पिता और चाचा से मिले तसव्वुफ़ के ख़यालात, ब्रज भाषा से मिली मिठास को जिसने अपनी विरासत बनाया हो और मुहब्बत से मिली शदीद इश्क़िया तबियत, ज़बान की सफ़ाई तथा अल्फ़ाज़ की दौलत के सरमाये को ही चीज़ माना हो और बाक़ी सब को बेकार तो कैसे उस शायर को हम ख़ुदा-ए-सुख़न न कहें! उसकी शायरी को इबादत की हद्द तक कैसे न पूजें! वह बख़ूबी जानता था कि उसके द्वारा उठाए ज़लज़ले के आसार लोगों को सदियों बाद भी अपनी गिरफ़्त में रखेंगे,
दाग़े-फिराक़-ओ-हसरते-वस्ल आरज़ू-ए-शौक़
मैं साथ ज़ेरे-खाक़ भी हंगामा ले गया
यह शायर अपने बच्चों के लिए एक वसीयत-नामा छोड़ गया था, जिससे हम सभी ख़ुद को मालदार बनाए हुए हैं। वसीयत में लिखा है, "बेटा, हमारे पास माल-ओ-मता'-ए-दुनिया से कोई चीज़ नहीं है जो आइंदा तुम्हारे काम आए। लेकिन हमारा सरमाया-ए-नाज़ कानून-ए-ज़बान है जिस पर हमारी ज़िंदगी और इज़्ज़त का दारोमदार रहा, जिसने हमें खाक़े-मज़ल्लत (हीनता की धूल) से आसमान-ए-शोहरत तक पहुँचाया। इस दौलत के आगे हम सल्तनत-ए-आलम को हीट (हेय) समझते रहे। तुमको भी इस तरके (विरसा) में यही दौलत देते हैं।"
वहीं ख़ुद के अंदाज़े बयाँ पर फ़ख़्र करने वाले मिर्ज़ा ग़ालिब एक नहीं बार-बार मीर तक़ी 'मीर' के फ़न के बारे में वाह किए बग़ैर न रह सके,
मीर के शे'र का अहवाल कहूँ क्या ग़ालिब
जिसका दीवान कम-अज़-गुलशन-ए-कश्मीर नहीं
इस अज़ीम शायर की शायरी के कुछ नमूनों और ज़िंदगी के कुछ पहलुओं से हम आज रूबरू होंगे।
आगरे में जन्मे और बचपन में मुँह बोले चचा और वालिद के दुलार में पल-बढ़ रहे मुहम्मद तक़ी के लिए ज़िंदगी ने जल्दी ही पलटा खाया, पहले चचाजान और फिर ग्यारह साल की उम्र में वालिद दुनिया से कूच कर गए। सौतेले भाई ने वालिद की हिदायतों के बावजूद छोटे मुहम्मद तक़ी पर मेहरबान नज़र न रखी और मीर को चौदह साल की उम्र में दिल्ली जाना पड़ा। वालिद के रहनुमा दोस्तों समसाम-उद्दौला और अमीर-उल-उमरा ने उनके लिए एक रुपया माहवार मुक़र्रर कर दिया जो उन्हें नादिर शाह द्वारा दिल्ली में फैलाई तबाही तक मिलता रहा। दिल्ली के तबाह होने पर आगरा लौटे लेकिन किसी चचाज़ाद बहन से इश्क़ में पड़ने के कारण रुस्वा करके वापिस दिल्ली भेज दिए गए। उन्हें दीवानगी की हद्द तक इश्क़ हो गया था और कहते थे कि चाँद में उन्हें एक परी दिखती है। इस इश्क़ का अंजाम शदीद दिमाग़ी बीमारी में हुआ। कई जगहों पर उन्होंने कहा है कि दिल्ली में हुए इलाज से वे उस बीमारी से सेहतयाफ़्ता हो गए थे। लेकिन लखनऊ में लिखी लगभग दो सौ अशआर की मसनवी 'ख़्वाब-ओ-ख़्याल' में उन्होंने अपने इस इश्क़ और उसके असरात को बयान किया है। इस मसनवी के शे'र दर्शाते हैं कि दीवानगी उन पर ताउम्र तारी रही। शुरूआती दौर के इन हादसात ने मीर के ज़ेहन पर कभी न मिटने वाले निशान छोड़े, जिनकी झलक समय-समय पर उनकी शायरी में दिखती रही।
