Friday, September 2, 2022

रामकथा के अमर गायक : फ़ादर कामिल बुल्के

 News Nation

"जब मैं अपने जीवन पर विचार करता हूँ, तो मुझे लगता है ईसा, हिंदी और तुलसीदास, ये वास्तव में मेरी साधना के तीन प्रमुख घटक हैं और मेरे लिए इन तीन तत्वों में कोई विरोध नहीं है, बल्कि गहरा संबंध है… जहाँ तक विद्या तथा आस्था के पारस्परिक संबंध का प्रश्न है, तो मैं उन तीनों में कोई विरोध नहीं पाता। मैं तो समझता हूँ कि भौतिकतावाद, मानव जीवन की समस्या का हल करने में असमर्थ है। मैं यह भी मानता हूँ कि 'धार्मिक विश्वास' तर्क-वितर्क का विषय नहीं है।" 

ये विचार हैं हिंदी के अनन्य साधक, गोस्वामी तुलसीदास के प्रति अगाध श्रद्धावान और श्रीरामकथा मर्मज्ञ फ़ादर कामिल बुल्के के, जिनका जन्म भले ही बेल्ज़ियम में हुआ हो, लेकिन उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन भारत में रहते हुए हिंदी की निस्स्वार्थ सेवा में लगा दिया। कामिल बुल्के सन १९३५ में भारत आए और आजीवन यहीं के होकर रह गए। वे कहते हैं कि "मैं जब अपनी मातृभाषा फ्लैमिश के संस्कार लेकर भारत पहुँचा, मुझे यह देखकर आश्चर्य और दुख हुआ कि अनेक शिक्षित लोग अपनी सांस्कृतिक परंपराओं से अनजान थे और इंग्लिश में बोलना गर्व की बात समझते थे। मैंने अपने कर्तव्य पर विचार किया कि मैं इन लोगों की भाषा को सिद्ध करूँगा। इसी प्रतिक्रया स्वरूप मैंने हिंदी पंडित बनने का निश्चय किया।" निश्चय की इसी दृढ़ता के कारण बुल्के के मन में हिंदी सीखने की इच्छा को बल मिला। अपनी इच्छा को मूर्त करने के लिए उन्होंने पंडित बदरीदत्त शास्त्री से हिंदी और संस्कृत की शिक्षा प्राप्त की और वर्ष १९४० में 'हिंदी साहित्य सम्मेलन', प्रयाग से 'विशारद' की परीक्षा उत्तीर्ण की। बुल्के यहीं नहीं रुके, उन्होंने इससे आगे बढ़कर कलकत्ता विश्वविद्यालय से संस्कृत में मास्टर्स डिग्री हासिल की। कामिल बुल्के ने सन १९४९ में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से माताप्रसाद गुप्त के निर्देशन में 'रामकथा : उत्पत्ति और विकास' विषय पर शोध किया। यह जानकर किसी को भी आश्चर्य हो सकता है कि उस समय सभी विषयों में शोध प्रबंध अँग्रेज़ी में ही लिखे जाते थे। फ़ादर बुल्के के अनुरोध पर विश्वविद्यालय को शोध नियमावली के मानकों में संशोधन करना पड़ा। और इस तरह बुल्के के शोध को हिंदी में प्रस्तुत प्रथम शोध प्रबंध का गौरव प्राप्त हुआ। हिंदी को सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने की अपनी संघर्ष यात्रा के आरंभिक वर्षों में बुल्के ने जो संकल्प लिया था, यह उस  दिशा में एक क्रांतिकारी क़दम था। और ऐसा अभूतपूर्व कार्य यदि किसी भारतेतर हिंदी सेवी द्वारा किया गया हो तो उसका महत्त्व निश्चित ही कई गुना हो जाता है। 

