Thursday, September 8, 2022

राजिंदर सिंह बेदी : ज़िंदगी को अफ़सानों में ढालने वाला कारीगर

 

कम अल्फ़ाज़ में पसमंज़र की तस्वीर खींच देना, बिना कहे बहुत कुछ कह जाना, किसी भी लफ्ज़ की जगह बदलने से रचना की चुस्ती और उसके बहाव में अंतर आ जाना - ये सारी बातें ग़ज़लों के संदर्भ में कही-सी लगती हैं। लेकिन राजिंदर सिंह बेदी का अफ़सानों के लिए हमेशा यही रवैया रहा, उनके अनुसार, "अफ़साना और शे’र में कोई फ़र्क़ नहीं है। है, तो सिर्फ़ इतना कि शे’र छोटी बहर में होता है और अफ़साना एक ऐसी लंबी बहर में जो अफ़साने के शुरू से लेकर आख़िर तक चलती है। नौसिखिया इस बात को नहीं जानता और अफ़साने को बहैसियत फ़न शे’र से ज़्यादा सहल समझता है।" बेदी साहब ने अपने हर अफ़साने में इसकी मिसाल पेश की है। मंटो ने इसी बात को दूसरे अल्फ़ाज़ में कुछ यूँ कहा था, "तुम सोचते बहुत हो, लिखने से पहले सोचते हो, लिखने के दौरान सोचते हो और लिखने के बाद सोचते हो।"  इसके जवाब में बेदी ने कहा था, "सिख कुछ और हों या न हों, कारीगर अच्छे होते हैं।"

आधुनिक उर्दू अफ़साने का जगमगाता महल सआदत हसन मंटो, इस्मत चुग़ताई, कृष्ण चंदर और राजिंदर सिंह बेदी की रचनाओं के स्तंभों पर लगभग एक सदी से मज़बूती से खड़ा है। नए लिखने-वालों के लिए ये चारों, प्रकाश स्तंभ का काम करते हैं; उन्हें आगे बढ़ने के लिए रौशनी इनमें से ही कोई दिखाता है। हिंदी के लेखक वीरेंद्र मेहदीरत्ता का कहना है कि जब उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अपनी पहली कहानी उपेंद्रनाथ अश्क को दिखाई थी, तो अश्क ने उन्हें कहानी के हुनर को समझने और तराशने के लिए बेदी साहब के अफ़साने पढ़ने की सलाह दी थी। 

सियालकोट के ढल्ली-की गाँव में जन्मे बेदी के लिए उर्दू ज़बान उसी तरह से अपनी थी जैसे वहाँ जन्मे औरों के लिए। यह वह समय था जब उर्दू राजनीति के हाथों बँटवारे का उपकरण नहीं बनी थी। यह अलग बात है कि बेदी ने अपने पात्रों से जो ज़बान बुलवाई, वह पात्रों के अपने परिवेश, शिक्षा के उनके स्तर के अनुरूप थी। उनके यहाँ उर्दू दूसरी बोलियों और भाषाओं के शब्द लगातार अपने में जोड़ती चली गई। गँवई और आंचलिक शब्द उनकी ज़बान में मिठास बढ़ाने के साथ-साथ अफ़सानों को अधिक अर्थपूर्ण बनाते हैं। 

बेदी की कहानियों में समाज और उसके लोगों का अक्स गहराई के साथ-साथ सूक्षम्ता लिए हुए भी होता है; यह एहसास होने लगता है कि उन्होंने अपने माहौल की जाँच आतशी-शीशा (मैग्नीफाइंग गिलास) लेकर की हो। ऐसा नहीं है कि वे अपने अफ़सानों में घटनाओं और किरदारों की मनोस्थिति का विवरण बहुत विस्तार से करते हों। उनके अफ़सानों में कई बार एक छोटे-से जुमले में इतना कुछ कहा गया होता है, जिसे लिखने में पूरा अनुच्छेद भी कम पड़ जाए। अपनी रचनात्मक प्रक्रिया के बारे में बेदी कहते हैं, "मैं कल्पना की कला में विश्वास करता हूँ। जब कोई वाक़या निगाह में आता है तो मैं उसे विस्तारपूर्वक बयान करने की कोशिश नहीं करता बल्कि वास्तविकता और कल्पना के संयोजन से जो चीज़ पैदा होती है उसे लेखन में लेने की कोशिश करता हूँ। मेरे ख़याल से वास्तविकता को व्यक्त करने के लिए रूमानी दृष्टिकोण की ज़रूरत है बल्कि अवलोकन के बाद, प्रस्तुत करने के अंदाज़ के बारे में सोचना स्वयं में किसी हद तक रूमानी तर्ज़-ए-अमल है।"

