निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को शूल॥
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥
हिंदी भाषा की उन्नति का यह मूलमंत्र हम सभी ने सुना है। हाँ, आज मैं बात कर रही हूँ, भारतेंदु युग के युग-प्रवर्तक, हिंदी में नवजागरण का संदेश लेकर अवतरित भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की। इनका जन्म ९ सितंबर १८५० को काशी के एक प्रतिष्ठित वैश्य परिवार के प्रसिद्ध इतिहासकार सेठ अमीचंद के प्रपौत्र गोपालचंद्र के यहाँ हुआ। विधि का विधान तो देखिए, जब वे केवल पाँच वर्ष के थे तब इनकी माता जी और जब दस वर्ष के हुए तब इनके पिता गोपालचंद्र (जो एक अच्छे कवि थे और 'गिरधरदास' उपनाम से कविता लिखा करते थे) का देहांत हो गया; इस कारण इनका पालन-पोषण इनके घर की दाई कालीकदमा एवं तिलकधारी नौकर ने किया, परंतू विमाता ने उन्हें खूब सताया। उनके पूर्वज अंग्रेज-भक्त थे, उनकी ही कृपा से वे धनवान हुए थे। १३ वर्ष की छोटी-सी अवस्था में इनका विवाह काशी के रईस लाला गुलाब राय की पुत्री मन्ना देवी से हुआ। मन्ना देवी से इनके यहाँ दो पुत्र एवं एक पुत्री ने जन्म लिया, किंतु बाल्यावस्था में ही इनके पुत्रों की मृत्यु हो गई; हालांकि पुत्री विद्यावती सुशिक्षित थी।
शिक्षा
स्कूल के बाद वाराणसी के क्वींस कॉलेज में प्रवेश लिया, तीन-चार वर्षों तक कॉलेज आते-जाते रहे पर यहाँ भी उनका मन नहीं लगता था, लेकिन उनकी स्मरण शक्ति बहुत तीव्र और ग्रहण क्षमता अद्भुत होने की वजह से परीक्षाओं में उत्तीर्ण होते रहे। राजा शिवप्रसाद 'सितारेहिंद' उन दिनों बनारस में अंग्रेजी के जानकार और प्रसिद्ध लेखक हुआ करते थे। भारतेंदु उनके यहाँ अंग्रेजी सीखने की इच्छा से जाते थे, जबकि उन्होंने स्वाध्याय से संस्कृत, मराठी, बंगला, गुजराती, पंजाबी, उर्दू आदि भाषाओं का ज्ञान अर्जित किया था। वे बीस वर्ष की अवस्था में ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट बनाए गए और आधुनिक हिंदी-साहित्य के जनक के रूप मे प्रतिष्ठित हुए।
साहित्यिक सफर
लै ब्योडा ठाढ़े भए, श्री अनिरुद्ध सुजान।
वानासुर की सैन को, हनन लगे भगवान॥
पांच-छ वर्ष की आयु में जब समझ की कमी होती है, तब यह दोहा लिख कर अपने पिता को दिखाया और सुकवि होने का आशीर्वाद प्राप्त किया। बहुमुखी प्रतिभा के धनी कवि, लेखक, संपादक, नाटककार, पत्रकार, निबंधकार, समाज-सुधारक भारतेंदु जी ने करीब ७० काव्य-ग्रंथों की रचना केवल ३५ वर्ष की अल्पायु में की। प्राचीन और नवीन का सामंजस्य स्थापित करते हुए उनका यह साहित्यिक कारवाँ दिन-प्रतिदिन और बेहतर होता चला गया। एक ओर जहाँ भक्ति, प्रेम, सौंदर्य से ओत-प्रोत रचनाओं का संसार था, जिनका अनुभव उन्हें विरासत में मिला था; तो दूसरी ओर नवीनता लिए हुए रीतिकालीन युग को बदलने की चुनौतियों से भरा साहित्य। सन १८८० ई० में काशी के विद्वान पं० रघुनाथ, पं० सुधाकर दिवेदी, पं० रामेश्वर दत्त व्यास के प्रस्तावानुसार इन्हें 'भारतेंदु' (भारत का चंद्रमा) की पदवी से विभूषित किया गया। तभी से इनके नाम के आगे 'भारतेंदु' सुशोभित होने लगा।
