Thursday, September 22, 2022

कामतानाथ : काल-कथा के रचनाकार


"चल अंदर। चाय की दुम...'' माँ ने उसके सिर पर जोर से धौल जमा दी। वह संभल पाती, इससे पहले ही पिता ने भी उसके सिर पर चपत जड़ दी। "जो आदमी काली शेरवानी पहने आएगा वही तेरा जीजा हो जाएगा? गधी कहीं की।" उन्होंने कहा। राधा कुछ समझी नहीं। उसे पूरा विश्वास था कि उसने गली में राम औतार को ही देखा था। मार जो उसने खाई वह तो खाई ही, उसे इस बात का भी कम अफसोस नहीं था, कि मिठाई खाने को नहीं मिलेगी। (मेहमान कहानी) 


कामतानाथ जी ने अपनी इस कहानी में एक निम्न मध्यवर्गीय गरीब परिवार की उस मनोदशा को प्रस्तुत किया है, जो भयंकर गरीबी के कारण एक किराए के मकान में अभावग्रस्त जीवन जी रहा है, जहाँ मेहमान का आना भी एक मुसीबत का आना है। ऐसे में चुनाव के उम्मीदवार का आना व कोरे आश्वासन देना और जहाँ परिवार के मुखिया का वोट ही न होना तथा उम्मीदवार को ही बेटी द्वारा मेहमान समझना, खीझ पैदा कर देता है। 

हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार कामतानाथ जी का जन्म २२ सितंबर १९३४ को लखनऊ के एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में हुआ था। लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर करने के पश्चात वे रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में सेवारत रहे। घर में बचपन से ही पढ़ने-लिखने का माहौल था। एक कमरे की ताक में धार्मिक पुस्तकों के अतिरिक्त आलिफ़ लैला, किस्सा गुल सनोबर, हातिमताई, वैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी आदि किताबें रखी रहती थीं। इन किताबों ने ही साहित्य के प्रति रुचि जगाई। पढ़ने के साथ-साथ इन्होंने कहानी और उपन्यास लेखन भी शुरू किया। कामतानाथ जी प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव रहे और इसी के साथ भारतीय मजदूर आंदोलन में भी इनकी सक्रिय भागीदारी रही। राष्ट्रीय स्तर पर वे बैंक कर्मचारी यूनियन के प्रमुख नेता रहे तथा बैंक हड़ताल के समय जेल में भी रहे। जेल-जीवन में उनका नए और विचित्र अनुभवों से साक्षात्कार हुआ। जैसे माना कि कोई अपराधी गज्जन सिंह को किसी संगीन अपराध में सजा हुई, परंतु उसके स्थान पर बेचारा उसका नौकर रग्घू जेल में सड़ रहा है। अपनी कहानियों में कामतानाथ जी ने इन सब घटनाओं का बखूबी चित्रण किया है।

स्वातंत्र्योत्तरकालीन भारतवर्ष के जनमानस का जीवन-क्रम कामतानाथ जी ने अपनी कहानियों में भरपूर सिलसिलेवार ढंग से प्रस्तुत किया है। इनकी कहानियों में कथा-रस का जादू पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। आम जन-जीवन से उठाई गई ये कहानियाँ कथा-कौशल की वजह से ग्रहण के स्तर पर एक तरफ बतरस का मजा देती हैं, वहीं दूसरी तरफ प्रभाव के स्तर पर उद्वेलित करती हैं। सामाजिक सरोकारों की मौलिक पहचान के साथ इनकी कहानियाँ प्रेमचंद की परंपरा को अपने ढंग से विस्तार देते हुए उसका नवोन्मेष करती हैं। कामतानाथ जी के वैविध्यपूर्ण रचना संसार को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहली श्रेणी में वे कहानियाँ हैं, जिनके केंद्र में मानवीय संबंध और पारिवारिक रिश्ते हैं। दूसरी श्रेणी की कहानियों में शुरुआत तो परिवार से होती है, लेकिन जो पारिवारिक दायरे में सीमित न रहकर बाहर निकल जाती हैं और व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन के दायरे के बीच आती-जाती रहती हैं। तीसरी श्रेणी में वे कहानियाँ आती हैं, जो सार्वजनिक जीवन से संबंधित किसी भी समस्या को प्रस्तुत कर लिखी गई हैं। हालांकि यह विभाजन रेखा बहुत ही क्षीण प्रतीत होती है। 