बेदी का जन्म बँटवारे के पहले हुआ और उन्होंने भी उस विभीषिका के दुष्परिणामों को बहुत क़रीब से महसूस किया था। बँटवारे के विभिन्न प्रसंग और प्रकरण उनके कई हम-असरों की उम्दा कहानियों में भी मिलते हैं; लेकिन उन सभी कहानियों में कहीं न कहीं अत्याचार, दहशत, हिंसा की झलक आ ही जाती है। बेदी की कहानी 'लाजवंती' भी उसी पसमंज़र में लिखी गई है। सरहद के दोनों तरफ़ का इसमें ज़िक्र आता है। बेदी ने अपनी कहानी की विषय-वस्तु को उस हादसे में अग़वा की गईं या किसी वजह से सीमा-रेखा के दूसरी तरफ छूट गईं औरतों को बनाया है। कहानी में पात्रों की मनोदशा को कई जगहों पर एक चित्र के वर्णन से व्यक्त कर दिया गया है। नायक सुंदरलाल जो अपनी बीवी लाजो (लाजवंती) और सरहद के दूसरे पार छूटी दूसरी वैसी ही औरतों को ढूँढ़ने की मुहिम में रात-दिन एक किए होता है। उसे अपने इस काम में इतनी निष्ठा होती है कि मंदिर के बाहर राम कथा पर चर्चा में यह वाक्य सुनकर कि  "ये है राम राज्य! जिसमें एक धोबी की बात को भी बहुत ही क़द्र की निगाह से देखा जाता है और महा सतवंती सीता को गर्भावस्था में घर से निकाल दिया जाता है", वह यह तक कह देता है कि "हमें राम राज नहीं चाहिए बाबा!" वही सुंदर लाल जब लंबे अरसे के बाद मिली लाजवंती को पहली बार देखता है तो उसकी बड़ी-बड़ी बातें न जाने कहाँ खो जाती हैं और उसे दिखता है, "वो ख़ालिस इस्लामी तर्ज़ का लाल-दुपट्टा ओढ़े थी और बाएँ बुक्कल मारे थी… और सुंदर लाल को धक्का लगता है।" इन चंद छोटे जुमलों में बेदी ने पहनावे के अंतर, आदतन किए जाने वाले कामों, लोगों के मनों में उठने वाले दीगर ख़यालों, लाजवंती के उस मुलाक़ात के पहले के हालात और असलियत से सामना होने पर सुंदर लाल की बड़ी बातों का काफ़ूर हो जाने को बयान कर दिया है। यही वह शिल्पकारी थी कि उनकी कहानियाँ ज़िंदगी के कड़वे तथ्यों पर आधारित होने के बावजूद भी मिठास-सी घोलती हैं; उनके यहाँ तल्ख़ी और बेज़ारी नहीं मिलती। लाजवंती और उनकी कहानियों के अनेकानेक महिला पात्र शोषित, कमज़ोर, घरेलू, दबे हुए दिखाए गए हैं, इसके बावजूद कहानी के अंत में हर पाठक का दिल और ज़ेहन उन्हीं पात्रों के पास पहुँचता है, उन्हीं का आचरण और व्यवहार आशा की किरण जगाता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बेदी पर इस बात का आरोप भी लगाया गया कि उनकी रचनाओं में औरत ही हमेशा केंद्रीय पात्र रही। उनकी हर कहानी में औरत किसी एक नए रूप में आती है, चाहे वह 'गरम कोट' की शम्मी हो, 'अपने दुख मुझे दे दो' की इंदू, या 'बब्बल' की भिखारिन या प्रेमिका सीता। उनके यहाँ 'भोला' और 'क़्वारंटीन' के साथ कई और कहानियाँ ऐसी हैं जो मुख्यतः पुरुष पात्रों को केंद्र में रखकर लिखी गई हैं और वे सभी ख़ुद में मानवीय भावनाओं तथा विभिन्न रिश्तों की ख़ूबसूरत परतें समोए हुए हैं। 'भोला' बाल मनोविज्ञान की उम्दा कहानी है। इस कहानी में बेदी ने बच्चे के मनोभावों और हरकतों का लाजवाब और सजीव चित्रण किया है। फ़िराक़ गोरखपुरी ने बेदी की कहानी कला के बारे में अपनी किताब 'उर्दू भाषा और साहित्य' में लिखा है, "बेदी चाहे जिस क्षेत्र को चुनें, वह हमारी अनुभूतियों की कोई ऐसी रग छू देते हैं जिसका दुख पहले सोया हुआ होता है, लेकिन उनके स्पर्श से पूर्णतः जागृत हो जाता है।"