भारतेंदु सात दिन के लिए सात रंग के कागज पर हर दिन का अलग मंत्र लिखकर साहित्य और पत्र लिखते थे। उनका साहित्यिक-ज्योतिष में अपार विश्वास था। पाठक उनके पत्र का रंग और मंत्र देखकर बता देते थे कि भारतेंदु ने वह कागज कौन से वार को लिखा है। रविवार को गुलाबी कागज पर "श्री भक्त कमल दिवाकराय नमः।", सोमवार को सफ़ेद कागज पर "श्री कृष्ण चंद्राय नमः।", मंगलवार को "श्री वृंदावन सार्व भौमाय नम:।", बुधवार को हरे रंग के कागज पर "श्री गुरु गणेशाय नमः।", बृहस्पतिवार को पीले रंग के कागज पर "श्री गुरु गोविंदाय नम:।", शुक्रवार को सफ़ेद कागज पर "श्री कवि कीर्ति यज्ञसे नमः।", शनिवार को नीले रंग के कागज पर "श्री श्याम-श्यामाभ्यां नमः।" और "श्री कृष्णाय नमः।" लिखकर शुरुआत करते थे। दोस्तों के बहुत पूछने पर बताया, माँ सरस्वती की आराधना करने वालों को माँ की इच्छानुसार कागज के रंगो का निर्धारित वार को चयन करना चाहिए।
उन्होंने १८६८ में 'कविवचनसुधा' पत्रिका का संपादन किया, जब उनकी उम्र मात्र अठारह वर्ष थी। सन १८७३ ई० में इन्होंने 'हरिश्चन्द्र मैगजीन' का संपादन किया बाद में जिसका नाम परिवर्तित करके 'हरिश्चंद्र चंद्रिका' कर दिया गया। १८७४ में स्त्री शिक्षा के लिए 'बाल बोधिनी' नामक पत्रिका निकाली। वैष्णव भक्ति के प्रचार के लिए उन्होंने 'तदीय समाज' की स्थापना की थी।
इनके नाटक लिखने की शुरुआत बंगला के विद्यासुंदर (१८६७) नाटक के अनुवाद से हुई। यद्यपि वे नाटक पहले भी लिखते रहे, किंतु नियमित रूप से खड़ी बोली में अनेक नाटक लिखकर उन्होंने ही हिंदी-नाटक की नींव को सुदृढ़ बनाया। उनके साहित्य और नवीन विचारों ने उस समय के तमाम साहित्यकारों और बुद्धिजीवियों को झकझोरा और उनके इर्द-गिर्द राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत लेखकों का एक ऐसा समूह बन गया जिसे 'भारतेंदु मंडल' के नाम से जाना जाता है। प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन', ठाकुर जगमोहन सिंह, अंबिकादत्त व्यास, राधाचरण गोस्वामी, लाला श्रीनिवास दास आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।
भारतेंदु ने देश की गरीबी, पराधीनता, शासकों के अमानवीय शोषण के चित्रण को ही अपने साहित्य का लक्ष्य बनाया। हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने की दिशा में उन्होंने अपनी प्रतिभा का उपयोग किया। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, "भारतेंदु अपनी सर्वतोन्मुखी प्रतिभा के बल से एक ओर तो पद्माकर, द्विजदेव की परंपरा में दिखाई पड़ते थे, तो दूसरी ओर बंग देश के माइकेल और हेमचंद्र की श्रेणी में। प्राचीन और नवीन का सुंदर सामंजस्य भारतेंदु की कला का विशेष माधुर्य है।"
भारतेंदु की कविताओं का इतिहास
भारतेंदु की प्रथम कविता महारानी विक्टोरिया के प्रति सहानुभूति स्वरूप एलबर्ट की मृत्यु पर १८६१ ई० में लिखी गई। १८६९ में उनके द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा के भारत आगमन पर भारतेंदु ने अपना हर्ष 'श्री राजकुमार सुस्वागत पत्र' लिखकर प्रकट किया,
१८७० में ड्यूक ऑफ एडिनबरा के बनारस आने पर और १८७१ में प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार पड़ने पर, १८७४ में प्रिंस का रूसी राजकुमारी के साथ विवाह होने पर तथा १८७५ में भारत आने पर भारतेंदु ने उनके सम्मान में कविताएँ लिखीं,
यही नहीं 'प्रिंस ऑव वेल्स' को भारत का दुख जानने के लिए आया हुआ मानकर वह उनके सामने भारत की पीड़ा को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं,