कामतानाथ जी के लेखन की विशेषता है कि उन्होंने समकालीन कथाकारों से पृथक मंच पर अपनी कथाओं का सृजन किया, जिसमें वर्गीय चेतना और क्रांतिकारी प्रभाव स्पष्ट परिलक्षित होता है। साहित्य जगत में कामतानाथ ५० साल से भी अधिक समय तक सक्रिय रहे। साहित्य के साथ ही कामतानाथ रंगमंच पर भी काफी लोकप्रिय थे। उनकी रचनाएँ मंचन के काफी उपयुक्त मानी जाती हैं, इसकी एक वजह यह भी है कि उन्हें रंगमंच की गहरी समझ थी। उनकी लगभग सभी रचनाएँ संवाद प्रधान हैं। वे मानते थे कि कहानियों और उपन्यासों को वर्णनात्मक होने की जगह संवाद प्रधान होना चाहिए। पात्रों का चरित्र इस माध्यम से अधिक सशक्त ढंग से अभिव्यक्त होता है। वर्ष १९६१ में उनकी पहली कहानी 'लाशें' आई, जो नई धारा के विशेषांक में प्रकाशित हुई, जिसके संपादक कमलेश्वर जी थे। उसके बाद लगभग ६ उपन्यास, ११ कहानी संग्रह और ८ नाटक प्रकाशित हुए, जिनमें 'समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की', 'सुबह होने तक', 'एक और हिंदुस्तान', 'तुम्हारे नाम', 'काल-कथा’(चार खंड), 'पिघलेगी बर्फ', 'छुट्टियाँ', 'तीसरी साँस', 'सब ठीक हो जाएगा', 'शिकस्त', 'रिश्ते-नाते', 'आकाश से झाँकता वह चेहरा', 'सोवियत संघ का पतन क्यों हुआ', 'लाख की चुड़ियाँ' 'रेल चली-रेल चली', 'कामतानाथ - संकलित कहानियाँ', 'कामतानाथ की श्रेष्ठ कहानियाँ', 'मेरी प्रिय कहानियाँ' उल्लेखनीय हैं। उन्होंने 'दिशाहीन', 'फूलन', 'कल्पतरु की छाया', 'दाखला डॉट काम', 'संक्रमण' (एकांकी) 'वार्ड नं० एक' (प्रहसन) 'भारत भाग्य विधाता' और गाइ द मोपांसा की कहानियों पर आधारित नाटक 'औरतें' लिखा। उन्होंने हेनरिक इब्सन की किताब घोस्ट का 'प्रेत' के नाम से अनुवाद भी किया। 