बेदी ने ५० साल की अवधि में कुल ७२ कहानियाँ लिखीं, कुछ ड्रामे और रेडियो ड्रामे भी लिखे। बेदी ने रचना-कर्म में चौड़ाई की जगह गहराई को अपनाया। हर विधा की रचनाओं ने उन्हें मक़बूलियत दिलवाई। उन्होंने मात्र एक उपन्यास 'एक चादर मैली सी' वर्ष १९६२ में लिखा जिसने उन्हें साल १९६५ में साहित्य अकादमी पुरस्कार दिलाकर साहित्य के एक नए पायदान पर पहुँचा दिया। बेदी ने यह उपन्यास महज़ तीन महीनों में लिखने के बाद उसकी पांडुलिपि अपने समकालीन लेखक कृष्णचंदर को पढ़ने के लिए भेजी। पूरा पढ़ने के बाद अपने हुलिए की फ़िक्र न करते हुए कृष्णचंदर फ़ौरन बेदी के पास पहुँचे और बोले तुमने एक कालजयी रचना लिख डाली है। इस उपन्यास का अँग्रेज़ी (I Take This Woman) समेत कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है और कई बार नाट्य-प्रस्तुतियाँ भी हुई हैं। यह उपन्यास पर्वतीय अंचल में बसे पंजाब के एक गाँव  में रह रही औरत की करुणा, व्यथा और दुर्दशा पर केंद्रित है। पुरुष प्रधान समाज में औरत की नियति का क्या पटाक्षेप होता है, उसे बड़े मार्मिक ढंग से इसमें चित्रित किया गया है। औरत के संदर्भ में बोलते हुए बेदी ने ६ जुलाई १९८४ को ऑल इंडिया रेडियो बंबई को दिए अपनी ज़िंदगी के आख़िरी इंटरव्यू, जो इस्मत आपा और रेडियो के फ़ैयाज़ रिफ़अत ने लिया था, में कहा है, "मैंने देखा है कि औरत हमेशा आदमी से ज़्यादा पावरफुल रही है, अपनी तख़्लीक़ की सलाहियत (पैदा करने के सामर्थ्य) की बिना पर। मगर लोग उसका शोषण करते हैं। उसे कुचलते हैं, दबाते हैं लेकिन औरत तमामतर जकड़बंदियों के बावजूद आज़ाद है। उसे दबाया नहीं जा सकता, रोका नहीं जा सकता।"  

बेदी ने इसी इंटरव्यू में बताया कि उनके आख़िरी दिनों में लिखे अफ़साने 'सिर्फ़ एक सिगरेट', 'एक बाप बिकाऊ है', 'बोलू' मौज़ू और ज़बान दोनों एतिबार से बड़े अच्छे हैं। 

