ब्रजभाषा में कृष्ण काव्य की रचना का पूरा श्रेय वल्लभाचार्य जी को जाता है। वल्लभाचार्य से दीक्षा लेकर उनके भक्त-कवि कृष्ण-भक्ति में लीन हो गए। इन्हीं भक्त कवियों में से विट्ठलनाथ ने अपने चार और वल्लभाचार्य के चार शिष्यों को लेकर अष्टछाप की स्थापना की। इन कवियों में सूरदास, कुंभनदास, परमानंददास, कृष्णदास, छीतस्वामी, चतुर्भुजदास और नंददास सम्मिलित थे। कुंभनदास का नाम अष्टछाप के कवियों में शीर्ष पर रखा जाता है। कुंभनदास को कृष्ण भक्ति शाखा की दार्शनिक पीठिका तैयार करने वाला कवि माना जाता है। इनका जन्म १८६८ ईस्वी में मथुरा के निकट जमुनावती नामक गाँव में हुआ। वल्लभाचार्य के शिष्य कुंभनदास के पिता एक किसान थे। उन्होंने भी किसानी को ही पेशा चुना था और किसानी से ही अपने परिवार का भरण-पोषण करते थे।
श्रीनाथजी की भक्ति में कुंभनदास कभी भक्ति तो कभी शृंगार पदों को बड़े ही मनोयोग से गाया करते थे। शृंगार-पद-गायन में इनकी विशेष रुचि थी। कुंभनदास की इसी रुचि और लगन को जब वल्लभाचार्य ने देखा तो उन्होंने कहा, "तुम्हें तो निकुंज लीला के रस की अनुभूति हो गई है।" वल्लभाचार्य जी द्वारा कही इस बात को सुनकर कुंभनदास की ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा। अपनी ख़ुशी को व्यक्त करते हुए उन्होंने कहा, "मुझे तो इसी रस की नितांत आवश्यकता है।"
श्री नाथ जी के प्रति कुंभनदास की असीम भक्ति थी। ऐसा कहा जाता है कि जब कुंभनदास के पुत्र की मृत्यु हुई तो ख़बर सुनकर वे मूर्छित हो गए। मूर्छा का कारण पुत्र वियोग नहीं था, बल्कि यह कि दस दिन तक अशुद्धि हो जाने की वजह से वे श्रीनाथजी का दर्शन नहीं कर सकेंगे। श्रीनाथजी से एक पल का भी वियोग वे सहन नहीं कर सकते थे,
स्याम सुंदर संग मिलि खेलन की आवति हिये अपेखै
कुंभनदास लाल गिरिधर बिनु जीवन जनम अलेखै
कुंभनदास का विरह सहज और स्वाभाविक है। वे जीवन की सार्थकता तभी मानते है जब जीवन श्रीनाथजी की सेवा में लगा हो। विरह की जो शास्त्रीय अवधारणा थी, 'विरह की मरण अवस्था[', कुंभनदास का विरह इससे बिलकुल अलग है। उनकी विरहानुभूति शास्त्रीय विवेचना से बाहर है। कुंभनदास मानते हैं कि स्नेह का मर्म, मन का भाव केवल श्रीनाथजी ही समझ सकते हैं, उनके अलावा यह किसी और के बस की बात नहीं है,
आवहु जाहु रहहु घर मेरे स्याम मनोहर संक न करहू
कुंभनदास तु गोवर्धन धर तुम अरिभंजन काते डरहू
कुंभनदास की विशेषता यह है कि पारिवारिक जीवन का निर्वाह करते हुए, बिना गृह त्याग और साधु वेश धारण किए वे ईश्वर भक्ति में लीन रहे। कुंभनदास ईश्वर भक्ति के लिए एकांतवासी होने या घर-परिवार का त्याग करने के समर्थक नहीं थे। गृहस्थ जीवन जीते हुए भी वे अनासक्ति भाव से चीजों को देखते थे।
कुंभनदास का जीवन अभावों में ही बीता लेकिन वे मेहनत में विश्वास रखते थे, इसलिए कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया। अपने जीवन-काल में कुंभनदास अपना गाँव छोड़ कर कहीं नहीं गए; मात्र एक बार ही उनके बाहर जाने का ज़िक्र मिलता है। अकबर के बहुत आग्रह पर अकबर के दरबार में गए और फिर पछताते हुए यह पद लिखा,
संतन को कहा सीकरी सों काम?