कामतानाथ ने यथार्थ के अंतर्विरोधों को समझकर उन्हें रचनाओं के साँचे में ढाला और पाठकों के बीच लोकप्रियता हासिल की। उनकी कहानियों में कथा-रस का जादू पाठकों के सिर चढ़कर बोलता है। कामतानाथ कानपुर में अभिव्यक्ति संस्था के संरक्षक थे। उन्हें 'पहल सम्मान', 'मुक्तिबोध पुरस्कार', 'यशपाल पुरस्कार', 'साहित्य भूषण' और 'महात्मा गाँधी सम्मान' से नवाज़ा गया। आज के साहित्य को डिजाइनर साहित्य मानने वाले कामतानाथ ने अपने ७५वें जन्मदिवस पर फिल्म अभिनेता नसीरुद्दीन शाह से बातचीत में कहा था कि लेखकों में पहले भी मतभेद होते थे, वाद-विवाद होते थे। लेकिन आज जैसी कटुता नहीं थी, एक-दूसरे को ऊपर-नीचे करने की आज जैसी राजनीति नहीं थी। जैनेंद्र, इलाचंद्र जोशी, अज्ञेय जैसे कथाकार मनोवैज्ञानिक कहानियाँ लिखते थे, दूसरी ओर प्रेमचंद, यशपाल जैसे कथाकार थे। लेकिन शिल्प के महत्त्व के बावजूद ऐसा नहीं होता था कि कथ्य का लोप ही हो जाए। लेखन जमीन से जुड़ा हुआ था। वे कहते थे कि आजकल जीवन में जिस तरह सब कुछ डिजाइनर होता जा रहा है, डिजाइनर फैशन की तरह साहित्य भी डिजाइनर हो गया है। उनका मानना था कि आजकल कोई आंदोलन नहीं है, इसीलिए लेखन में भी विचार नहीं हैं। कामतानाथ जी की प्रसिद्ध कहानी मकान का यह अंश दृष्टव्य है, "मोमबत्ती लेकर उसने कमरे में प्रवेश किया। वहाँ काफ़ी गर्द और कूड़ा था। तख़्त अब भी अपनी जगह पड़ा था। मेज़-कुर्सियाँ शायद भाई अपने साथ ले गया था। अलमारियाँ भी ख़ाली पड़ी थीं। केवल आतिशदान के ऊपर गणेश-लक्ष्मी की मिट्टी की पुरानी मूर्तियाँ रखी थीं, जिनका रंग उड़ चुका था। दीवालों पर कुछ चित्र भी लगे थे। एक चित्र आठ देशों के राष्ट्र निर्माताओं लेनिन, हो ची मिन्ह, गाँधी, सुकार्णो, माओ आदि का था, जिसे उसने कभी किसी पत्रिका से काट कर स्वयं मढ़ा था। चित्रों का उसे विशेष शौक़ था। अपने आप वह उन्हें छठे-आठवें महीने निकाला-बदला करता था; परंतु यह चित्र काफ़ी पुराना था। इसे उसने बाद में कभी क्यों नहीं बदला? इसका कोई कारण उसके पास नहीं था।" इस कहानी में एक मध्यवर्गीय परिवार की कहानी है। बड़ा बेटा अपने पिता द्वारा निर्मित मकान जो अब बिल्कुल जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है, उसे बेच देने के पक्ष में है; जबकि छोटे बेटे को पिता द्वारा बनवाए गए उस जीर्ण-शीर्ण मकान से बहुत लगाव है, वह यह मकान बेचना नहीं चाहता है, वह मकान का जीर्णोद्धार कराना चाहता है। इस मकान की एक-एक वस्तु अपनी कहानी कहती है। सुबह उठते ही वह भी निकल पड़ता है। मकान मरम्मत के लिए नहीं, बल्कि उसी मकान का सौदा करने के लिए।

इसी प्रकार उनकी एक और बेहतरीन कहानियों में 'सोवियत संघ का पतन क्यूं हुआ?' है। इसमें समाजवादी व्यवस्था तथा कम्युनिस्ट पार्टियों में घुसे लंपट बुद्धिजीवियों के तमाम संस्करण इसके जिम्मेदार हैं। अपनी कहानी का अंत वे यों करते हैं, "---अब आप पूछ सकते हैं कि मेरी इस कथा से सोवियत रूस के पतन का क्या संबंध? तो मेरा जवाब होगा कि यदि आप समझते हैं कि इसके लिए मार्क्सवाद के सिद्धांत जिम्मेदार हैं, तो आप सरासर गलत समझते हैं। खोट सिद्धांतों में नहीं, उनके कार्यान्वयन में होती है। आखिर गुणानंद (लंपट) जैसे सभी जगह हैं। भारत में भी और रूस में भी। और गुणानंद तो एक छोटा नमूना है। उसके बड़े संस्करण भी होंगे।"

उनकी कहानी 'शिकस्त' में शराबबंदी के दौर में कार्तिक किस तरह शराब की जुगाड़ करता है। इसमें लेखक ने मिर्जा ग़ालिब से संबंधित मजेदार उद्धरण देकर कहानी को बहुत रोचक बना दिया है। 'इक्कीसवीं सदी की शोक कथा' एक मध्यवर्गीय परिवार की असंवेदनशीलता व मूल्यों के पतन की कथा है। घर में घर की प्रमुख महिला की लाश रखी है, जो किसी की माँ, किसी की पत्नी, किसी की सास है। पति घर में दारू पीकर आराम फरमा रहा है। एक बेटा अपनी परीक्षा की तैयारी के नाम पर अपने मित्र के घर चला जाता है। दूसरा अपने कमरे में लेटा है। बेटे की पत्नी बच्चों के साथ दूसरे कमरे में है। पड़ोसी सिन्हा घंटों से लाश के पास अकेला बैठा है।