बेदी साहब एक बार जो सिने-नगरी बंबई पहुँचे तो वहीं के होकर रह गए और वहाँ भी उन्होंने अदबी दुनिया की तरह ख़ूब मक़बूलियत हासिल की। बेदी ने 'बड़ी बहन', 'आराम' और 'दाग़' फ़िल्मों की पटकथा लिखकर अपने पैर मायानगरी में जमाने शुरू किए। उनकी 'दाग़' बहुत चली और वे तरक़्क़ी की मंज़िलें तय करने लगे। बेदी आशिक़ मिज़ाज थे और अपनी फिल्मों की अदाकाराओं को दिल दे बैठते थे। इसके चलते बीवी से हमेशा अनबन-सी रहती थी और ज़िंदगी में तल्ख़ी। बेदी ने फ़िल्मों में बतौर कहानी, पटकथा और संवाद लेखक, निर्देशक और निर्माता योगदान दिया। वे विभिन्न हैसियतों में जिन फ़िल्मों का हिस्सा रहे उनमें 'बड़ी बहन', 'दाग़', 'मिर्ज़ा ग़ालिब', 'देव दास', 'गर्म कोट', 'मिलाप', 'बसंत बहार', 'मुसाफ़िर', 'मधुमती', 'मेम दीदी', 'आस का पंछी', 'बंबई का बाबू', 'अनुराधा', 'रंगोली', 'मेरे सनम', 'बहारों के सपने', 'अनुपमा', 'मेरे हमदम मेरे दोस्त', 'सत्यकाम', 'दस्तक', 'ग्रहण', 'अभिमान', 'फागुन', 'नवाब साहब', 'मुट्ठी भर चावल', 'आंखन देखी', 'एक चादर मैली सी' शामिल हैं। बेदी साहब के फ़िल्मों से जुड़ने के बाद ही संवाद-लेखन की श्रेणी में फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड दिया जाने लगा।  

फ़िल्मी मसरूफ़ियत और सरगर्मियों के बीच भी उनकी कलम न रुकी, वह दर्दमंदी और सहानुभूति के अल्फ़ाज़ से अफ़साने गढ़ती गई। बेदी की संवेदनशील निगाहों ने ज़िंदगी में बहुत कुछ देखा था। पंजाब के ख़ुशहाल क़स्बों की ज़िंदगी तो बदहाल लोगों की विपदा, अर्ध शिक्षित लोगों की रस्में, रीतियाँ, स्पर्धा और निर्वाह की युक्तियाँ, नई और पुरानी दुनिया के तौर तरीक़ों के बीच संघर्ष, नई पीढ़ी के चाल-चलन और पुरानी पीढ़ी से उसके संबंध वग़ैरह-वग़ैरह। लेकिन उन्होंने दहशत की जगह प्रमुखता इंसानी-नर्मी और दर्दमंदी को दी। भयानक मनाज़िर में से भलाई को और नागवारी में से गवारा को तलाश करने का हुनर उनकी सभी रचनाओं में बिखरा मिलता है। हो रही बेदर्दी से सबक़ सीखना, उसे कुरेदना पर काग़ज़ पर उतारते समय जादुई तरीके से उसे दर्दमंदी का पैकर पहनाने का अनोखा और अनन्य कारनामा करते थे राजिंदर सिंह बेदी।  

बेदी के यहाँ विषयों की व्यापकता है, उनकी किसी भी रचना में किसी भी विषय का दोहराव नहीं मिलता। उनकी हर कहानी समाज के किसी न किसी नए मुद्दे को लेकर सामने आती है और उसकी प्रस्तुति भावनाओं और संवेदनशीलता की ऐसी दहलीज़ पर खड़ी होती है जहाँ से वह धीरे-धीरे बड़ी आसानी से पाठकों के दिल की गहराई में उतरती चली जाती है।   

समाज की नब्ज़ पर गहरी पैठ रखने वाले बेदी का निजी जीवन शुरूआती दौर से ही मुश्किल रहा। उससे सीखे सबक़ और उसकी कुछ झलकें उनके अफ़सानों में दीखती हैं। उनका बड़ा बेटा भी फ़िल्मी दुनिया से वाबस्ता रहा और उसने बतौर निर्माता-निर्देशक काम किया। साल १९८२ में उसकी बेवक़्त मौत और उससे पहले साल १९७७ में बीवी के इंतिक़ाल ने बीमारी से जूझ रहे बेदी को पूरी तरह से तोड़ दिया। उनके आख़िरी दिन बड़ी बेबसी और तन्हाई में गुज़रे। साल १९८२ में वे फ़ालिज के शिकार हुए और फिर कैंसर हो गया। कमज़ोरी और लाचारी से जंग लड़ते हुए अल्फ़ाज़ का पुजारी हमसे रुख़्सत तो हो गया, पर उसके अफ़साने आज भी हर अंधी गली से गुज़रते समय चिराग़ों का काम करते हैं; बताते हैं कि बेकसी और बेज़ारी में भी उम्मीद को तलाशा जा सकता है। वे कहते थे कि "अफ़साना एक शऊर, एक अहसास है, जो किसी में पैदा नहीं किया जा सकता है लेकिन हासिल करने के बाद भी आदमी दस्त-बा-दुआ (दुआ में हाथ उठे होना) ही रहता है।"

हमारे हाथ आज भी शुक्रिया देने के लिए उठे रहते हैं कि यह अफ़सानानिगार हमारा अपना है।

कुछ रोचक प्रसंग और ज़रूरी मालूमात 

क्या आप जानते हैं? 