दूसरी बार दिल्ली आने पर वे अपने सौतेले भाई के मामू और उस ज़माने के विद्वान सिराजुद्दीन आरज़ू के पास ठहरे और उनकी शागिर्दगी में रहे। बाद में जफ़र अली अज़ीमाबादी और अमरोहा के सआदत अली ख़ान की सरपरस्ती में भी अपने हुनर को तराशा। अपनी आत्मकथा 'ज़िक्र-ए-मीर' में उन्होंने लिखा है कि इन्हीं दोनों ने उन्हें रेख़्ता में लिखने के लिए प्रोत्साहित किया।
रोज़ी-रोटी के लिए इन्हें तमाम जगहों पर अलग-अलग काम करने पड़े और मुख़्तलिफ़ लोगों की मुसाहिबत इख़्तियार करनी पड़ी। बहरहाल किसी तरह दिल्ली में अपना गुज़ारा नादिर शाह और अहमद शाह के रक्तपात तक करते रहे। लखनऊ उन दिनों अपनी बुलंदियों पर पहुँचा और नवाब आसिफ़ुद्दौला ने मीर को लखनऊ बुला लिया। वहाँ वे अपनी वफ़ात (मृत्यु) तक रहे लेकिन लखनऊ उन्हें कभी दिल्ली की तरह न भाया।
मीर को लगभग ९० साल की लंबी ज़िंदगी मिली, जिसमें ७० साल वे सक्रिय रूप से शायरी तो करते रहे, लेकिन ज़िंदगी हंगामाख़ेज़ बनी रही और सुकून का तवील अरसा इन्हें कभी दरयाफ़्त न हुआ। उतार-चढ़ाव भरी ज़िंदगी में मीर ने जो शायरी की, उसकी तारीफ़ करने से कोई भी बड़ा शायर आज तक बचा न रह सका। ज़माने के बदलते मिज़ाजों के साथ शायरी के रंग और ज़मीन बदलते रहे लेकिन मीर की शायरी की मक़बूलियत का सिक्का हर दौर में चलता रहा। अब नासिख़ हों या ग़ालिब, इक़बाल हों या फैज़, ज़ौक़ हों या हसरत मोहानी, नासिर काज़मी हों या जॉन एलिया - हर किसी पर लफ़्ज़-ओ-मानी के इस शायर का जादू चलता रहा और आज भी सर चढ़कर बोल रहा है। नासिर काज़मी तो साफ़ अल्फ़ाज़ में कहते हैं,
शे'र होते हैं मीर के, नासिर
लफ़्ज़ बस दाएँ-बाएँ करता है
इस सिलसिले में रशीद अहमद सिद्दीक़ी ने कहा है, "आज तक मीर से बेतकल्लुफ़ होने की हिम्मत किसी में नहीं हुई। यहाँ तक कि आज उस पुरानी ज़बान की भी नक़ल की जाती है। जिसके नमूने जहाँ-तहाँ मीर के कलाम में मिलते हैं, लेकिन अब रद्द हो चुके हैं। श्रद्धा के नाम पर किसी के नुक़्स की पैरवी की जाए, तो बताइए वह शख़्स कितना बड़ा होगा।"
मीर को ख़ुद भी पता था कि उनकी शायरी का दर्जा क्या है,
तुम कभी मीर को चाहो कि वो चाहें हैं तुम्हें
और हम लोग तो सब उनका अदब करते हैं
और क्यों न करें? मीर न केवल शायरी बल्कि अवाम की ज़बान में भी ज़िंदा हैं, उनके कितने ही मिसरे मुहावरे बन गए हैं,
शिकवा-ए-आब्ला अभी से मीर
है प्यारे हनूज़ दिल्ली दूर
या फिर यह,
मीर आमदन भी कोई मरता है
जान है तो जहान है प्यारे
दो सौ साल से ज़्यादा पुरानी होकर भी उनकी शायरी बिलकुल नई-सी है और उसमें इश्क़ ख़ून बन कर दौड़ता है,
मुहब्बत ने ज़ुल्मत से काढ़ा है नूर
न होती मुहब्बत न होता ज़ुहूर
