'हिंदी साहित्य संवर्धिनी सभा' कलकत्ता द्वारा प्रकाशित इनके नाटक 'रणधीर प्रेममोहिनी' में इनका एक छोटा सा परिचय दिया है, जिसमें हिंदी के प्रति इनके प्रेम का वर्णन है। इसमें इनका एक छोटा सा रोचक संस्मरण है जो इस प्रकार है, "एक बार आप पंडित प्रतापनारायण मिश्र के यहाँ मिलने गए और बड़ी नम्रतापूर्वक इन्होंने उन्हें एक मोहर नज़र करनी चाही। इस पर पंडित प्रतापनारायण बेतरह बिगड़े और बोले आप हमारे पास अपने धन की गरूरी बतलाने आए हो। इसके उत्तर में इन्होंने नम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर उत्तर दिया कि नहीं महाराज मैं तो मातृभाषा के मंदिर पर अक्षत चढ़ाता हूँ।" यह थे लाला श्रीनिवास दास जो केवल निस्वार्थ भाव से हिंदी भाषा की सेवा में लगे थे, जब भी कोई हिंदी प्रेमी या साहित्यकर्मी इनसे मिलने आता तो ये बड़े मन से सारे काम छोड़कर उनकी सेवा में लग जाते।
बड़ा साहित्यकार अपनी रचनाओं की संख्या से नहीं बल्कि उनकी गुणवत्ता से जाना जाता है, लाला जी इस बात का प्रमाण हैं। उन्होंने केवल पाँच रचनाओं का सृजन किया, जिसमें चार नाटक तथा एक विख्यात उपन्यास 'परीक्षागुरु' शामिल है। अधिकांश विद्वानों ने इसे हिंदी का पहला मौलिक उपन्यास स्वीकार किया है। यह उपन्यास १८८१ ई० में प्रकाशित हुआ। इसकी भाषा परिनिष्ठित हिंदी नहीं है, जो हो भी नहीं सकती थी। क्योंकि यह वह समय था जब मानक हिंदी के निर्माण की प्रक्रिया चल रही थी और उस प्रक्रिया में इस उपन्यास की भाषा की भी बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। पश्चिमी आधुनिकता का दिखावा उस समय के उच्च घरानों में देखने को मिलता था, जिसका विरोध भी इस उपन्यास में खुल कर हुआ है। लाला श्रीनिवास दास जिस पृष्ठभूमि से आते हैं, उनका मेल मिलाप भी इस तरह के परिवारों से अवश्य रहा होगा, जिससे उन्हें इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा मिली होगी। लाला ब्रजकिशोर के प्रयासों से एक साहूकार लाला मदनलाल को सही मार्ग में लाने की कथा इस उपन्यास में है। यद्यपि आज पाठक को यह उपन्यास अत्यधिक प्रेरक और शिक्षाप्रद लग सकता है पर इसकी बुनावट उस दौर में की गई जब इस विधा का बहुत अधिक प्रचलन नहीं था। उस समय में लोग प्रेरक प्रसंग और पौराणिक कहानियाँ पढ़ना ही अधिक रुचिकर मानते थे। नया प्रयोग होते हुए भी यह जनता के मन के अनुरूप ही था। लाला जी इसकी भूमिका में लिखते हैं, "अपनी भाषा मै यह नई चाल की पुस्तक होगी,.......यह सच है कि नई चाल की चीज देखने को सबका जी ललचाता है परंतु पुरानी रीति के मन मै समाए रहने और नई रीति को मन लगाकर समझने में थोड़ी मेहनत होने सै पहले पहल पढ़ने वाले का जी कुछ उलझने लगता है और मन उछट जाता है।" यह भाषा कुछ व्याकरणिक रूप से अशुद्ध लग सकती है पर यह दिल्ली और आसपास के क्षेत्र की बोली से प्रभावित भाषा है इसलिए 'में' के स्थान पर 'मै' अथवा 'से' के स्थान पर 'सै' आदि सहायक क्रिया पूरे उपन्यास में इसी प्रकार है।
इसके अतिरिक्त उनकी एक और रचना बहुत अधिक विख्यात और चर्चित हुई, जिसने आरंभिक हिंदी में एक नई विधा आलोचना का मार्ग भी प्रशस्त किया। यद्यपि उनकी इस रचना को उस समय बहुत कटु टिप्पणियों का सामना करना पड़ा। यह कृति थी, 'संयोगिता स्वयंवर' नाटक। यह नाटक पृथ्वीराज चौहान द्वारा संयोगिता के हरण पर आधारित घटना से प्रेरित था जिसे लाला जी ने नाटक के स्वरूप में परिवर्तित कर दिया। बदरीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी ने इस नाटक की आलोचना सबसे पहले अपने पत्र आनंद कादंबिनी में की। यह आलोचना से अधिक अन्य लोगों द्वारा इस नाटक पर की गई टिप्पणी का प्रत्युत्तर है जिसके संबंध में विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी जी लिखते हैं, "ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों ने इस नाटक की आवश्यकता से अधिक प्रशंसा कर दी थी।" यद्यपि इस नाटक में कई खामियाँ निकाली गई और इसकी आलोचना भी खूब हुई। लेकिन इसकी ख्याति से पता चलता है कि लोगों ने इसे बहुत अधिक रुचि से पढ़ा, जिसे एक रचना की सफलता कहा जा सकता है। जैसे चंद्रकांता उपन्यास साहित्य की कसौटी में भले ही ना उतरता हो पर उसने लोगों को हिंदी सीखने पर मजबूर कर दिया। इसके अतिरिक्त बालकृष्ण भट्ट ने अपने प्रख्यात पत्र 'हिंदी प्रदीप' में भी इस नाटक की आलोचना 'सच्ची समालोचना' के नाम से प्रकाशित की। इस आलोचना में उन्होंने नाटक के साथ लाला जी को भी खूब खरी-खरी सुनाई। विश्वनाथ त्रिपाठी जी इस संबंध में लिखते है, "पं० बालकृष्ण भट्ट ने संयोगिता स्वयंवर की आलोचना करते समय इस बात पर बल दिया है कि किसी समय के लोगों के हृदय की क्या दशा थी और spirit of the time क्या थे, इनका पता लगाए बगैर ऐतिहासिक कथानकों का उपयोग साहित्य रचना में नहीं किया जा सकता।" इस प्रकार भारतेंदु युग के नाटकों में यह नाटक भी अपनी एक गहरी छाप छोड़ता है।