  • बेदी ने मोहसिन लाहौरी के नाम से शायरी की है और लैला के पात्र की अदाकारी भी। 

  • उनके माता-पिता का प्रेम विवाह हुआ था और माँ फरार हो कर आईं थीं। उनके पिता पोस्टमास्टर थे। उन्हें उर्दू और फ़ारसी बहुत पसंद थीं। उनकी माँ सेवा देई हिंदू परिवार से थीं और वे हिंदू तथा सिख धर्मों की अच्छी ज्ञाता थीं। उन्हें पुराणों की कथाएँ और इस्लाम की कहानियाँ ज़बानी याद थीं। उनके घर वाले हिंदू और सिख त्योहारों के साथ-साथ मुस्लिम त्यौहार भी पूरे जोश से मनाते थे। प्यार, आस्था, माँ की कहानियों और पिता की हाज़िरजवाबी में पगे बेदी साहब को ऐसे उम्दा अफ़साने तो लिखने ही थे। 

  • फिल्म गरम हवा की विषय-वस्तु बेदी साहब ने ही शमा ज़ैदी को सुझाई थी और कहा था कि इसकी कहानी भले इस्मत चुग़ताई से लिखवा लो, स्क्रीनप्ले मत लिखवाना। सब जानते हैं कि गरम हवा का स्क्रीनप्ले कैफ़ी आज़मी और शमा ज़ैदी ने मिलकर लिखा। 

  • शमा ज़ैदी ने बेदी साहब के मार्गदर्शन में उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ का नाटक रूपांतरण लिखा था। 

पहला अफ़साना 


अपने पहले अफ़साने 'महारानी का तोहफ़ा' के बारे में बताते हुए वे कहते हैं, "वो मैंने टैगोर के रंग में लिखा था। उस पर टैगोरियत बिलकुल छाई हुई थी और उसे साल का बेहतरीन अफ़साना क़रार दिया गया था। मौलाना सलाहुद्दीन ने साल के बेहतरीन अफ़साने के लिए दस रुपए का इनाम मुक़र्रर किया था, जिसके लिए साल भर उनके दफ़्तर का चक्कर लगाना पड़ा। वो १९३० में 'अदबी दुनिया' में शाया हुआ था। गो कि उस पर टैगोरियत ग़ालिब थी, फिर भी वो हर तरीक़े से उम्दा अफ़साना था। लेकिन मैंने सोचा कि यह आजकल के अफ़सानों के मेयार का नहीं है, इसलिए उसे 'दाना ओ दाम' 'ग्रहण' और 'गर्म कोट' वग़ैरह के साथ शामिल नहीं किया और इस तरह से  मेरा पहला अफ़साना ज़ाया हो गया।

तालीम और इब्तिदाई पेशेवर सफ़र 

मैट्रिक की परीक्षा खालसा हाई स्कूल, लाहौर से पास करने के बाद डीएवी कॉलेज, लाहौर में दाख़िला लिया। इंटरमीडिएट के बाद बीए में पढ़ने लगे, टीबी से माँ का २८ मार्च, १९३३ को देहांत होने के कारण पढ़ाई  छोड़कर डाकख़ाने की नौकरी पर लग गए। १९३४ में सतवंत कौर (सोमन) से शादी हुई। जल्दी ही पिता की भी मृत्यु हो गई। अपने दो भाइयों, बहन, बीवी और १९३५ में जन्मे बेटे प्रेम का सारा भार उनके कंधों पर आ गया। बेटे की मृत्यु १९३६ में हो गई। एक के बाद एक प्रियजनों की मृत्यु और आर्थिक तंगी ने उन्हें काफ़ी आहत किया। 