स्व० प्रो० गोपीचंद नारंग मीर की इश्क़िया शायरी के बारे में कहते हैं, "मीर की शायरी को दैहिक-प्रेम (इश्क़-मजाज़ी) या आध्यात्मिक-प्रेम (इश्क़-हक़ीक़ी) की परंपरागत शैली से समझना, उस पर अन्याय करने के सदृश है… गहरी शायराना अनुभूति में अंतःताप और सौंदर्य-विवेक की सहायता से उन्होंने अपने अनुभवों को ऐसे पीड़ामय और प्रभावकारी मीठे स्वर में प्रकट किया है कि आपबीती, जगबीती मालूम होती है… उनका प्रेम चूँकि भौतिक और नैसर्गिक है, उनके यहॉँ प्रेम संबंधी वाक़्यात का चित्रण और जिस्मानी प्रेम-वर्णन की झलक भी है। परंतु इसका सौंदर्य संबंधी स्तर बहुत ऊँचा है।"
ऐ नुकीले, ये थी कहाँ की अदा
खुब गई दिल में तेरी बांकी अदा
जादू करते हैं इक निगाह के बीच
हाय रे चश्मे-दिलबरा की अदा
दिल चला जाए है ख़िराम (इठलाती चाल) के साथ
देखी चलने में, उन बुताँ की अदा
या फिर,
जब मिलने का सवाल करूँ हूँ, ज़ुल्फ़-ओ-रुख़ दिखलाते हो
बरसों मुझ को यूँ ही गुज़रे, सुब्हो-शाम बताते हो
इश्क़ को घुट्टी में मिलाकर उनके वालिद ने पिलाया था, उनके पिता दरवेश स्वभाव के थे और उनसे अक्सर कहा करते थे, "ऐ पिसर! इश्क़ बिवर्ज़, इश्क़ अस्त कि दरीं कारख़ाना मुतसर्रिफ़ अस्त" (ऐ बेटे, इश्क़ इख़्तियार करो। इश्क़ ही इस कारख़ाने (दुनिया) को चलाने वाला है और इस पर छाया हुआ है।)
मीर के यहाँ आसक्ति और विह्वलता उनके नाकामयाब इश्क़ के कारण पाई जाती है और उससे उनकी शायरी में ज़मीं से आसमान तक इश्क़ ही इश्क़ भरा दीखता है; उनके यहाँ इश्क़ जीवन का मूल तत्त्व है। उनकी शायरी तग़ज़्ज़ुल (ग़ज़ल का आतंरिक सौंदर्य) और तसव्वुफ़ (आध्यात्म) के संगम की पराकाष्ठा है,
इश्क़ से नज़्मे-कुल है यानी इश्क़ कोई नाज़िम है ख़ूब
हर शै जो याँ पैदा हुई है, मौज़ूँ कर लाया है इश्क़
ज़ाहिर, बातिन, अव्वल, आख़िर, पाईं बाला, इश्क़ है सब
नूरो-ज़ुल्मत, मानी ओ सूरत, सब कुछ आप हुआ है इश्क़
मौज ज़नी है, मीर फ़लक तक हर लुज्जा (भंवर) है तूफां ज़ा (तूफ़ान पैदा करने वाला)
सर ता सर है तलातुम जिस का वो आज़म दरिया है इश्क़
मीर की शायरी में अक्सर सहल और अवाम की ज़बान के अल्फ़ाज़ मिलते हैं और लगता है जैसे कि शायर बातचीत कर रहा हो, लेकिन उनकी शायरी में तसव्वुफ़ का तिलिस्म होता था जो अल्फ़ाज़ की परतों के नीचे छिपा होता था।
सरापा में जिस जां नज़र कीजिए
वहीं उम्र अपनी बसर कीजिए
उनके इस हुनर को समझने और उसकी नक़ल करने की नाकामयाब कोशिश लगातार होती रहती है। मीर तो आसान शब्दों में बता गए थे,
न सहल हमको जानो, फिरता है फ़लक बरसों
तब ख़ाक के परदे से इंसान निकलते हैं
मीर की शायरी को लोग तिलिस्म कहते हैं और उसे समझ जाने पर ख़ुद को हुनरमंद समझते हैं,
ले साँस भी आहिस्ता कि नाज़ुक है बहुत काम
आफ़ाक़ की इस करगह-ए-शीशागरी का