मातृभाषा फ्लैमिश के अतिरिक्त अँग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, लैटिन, ग्रीक, संस्कृत के विद्वान कामिल बुल्के की हिंदी के प्रति अटूट निष्ठा थी। हिंदी जानने वाला यदि उनके सामने अँग्रेज़ी भाषा का प्रयोग करता तो उन्हें बिलकुल नहीं भाता था। वे हिंदी के अपार शब्द सामर्थ्य, व्याकरणिक संरचना और अभिव्यक्ति क्षमता से बख़ूबी परिचित थे। वे हिंदी की पैरवी खुले मंचों से बड़े ही प्रभावी तरीके से करते थे। वे मानते थे कि "हिंदी में सब कुछ कहा जा सकता है, सारा कामकाज सुचारु रूप से हिंदी में किया जा सकता है।" हिंदी की बहुमुखी प्रयोजनीयता और शैलीगत वैविध्य को व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने धर्म, दर्शन आदि विषयों पर आधारित हिंदी की पारिभाषिक शब्दावली को 'ए टैक्नीकल इंगलिश हिंदी ग्लॉसरी' नाम से प्रकाशित किया। पारिभाषिक शब्दावली पर आधारित यह लगभग पाँच सौ पृष्ठों की पुस्तक है जो अपने आप में अद्भुत और मौलिक है। कामिल बुल्के के इस महनीय प्रयास को हिंदी जगत की अपार सराहना मिली। परिश्रम साध्य इस कार्य के बाद सन १९६८ में कामिल बुल्के ने हिंदी प्रयोक्ताओं को 'अँग्रेज़ी-हिंदी कोश' के रूप में अद्भुत सौगात दी। चालीस हज़ार से भी अधिक शब्द वाला यह कोश बुल्के की तीस वर्षों की साधना और अथक परिश्रम का प्रतिफल है जो अपने प्रकाशन के इतने वर्ष बीत जाने पर भी हिंदी के सर्वाधिक प्रमाणिक और व्यावहारिक कोशों में से एक माना जाता है। बुल्के अपने इस कोश को काफ़ी समय तक अद्यतित करते रहे, शायद इसीलिए उनका यह कोश हिंदी के विद्यार्थियों के साथ-साथ हिंदी विद्वानों द्वारा भी संदर्भ रूप में स्वीकारा जाता है। कामिल बुल्के ने यह कोश हिंदी सीखने वालों की समस्याएँ दूर करने के लिए तैयार किया था, लेकिन हिंदी भाषियों और अनुवादकों के लिए भी यह उतना ही उपयोगी है। इस कोश की एक ख़ास विशिष्टता यह है कि अँग्रेज़ी के विद्यार्थियों की सुविधा हेतु इसमें अँग्रेज़ी शब्दों का उच्चारण हिंदी में दिया गया है। उनके हिंदी प्रेम को देखते हुए ही भारत सरकार ने हिंदी के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य करने हेतु उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया था। वे देश की अनेक हिंदी समितियों से जुड़े रहे और सक्रिय रहकर आजीवन हिंदी के लिए कार्य करते रहे। वर्ष १९५१ में भारत सरकार ने फ़ादर बुल्के को भारत की नागरिकता प्रदान की और उनके कार्यों को भारत के लिए सम्मानपूर्ण और महनीय माना। 

