंगतियों पर तीखा व्यंग्य करते हुए अनेक अंतर्विरोधों को उकेरा है और अंधविश्वासों पर गहरी चोट की है। दरअसल नई कहानी की चेतना परिवेश से जुड़े हुए व्यक्ति-मन की चेतना है। इसीलिए न तो वह बाह्य यथार्थ की अनुभूतिहीन फार्मूला कथा कहती है न बाहरी परिवेश से विच्छिन्न होकर या बाहरी परिवेश को केवल अचेतन की दुनिया से संदर्भित कर मात्र व्यक्ति-मन का चित्रण करती है। गाँव के संबंध में शिवप्रसाद सिंह की बहुत महत्त्वपूर्ण और जटिल संवेदना वाली मार्मिक कहानी है, 'नन्हों'। यह कहानी ग्राम-परिवेश के अनेक रंगों और गंधों को अपने में समेटे हुए है। इसी तरह 'राग गूजरी' और 'भेदिए' कहानियाँ भी गँवई जन-संवेदना की उत्कृष्ट कहानियाँ हैं। उनकी पहली कहानी 'दादी माँ' थी, जिससे हिंदी कहानी को एक नया आयाम मिला। इसका प्रकाशन १९५१ में 'पहल' प्रत्रिका में हुआ था। उनके उपन्यास में भी अंचलीय संस्पर्श और रंग साफ दिखाई देता है।
काशी के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के दर्शन उनके 'गली आगे मुड़ती है' और 'नीला चाँद' और 'वैश्वानर' में बिंबित होता है। 'नीला चाँद' इतिहास का जीवंत दस्तावेज है। इसमें मध्यकालीन काशी का विस्तृत फलक है। यह न धर्मोपदेश है, न अख़बार का पन्ना। यह नई सदी की दहलीज़ पर पैर रखने वाले मानव जीवन का सच है। बड़े विस्तृत फलक पर कथा का सृजन नएपन के साथ औपन्यासिक नई दृष्टि लिए है। इनमें जन-चेतना उन्हें प्रेमचंद से जोड़ते हुए भी कथ्य और शिल्प के संबद्ध में नवीनता पृथक करती है। वे परंपरा से पृथक दिखते हैं। अपने स्वरूप और दृष्टि में भिन्न हैं। उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व की झलक मिलती है। कहते हैं, 'वैश्वानर' उपन्यास पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक वांग्मय को खंगाला डाला।
शिवप्रसाद जी ने विचार-प्रधान निबंधों के साथ ही रम्य-मुद्रा में व्यक्ति-व्यंजक निबंध लिखे हैं। उनके निबंधों में धरती-राग और वैदुष्य की आभा सहज रूप से दृष्टिगत होती है। अपने गाँव और अपने नगर काशी से संपृक्त निबंधकार डॉ० सिंह ने हल्के-फुल्के प्रसंगों के माध्यम से भारतीय संस्कृति के ज्वलंत सवालों को स्पर्श किया है। उनके निबंधों में जो उत्कृष्टता के गुण से परिपूर्ण लालित्य हैं, वह प्रभावपूर्ण हैं। 'आधुनिक परिवेश और अस्तित्ववाद' निबंध स्थायी महत्व लिए पुनः पुनः पठनीय है। जिसमें उन्होंने अस्तित्ववाद के संदर्भ में पश्चिमी प्रभाववाद और यांत्रिक भौतिकवाद के अन्योन्याश्रित संबंधों को उद्घाटित तो किया ही है, अस्तित्ववाद के सिद्धांतों पर भी गहन प्रकाश डाला है जो नए चिंतन को जन्म देता है।
शिवप्रसाद सिंह ने यात्रा-वृत्तांत, संस्मरण और डायरी आदि विधाओं में भी लिखा है। उनके संस्मरण रेखाचित्र से अति रोचक हैं, जिनमें उन्होंने अपनी अतीत और समसामयिक स्मृतियों को संजोया है। डायरी के माध्यम से लेखक ने स्फूर्त भावों और विचारों को अभिव्यक्त किया है, तो जीवनी में अपनी माँ और पारिवारिक स्थितियों-परिस्थितियों और उनके मनोभावों को मनोवैज्ञानिक ढंग से प्रस्तुत किया है। उसके अंश देखें, "किशन भैया की शादी ठीक हुई, दादी माँ के उत्साह पड़ोसिनें आतीं, हुक्का चढ़ता। बहुत बुलाने पर दादी माँ आतीं, बहिन बुरा न मानना। कार-परोजन का घर ठहरा। एक काम अपने हाथ से न करूँ, तो होने वाला नहीं।"
अस्तित्ववादी दर्शन और अरविंद-दर्शन पर केंद्रित उनकी पुस्तकें हिंदी में अद्वितीय अवदान के रूप में समादृत हैं। प्रत्येक विधा में उनका सृजक व्यक्तित्व प्रधान रहा है। अतः डॉ० शिवप्रसाद सिंह आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की सारस्वत परंपरा के वारिस सिद्ध होते हैं। उनकी भाषिक संरचना सरल-सहज किंतु प्रगल्भ है। नई अनुभूति और नए विचारों का अन्वेषण उनका अतिरिक्त वैशिष्ट्य है। चूँकि वे एक ख्याति प्राप्त आलोचक भी रहें हैं, अतः उनकी कथात्मक कृतियों और आलोचना की भाषा में बारीक अंतर है। पश्चिम की मान्यता से पृथक उन्होंने कुछ अनुभवजन्य आलोचनाएँ भी लिखी हैं। उसमें बौद्धिकता, तर्क और वैज्ञानिकता ही नहीं, अपितु शिल्प और भाषा के स्तर पर कलात्मकता भी हैं। उनके सृजन में कहीं वस्तु-तत्त्व का प्राधान्य है, तो कहीं कला-पक्ष का। परंतु संपूर्ण सृजन भाषिक संरचना की दृष्टि से सरल- सुगम मौलिक प्रतिभादर्श लिए है। उनकी भाषा परिशिष्ट खड़ीबोली है। यत्र-तत्र भोजपुरी के साथ देशज शब्द की प्रयोगधर्मिता और कहावतों-मुहावरों का छौंक जायकेदार लगता है। अतः उनके साहित्य का वाचन करना गंगा में अवगाहन करने जैसी अनुभूति कराता है।
संदर्भ
विकिपीडिया
भारतकोश/भारत डिस्कवरी
रामदरश मिश्र रचनावली (आलोचना) खंड-१४, प्रथम संस्करण २०००
बीसवीं सदी : हिंदी के मानक निबंध (खंड २) संपादक डॉ० राहुल, भावना प्रकाशन दिल्ली।
साहित्यकार निर्देशिका, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ (१९९१)।
हिंदी साहित्य : युग और प्रवृत्तियाँ, डॉ० शिवकुमार शर्मा, अशोक प्रकाशन, दिल्ली - ०६।
भाई राहुल जी, डॉ.शिवप्रसाद सिंह पर जिसप्रकार डूबकर आपने लिखकर उन्हें श्रृद्धांजलि दी है वह अद्भुत है।.आपकी लेखनी को सलाम।
ReplyDeleteशिवप्रसाद सिंह की नन्हों कहानी कोर्स में पढ़ी थी।आज आपने उनके समग्र लेखन को जिस तरह समन्वित किया, वह रचनाकार की छवि को साकार का गया ।
ReplyDeleteराहुल जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपने लेख में शिवप्रसाद सिंह जी के जीवन एवं सृजन के बारे में विस्तृत जानकारी दी।आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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