भारतेंदु की ऐसी कविताओं के आधार पर उन पर ब्रिटिश राज के प्रति वफादार रहने का आरोप भी लगाया जाता रहा है; परंतु उनका यह भोला विश्वास जब टूटा तो उन्होंने १८८१ में 'विजय वल्लरी' अफगान युद्ध समाप्त होने पर और १८८४ में 'विजयनी विजय बैजन्ती' मिश्र विजय के समय रचना की, जिसमें उन्होंने भारत की दुर्दशा का चित्रण किया पर कहीं भी महारानी विक्टोरिया तक ये आह्वान पहुँचाने का उद्देश्य न होकर भीतर ही भीतर भारतवासियों को ललकारना था। भारतेंदु की यही बदली हुई समझ 'नए जमाने की मुकरी' में दिखाई देती है, जिसकी रचना उन्होंने १८८४ में की थी।
आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। इसके कई कारण हैं। भारतेंदु युग से पूर्व हिंदी की जिस कविता से हमारा परिचय होता है, उसे रीतिकाव्य के नाम से जाना जाता है। वह अपने स्वरूप और संरचना दोनों दृष्टियों से रूढिबद्ध, शृंगारपरक और राजाओं-सामंतों का अनुरंजन करने वाला काव्य है। समाज के व्यापक भावबोध से कटी हुई इस कविता का ऐतिहासिक महत्त्व तो है, किंतु उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक चिंताओं के ऐसे कोई संदर्भ नहीं हैं; जिनसे उस कविता का कोई महत्त्व स्थापित हो सके। हालाँकि इस दौर में भी भारतेंदु ने भक्ति, वीर, नीति काव्य की रचनाएँ की। कुछ कविताएँ तो उनकी ईश्वर का गुणगान करने, उनके रूप-सौंदर्य का वर्णन करने, धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को नकारने या पुष्ट करने वाली कविताएँ हैं। जैसे- भक्त सर्वस्व (१८७०) जिसमें राधा और कृष्ण के प्रति भक्तिभाव की व्यंजना करते हुए पुराणों के अनुसार उनके चरणचिह्नों का वर्णन है। प्रेम मालिका (१८७१), वैशाख माहात्म्य (१८७२) जिसमें वैशाख महीने के स्नान की महिमा का वर्णन है। या देवी छद्म लीला (१८७३), प्रातः स्मरण मंगल पाठ (१८७३), दैन्य प्रलाप (१८७३), रानी छद्म लीला (१८७४) आदि १९वीं शताब्दी में सामाजिक, धार्मिक नवजागरण की जो लहर बंगाल से उठी उससे कविताओं का स्वरूप ही बदल गया।
भारतेंदु की कविताओं का इतिहास
भारतेंदु की प्रथम कविता महारानी विक्टोरिया के प्रति सहानुभूति स्वरूप एलबर्ट की मृत्यु पर १८६१ ई० में लिखी गई। १८६९ में उनके द्वितीय पुत्र ड्यूक ऑफ एडिनबरा के भारत आगमन पर भारतेंदु ने अपना हर्ष 'श्री राजकुमार सुस्वागत पत्र' लिखकर प्रकट किया,
जाके दरस-हित सदा नैना मरत पियास।
सो मुख-चंद बिलोकिहैं पूरी सब मन आस॥
नैन बिछाए आपु हित आवहु या मग होय।
कमल-पाँवड़े ये किए अति कोमल पद जोय॥
१८७० में ड्यूक ऑफ एडिनबरा के बनारस आने पर और १८७१ में प्रिंस ऑफ वेल्स के बीमार पड़ने पर, १८७४ में प्रिंस का रूसी राजकुमारी के साथ विवाह होने पर तथा १८७५ में भारत आने पर भारतेंदु ने उनके सम्मान में कविताएँ लिखीं,
स्वागत स्वागत धन्य तुम भावी राजधिराज।
भई सनाथा भूमि यह परसि चरन तुम आज॥
राजकुंअर आओ इते दरसाओ मुख चंद।
बरसाओ हम पर सुधा बाढ़यौ परम आनंद॥
यही नहीं 'प्रिंस ऑव वेल्स' को भारत का दुख जानने के लिए आया हुआ मानकर वह उनके सामने भारत की पीड़ा को इस प्रकार प्रस्तुत करते हैं,
भरे नेत्र अंसुअन जल-धारा।
लै उसास यह बचन उचारा॥
क्यों आवत इत नृपति-कुमारा।
भारत में छायो अंधियारा॥
तिनको सब दुख कुंअर छुड़ावो।
दासी की सब आस पुरावो॥
बृटिश-सिंह के बदन कराला।
लखि न सकत भयभीत भुआला॥
