ये सौभाग्य की बात है कि अमृत राय ने अपने जीवन काल में जो भी लिखा वह सब उनके जीवित रहते प्रकाशित भी हो गया। उनका शब्द संसार बेहद विस्तृत है। जो साहित्य की कई विधाओं में बँटा हुआ है। रचना कर्म उन तक परिवारिक कर्म की तरह हस्तांतरित हुआ। सेंस ऑफ ह्यूमर, बतरस और किस्सागो उन्हें प्रेमचंद जी से विरासत में मिला था।
वर्ष २०२१ अमृत राय का जन्म शताब्दी वर्ष था पर बाजारवाद, सत्ता की सामंती सोच ने उनकी सुध भी नहीं ली! एक लेखक अपनी संपूर्ण रचनात्मकता हिंदी पाठक समाज को सौंपकर दुनिया से कूच कर चुका है। अब हिंदी प्रेमियों पर, उनके विस्तृत अवदान का संश्लेषण, विश्लेषण, आकलन और आचमन करने का दायित्व तो होना ही चाहिए।
मुंशी प्रेमचंद के सबसे छोटे पुत्र थे अमृत राय, सो कुछ खामियाजा तो भुगतना ही था। दो प्रभा मंडल और वे भी एक परिवार के। यह तत्कालीन आलोचकों को रास नहीं आया। जबकि अमृत राय के लेखन को समालोचक दृष्टि की दरकार थी। मुंशी प्रेमचंद के निधन के समय उनके दोनों पुत्र किशोरवय थे। वहीं यह भी सच है कि प्रेमचंद की दुनिया में सिफारिश और सोर्स जैसे चोचले तो थे ही नहीं। सहजता और सरलता ने न केवल उनके लेखन बल्कि उनके जीवन का भी विन्यास किया था। अमृत राय का व्यक्तित्व भी लगभग इसी तरह तैयार हुआ था। तो फिर अमृत राय की डगर तो कठिन होनी ही थी।
प्रयागराज (इलाहाबाद) में उनके निवास स्थान का नाम धूप-छाँह है। कुछ इसी तरह उनको जीवन में कभी तपिश भरी धूप का सामना करना पड़ा तो उनकी रचना प्रक्रिया और रचना धर्मिता ने उन्हें सूकून भरी छाँह भी प्रदान की फिर भी एक असंतोष ताज़िंदगी उन पर तारी रहा। अपने लेखन के प्रति समग्र और सम्यक दृष्टि की उन्हें हमेशा तलाश रही। कुछ कोशिशें उनके प्रसंशकों ने की भी पर शायद वो पर्याप्त नहीं थी।
अमृत राय के पास एक विहंगम और पैनी दृष्टि थी। समकालीन लेखन पर एक सार्थक दृष्टिकोण भी था और कुछ हटकर लिखने और पाठकों को देने की जीवट लालसा भी थी। वे प्रगतिशील आंदोलन के जुझारू कर्णधारों में से एक थे। युवा अवस्था से जीवन पर्यंत उनका ये जज्बा कायम भी रहा। अमृत राय प्रगतिशील लेखन और आंदोलन दोनों ही के एक कुशल शिल्पकार थे। परंतु उनकी मुंशी प्रेमचंद पर लिखी बायोग्राफी 'कलम के सिपाही' को माइलस्टोन बताकर आलोचकों ने उनके शेष लेखन को सामान्य लेखन बताकर हशिए में डालने की कोशिश की।
अमृत राय कथाकार, उपन्यासकार और प्रगतिशील आंदोलन के लिए प्रतिबद्ध और कटिबद्ध जीवन शैली के पर्याय थे। वे प्रेमचंद परंपरा के संवाहक थे। तभी उनका कहानीकार और उपन्यासकार का पहलू ही प्रथमतः दिखाई पड़ता है। फिर आलोचक, संपादक, समीक्षक, व्यंग्यकार, नाटककार और अनुवादक आदि के रूप में भी उनके दर्शन होते हैं। 'हंस' के दस वर्षों के संपादन में उनकी सलाहियत का लोहा तथा-कथित आलोचकों ने मान लिया। औपन्यासिक और कथा दृष्टि में वे प्रेमचंद से भारी तो नहीं थे पर न तो हल्के थे और न ही मद्धम। खुद के नज़रिए से विकसित एक शैली उनकी भी थी। नवोदित पीढ़ी के लिए जिसकी पूछ-पड़ताल जरूरी है।