मीर की अधिकांश ज़िंदगी बदहाली और ग़ुरबत में गुज़री, लेकिन अपने फ़न और ग़ुरूर से उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। लखनऊ में एक समय था जब मस्जिद की सीढ़ियों पर पड़े रहते थे। नवाब की सवारी एक बार उधर से गुज़रने पर सलाम के लिए खड़े नहीं हुए। नवाब को ताज्जुब और हैरत हुई। नवाब को जब असलियत पता चली तो अगली सुबह उन्होंने दस हज़ार अशर्फियों के साथ अपने लोगों को ससम्मान उन्हें दरबार में बुलवा भेजा। मीर ने यह कह कर वहाँ जाने से साफ़ इंकार कर दिया कि किसी अज़ीम शायर को इस तरह से अक़ीदत नहीं पेश की जाती, नवाब को ख़ुद आना चाहिए था। उनके एहसास-ए-ख़ुद्दारी के ऐसे तमाम क़िस्से हैं। वहीं अवाम के बीच वे बहुत घुल-मिलकर रहते थे और उलमा वग़ैरह अगर ख़ुदपसंदी के नशे में उनसे शायरी पढ़ने की गुज़ारिश करते थे तो उन्हें जवाब में मीर कहते थे कि मेरी शायरी को समझने के लिए शर्त है कि सुनने वाले ने कुछ वक़्त जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बिताया हो।
शेर मेरे हैं सब ख़्वास पसंद
पर मुझे गुफ़्तगू अवाम से है
मीर की शायरी के सहल मालूम पड़ने के बारे में गोपीचंद नारंग का कहना है कि मीर की शायरी में दूसरे शायरों के मुक़ाबले क्रियापद अधिक पाए जाते हैं, जबकि ग़ालिब, इक़बाल वग़ैरह संज्ञा और विशेषण पदों का अधिक इस्तेमाल करते हैं। क्रिया पदों के ज़्यादा होने की वजह से यह वहम होता है कि शायरी बहुत आसान है, लेकिन उसका जौहर तो आसान बातों में बड़ी बात कह जाने का ही है,
मीर सन्नाह (जौहरी) है मिलो इससे
देखो बातें तो क्या बनाता है
मीर के लिए इबादत और मज़हब इंसानियत तक ही महदूद थे। बिना किसी झिझक और संकोच अपने मज़हब के बारे में यूँ कहा है,
मीर के दीन-ओ-मज़हब को अब पूछते क्या हो उन ने तो
क़श्क़ा खींचा (तिलक लगाया) दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
आज के दौर में जहाँ अपने मज़हब को जताने और ख़ुद को मज़हबी बताने की हर तरफ होड़ लगी हुई है तो वहीं कोई भी मुग़ल बादशाह हज पर नहीं गया था। मीर का यह शेर कटाक्ष है या तथ्य, आप ख़ुद फ़ैसला कीजिए,
किस का काबा कैसा क़िबला कौन हरम है क्या एहराम
कूचे के उसके बाशिंदों ने सबको यहीं से सलाम किया
सूफ़ी दरवेशों के बीच बचपन बीता, ज़िंदगी पुर-मुश्किलात रही और ख़यालों की ऐसी बुलंदी इस शायर ने पाई कि तसव्वुफ़ (आध्यात्म) की बातों को तग़ज़्ज़ुल घोल अपने अनेक अशआर में पिरोया और सुनने-समझने वालों को ख़ूबसूरती की एक अलग कैफ़ियत दी। छह दीवान, तक़रीबन बारह हज़ार अशआर के इलावा क़सीदों, मसनवियों, रुबाइयों के साथ नस्र (गद्य) की तीन किताबों (नकात-उल-शोरा, ज़िक्र-ए-मीर, फ़ैज़-ए-मीर) के रूप में यह शायर साहित्य का एक ला-फ़ानी ज़ख़ीरा छोड़ गया है। उनका एक फ़ारसी दीवान भी मिलता है। उनके इस ज़ख़ीरे में पाठक जब-जब ग़ोते लगाता है, अपने लिए हर ज़मीन (विचार-भूमि) से जुड़े जवाहरात निकाल ही लाता है। अब चलते-चलते तसव्वुफ़ से जुड़े कुछ अशआर का लुत्फ़ उठाइए,