भारतेंदु की ऐसी कविताओं के आधार पर उन पर ब्रिटिश राज के प्रति वफादार रहने का आरोप भी लगाया जाता रहा है; परंतु उनका यह भोला विश्वास जब टूटा तो उन्होंने १८८१ में 'विजय वल्लरी' अफगान युद्ध समाप्त होने पर और १८८४ में 'विजयनी विजय बैजन्ती' मिश्र विजय के समय रचना की, जिसमें उन्होंने भारत की दुर्दशा का चित्रण किया पर कहीं भी महारानी विक्टोरिया तक ये आह्वान पहुँचाने का उद्देश्य न होकर भीतर ही भीतर भारतवासियों को ललकारना था। भारतेंदु की यही बदली हुई समझ 'नए जमाने की मुकरी' में दिखाई देती है, जिसकी रचना उन्होंने १८८४ में की थी।
भीतर-भीतर सब रस चूसै।
हँसि-हँसि कै तन मन धन मूसै॥
जाहिर बातन में अति तेज।
क्यों सखि सज्जन, नहीं अंगरेज॥
आधुनिक हिंदी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेंदु हरिश्चंद्र से माना जाता है। इसके कई कारण हैं। भारतेंदु युग से पूर्व हिंदी की जिस कविता से हमारा परिचय होता है, उसे रीतिकाव्य के नाम से जाना जाता है। वह अपने स्वरूप और संरचना दोनों दृष्टियों से रूढिबद्ध, शृंगारपरक और राजाओं-सामंतों का अनुरंजन करने वाला काव्य है। समाज के व्यापक भावबोध से कटी हुई इस कविता का ऐतिहासिक महत्त्व तो है, किंतु उसमें सामाजिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक चिंताओं के ऐसे कोई संदर्भ नहीं हैं; जिनसे उस कविता का कोई महत्त्व स्थापित हो सके। हालाँकि इस दौर में भी भारतेंदु ने भक्ति, वीर, नीति काव्य की रचनाएँ की। कुछ कविताएँ तो उनकी ईश्वर का गुणगान करने, उनके रूप-सौंदर्य का वर्णन करने, धर्म की दार्शनिक मान्यताओं को नकारने या पुष्ट करने वाली कविताएँ हैं। जैसे- भक्त सर्वस्व (१८७०) जिसमें राधा और कृष्ण के प्रति भक्तिभाव की व्यंजना करते हुए पुराणों के अनुसार उनके चरणचिह्नों का वर्णन है। प्रेम मालिका (१८७१), वैशाख माहात्म्य (१८७२) जिसमें वैशाख महीने के स्नान की महिमा का वर्णन है। या देवी छद्म लीला (१८७३), प्रातः स्मरण मंगल पाठ (१८७३), दैन्य प्रलाप (१८७३), रानी छद्म लीला (१८७४) आदि १९वीं शताब्दी में सामाजिक, धार्मिक नवजागरण की जो लहर बंगाल से उठी उससे कविताओं का स्वरूप ही बदल गया।
अहं ब्रह्म सब मन भाखे, ज्ञान गरूर बढ़ाय।
तनिक चोट के लगत उठत हैं, रोइ-रोइ करि हाय।
जो तुम ब्रह्म चोट केहि लागी, रोइ तजौ क्यौं प्रान।
'हरीचंद' हाँसी नाहीं है करनो ज्ञान-विधान।
उन्होंने समाज में व्याप्त कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य किए। महाजनों और रिश्वत लेने वालों को भी उन्होंने नहीं छोड़ा,
चूरन अमले सब जो खावैं, दूनी रुशवत तुरत पचावैं।
चूरन सभी महाजन खाते, जिससे जमा हजम कर जाते।
राष्ट्र-प्रेम प्रधान भारतेंदु जी के काव्य में राष्ट्र-प्रेम की भावना स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। भारत के प्राचीन गौरव की झाँकी वे इन शब्दों में प्रस्तुत करते हैं,
भारत के भुज बल जग रच्छित। भारत विद्या लहि जग सिच्छित॥
भारत तेज जगत विस्तारा। भारत भय कंपित संसारा॥
निम्न पंक्तियों में उत्प्रेक्षा और अनुप्रास अलंकार का प्रयोग स्पष्ट दिखाई देता है,
भारतेंदु के नाटक
तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहु छाए।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहु सुहाए॥
भारतेंदु के नाटक
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने युग की आवश्यकताओं को पहचाना और जनता को नवजागरण की दिशा में ले जाने के लिए नाटकों की रचना की। वे जानते थे कि दृश्य काव्य होने की वजह से नाटक जनता को जागृत करने का सशक्त माध्यम हो सकता है। वे स्वयं अभिनेता और निर्देशक भी थे, इसलिए नाटकों का इस दृष्टि से उपयोग करने में अधिक सक्षम थे।