अमृत राय के सात उपन्यास, आठ कहानी संग्रह, तीन नाटक, पाँच हास्य व्यंग्य संग्रह, एक यात्रा वृतांत, पाँच आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हैं। कहानी और उपन्यास उनके लेखन की मुख्य विधाएँ रही है। वे आलोचक तो नहीं थे पर आलोचकों के आलोचक जरूर थे। क्योंकि वे मानते थे "सब लेखकों की दृष्टि एक सी हो, अनुभव एक से हों, देखने का ढंग एक सा हो, ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि साहित्य कभी भी सामान्य नहीं रहता। सहज स्थिति यही है, दो लोगों के लिखने में भिन्नता हो।"
प्रेमचंद की जीवनी का सार 'कलम के सिपाही' अमृत राय की अनुपम कृति है, जिसने प्रेमचंद से जुड़े कई मिथकों को तोड़ा भी और बहुत कुछ सच जोड़ा भी। उन्होंने प्रेमचंद के चार उर्दू उपन्यासों को तर्जुमा कर उन्हीं की जैसी हिंदी में ढालकर पाठकों तक पहुँचाया। उनकी छप्पन कहानियों को ढूँढ़कर उन्हें प्रेमचंद शैली में प्रस्तुत भी किया जो 'गुप्त धन' के नाम से प्रकाशित भी हुई। प्रेमचंद के फुटकर लेखन को सहेजकर विविध-प्रसंग में समाहित किया, तो प्रेमचंद के लिखे पत्रों को चिट्ठी-पत्री के नाम से संकलित भी किया। 'कलम के सिपाही' ने उन्हें ख्याति तो दी पर बहुत कुछ छीन भी लिया। पिता के उर्दू लेखन से जुड़ी कुछ अचिह्नित कृतियों, कहानियों को सर्वसुलभ कराने में भी अमृत राय भुला दिए गए। आज भी पुत्र अमृत राय की पहचान पिता प्रेमचंद से हो रही है, जबकि हर पिता चाहता है कि उसे पुत्र के कार्यों से पहचाना जाए। यह विडंबना ही है कि ऐसा अब तक न हो सका। प्रेमचंद और अमृत दोनों ही अपने सक्रिय कालखंडों में समा चुके हैं या यों कहें कि व्यवस्थित हो चुके हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं और परिस्थितियों में अमूल-चूल परिवर्तन हो चुका है। अब तो प्रेमचंद और अमृत राय के लेखन को वर्गीकृत किया जाना ही चाहिए।
अपने लेखन में अमृत राय कथ्य और शिल्प में सटायर (विसंगतियों पर प्रहार) का भी गुणात्मक सहारा लेते हैं जो कलात्मक बन पड़ा है। उन्होंने कहानियों में सांप्रदायिकता, विभाजन का दर्द, युवाओं के भ्रम, विकास की खोखली बातें, पक्षपात पूर्ण न्याय व्यवस्था, पितृ सत्तात्मक समाज जैसे हर सामाजिक और प्रासांगिक मुद्दों को अपने लेखन से सहारा देने की कोशिश भी की। उनकी कुछ कहानियाँ आजादी के संर्घष और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करती हैं पर मार्क्सवाद के स्वर उनके शुरुआती लेखन में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं। उनकी रचनाओं की अंतर वस्तु का आकलन सीधे-सीधे समकालीन सामाजिक व्यवस्था का ही सटीक शब्दांकन है। प्रगतिशील आंदोलन की जड़ों को मजबूत करने के लिए उन्होंने साहित्य में 'संयुक्त मोर्चा' नाम से किताब भी लिखी जो जनवादी लेखकों की दिग्दर्शक किताब भी बन गई थी। कहते हैं १९५७ के इलाहाबाद में संपन्न साहित्यकार सम्मेलन के आयोजकों में अमृत राय भी एक थे।