इस नाटक के अलावा उनके नाटक हैं, 'तप्तासंवरण', 'प्रह्लाद चरित्र' और 'रणधीर और प्रेममोहिनी।' तप्तासंवरण नाटक (१८७४ ई०) उस समय हरिश्चंद्र मैगज़ीन में छपा था। बाद में सन १८८३ में यह पुस्तक रूप में प्रकाशित हुआ। यह तप्ता और संवरण की पौराणिक कहानी का नाट्य रूपांतरण है। इसमें तप्ता के संवरण के ध्यान में लीन रहने और गौतम ऋषि द्वारा उसे शाप देने की घटना का वर्णन है जिसका बाद में ऋषि द्वारा निवारण किया गया, यह घटना शकुंतला नाटक की घटना से कुछ कुछ मिलती हुई दिखती है। इसी तरह प्रह्लाद चरित्र ग्यारह दृश्यों में विभाजित एक बड़ा नाटक है। रणधीर और प्रेममोहिनी नाटक को शेक्सपियर के रोमियो एंड जूलियट का छायानुवाद भी माना जाता है। इस नाटक ने भी उस समय लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। दुखांत नाटक होने के कारण भारतीय साहित्य में इसका इतना चलन नहीं हुआ परंतु फिर भी यह कई लोगों तक पहुँचा, क्योंकि शेक्सपियर को उस समय का शिक्षित मध्यवर्ग काफी पढ़ता था और यह उनके ही नाटक का अनुवाद माना गया। इस नाटक की भाषा परीक्षागुरु की भाषा से अधिक परिमार्जित और व्याकरणिक रूप से शुद्ध दिखती है। उदाहरणार्थ इसका प्रारंभ इस प्रकार है,
{चंपा पान लगाकर पानदान में रखती है और मालती प्रेममोहिनी की रत्नजड़ित प्रतिमा ले कर आती है}
चंपा : (देखकर) प्यारी ये क्या लायी है? क्या प्रेममोहिनी की प्रतिमा है? अहा! ये तो बड़ी सुन्दर! ........
मालती : बस बहन क्षमा करो तुम्हारी परख मैंने देख ली। .......
ऐसी भाषा देखकर यह नहीं लगता कि ये हिंदी का बहुत आरंभिक रूप है।
इससे यह भी पता चलता है कि लाला जी पाश्चात्य साहित्य को लेकर भी सजग थे। अपने व्यवसाय में व्यस्त रहते हुए भी वे साहित्य सेवा के लिए समय निकाल ही लेते थे। एक सजग साहित्यकार वही होता है, जिसका अध्ययन विशद हो, जिससे प्रयासों से उसके साहित्य का परिमार्जन होता रहे। लाला श्रीनिवासदास के नाटकों में विविधता है, उस काल के अनुसार ही उनका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। आज की कसौटी पर हम आरंभिक गद्य को नहीं तौल सकते। निष्कर्षतः कहा जा सकता है वर्तमान गद्य की नींव भारतेंदु युग के ऐसे विद्वान साहित्यकारों की रचनाओं में देखी जा सकती है।
संदर्भ
- हिंदी साहित्य का इतिहास : आचार्य रामचंद्र शुक्ल
- हिंदी आलोचना : विश्वनाथ त्रिपाठी
- रणधीर और प्रेममोहिनी : लाला श्रीनिवास दास
लेखक परिचय
स्नातकोत्तर हिंदी, किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
अनुवाद डिप्लोमा, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय
जेआरएफ हिंदी, शोधार्थी, सोबन सिंह जीना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा (उत्तराखंड)
मोबाइल - 8954940795
ईमेल - vineetkandpal1998@gmail.com
विनीत जी नमस्ते। आपने लाला श्रीनिवास दास जी पर रोचक लेख लिखा है। लेख से उनके जीवन एवं सृजन का सुंदर परिचय मिला। आपको इस लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteआपका आभार दीपक जी
Deleteबहुत से ज़रूरी तथ्य इसमें शामिल हैं। विनीत की सधी हुई भाषा तो है ही क़ाबिल ए तारीफ़
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Deleteविनीत जी, आप प्रत्येक आलेख में अपने कथ्य और लेखन शैली से पाठकों को प्रभावित करते हैं और साहित्यकार का समग्र-सा चित्र उकेरते हैं। यह आलेख भी इन सभी बिंदुओं पर पूर्णतः खरा उतरता है। सुंदर और सजग लेखन के लिए आपको बधाई और आभार।
ReplyDeleteआपका बहुत बहुत धन्यवाद
Deleteसुंदर लिखा विनीत ! और भी अच्छा लिखोगे ऐसी आशा और विश्वास है !
ReplyDeleteआभार मैम कोशिश जारी है
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