भारतेंदु की सामाजिक प्रतिबद्धता इतनी गहरी थी कि उनकी पत्रिकाओं में रचना के विषय भी नारी शिक्षा का महत्त्व, बच्चों का सुचारु रूप से पालन-पोषण, अंधविश्वास और रूढ़ियों के दोष का वर्णन आदि होते थे। नाटकों में पहेली, मुकरी, कजली, विरहा, चांचर, चैता, खेमटा, विदेशिया आदि लोकगीतों की शैली का प्रयोग कर भारतेंदु ने जनहित में एक व्यापक आंदोलन का सूत्रपात किया। हिंदी नाटक के स्वरूप को भी विकसित कर रहे थे और अपने समय से भी उसे जोड़ रहे थे। पुरानी रूढ़ियों, अंधविश्वासों को तोड़ते हुए उनके सभी नाटक प्राचीन प्रचलित रीतियों के अंधानुकरण का विरोध करते हैं।
प्रथम मौलिक नाटक 'प्रवास' नाम से लिखा जा रहा था, पर उसका कुछ ही अंश लिखा गया और वह भी अप्राप्य रहा। भारतेंदु जी की सत्रह कृतियाँ संगृहीत हुई हैं; जिनमें ६ अनूदित, ८ मौलिक तथा ३ अपूर्ण हैं। भारतेंदु जब विधवा विवाह के पक्षधर ईश्वरचंद्र विद्यासागर के संपर्क में आए तो स्वयं भी विधवा विवाह के समर्थक हो गए। इसी प्रेरणा का फल है, प्रहसन 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति'।
'विषस्य विषमौषधम' संस्कृत की भाषा-शैली में लिखा गया एक-पात्रीय नाटक है। सामंत वर्ग की स्वार्थ-लोलुपता और अंग्रेजों की कूटनीति को कहावतों, चुटकुलों, मुहावरों, पदों, श्लोकों, व्यंग्य, हास्य के जरिए दर्शाया है।
'प्रेमजोगिनी' भारतेंदु का एक नया प्रयोग है जिसमें काशी के बहाने सामंती संस्कृति के पतन का विवरण है। इसमें हर अंक में नए पात्र आते हैं, अतः एक ही पात्र के कई बार अभिनय करने की संभावनाएँ बनती हैं।
'प्रेमजोगिनी' भारतेंदु का एक नया प्रयोग है जिसमें काशी के बहाने सामंती संस्कृति के पतन का विवरण है। इसमें हर अंक में नए पात्र आते हैं, अतः एक ही पात्र के कई बार अभिनय करने की संभावनाएँ बनती हैं।
सत्य हरिश्चंद्र क्षेमेश्वर के चंडकौशिक नाटक के आधार पर लिखा गया। ये नाटक भारतीय जनता के धैर्य और अथाह करुणा का भंडार है, जो रीति-कालीन शृंगार रस के प्रति असंतोष से उपजा है। नौजवानों के चारित्रिक उत्थान के उद्देश्य से लिखे इस नाटक में पाश्चात्य शैली के साथ भारतेंदु की मौलिकता की भी झलक दिखती है।
चंद्रावली, रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखी गई स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है। जिसमें सूर, मीरा, रसखान-सा भक्तिकाव्य और चंद्रावली के अनन्य प्रेम का विवरण है।
भारत दुर्दशा, भारतेंदु की देश-भक्ति और निर्भीकता, वीरता का प्रमाण है। यह नाटक पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक नाट्य रूप का अद्भुत मिश्रण है। अँग्रेजी राज्य की अप्रत्यक्ष आलोचना और भारत की दुर्दशा का सजीव चित्रण है।
भारत जननी में गीतिनाट्य का सूत्रपात हुआ और भारतवर्ष की समसामयिक परिस्थितियों पर लिखा गया काव्य-नाटक है।
नीलदेवी स्त्री प्रधान नाटक है, जिसमें देश में फैले इस भ्रम को दूर करना चाहते थे कि भारत में स्त्रियों की दशा बहुत खराब रही है। यह हिंदी का पहला दुखांत नाटक है। नीलदेवी के गीत अति सुंदर हैं।
अंधेर नगरी एक लोकोक्ति पर आधारित प्रहसन और व्यंग्य-कला का चुटीला और सजीव रूप है। लोकजीवन और राजनीतिक चेतना का सामंजस्य करके उसे व्यंग्यात्मक व्यक्त करना अपने आप में बड़ी बात है। यह नाटक भारतेंदु के समय का ही नहीं हमारे समय का भी आईना है।