अमृत राय का पहला कहानी संग्रह 'जीवन के पहलू' १९३७ में प्रकाशित हुआ। इन कहानियों में शिल्प की विविधता, कहानी लेखन में एक नए ट्रेंड की शुरुआत थी। लाल धरती कहानी संग्रह में उनकी मार्क्सवादी वैचारिक प्रतिबद्धता दिखाई और सुनाई पड़ती है। जिंदगी और समाज में बिखरे चरित्रों के प्रति उनका अपना दर्शन था जो तत्कालीन आलोचकों को नागवार गुजरा। आजादी की रेल उर्फ वार्निश के पीपे, बक्से के एक शेर के नाम, जिंदगी का खिराज, बाल-बच्चेदार कबूतर, कोरिया का नया भूगोल, तिरंगे के कफ़न, यूरोप की विजयी जनता के नाम, गोड़से के नाम खुला पत्र आदि नई कहानियों की बुनियाद मानी जा सकती है, जो मिली-जुली शैलियों का सुंदर सम्मिश्रण है। ये कहानियाँ कालजयी न सही पर दीर्घजीवी तो हैं।
उन्होंने सहज कहानी के नाम से अपनी अवधारणा भी प्रस्तावित की थी। आशय था सहज कहानी से, अभिप्राय उस मूल कथा रस से है। जो कहानी की अपनी खास चीज़ है। फिर वह चाहे नई कहानी हो, सचेतन कहानी हो या साठोत्तरी कहानी या फिर अ-कहानी पर कथा रस होना चाहिए क्योंकि संवेदनाएँ और जीवन मूल्य ही किसी लेखक की कथा दृष्टि कहलाती है।
आलोचकों पर एक जगह प्रहार करते हुए वे लिखते हैं कि "लेखक का खुद का अपना आलोचनात्मक विवेक होना ही चाहिए या कहें अपरिहार्य है, क्योंकि रचना ही अंततः उसकी पहचान बनती है।"
आधुनिक मुहावरों, चुटीले प्रतीकों और बिंबों ने अमृत राय की कहानियों को स्वर्स्फूत चेतना का दस्तावेज बना दिया है। हजार मन राख और एक चिंगारी, गीली मिट्टी, एक सांवली लड़की, इति जम्बू दीप भरत खण्डे, सत्यमेव जयते, एक गुमनाम आदमी जैसी अमृत राय की कहानियाँ खूब-खूब पढ़ी गई। इन्हें पढ़ने वाली पीढ़ी अब उम्र के छठवें और सातवें दशक में पहुँचकर गाहे-बगाहे उन्हें याद जरूर कर लेती है। साम्यवादी विचारों के पोषक और संवाहक होने के बाद भी समाजवादी स्वप्न उनकी रचनाशीलता को प्रेरित करता रहा।
अमृत राय द्वारा किए गए पत्रिका 'हंस' और 'नई कहानी' के संपादन कार्यों को सराहना तो मिली, प्रेमचंद की विचाराधारा को विस्तार भी मिला पर दरकार तो दोनों पत्रिकाओं के मिलेजुले लगभग १५ वर्ष के कार्यकाल पर शोध किए जाने की थी। जो अमृत राय की मौलिकता को पहचान दे सकता था। रूसी, अमेरिकी, चेक, जर्मन और टैगोर की बाँग्ला कृतियों के अंग्रेज़ी अनुवादों से हिंदी अनुवाद उनके बेहतरीन प्रयास हैं। निकोलाई आस्त्रोवस्की के 'हाउ द स्टील टैंपर्ड' (अनुवाद-अग्निदीक्षा) और हार्वड फास्ट के र्स्पाटकस (अनुवाद-आदि विद्रोही) माय ग्लोरियस बद्रर्स (समरगाथा) ये सभी उपन्यासों में एक क्लासिक माने जाते है। शेक्सपियर के नाटक हैम्लेट के अनुवाद उनके श्रेष्ठ अनुवाद कार्य है। उनकी एक महत्वपूर्ण कृति १९७७ में प्रकाशित हुई जो हिंदी और उर्दू के प्रति पूर्वाग्रहों और भ्रांतियों का पर्दाफाश करती है। नाम था 'ए हाउस डिवाइडेड' पर ये दुर्भाग्य ही कहा जाएगा उन्होंने इसका हिंदी अनुवाद नहीं किया।
अमृत राय को अपने सक्रिय साहित्यिक काल खंड में निराला, पंत, महादेवी वर्मा, शमशेर, धर्मवीर भारती, दूधनाथ सिंह, ज्ञान रंजन और वीरेंद्र डंगवाल जैसों का सानिध्य मिला। ये सभी संस्मरणों में उल्लेखित किए जाने वाले व्यक्ति रहे हैं। यदि अमृत राय इन पर लिखते तो कुछ और अनमोल संपदा भी हमारे पास होती। सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री सुधा चौहान अमृत जी की धर्म पत्नी थीं। वे समर्थ गद्य लेखिका थीं।