'रामकथा : उत्पत्ति और विकास' फ़ादर बुल्के का वह यशोग्रंथ है जिसने बुल्के को प्रसिद्धि का अनंत आकाश देने के साथ रामकथा की वैश्विकता को भी नए आयाम दिए। विश्व भर में विभिन्न विद्वानों द्वारा रामकथा पर लिखे गए दुर्लभ ग्रंथों का गहन अध्ययन करके उन के समस्त निचोड़ को उन्होंने इस ग्रंथ में सहेजा है। उनके गुरु धीरेंद्र वर्मा का इस ग्रंथ के बारे में कथन सम्यक ही है कि "इसे रामकथा संबंधी समस्त सामग्री का विश्वकोश कहा जा सकता है।" श्रीराम पर इस तरह का सम्यक और समग्र कार्य किसी अन्य भाषा में मिलना दुर्लभ है। लगभग सात सौ पृष्ठों वाली इस पुस्तक के इक्कीस अध्याय हैं जो चार भागों में व्यवस्थित हैं। प्रथम भाग में प्राचीन काल के रामकथा-साहित्य का विवेचन है। द्वितीय भाग में रामकथा की उत्पत्ति के बारे में वर्णन है, ग्रंथ के तृतीय भाग में अर्वाचीन रामकथा का विश्लेषण है, जिसमें संस्कृत के धार्मिक और ललित साहित्य में आधुनिक भारतीय भाषाओं (हिंदी, तमिल, तेलुगू, मलयालम, कन्नड़, बांग्ला, कश्मीरी आदि) तथा विदेश (तिब्बत, खोतान, हिंदेशिया, हिंदचीन, श्याम, ब्रह्मदेश आदि) में विद्यमान राम कथा संबंधी साहित्य का सुंदर, विशद और तथ्यपरक विवेचन किया गया है। अंतिम भाग में रामकथा संबंधी विविध घटनाओं को लेकर उसका पृथकतया विकास दिखलाया गया है। इस प्रकार संपूर्ण विश्व साहित्य में श्रीराम कथा के जितने स्वरूप उपलब्ध हैं वे सब समग्र रूप में इस पुस्तक में एकाकार समुपस्थित देखे जा सकते हैं। रामकथा की वैश्विकता, सार्वकालिकता और प्रासंगिकता उसमें निहित जीवन आदर्श और नैतिक मूल्यों के कारण है और अपनी इसी विशेषता के कारण रामकथा भाषा, धर्म, जाति, देश और काल की सीमाओं को लाँघकर समस्त मानव समाज के लिए एक आचारसंहिता का कार्य करती है। रामकथा का उद्देश्य सिर्फ़ और सिर्फ़ समस्त विश्व को कल्याण-मार्ग की ओर उन्मुख करना है। फ़ादर बुल्के भी श्रीराम और उनकी कथा के इस आकर्षण से आजीवन प्रेरणा लेते रहे और इसी कारण शोध प्राप्ति के पश्चात भी इस विषय पर उनका चिंतन-मनन, अध्ययन-विश्लेषण जारी रहा। वे मानते थे  कि "श्रीराम वाल्मीकि के कल्पित पात्र नहीं थे बल्कि एक इतिहास पुरुष थे।" उन्होंने कई उदाहरणों से सिद्ध किया कि "रामकथा अंतरराष्ट्रीय कथा है जो वियतनाम से लेकर इंडोनेशिया तक फैली है। रामायण केवल धार्मिक साहित्य नहीं बल्कि जीवन जीने का दस्तावेज़  है।" कामिल बुल्के गोस्वामी तुलसीदास के कविताकर्म से विशेष प्रभावित थे, उनके साहित्य को उनकी ही भाषा में पढ़ने के लिए उन्होंने ब्रज और अवधी भाषा का भी गहन अध्ययन किया और उनसे प्रेरित होकर ही 'मानस कौमुदी' जैसी रचनाओं का सृजन किया। स्वर्गीय काका कालेलकर ने एक बार कहा था, "फ़ादर बुल्के तुलसी के अधिकाधिक समीप पहुँचने के लिए जीवन भर प्रयत्नशील रहे।" 

तुलसी के साथ ही उनकी भारतीय जीवन मूल्यों, आदर्शों और संस्कृति पर विशेष आस्था थी और वे सारे जीवन भारतीयता के पोषक और संरक्षक बने रहे। भारतीय संस्कृति के प्रति उनके अनन्य प्रेम को देखते हुए ही प्रोफ़ेसर नित्यानंद तिवारी कहते हैं, "मैंने उनमें हिंदी के प्रति हिंदी वालों से कहीं ज़्यादा गहरा प्रेम देखा। ऐसा प्रेम जो भारतीय जड़ों से जुड़ कर ही संभव है। उन्होंने रामकथा और रामचरित मानस को बौद्धिक जीवन दिया।"

सेंट जेवियर्स कॉलेज, राँची में स्थित उनके पुस्तकालय को 'डॉ० फ़ादर बुल्के शोध संस्थान' के नाम से विकसित किया गया है, जहाँ बुल्के द्वारा विश्व भर के कोने-कोने से लाई गई पुस्तकें संगृहीत हैं। अपार करुणा, निश्छल सौम्यता, अपूर्व शांति और अनुपम तेज से देदीप्यमान फ़ादर बुल्के अपने अंतस में विश्व-कल्याण की कामना रखते थे। प्रसिद्ध लेखक सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को उनमें मानवीय करुणा की दिव्य चमक दिखलाई पड़ती थी, उन्हें फ़ादर की नीली आँखों में तैरती वात्सल्य की भावना ऐसी लगती थी मानो वह किसी ऊँचाई पर देवदार की छाया में खड़े हों रामकथा के अमर गायक और हिंदी को समर्पित बाबा बुल्के पर लिखने को यूँ तो बहुत कुछ है, लेकिन हरिवंशराय बच्चन द्वारा लिखी गई कविता के साथ अपने भाव समाहित कर आलेख समापन करती हूँ -
"फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम"
जन्मे और पले योरुप में, पर तुमको प्रिय भारत धाम,
रही मातृभाषा योरुप की, बोली हिंदी लगी ललाम। 
ईसाई संस्कार लिए भी, पूज्य हुए तुमको श्रीराम, 
तुलसी होते तुम्हें पगतरी के हित देते अपना चाम। 
सदा सहज श्रद्धा से लेगा मेरा देश तुम्हारा नाम,
फ़ादर बुल्के तुम्हें प्रणाम!