सती प्रताप में भारतीय नारी की चेतना और आदर्श को सती के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है ताकि पुरुषों में नवजागरण उत्पन्न हो। भारतेंदु ने केवल चार दृश्य ही लिखे जिसे बाद में बाबू राधाकृष्णदास ने पूरा किया। हर्षकृत संस्कृत नाटिका रत्नावली का हिंदी अनुवाद उनका प्रथम अनुवाद था।
धनंजय विजय वीर रस प्रधान ओजपूर्ण नाटक है। इसके भरत-वाक्य में वह कजरी, ठुमरी आदि की रूढ़िवादी लीक को छोड़कर नए साहित्य और कविता की राह पर चलने को कहते हैं।
चंद्रावली, रासलीला के लोकनाट्य रूप में लिखी गई स्त्री पात्र प्रधान नाटिका है। जिसमें सूर, मीरा, रसखान-सा भक्तिकाव्य और चंद्रावली के अनन्य प्रेम का विवरण है।
भारत दुर्दशा, भारतेंदु की देश-भक्ति और निर्भीकता, वीरता का प्रमाण है। यह नाटक पारसी रंगमंच और नौटंकी लोक नाट्य रूप का अद्भुत मिश्रण है। अँग्रेजी राज्य की अप्रत्यक्ष आलोचना और भारत की दुर्दशा का सजीव चित्रण है।
भारत जननी में गीतिनाट्य का सूत्रपात हुआ और भारतवर्ष की समसामयिक परिस्थितियों पर लिखा गया काव्य-नाटक है।
नीलदेवी स्त्री प्रधान नाटक है, जिसमें देश में फैले इस भ्रम को दूर करना चाहते थे कि भारत में स्त्रियों की दशा बहुत खराब रही है। यह हिंदी का पहला दुखांत नाटक है। नीलदेवी के गीत अति सुंदर हैं।
अंधेर नगरी एक लोकोक्ति पर आधारित प्रहसन और व्यंग्य-कला का चुटीला और सजीव रूप है। लोकजीवन और राजनीतिक चेतना का सामंजस्य करके उसे व्यंग्यात्मक व्यक्त करना अपने आप में बड़ी बात है। यह नाटक भारतेंदु के समय का ही नहीं हमारे समय का भी आईना है।
सती प्रताप में भारतीय नारी की चेतना और आदर्श को सती के माध्यम से प्रस्तुत किया गया है ताकि पुरुषों में नवजागरण उत्पन्न हो। भारतेंदु ने केवल चार दृश्य ही लिखे जिसे बाद में बाबू राधाकृष्णदास ने पूरा किया। हर्षकृत संस्कृत नाटिका रत्नावली का हिंदी अनुवाद उनका प्रथम अनुवाद था।
धनंजय विजय वीर रस प्रधान ओजपूर्ण नाटक है। इसके भरत-वाक्य में वह कजरी, ठुमरी आदि की रूढ़िवादी लीक को छोड़कर नए साहित्य और कविता की राह पर चलने को कहते हैं।
भारतेंदु स्वाधीन चेतना के नाटककार थे। भारतीय नाट्य परंपरा हो या पाश्चात्य, उनका अनुसरण करना मात्र उनका उद्देश्य नहीं था। वह बदलते युग और रुचि के अनुसार हिंदी नाट्यकला का विस्तार करना चाहते थे। उन्होंने मनोरंजन पक्ष और रंगमंचीय पक्ष को कभी हेय नहीं माना।
पौराणिक नाटक में रामायण, महानाटक, हनुमन्नाटक, शाकुंतलम् नाटक, रामलीला नाटक, नहुष आदि प्रसिद्ध हुए। विद्या-सुंदरी भारतेंदु कृत सबसे पहला सुखांतक नाटक है। प्रेम-सुंदरी, चंद्रकला, प्रेम कुसुम आदि अन्य सुखांतक नाटक हैं। भारत की दशा को सामने रखकर भी अनेक नाटकों का निर्माण हुआ। भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, भारत–भारत, भारत सौभाग्य, वर्तमान दशा, हिंदुओं की अपनी आपसी फूट, पारस्परिक भेदभाव एवं उनकी अपनी सामाजिक परिस्थितियाँ, पारिवारिक निर्बलता आदि का विवरण इनमें मिलता है। प्रवास और रत्नावली नाटक भारतेंदु जी के काल के संस्कृत से अनूदित नाटक थे। अन्य नाटक उत्तररामचरित, रत्नावली, धनंजय विजय, मुद्राराक्षस, प्रबोध चंद्रोदय, शकुंतला हैं। महारानी पद्मावती, महाराणा प्रताप, पन्ना, पुरु-विजय, हठी हम्मीर, अमर सिंह राठौर आदि नाटकों में वीरांगनाओं व वीरों का वर्णन विस्तार सहित किया गया है।
भाषा