उनकी पुस्तक 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा' का ज़िक्र किया जाना अपरिहार्य सा लगता है। यही वह पुस्तक है जो अमृत राय का एक बेहद महत्वपूर्ण प्रयास माना जाना चाहिए, जिसने तब के लेखकीय प्रयासों को संबल प्रदान किया था और आलोचकों की कथित श्रेष्ठता को चकनाचूर करने की कोशिश की, भले ही उसका प्रभाव थोड़े समय तक ही रहा। लेकिन आलोचकों के मानकों पर एक तीव्र प्रहार हुआ ही और लेखन में रचनात्मकता ने खुली हवा में साँस लेना शुरू हुआ। आलोचकों पर पहली बार प्रश्नचिह्न लगे। वैसे भी कोई भी आलोचक आपको आज तक अच्छा लेखक नहीं सिद्ध कर पाया है। साहित्य में संयुक्त मोर्चा के वाद-विवाद को आगे बढ़ना चाहिए था पर इसे भी अमृत राय की आवेषात्मक अभिव्यक्ति कहकर हशिए में पटक दिया गया।
किताब 'साहित्य में संयुक्त मोर्चा' में एक सूत्र में वे कहते हैं कि "साहित्य क्यों, साहित्य किसके लिए?" उन्होंने साहित्य की सार्थकता के जरिए स्वांतः सुखाय और बुनियादी सवालों को भी उठाने की कोशिश भी की और फिर वे इन्हें मायावी प्रश्न भी कहते हैं। पर उसका उद्देश्य सुस्पष्ट है, लेखकों की एकजुटता आलोचकों से तटस्थ रहकर और गंभीर प्रगतिशील लेखन का बचाव। कह सकते हैं जो लड़ाई गजानन माधव मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं से लड़ी, वही लड़ाई अमृत राय अपनी किताबों में तर्क सिद्ध विचारों से लड़ी। हश्र दोनों का एक जैसा हुआ। एक को सीजोफ्रेनिक कहा गया। दूसरे को हाशिए से ही बाहर कर दिया गया।
आगे चलकर 'विचारधारा और साहित्य' नाम से उनकी एक और पुस्तक प्रकाशित हुई थी। तब अमृत राय और बहुतेरे अन्य लोगों के मार्क्सवाद के भ्रम टूट रहे थे। रूस में पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त की बातें की जा रही थी। लेनिन की मूर्तियों को ढहाया जा रहा था। प्रतिमान बिखर रहे थे। मिखाईल र्गोबाचोव और बोरिस येल्तसिंन आमने-सामने खड़े थे। तब अमृत राय की पुस्तक 'विचारधारा और साहित्य' मार्क्स की विशिष्टताओं को ही व्याख्यायित कर रहे थे। मार्क्सवाद से जुड़ा प्रगतिवाद जीवन के आखिरी समय तक अमृत राय के अंतर्मन में गूंजता रहा। वे चाहते भी थे युवा मार्क्स और स्टालिन के बोए बीजों के वाहक बने। तभी तो इस किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा, "साहित्य की सामाजिक सोद्देश्यता और साहित्यकार की पक्षधरता को संकीर्ण ढंग से पारिभाषित करना प्रगतिशील जनवादी साहित्य आंदोलन के लिए अनिष्टकारी ही नहीं है अपितु मार्क्स-एंगिल्स के प्रति अन्याय भी है।"
अमृत राय भाषा के धनी एक समृद्ध व्यक्तित्व थे, हिंदी और उर्दू पर बराबर का अधिकार था। जहाँ पिता प्रेमचंद फ़ारसी के ज्ञाता थे तो वहीं अमृत अंग्रेज़ी में सिद्धहस्त थे। सरस मुहावरेदार अंग्रेज़ी जिसमें प्रवाह भी था, लय बद्धता भी थी। साथ ही संस्कृत में भी उनके पास एक अच्छी समझ थी। उनकी भाषा शैली की सराहना उनके समय के लगभग सभी लेखकों ने की थी। यों तो कई नामी गिरामी लेखकों ने हैम्लेट का अनुवाद अपनी-अपनी शैलियों में किया, पर हैम्लेट का अनुवाद जो अमृत राय द्वारा किया गया, वह क़ाबिले जिक्र है। 'हैम्लेट' केंद्रित मंचीय नाटकों में अमृत राय की मुहावरेदार शैली से अनुदित 'हैम्लेट' कलाकारों की सबसे पहली पसंद रहा।