कामिल बुल्के : जीवन परिचय

जन्म 

०१ सितंबर १९०९, बेल्जियम 

निधन

१७ अगस्त १९८२ 

साहित्यिक परिचय

  • रामकथा : उत्पत्ति और विकास

  • अँग्रेज़ी-हिंदी शब्दकोश

  • मुक्तिदाता

  • नया विधान

  • हिंदी-अँग्रेज़ी लघुकोश

  • रामकथा

  • नीलपंछी

  • बाइबिल (हिंदी अनुवाद)


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संदर्भ

  • हिंदी के सुयोग्य विद्वान फ़ादर कामिल बुल्के, वेब दुनिया, दिसंबर २०१६  
  • कादम्बिनी, एच एम वी एल प्रकाशन, सितंबर-२०१३ 
  • प्रो० अमरनाथ, रामकथा के प्रथम अन्वेषक फ़ादर कामिल बुल्के (हिंदी चेतना, जुलाई-०९ पृष्ठ-३१)

लेखक परिचय

डॉ० नूतन पाण्डेय

 

सम्प्रति- सहायक-निदेशक, केंद्रीय हिंदी निदेशालय, भारत सरकार का शिक्षा मंत्रालय

पूर्व अनुभव- द्वितीय सचिव, भाषा और संस्कृति, भारतीय उच्चायोग, मॉरिशस

प्रकाशन- प्रवासी साहित्य पर अनेक पुस्तकें और लेख प्रकाशित

सम्मान- विभिन्न संस्थाओं द्वारा राष्ट्रीय/अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त

सम्पर्क- +९१ ७३०३१ १२६०७

3 comments:

  1. हिंदी भाषा और संस्कृति की निःस्वार्थ सेवा करनेवाले महान विचारक फादर बुल्के जी की जीवनी पढ़कर अपने संकुचित ज्ञान में वृद्धि हो गई है। भारत में रहकर भी अपनी हिंदी भाषा और संस्कृति को मान न देने वालो के लिए और दृष्टि पर लगे अज्ञानता की परते खोलने यह आलेख शिक्षात्मक साबित हो रहा है। मातृभाषा फ्लैमिश होने के बावजूद हिंदी भाषा को अपरिमेय प्यार करनेवाले बुल्के जी की रचनात्मक कृति और शोधग्रंथ वाक़ई में प्रशंसनीय और गर्वित करनेवाले तथ्यपरक है जिसे डॉ नूतन जी ने बड़ी कुशलतापूर्वक इस आलेख में प्रस्तुत किया है। आपने अतिवृस्तित और ज्ञानवर्धक आलेख रचा है। अप्रतिम और शोधपरक आलेख के लिए आपका आभार और अनंत शुभकामनाएं स्वीकार करें।

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  2. नूतन जी, आपके अन्य आलेखों की तरह कामिल बुल्के पर लिखा यह आलेख भी हर तरह से मंझा हुआ है। आपको इसके लिए बधाई और धन्यवाद। भारतीय संस्कृति में रचे-बसे विदेशी-भारतीय कामिल बुल्के ने हिंदी की तन मन धन से सेवा की है। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। (सरोज शर्मा)

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  3. नूतन जी नमस्ते। आपने एक और अच्छा लेख हम पाठकों को उपलब्ध करवाया। आपने लेख में फादर कामिल बुल्के के हिंदी के प्रति प्रेम और समर्पण को बहुत सुंदर ढंग से प्रस्तुत किया है। एक विदेशी मूल से सबंध होने पर भी उनका हिंदी के लिए योगदान वंदनीय है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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