माहिय्यत-ए-दो-आलम खाती फिर है ग़ोते
एक क़तरा ख़ून ये दिल तूफ़ान है हमारा
ज़बान रख ग़ुंचा-सा अपने दहन में
बंधी मुट्ठी चला जा इस चमन में…
रखा कर हाथ दिल पर आह करते
नहीं रहता चराग़ ऐसी पवन में
इस अज़ीम शायर की कब्र का तो लखनऊ में किसी को पता नहीं, वह गुमनामी की गर्त में कहीं ग़ायब हो गई या शहर के विकास कार्यों पर परवान चढ़ गई! बहरहाल सिटी स्टेशन के पास एक दोराहे पर खड़ा निशाने-मीर ज़रूर है, जिस पर यदा-कदा शायरी और मीर के प्रति श्रद्धा रखने वाले पहुँचकर जम रही बेरुख़ी की धूल को पोंछ आते हैं।
गई उम्र दर बंद-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल
सो इस फ़न को ऐसा बड़ा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से मीर
जहाँ में तुम आए थे क्या कर चले
अगले साल मीर की ३०० वीं जयंती होगी। ढाई सौ साल से लोग उनकी शायरी से अपनी ज़िंदगी को समृद्ध और सार्थक बनाते आ रहे हैं, कितने ही लोगों को उससे व्यावसायिक लाभ भी हुए हैं। लेकिन उनके नाम का, उनके क्या किसी भी महान साहित्यकार के नाम का, हमारे यहाँ यथा-योग्य स्मारक नहीं मिलता। हमारी ख़िराजे-अक़ीदत चलो इतनी ही रहे कि हम इन अज़ीम हस्तियों को ख़ूब पढ़ें और दूसरों को उनके बारे में बताएँ।
न रक्खो कान नज़्मे शायराना-ए-हाल पर इतने
चलो टुक मीर को सुनने कि मोती-से पिरोता है
संदर्भ
Rekhta.org
उर्दू ग़ज़ल एवं भारतीय मानस व संस्कृति, गोपीचंद नारंग, अनुवाद अंबर बहराइची
Tuk 'Meer' Ko Suno | Different aspects of Meer's Poetry | Gopi Chand Narang | Jashn-e-Rekhta
Jaan Hai To Jahaan Hai Pyaare! Meer Taqi Meer | Rekhta Studio
लेखक परिचय
प्रगति टिपणीस
पिछले तीन दशकों से मॉस्को, रूस में रह रही हैं। शिक्षा इन्होंने अभियांत्रिकी में प्राप्त की है। ये रूसी भाषा से हिंदी और अँग्रेज़ी में अनुवाद करती हैं। आजकल एक पाँच सदस्यीय दल के साथ हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर काम कर रही हैं। मॉस्को की सबसे पुरानी भारतीय संस्था 'हिंदुस्तानी समाज, रूस' की सांस्कृतिक सचिव हैं। हिंदी से प्यार करती हैं और मॉस्को में यथा संभव हिंदी के प्रचार-प्रसार का काम करती हैं।
प्रगति, शायरों के शायर मीर तक़ी ‘मीर’ के जीवन के विभिन्न पहलुओं से बहुत रुचिकर तरीके और शैली में मिलाया है तुमने। इस सारगर्भित और जानकारीपूर्ण आलेख के लिये बहुत-बहुत बधाई और धन्यवाद। तुम्हारी कलम यूँ ही चलते रहे और इससे एक से एक उम्दा रचनाएँ निकलती रहें।
ReplyDeleteबहुत सुंदर लेख
ReplyDeleteआपको हार्दिक बधाई 🙏🙏
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ReplyDeleteअब तो जाते हैं मयकदे से मीर
Deleteमिलेंगे गर खुदा लाया !