उनकी 'ए-हाउस डिवाइडेड' शोधार्थियों के लिए उपयोगी तो कहा जा सकता है पर लोग उसके हिंदी संस्करण की अपेक्षा ही करते रहे। 'अग्निदीक्षा-आदिविद्रोही' और 'समर-गाथा' जैसे अनुवाद सिर्फ धरोहर मानकर धर दिए गए। आपने अंगेज़ी, उर्दू, बांग्ला से कुछ महत्वपूर्ण अनुवाद भी किए, पर ज्यादातर अंगेज़ी में! चेकोस्लाव क्रांतिकारी जूलियस फूचिक की 'नोट्स फ्रॉम गैलोज' (अनुवाद-फाँसी के तख्ते से) जर्मन नाटकार बर्तोल्त बेख्त की फसिस्ट विरोधी नाटिकाओं का अनुवाद (खौफ की परछाई) आज भी लगातार नए संस्करणों में छप रही हैं। उर्दू लेखक कृष्ण चन्द्र ने उनकी एक किताब की भूमिका में लिखा था, "अमृत राय की कहानियों की जुबान बड़ी रसीली और मीठी है यह जटिल, बनावटी झूठे शिष्टाचार की किताबी जुबान नहीं है। यू.पी. का घुला हुआ रचा हुआ रोजमर्रा का मुहावरा उर्दू और हिंदी दोनों की मिली जुली पूंजी में ढल गया था।"
किसी साक्षात्कार में अमृत राय ने कहा था जो "लोग हिंदी को अहिंदी भाषी क्षेत्रों में ले जाकर अपना हिंदी प्रेम दिखाने को उतवाले हैं, उनसे निवेदन है कि हिंदी को अहिंदी भाषी क्षेत्रों में ले जाकर अपने को गर्क न करें। अपनी हिंदी पहले अपने घर में ही मजबूत करें।"
अमृत राय उच्च शिक्षण और विलक्षण मेधा संपन्न लेखक थे। वे स्थापित प्रतिमानों से इतर लेखन को नए प्रतिमान और दिशा देने में एक समर्थ साहित्यकार थे। अमृत राय का साहित्यक व्यक्तित्व यशस्वी था। वे विलायती मानसिकता से दूर थे। अपने बारे में वे कहते है कि "पाठकों से लेकर ब़ड़े साहित्यकारों ने मेरी भाषा को बहुत सराहा पता नहीं क्यों? पर मैं जानता हूँ कि मेरी भाषा का जो भी परिष्कार हुआ है वह औरों को पढ़कर और सुनकर ही हुआ है। बांग्ला साहित्य का मैंने गहरा अध्ययन किया था। सिर्फ बंगाली साहित्यकारों को पढ़ने के लिए मेरी कोशिश रहती है कि मैं वह भाषा लिखूँ जो मैं बोलता हूँ। जिसमें मेरा मन मुझसे बोलता है। शब्दों के लिए मैं किसी कोश को नहीं अपने मन को टटोलता हूँ। शायद यही लोगों को पंसद आता है। सृजन सुख ही मेरा सबसे बड़ा पुरस्कार है फिर वह अनुवाद हो या फिर मेरा मौलिक लेखन।"
प्रेमचंद को एक क्रांतिकारी, एक समाजवादी, एक सामाजिक पैरोकार, एक अध्येता, एक उद्यमी, एक संपादक, एक लेखक, एक गृहस्थ, एक किस्सागो के रूप में पहचान मिली। लगभग उसी तरह अमृत राय की कोशिशें भी कामयाबी के प्रमाण-पत्र की हकदार हैं। उन्होंने भी सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक क्षेत्रों पर बेबाक लिखा। अब बारी है 'कलम के यात्री' अमृत राय की बायोग्राफी लिखे जाने की। उनके विस्तृत सृजन पर शोध किए जाने की, जो उस विलक्षण अनुवादक, बेहतरीन संपादक, सहज कहानीकार, नई अंतर दृष्टि के उपन्यासकार और यात्रा वृतांतों के विशिष्ट शिल्पकार को वह पहचान मिले जिसके वे हक़दार थे!