बेदी ने लिखना स्कूल के ज़माने से शुरू कर दिया था। उनकी पहली कहानी 'नन्हा कांत' बाल पत्रिका 'फूल' में छपी थी। कॉलेज में पत्रिका 'पारस' के रविवार संस्करण के लिए काम करना शुरू किया। उर्दू लिपि में छपने वाली पंजाबी पत्रिका 'सारंग' का संपादन संभाला। इस पत्रिका के लिए अधिकतर लेख ख़ुद लिखते थे और कविताओं का अनुवाद भी करते थे। इससे उन्हें विभिन्न विषयों पर लिखने का अनुभव मिला। एक और शौक़ जिसने उनकी लेखन प्रतिभा को निखारा - वह था चाचा संपूर्ण सिंह के प्रेस में छपने वाली किताबों को ख़ूब पढ़ना। राजिंदर को पढ़ने का चस्का था। वे पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी से अँग्रेज़ी और अँग्रेज़ी में अनूदित रूसी किताबें ला-लाकर पढ़ा करते थे। पोस्ट ऑफिस में काम करते समय ही वे मशहूर रिसालों 'अदबी दुनिया' और 'अदब-ए-लतीफ़' से जुड़ गए थे। अफ़सानों के पहले मजमूए 'दाना-ओ-दाम' के शाये होने पर मंटो और प्रो० आले अहमद सरूर ने उसे ख़ूब पसंद किया और उनकी ख़ासी हौसला अफ़ज़ाई की। 


रेडियो से वाबस्तगी 

बीए की पढ़ाई छोड़कर पोस्ट ऑफिस लाहौर में क्लर्क हुए। साल १९४३ में डाकख़ाने की नौकरी को इस्तीफ़ा देकर केंद्र सरकार के प्रचार विभाग से जुड़ गए और उस के बाद ऑल इंडिया रेडियो में बहैसियत स्टाफ आर्टिस्ट काम किया। साल १९४८ में जम्मू रेडियो स्टेशन के डायरेक्टर बनाए गए। एक साल वहाँ काम करने के बाद इस्तीफ़ा देकर बंबई चले गए। 

एक चादर मैली सी 

उनके एकमात्र उपन्यास को ख़ूब ख्याति मिली। यह पहले पंजाबी में 'एक चादर अढोरणी' के नाम से लिखा गया था। अँग्रेज़ी के साथ-साथ इसका अनुवाद बांगला, तमिल, तेलुगु, कन्नड़ भाषाओं में हुआ है। और लगभग सभी भाषाओं में इसका मंचन भी हुआ है। 

बेदी की भावुकता 

रेहाना सुलतान ने एक इंटरव्यू में बेदी की भावुकता का ज़िक्र करते हुए कहा, "बेदी साहब ही मैंने ऐसे शख़्स देखे जो हमेशा ख़ुश रहते हैं। मैंने उनके साथ दो फ़िल्मों में काम किया। बहुत अच्छा शॉट हुआ तो "कट" करना भूल जाते हैं। अस्सिटेंट कहेगा, "बेदी साहब शॉट हो गया कट, कट।" और वो आँसू पोंछ रहे हैं, रोने के बीच कह रहे हैं, "बहुत अच्छा शॉट था।" और बुरी तरह रो रहे हैं। उनकी भावुकता के ऐसे क़िस्से तमाम हैं। वे अपनी कहानियाँ भी भावुक हो जाने के कारण सस्वर पढ़ नहीं पाते थे।

अपने समकालीनों के बारे में आख़िरी दिनों में दिए इंटरव्यू में कहा 

उपेंद्रनाथ अश्क़ - भई, सब से पहले तो उपेंद्रनाथ अश्क मेरे दोस्त थे। मैंने उनके लिए और उन्होंने मेरे लिए बहुत कुछ किया। उनकी बीवी का इंतिक़ाल हो गया और वो मेरे घर में पड़े रहते थे। वो ख़िदमत करते थे मेरी और मैं ख़िदमत करता था उनकी... इस तरह हमारी दोस्ती एक लंबे अर्से तक चली... गोल बाग़ और ऐसी जगहों में हमारा जाना जहाँ कि हम घंटों गुज़ार सकें। 