'चंदन-विष' उपन्यास दीपावली की रात को जुआ खेलते वक्त एक मामूली से विवाद के कारण खुन्नस खाए पड़ोसी द्वारा दूसरे परिवार की बेटी की पवित्र प्रेम कहानी का भंडाफोड़ करने और बेटी के पिता द्वारा आत्महत्या करने की दुखद त्रासदी है। उनका चार खंडों में प्रकाशित ऐतिहासिक उपन्यास 'काल-कथा' एक लंबे काल-खंड की ऐतिहासिक गाथा है; जिसकी पृष्ठभूमि अवध के उन्नाव इलाके की है।

कामतानाथ का उपन्यास 'यह गुलिस्तां हमारा' आजादी पूर्व के चालीसवें दशक की गाथा है। जिसमें आजादी के आंदोलन के विरुद्ध अँग्रेजों के चाटुकार, अधिकारी आदि मिलकर अमन सभाओं का गठन करा रहे हैं, इन सभाओं में भारतीय आजादी के संघर्ष के खिलाफ जहर उगलकर दुष्प्रचार किया जा रहा है। वहीं सभा में गाँधीजी के विरुद्ध कविता पढ़ी जा रही है। गाँधीजी का नाम आने पर भोले-भाले ग्रामीण बहुत जोरों से उनकी जय बोलते हैं। उन्हें डाँटा जा रहा है, डराया जा रहा है और जब उनसे जार्ज पंचम की जय बुलवाई जाती है, जय तो वह बोल देते हैं, परंतु वह उत्साह नहीं है, जो गाँधीजी की जय बोलने में था।

कामतानाथ जी ने बाल कविताएँ भी लिखी हैं। होली के अवसर पर लिखी कविता का यह अंश दृष्टव्य है,

बंदर ले जा रहा मदारी को रस्सी से बांधे 

सब कुछ उल्टा-पुल्टा दिखता ऐसा होली का रंग
मुझको तो लगता है भइया, पड़ी कुंए में भंग
भइया पड़ी कुंए में भंग।

हिंदी-साहित्य के बारे में 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित एक परिचर्चा में वे कहते हैं,
"---आज स्थिति यह है कि हिंदी-साहित्य का पाठक वर्ग सिमटकर लेखकों तथा साहित्य के शोधकर्ताओं तक रह गया है। सबसे बड़ी समस्या साहित्य और पाठकों के बीच तादात्म्य की है, जिस साहित्य में पाठक को स्वयं अपने जीवन की झलक दिखाई नहीं देती, उससे उसका विमुख होना स्वाभाविक है।"

यह महान साहित्यकार अपने अमूल्य साहित्य की निधि रूपी मणियों को बिखेरते हुए, लखनऊ में लिवर कैंसर की पीड़ा झेलते हुए ०८ सितंबर २०१२ को हमेशा के लिए अनंत यात्रा पर चला गया। पीछे रह गए पत्नी, बेटे आलोक व तीन बेटियाँ इरा, रश्मि आदि। आज भी चाहे कोई साहित्यिक या मजदूर आंदोलन हो, कामतानाथ जी हमेशा याद आते हैं।

कामतानाथ : जीवन परिचय

जन्म

२२ सितंबर १९३४, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

निधन

०७ दिसंबर २०१२ लखनऊ, उत्तरप्रदेश

पत्नी

श्रीमती शशिकांता

संतान

श्री आलोक (पुत्र), रश्मि, इरा, चारु (पुत्रियाँ)

शिक्षा व कार्य-क्षेत्र

  • स्नातकोत्तर (अँग्रेजी), लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

  • कथाकार, नाटककार, अनुवादक

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • समुद्र तट पर खुलने वाली खिड़की

  • सुबह होने तक

  • एक और हिन्दुस्तान 

  • तुम्हारे नाम 

  • काल-कथा(चार खंडों में)

  •  पिघलेगी बर्फ

  •  चंदन-विष

  •  यह गुलिस्तां हमारा

कहानी-संग्रह

  • छुट्टियाँ

  • तीसरी सांस 

  • सब ठीक हो जाएगा

  • शिकस्त, रिश्ते-नाते

  • आकाश से झांकता वह चेहरा

  • लाख की चूड़ियाँ

  • सोवियत संघ का पतन क्यों हुआ?