अमृत राय : जीवन परिचय |
जन्म | ३ सितंबर १९२१, वाराणसी, उत्तर प्रदेश |
निधन | १४ अगस्त १९९६, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश |
पिता | मुंशी प्रेमचंद |
माता | शिवरानी देवी |
शिक्षा | अंग्रेज़ी में स्नातकोत्तर |
साहित्यक रचनाएँ |
उपन्यास | बीज नागफनी हाथी के दॉंत जंगल
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कहानियाँ | जीवन के पहलू इतिहास कस्बे का एक दिन भोर से पहले कटघरे गीली मिट्टी
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नाटक | चिन्दियों की एक झालर शताब्दी हमलोग
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जीवनी | |
पत्र | |
रिपोर्ताज | |
लिप्यांतर | |
संपादन | |
प्रेमचंद का अप्रकाशित साहित्य का प्रकाशन | |
अन्य | |
सम्मान |
कलम का सिपाही के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार समाज भाषा वैज्ञानिक शोध योजना पर कार्य के लिए नेहरू फेलोशिप से पुरस्कृत उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा संस्थान सम्मान भारतीय अनुवाद परिषद द्वारा सम्मानित साहित्य अकादमी की सामान्य समिति और कार्यसमिति के सदस्य नेशनल बुक ट्रस्ट के न्यासी विभिन्न देशों की साहित्यिक यात्रा
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संदर्भ
लेखक परिचय
रविकांत वर्मा
एम०ए० (सोशियोलॉजी), एल०एल०बी०, बैचलर ऑफ़ जर्नलिज़्म एंड मास कम्युनिकेशन में उपाधि
आकाशवाणी छिंदवाड़ा से सेवानिवृत्त
मो० 9589972355
जबलपुर (मध्यप्रदेश)
आदरणीय रविकांत जी आपने इतने समृद्ध साहित्यकार के पुत्र होते हुए भी श्री अमृत राय जी के जीवन संघर्ष की कहानी बड़ी रोचकता से प्रस्तुत की है। आलेख का प्रवाह बहुत ही सुंदर रचा गया है। शब्द शब्द आगे पाठन के लिए प्रोत्साहित करते हैं। कथाकार और उपन्यासकार अमृत राय जी के साहित्यिक प्रवास का वृस्तत वर्णन पढ़ने मिला इसके लिए आपका आभार। आज के आलेख ने कभी पढ़ी हुई *कलम के सिपाही* पुस्तक की याद दिला दी। अतिसंतुलित शब्दशैली से लिखा गया लेख है। इस सुंदर लेखन के लिए रविकांत जी को हार्दिक बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं।
ReplyDeleteआपके सार्थक शब्दों के प्रति आभार 🙏
ReplyDeleteरविकांत जी नमस्ते। आपने अमृत राय जी पर बहुत अच्छा एवं विस्तृत लेख लिखा है। यह कहानी सा लेख पढ़ने में बहुत अच्छा लगा। लेख शुरू हुआ तो अंत तक एक बार में पढ़े बिना रुका नहीं गया। आपने विस्तृत जानकारी को रोचक ढँग से प्रस्तुत किया है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबेहद खूबसूरत आलेख👍👍
ReplyDeleteबहुत ही उत्कृष्ट लेखन किया सर अमृत राय जी जो को साहित्यिक गलियारों में और पाठको के बीच शायद उस लोकप्रियता को प्राप्त नही कर सके जिसके वो अधिकारी थे किंतु वर्तमान में जबकि आज लेखन कर्म कल्पनाशीलता के अभावों से ग्रस्त है और एक लेखक की रचनाएं पाठको की निरंतर कमी से जूझ रही हो ऐसे वक्त में इन साहित्य कारों पर सामग्री प्रकाशित कर इन पर लेख लिखकर इनके साहित्यिक अवदान को पाठकों की नई पीढ़ी से परिचित करवाना नितांत आवश्यक है और आपका ये शोधपरक आलेख अमृत राय जी के बारे में जानने की एक नई दृष्टि तो प्रदान करता ही है और पाठकों की अभिरुचि को बनाए रखने में भी सक्षम है इतने रुचिकर और जानकारीपरक आलेख के लिए साधुवाद 🌹🌹🌹🙏🙏🙏
ReplyDeleteरविकांत जी, आपने अमृतराय जी पर उम्दा आलेख प्रस्तुत किया है। अमृत राय जी के विस्तृत कृतित्व पर रोशनी डालने के साथ-साथ आपने उनको साहित्य-जगत में उचित स्थान दिलाने के लिए सक्रिय कार्य करने की बात को रेखांकित कर इस आलेख से एक दिशा भी दिखाई है। आपको इस अनुपम लेखन के लिए आभार और बधाई
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