कृष्णचंदर - बाक़ी रहा कृश्न की बाबत... मैंने उनकी कहानियाँ पढ़ीं, तो बहुत मुतास्सिर हुआ। नतीजा यह हुआ कि रास्ते से कोई आदमी गुज़रता, तो मैं उससे पूछता था कि "तुम कृश्नचंदर हो?" यक़ीन मानिए, मैं एक दिन पंजाब पब्लिक लाइब्रेरी गया तो मैंने देखा, एक आदमी बहुत पढ़ रहा है। मैंने सोचा यही कृश्नचंदर होगा। मैंने उससे पूछा, 'आप कृश्नचंदर हैं?' तो वो कहने लगा, 'मैं तो ढोंढूमल हूँ (क़हक़हे)! मैं तो हैरान रह गया। फिर मुझे पता चला कि वहाँ  एक 'कैरियर' रिसाला था। उसके एडिटर कृश्नचंदर थे। मैं वहाँ गया और मैंने कहा, "आप कृश्नचंदर हैं?" वो कहने लगे, "तुम राजिंदर सिंह बेदी?" और फिर हम दोनों गले मिल गए। कृश्न से मेरी इसी क़िस्म की मुलाक़ात थी।

सआदत हसन मंटो - मंटो बंबई में थे। उन दिनों रिसाला निकाल रहे थे,  'मुसव्विर'। उसमें उन्होंने मेरा पहला अफ़साना पढ़ने के बाद लिखा, "यह राजिंदर सिंह बेदी कौन मिट्‌टी के ढेले हैं?" (क़हक़हे) उस पहले अफ़साने की बहुत तारीफ़ की। फिर दूसरा अफ़साना मैंने लिखा, तो फिर तारीफ़ की और मुझसे मिलने के लिए मुश्ताक़। फिर एक बार लाहौर में मुलाक़ात हुई। तू-तू मैं-मैं और गालियाँ शुरू हो गईं, वो थे ही इस क़िस्म के आदमी। उनके साथ मेरी याद जो हमेशा वाबस्ता रहेगी वो यह कि उन्होंने 'मिर्ज़ा ग़ालिब' फ़िल्म लिखी। उनकी सारी तहरीरों में एक सीन रह गया सिर्फ़ और बाद में मुझे लिखनी पड़ी। पाकिस्तान बन गया था और मंटो वहाँ चले गए थे। बस, उनके साथ मेरी यही याद वाबस्ता है।

इस्मत चुग़ताई - आपा (इस्मत) की हम बातें सुनते थे और हैरान होते थे कि एक औरत हो के इस क़िस्म के जुम्ले इस्तेमाल करती हैं। इस क़िस्म की कहानियाँ लिखती हैं। यह तो ग़ज़ब हो गया। हम पीछे रह गए। हम पिछड़ गए बिल्कुल।

मृत्यु पर आए चुनिंदा संदेश और सम्मान में किए गए कार्य 

  • कैंसर के बहुत जल्दी बिगड़ जाने पर बेदी साहब का इंतिक़ाल हुआ।  

  • पाकिस्तान के राष्ट्रपति ज़िया उल हक़ ने अपने संदेश में कहा कि बेदी का जाना सिर्फ़ भारत का नुक़सान नहीं है, पाकिस्तान को भी आज बड़ा नुक़सान पहुँचा है। 

  • रूसी दूतावास का प्रतिनिधि संवेदना संदेश देने ख़ुद उनके घर पहुँचा। 

  • मुंबई में किंग सर्किल के एक चौराहे का नाम ‘राजिंदर सिंह बेदी चौक’ है।  

  • उपेन्द्रनाथ अश्क ने उनकी अधिकतर कहानियों का हिंदी में अनुवाद करके अपने प्रेस नीलाभ प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित कराया। 

  • उनकी कुछ कहानियों का अँग्रेज़ी अनुवाद साहित्य अकादमी, नई दिल्ली ने साल १९८९ में प्रकाशित कराया। 

  • उनकी याद में पंजाब सरकार ने उर्दू अदब का राजिंदर सिंह बेदी अवार्ड शुरू किया है।


राजिंदर सिंह बेदी : जीवन परिचय

जन्म 

१ सितंबर १९१५, सियालकोट, पंजाब (अविभाजित भारत) 

निधन

११ नवंबर १९८४, मुंबई, महाराष्ट्र

पिता

हीरा सिंह बेदी 

माता 

सेवा देवी (देई)

पत्नी

सतवंत कौर

पुत्र

नरेंदर बेदी, जतिंदर बेदी 

पुत्री 

सुरिंदर, परमिंदर 

पोते और नाती 

रजत बेदी, माणिक बेदी, ईला बेदी दत्ता (स्क्रिप्ट राइटर)