बेहतरीन शायर पर बढ़िया आलेख के लिए दिली मुबारक प्रगति !
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ReplyDeleteप्रगति जी नमस्ते। आपने एक बेहतरीन लेख हम पाठकों तक पहुँचाया। अज़ीम शायर मीर पर लिखे इस लेख ने उनके कलाम से एक बार फिर से रूबरू होने का मौका दिया। उनके चुनिंदा अशआर लेख को शायराना बना रहे हैं। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी, मीर तक़ी मीर पर लिखे आपकृ आलेख ने मन मोह लिया।
ReplyDeleteजितनी सुंदर आपकी लेखन शैली है, उतनी ही सटीक भाषा भी।
एक बेहतरीन लेख के लिए आपको बहुत बधाई।
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ReplyDeleteप्रगति जी,
मीर तकी मीर मेरे पसंदीदा शायर है। मुझे हमेशा से उनके बारे मे पढने और जनना बहुत अच्छा लगता है। आपने उनका जानकारी भरा बहुत ही खुबसुरत लेख लिखा है। मीर तक़ी मीर के बारे में आम धारणा यह है कि वह टूटे हुए दिल, दुनिया से परेशान इंसान थे जो दर्द-पीड़ा में डूबे अश्आर ही कहते थे। लेकिन दुनिया की दूसरी चीज़ों के साथ साथ मीर को जानवरों से भी गहरी दिलचस्पी थी जो उनकी मसनवियों और आत्म कथात्मक घरेलू नज़्मों में बहुत ही सृजनात्मक ढंग से नज़र आती है। दूसरे शायरों ने भी जानवरों के बारे में लिखा है लेकिन मीर के अशआर में जब जानवर ज़िंदगी का हिस्सा बन कर आते हैं तो उनमें मानवीय गुणों और विशेषताओं का भी रंग आ जाता है। मीर की मसनवी 'मोहिनी बिल्ली' की बिल्ली भी एक पात्र ही मालूम होती है। 'कुपी का बच्चा' में बंदर का बच्चा भी बहुत हद तक इंसान नज़र आता है। मसनवी 'मोर नामा' एक रानी और एक मोर के इश्क़ की दुखद दास्तान है जिसमें दोनों आख़िर में जल मरते हैं। इसके अलावा मुर्ग़, बकरी आदि पर भी उनकी मसनवियां हैं।
उनकी मशहूर मसनवी 'अज़दर नामा' जानवरों के नाम, उनकी आदतें और विशेषताओं के वर्णन से भरा हुआ है। उसमें केंद्रीय पात्र अजगर के अलावा तीस जानवरों के नाम शामिल हैं। मोहम्मद हुसैन आज़ाद ने लिखा है कि मीर ने उसमें ख़ुद को अज़दहा कहा और दूसरे सभी शायरों को कीड़े मकोड़े माना है, हालांकि उसमें किसी का नाम नहीं लिया गया है।
प्रगति बहुत अच्छा लेख। मीर मेरे पसंदीदा शायरों की फ़ेहरिस्त में पहले दूसरे नंबर पर हमेशा से रहे। लेख के बाद वाले हिस्से में जहाँ तुम ने उनके कुछ ख़ूबसूरत अश्रार सामने रखे, उन में से कुछ को समझने के लिये कुछ मदद लेनी पड़ी पर तुम्हारा लिखने का बेबाक स्टाइल मुझे खूब भाया। बढ़िया !
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