हिंदी को राष्ट्र-भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने में उन्होंने हर संभव कोशिश की। आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। केवल भाषा ही नहीं, साहित्य में भी उन्होंने नवीन आधुनिक चेतना का समावेश किया और साहित्य को 'जन' से जोड़ा। उनके गद्य की भाषा सरल, व्यावहारिक और खड़ीबोली है, जबकि इन के काव्य की भाषा मूलतः ब्रज भाषा है। उन्होंने ब्रज भाषा के अप्रचलित शब्दों को न अपनाकर परिष्कृत रूप को अपनाया। उनकी भाषा में जहाँ-तहाँ उर्दू और अंग्रेज़ी के आम शब्द भी पाए जाते हैं। मुहावरों का भी प्रयोग कुशलतापूर्वक किया है।
१८८२ में शिक्षा आयोग (हंटर कमीशन) के समक्ष अपनी गवाही में हिंदी को न्यायालयों की भाषा बनाने की महत्ता पर उन्होंने कहा, "यदि हिंदी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़वाने के लिए दो-चार आने कौन देगा, और साधारण-सी अर्जी लिखवाने के लिए कोई रुपया-आठ आने क्यों देगा। तब पढ़ने वालों को यह अवसर कहाँ मिलेगा कि गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दें। सभी सभ्य देशों की अदालतों में उनके नागरिकों की बोली और लिपि का प्रयोग किया जाता है। यही (भारत) ऐसा देश है जहाँ अदालती भाषा न तो शासकों की मातृभाषा है और न प्रजा की। यदि आप दो सार्वजनिक नोटिस, एक उर्दू में तथा एक हिंदी में लिखकर भेज दें, तो आपको आसानी से मालूम हो जाएगा कि प्रत्येक नोटिस को समझने वाले लोगों का अनुपात क्या है? जो सम्मन जिलाधीशों द्वारा जारी किए जाते हैं उनमें हिंदी का प्रयोग होने से रैयत और जमींदार को हार्दिक प्रसन्नता प्राप्त हुई है। साहूकार और व्यापारी अपना हिसाब-किताब हिंदी में रखते हैं। स्त्रियाँ हिंदी लिपि का प्रयोग करती हैं। पटवारी के कागजात हिंदी में लिखे जाते हैं और ग्रामों के अधिकतर स्कूल हिंदी में शिक्षा देते हैं।" इसी संदर्भ में १८६८ ई में 'उर्दू का स्यापा' नाम से उन्होने एक व्यंग्य कविता लिखी,
है है उर्दू हाय हाय।
कहाँ सिधारी हाय हाय। मेरी प्यारी हाय हाय।
मुंशी मुल्ला हाय हाय। बल्ला बिल्ला हाय हाय।
रोये पीटें हाय हाय। टाँग घसीटैं हाय हाय।
सब छिन सोचैं हाय हाय। डाढ़ी नोचैं हाय हाय।
दुनिया उल्टी हाय हाय। रोजी बिल्टी हाय हाय।
सब मुखतारी हाय हाय। किसने मारी हाय हाय।
खबर नवीसी हाय हाय। दाँत पीसी हाय हाय।
एडिटर पोसी हाय हाय। बात फरोशी हाय हाय।
वह लस्सानी हाय हाय। चरब-जुबानी हाय हाय।
शोख बयानि हाय हाय। फिर नहीं आनी हाय हाय।
यही नहीं, आज भी हम महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी जैसी समस्याओं से जूझ रहे है, जिन्हें भारतेंदु ने बहुत पहले ही समझ लिया था। उन्होंने लिखा था,
अंगरेजी राज सुखसाज सजे अति भारी
पर सब धन विदेश चलि जात ये ख्वारी।
अंग्रेज भारत का धन अपने यहाँ लेकर चले जाते हैं, और यही देश की जनता की गरीबी और कष्टों का मूल कारण है। इस सच्चाई को भी भारतेंदु समझ चुके थे कि 'अंग्रेजी शासन भारतीयों के लाभ के लिए है' यह पूर्णतः खोखला दावा था और दुष्प्रचार था। 'कविवचनसुधा' में उन्होंने जनता का आह्वान किया था, "भाइयों! अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोक के इनके सामने खड़े तो हो जाओ। देखो भारतवर्ष का धन जिससे जाने न पावे वह उपाय करो।"