परपोते और परनाती 

विवान बेदी, वेरा बेदी 

शिक्षा

  • मैट्रिक परीक्षा, खालसा हाई स्कूल, लाहौर

  • इंटरमीडिएट, बीए की शुरूआत डीएवी कॉलेज, लाहौर

कर्मभूमि

लाहौर, जम्मू, बंबई

कार्यक्षेत्र

अफ़सानानिगार; रेडियो में लेखन और प्रशासन, नाटककार; कहानी, पटकथा, संवाद लेखक, फ़िल्म निर्माता, निर्देशक

लेखन की भाषा

उर्दू, पंजाबी, अँग्रेज़ी

साहित्यिक रचनाएँ

अफ़साने के मजमूए

  • दाना-ओ-दाम 

  • ग्रहण

  • कोख जली 

  • अपने दुख मुझे दे दो 

  • हाथ हमारे क़लम हुए 

  • मुक्ति बोध 

  • बेदी-समग्र (दो खंडों में, हिंदी)

उर्दू की उनकी ज़्यादातर किताबें मकतब जामिया ने प्रकाशित की हैं, तो राजकमल प्रकाशन से दो खंडों में प्रकाशित 'बेदी समग्र' में उनका संपूर्ण साहित्य हिंदी में है।

नाटक के मजमूए

  • बेजान चीज़ें 

  • सात खेल

उपन्यास

  • एक चादर मैली सी

राजिंदर सिंह बेदी पर किताबें

लेखक 

शीर्षक 

  • जगदीश वाधवान

  • राजिंदर सिंह बेदी : शख़्सियत और फ़न, १९९९ 

  • वारिस हुसैन 

  • Rajinder Singh Bedi: A Study, 2006 

  • अबुल ख़ैर काशफ़ी, सईद अबू अहमद आकिफ़   

  • Rajinder Singh Bedi:The Last Pillar Of Modem Urdu Short Story", chapter 25, page 111 in the book Sounds and Whispers: Reflections on the Literary Scene, 1984–86 

  • संपादक, मुशीरुल हसन  

  • India Partitioned: The Other Face of Freedom, New Delhi, Roli Books,1995

पुरस्कार और सम्मान

साहित्य

  • साहित्य अकादमी पुरस्कार - एक चादर मैली सी, १९६५  
  • पद्म श्री - साहित्य और शिक्षा, १९७२ 
  • ग़ालिब पुरस्कार - उर्दू नाटक, १९७८ 

फ़िल्म

  • सर्वश्रेष्ठ कहानी -  गरम कोट, फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड, १९५६ 
  • संवाद लेखन - मधुमती, फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड, १९५९  
  • संवाद लेखन - सत्यकाम, फ़िल्मफ़ेयर अवार्ड १९७१


संदर्भ

लेखक परिचय

प्रगति टिपणीस
पिछले तीन दशकों से मास्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अंग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल  एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। मॉस्को की सबसे पुरानी भारतीय संस्था ‘हिंदुस्तानी समाज, रूस’ की सांस्कृतिक सचिव हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मास्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।

3 comments:

  1. वाह प्रगति, अद्वितीय कथाकार राजिंदर सिंह बेदी पर तुम्हारा यह आलेख उनके बारे में एक संक्षिप्त पुस्तिका हो सकता है। जैसे वे अपने माहौल की मैग्नीफाइंग ग्लास से जाँच करते हुए प्रतीत होते हैं, वैसे ही तुमने उनकी समस्त सृजनात्मकता की बारीकियाँ प्रस्तुत की हैं। इस पठनीय,रोचक और सारगर्भित आलेख के लिए तुम्हें बधाई और धन्यवाद।

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  2. प्रगति जी नमस्ते। आपने राजिंदर सिंह बेदी जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख में उनके जीवन एवं साहित्य को बखूबी पिरोया है। लेख कहानी की तरह पाठक को बाँधे रखता है। साथ ही उनके जीवन काल के रोचक प्रसंगों ने लेख को भी रोचक बना दिया है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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  3. बहुत भावपूर्ण और धाराप्रवाह लिखा है प्रगति जी

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कलेंडर जनवरी

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            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...