आवत जात पनहियाँ टूटी, बिसरि गयो हरि नाम।।
जिनको मुख देखे दुख उपजत, तिनको करिबे परी सलाम।।
कुभंनदास लाल गिरिधर बिनु और सबै बेकाम।।
संतों को भला सीकरी (जो अकबर की राजधानी थी) से क्या काम हो सकता है? आते-जाते चप्पल भी टूट गई और श्रीनाथजी का नाम लेना भी भूल गया। जिनके मुख को देखते ही दुख महसूस होने लगता है यानी जिनका मैं मुख तक देखना नहीं चाहता, उनको सलाम करना पड़ रहा है। आगे कुंभनदास कहते हैं कि गिरिधर यानी श्रीनाथजी के बिना सब बेकार है। अकबर भेंट देने लगे लेकिन कुंभनदास ने उसे लेने से इनकार कर दिया। जब अकबर ने बहुत आग्रह किया कि कुछ तो माँग लीजिए तब उन्होंने कहा कि "मुझे दरबार में फिर कभी ना बुलाया जाए।"
कुंभनदास पुष्टिमार्ग में दीक्षित थे, श्रीनाथजी के मंदिर में पूजा अर्चना किया करते थे। कृष्ण भक्ति में गायन की परंपरा थी, कुंभनदास भी श्रीनाथजी के मंदिर में नित्य नए पद गाया करते थे। ऐसा माना जाता है कि भगवान श्रीनाथ जी स्वयं प्रकट होकर उनके साथ सखा क्रीड़ा किया करते थे। कुंभनदास ईश्वर की भक्ति में इतने तल्लीन होते थे कि घरेलू संकट भी इन्हें विचलित नहीं कर पाते थे। वे निर्लोभी थे। ग़रीबी, परेशानी, दीनता कभी इनकी दृढ़ता को तोड़ नहीं पाईं। राजा मानसिंह जब ब्रज आए तो कुंभनदास से मिलने गए। कुंभनदास की दीनता एवं अभाव देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। महाराज मानसिंह ने उन्हें धन-दौलत देनी चाही लेकिन कुंभनदास ने लेने से इनकार कर दिया। राजा मानसिंह एक पूरा गाँव कुंभनदास को देना चाहते थे लेकिन उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया, "मेरा काम तो करील के पेड़ और बेर के वृक्ष से ही चल जाता है।" ऐसा कोई नहीं था जो कुंभनदास की निर्मोही प्रवृत्ति से प्रभावित ना हुआ हो, यही वजह है कि राजा-महाराजा तक उनसे मिलना अपना सौभाग्य समझते थे। महाराज मानसिंह ने कहा था कि, "माया के भक्त तो मैंने बहुत देखे हैं, पर वास्तविक...भक्त तो आप ही हैं।"
कुंभनदास ने गुरु-निष्ठा, सेवा-निष्ठा और वैष्णवता के बारे में कभी शब्दों से उपदेश नहीं दिया, बल्कि इन निष्ठाओं को धारण करके, अपने कर्म एवं आचरण से सबको उपदेश दिया। शब्दों के द्वारा जो भावों की अभिव्यक्ति होती है, वह सबसे कम होती है। नेत्रों के द्वारा, आचरण के द्वारा ही भावों की अभिव्यक्ति होती है। कुंभनदास को कलयुग का कामधेनु कहा जाता है क्योंकि ये कामधेनु गाय की तरह परोपकारी हैं। गृहस्थ के लिए कुंभनदास का चरित्र परम आदर्श है क्योंकि गृहस्थ रहते हुए भी कुंभनदास ईश्वर भक्ति में लीन रहे। कुंभनदास ने कहा है,
स्वामी मोहे न बिसारियो, चाहे लाख लोग मिल जायें।
हम सम तुमको बहुत है, तुम सम हमको नाहि।।
कुंभनदास का श्रीनाथजी के प्रति जो असीम प्रेम और लगाव है, वह अप्रतिम है। जैसे टिमटिमाते हुए तारे आकाश की सुंदरता को समृद्ध करते हैं, उसी प्रकार कुंभनदास के पद हिंदी साहित्य की कृष्ण भक्ति परंपरा को समृद्ध करते हैं। कुंभनदास पूरी तरह से श्रीनाथजी की भक्ति में समर्पित थे। इसी समर्पण और तल्लीनता की वजह से उनका काव्य सरस और मर्मस्पर्शी बना और संगीतात्मकता की वजह से जन-जन तक पहुँच सका। कुंभनदास की भक्ति माधुर्य भाव से ओत-प्रोत है।
कृष्ण-भक्ति के विरले कवि कुंभनदास को हम विनम्रता से शीश झुकाते हैं और अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
संदर्भ
डॉ० दीनदयाल गुप्त, अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय, साहित्य सम्मेलन, प्रयाग
प्रभु दयाल मीतल, अष्टछाप परिचय, अग्रवाल प्रेस, मथुरा
hindwi.org/poets/kumbhandas/profile
bharatdiscovery.org/india/कुंभनदास
hi.wikipedia.org/wiki/कुंभनदास
कुम्भनदास को पुनर्जीवित करने वाला सुंदर आलेख ! संतन को कहा सीकरी सो काम प्रसंग मर्मस्पर्शी
ReplyDeleteसुमिता जी नमस्ते। अष्टछाप के प्रमुख कवि कुंभनदास पर आपने अच्छा लेख लिखा है। लेख में उनके साहित्य का परिचय के साथ सुंदर रचनाओं को भो आपने स्थान दिया।आपको लेख के लिए हार्दिक बधाई
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