भारतेंदु ने विलायती कपड़ों के बहिष्कार की अपील करते हुए स्वदेशी का जो प्रतिज्ञा पत्र २३ मार्च १८७४ के 'कविवचनसुधा' में प्रकाशित किया, वह समूचे हिंदी समाज का प्रतिज्ञा पत्र बन गया। उसमें भारतेंदु ने कहा था, "हमलोग सर्वांतर्यामी, सब स्थल में वर्तमान, सर्वदृष्टा और नित्य सत्य परमेश्वर को साक्षी देकर यह नियम मानते हैं और लिखते हैं कि हम लोग आज के दिन से कोई विलायती कपड़ा न पहिरेंगे और जो कपड़ा पहिले से मोल ले चुके हैं और आज की मिती तक हमारे पास हैं उनको तो उनके जीर्ण हो जाने तक काम में लावेंगे, पर नवीन मोल लेकर किसी भाँति का भी विलायती कपड़ा न पहिरेंगे, हिंदुस्तान का ही बना कपड़ा पहिरेंगे। हम आशा रखते हैं कि इसको बहुत ही क्या प्रायः सब लोग स्वीकार करेंगे और अपना नाम इस श्रेणी में होने के लिए श्रीयुत बाबू हरिश्चंद्र को अपनी मनीषा प्रकाशित करेंगे और सब देश हितैषी इस उपाय के बाद में अवश्य उद्योग करेंगे।"
भारतेंदु अंग्रेजों के शोषण-तंत्र को भली-भांति समझते थे। अपनी पत्रिका कविवचनसुधा में उन्होंने लिखा था, "जब अंग्रेज विलायत से आते हैं, प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं; और जब हिंदुस्तान से अपने विलायत को जाते हैं, तब कुबेर बनकर जाते हैं। इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं।"
भारत दुर्दशा में वे कहते हैं,
भारत दुर्दशा में वे कहते हैं,
रोअहुं सब मिलिकै आवहुं भारत भाई।
हा, हा! भारत दुर्दशा देखी न जाई॥
भारतेंदु स्त्री-पुरुष की समानता के इतने बड़े समर्थक थे कि 'कविवचनसुधा' के ३ नवंबर १८७३ के अंक में उन्होंने लिखा, "यह बात सिद्ध है कि पश्चिमोत्तर देश की कदापि उन्नति नहीं होगी, जब तक यहाँ की स्त्रियों की भी शिक्षा न होगी क्योंकि यदि पुरुष विद्वान होंगे और उनकी स्त्रियाँ मूर्ख तो उनमें आपस में कभी स्नेह न होगा और नित्य कलह होगी।"
भारतेंदु जी ने अनेक यात्राएँ की, जिससे इनकी लेखनी द्वारा कई यात्रा वृत्तांतों की रचना हुई है। भक्ति प्रधान भारतेंदु जी कृष्ण के भक्त थे और पुष्टि मार्ग को मानने वाले। उन्हें कविता में सच्ची भक्ति भावना के दर्शन होते हैं। सुमित्रानंदन पंत लिखते हैं,
धन के अत्यधिक व्यय से भारतेंदु जी ॠणी बन गए और दुश्चिंताओं के कारण उनका शरीर शिथिल होता गया; परिणाम स्वरूप ६ जनवरी १८८५ को अल्पायु में ही मृत्यु ने उन्हें ग्रस लिया।
भारतेंदु कर गए,
भारती की वीणा निर्माण।
किया अमर स्पर्शों में,
जिसका बहुविधि स्वर संधान।
धन के अत्यधिक व्यय से भारतेंदु जी ॠणी बन गए और दुश्चिंताओं के कारण उनका शरीर शिथिल होता गया; परिणाम स्वरूप ६ जनवरी १८८५ को अल्पायु में ही मृत्यु ने उन्हें ग्रस लिया।
संदर्भ
लेखक परिचय
संतोष भाऊवाला
इनकी कविताएँ-कहानियाँ कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी हैं। ये कविता, कहानी, ग़ज़ल, दोहे आदि लिखती हैं।
संतोष जी नमस्ते। महान साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र जी पर आपका लेख बहुत अच्छा है। उनको हर हिंदी प्रेमी ने अवश्य पढ़ा होगा और उन्हें पसंद भी करता होगा। अपने नाटकों के माध्यम से वो आमजन तक जुड़े और एक कीर्ति स्तम्भ बन गए। आपने उनके रचना संसार का विस्तृत परिचय बहुत सुंदर रूप में प्रस्तुत किया। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteसंतोष जी, आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रवर्तक और हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए अथक और सराहनीय कार्य करने वाले भारतेंदु हरिश्चन्द्र जी का परिचय आपकी लेखनी ने अत्यंत सार्थक और समग्र रूप से दियाहै। इस भेंट के लिए आपको साभार बधाई।
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