  • कामतानाथ की संकलित कहानियाँ 

  • कामतानाथ की प्रतिनिधि कहानियाँ

नाटक

  • दाख़ला डाट काम

  • दिशाहीन 

  • फूलन

  • संक्रमण

  • कल्प तरु की छाया

  • भारत भाग्य विधाता

  • औरतें (गाई द मोंपासा की कहानियों पर आधारित)

अनुवाद

  • प्रेत (घोस्ट- हेनरिक इब्सन)

संपादन

  • कथांतर पत्रिका

पुरस्कार व सम्मान

  • पहल सम्मान (मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा)

  • मुक्तिबोध पुरस्कार (मध्य-प्रदेश साहित्य परिषद, भोपाल द्वारा) 

  • यशपाल पुरस्कार (उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा)

  • साहित्य भूषण सम्मान (उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा)

  • महात्मा गाँधी पुरस्कार (उत्तर प्रदेश साहित्य संस्थान द्वारा)

संदर्भ

  • जनसत्ता वार्षिकांक १९९६

  • जनसत्ता वार्षिकांक २०००

  • बया अंक ०१ वर्ष ०१ दिसंबर २००६

  • हंस अगस्त २००६

  • कामतानाथ की संकलित कहानियाँ

  • विकिपीडिया

लेखक परिचय

सुनील कुमार कटियार
जनवादी चिंतक
एम० ए० अर्थशास्त्र, उत्तर-प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त।
स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित,
जनवादी लेखक संघ, उत्तर-प्रदेश की राज्यपरिषद के सदस्य।

मोबाइल - ७९०५२८२६४१, ९४५०९२३६१७
ईमेल - Sunilkatiyar57@gmail.com

4 comments:

  1. नमस्ते सुनील जी, आपने अपने आलेख में कामतानाथ के व्यक्तित्व और रचना संसार पर बख़ूबी प्रकाश डाला है। आपके द्वारा दिए गए कहानियों के उदाहरण-स्वरूप अंश पढ़कर पूरी-पूरी कहानियाँ पढ़ने का मन करने लगा है। ‘इक्कीसवीं सदी की शोक कथा’ में घर की प्रमुख महिला के शव के प्रति उसके घरवालों का उदासीन रहना और पड़ोसी का लाश के पास घंटों अकेले बैठे रहना बहुत मार्मिक लगा। पूरा आलेख बहुत अच्छा लगा। आपको यह रोचक, प्रवाहमय और संतुलित आलेख पढ़ाने के लिए धन्यवाद और बधाई।

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  2. सुनील जी नमस्ते। आपने कामतानाथ जी पर अच्छा लेख लिखा है। लेख के माध्यम से उनके जीवन एवं सृजन की विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई

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  3. नमस्ते सुनील जी, आपके आलेखों में आत्मीयता की जो गर्माहट मिलती है उससे साहित्यकार और उसके कृतित्व से जान-पहचान-सी लगने लगती है। कामतानाथ जी की कोई भी रचना मैंने पढ़ी नहीं है, लेकिन आप द्वारा दिए उद्धरण पढ़कर लगता है जैसे कि सभी ये रचनाएं पढ़ी हों। उनकी बातें अपनी-सी लगती हैं। आपको एक और सार्थक लेख पटल पर रखने के लिए आभार और बहुत बधाई। आपके आगामी लेखों का इंतज़ार रहेगा

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  4. कामतानाथ जी का निधन सन्२०१२ की०८ सितंबर(आलेख में) को हुआ था या ०७ दिसंबर(तालिका में) को?
    ऐसे मंच से इस प्रकार की भूल-चूक की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
    आलेख आए हुए तीन दिन व्यतीत हो चुके हैं; विचित्र बात है कि किसी पढ़ने वाले का ध्यान भी इस तरफ नहीं गया!

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