बंद्योपाध्याय अपने समय के बांग्ला उपन्यासकारों में सबसे अधिक प्रसिद्ध रहे। ताराशंकर जी ने अपने साहित्य में प्रादेशिक जीवन को व्यापक रूप में चित्रित किया है। साहित्य के अध्येताओं का मानना है कि लेखक के अपने साहित्य में प्रादेशीय जीवन का यथार्थ चित्रण करते समय ऐसा प्रतीत होता है कि किसी फोटोग्राफर ने समाज का यथार्थ चित्र उतारकर रख दिया है। ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने भारतीय साहित्य की समृद्धि में उल्लेखनीय योगदान दिया है। इनके साहित्य पर आधारित अनेक फिल्मों का निर्माण भी हुआ।
पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले में लाभपुर नाम का एक गाँव है। लोक कथाओं में लाभपुर अटट्हासा नाम से प्रसिद्ध है और यह उन पवित्र स्थानों में से एक है जहाँ माता सती के शरीर के छिन्न भिन्न अंग गिरे थे। लाभपुर में शक्ति और विष्णु दोनों ही संप्रदाय सशक्त हैं। इसी गाँव में ताराशंकर बंद्योपाध्याय का जन्म २३ जुलाई, १८९८ को हुआ। उनके पिता थे हरिदास बंद्योपाध्याय और मॉं का नाम प्रभावती देवी था। उनके घर में माता तारा की नियमित पूजा होती थी। मॉं और पिता दोनों धर्मनिष्ठ और कर्तव्य परायण थे। बचपन से ही ताराशंकर की नींद उनके गाँव में बाउल, वैष्णव और शाक्त गायकों का गाना सुनते हुए ही खुलती थी जो सुबह सुबह दान दक्षिणा लेने दरवाजे पर आया करते थे और ग्रामीण उन्हें कभी मना भी नहीं कर पाते थे। ताराशंकर अपने पिता की सबसे बड़ी संतान थे, उनके दो भाई और एक बहन भी थी। आठ वर्ष की आयु में इनके पिता की मृत्यु हो गई थी। माँ पटना के शिक्षित परिवारों से थीं। ताराशंकर की बुआ वैधव्य के बाद उनके पिता के घर रहने लगी थी। सही और गलत की गहरी समझ और मूल्यों के उच्च मापदंडों को रखने वाली माँ और बुआ इन दोनों महिलाओं ने ताराशंकर के जीवन के प्रारंभिक वर्षों में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उनकी माँ किस्सागोई में कुशल थीं।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने १९१६ में लाभपुर के यादव लाल इंग्लिश हाई स्कूल से मैट्रिक पास की और आगे की पढ़ाई के लिए कलकत्ता चले गए। वहाँ उन्होंने सेंट जेवियर्स कॉलेज में दाखिला लिया, लेकिन संदिग्ध राजनीतिक गतिविधियों के कारण उन्हें सेंट जेवियर्स छोड़ना पड़ा। कलकत्ता में ही उनकी मुलाकात क्रांतिकारी बाघा जतिन से हुई। वहाँ से गाँव लौटकर जमींदारी की देखरेख और गाँव के सामाजिक कार्यों में रुचि लेने लगे और अपनी संवेदनाओं को साहित्य-सृजन में अभिव्यक्त करने लगे। समाज-सेवा के साथ राजनीति में भी सक्रिय हुए। १९३० में असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें जेल जाना पड़ा और इस दौरान उन्हें राजनीतिक दलबंदी और पारस्परिक संघर्षों को देखने समझने का मौका मिला। जिससे उनको राजनीति से वितृष्णा हो गई और जेल से बाहर आते ही उन्होंने घोषणा कर दी, "आंदोलनों के पथ से विदा। मैं अब साहित्य के पथ से मातृभूमि और स्वाधीनता-युद्ध की सेवा करूँगा।" यह संवेदनशील व्यक्तित्व का ही समर्पण रहा कि उन्होंने अपना शेष जीवन अपनी घोषणा को समर्पित कर दिया और अनेक साहित्यिक रचनाओं का प्रणयन किया। ताराशंकर सुभाष चंद्र बोस के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपना पहला उपन्यास 'चैताली घुरनी' उनको समर्पित किया था।
लंबे साहित्यिक जीवन में ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने अनेक ग्रंथों की रचना की जिसमें उपन्यास, कहानी, कविता, नाटक, जीवनी, यात्रा-वृत्त आदि सभी विधाओं की रचनाएँ शामिल हैं। प्रारंभिक दौर में वे कविता लिखते थे और १९२६ में 'त्रिपत्र' शीर्षक से उनकी कविताओं का संग्रह साहित्यिक पत्रिका भारतवर्ष में प्रकाशित हो चुका था। ताराशंकर ने बाद में बहुत कम कविताएँ लिखीं, वे गद्य लेखन के प्रति समर्पित हो गए और उन्होंने उपन्यास, कहानी, नाटक, समीक्षा और संपादकीय लिखे। भिन्न-भिन्न पत्रिकाएँ जैसे काली कमल, कलोल, उपासना, धूप छाया, आदि में उनकी रचनाएँ छपती थी। ताराशंकर बंद्योपाध्याय के लेखन के दो स्तंभ स्थायी थे, माटी और मानुष, जहाँ माटी का ममत्व था और मनुष्य की महिमा।
आजकल लाभपुर ताराशंकर के गाँव के रूप में बहुत अधिक प्रसिद्ध है और वहाँ ताराशंकर बंद्योपाध्याय नाम का एक संग्रहालय भी बनाया गया है, लेकिन उससे पहले अपने जीवनकाल में उनके गाँव के लोग इस अजीब से आदमी को समझ नहीं पाते थे। गाँव में लोग उस आदमी उपेक्षा करने लगते हैं जो अलग किस्म का होता है। एक मसले पर ताराशंकर को दुश्मनी भी झेलनी पड़ी थी। उन्होंने ग्राम समाज की आलोचना के विरुद्ध उस आदमी का साथ दिया था जिन्होंने अपनी लड़की का विवाह अभी हाल ही में विलायत से लौटे लड़के के साथ कर दिया था।
१९३२ में ताराशंकर कलकत्ता आ गए और पहली बार शांतिनिकेतन में रवींद्रनाथ टैगोर से मिले। रवींद्रनाथ टैगोर से उनकी मुलाकात ग्राम विकास कार्य के सिलसिले में हुई थी। ताराशंकर ने अपना उपन्यास ‘राय कमल’ और कहानी संग्रह 'छलनामयी' रवींद्रनाथ टैगोर को सौंपे। रवींद्रनाथ टैगोर को ताराशंकर की लेखनी बहुत पसंद आई और उन्होंने उसकी प्रशंसा की। उन्होंने कहा कि बांग्ला साहित्य में ताराशंकर बंद्योपाध्याय जैसा ग्रामीण विषय का चित्रण कहीं भी नहीं मिलेगा। ताराशंकर बंद्योपाध्याय ने १९४२ में बीरभूम जिला साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की और बंगाल में फासिस्ट-विरोधी लेखक और कलाकार संघ के अध्यक्ष बने। १९४४ में उन्होंने कानपुर बंगाली साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की, जो वहाँ रहने वाले अप्रवासी बंगालियों द्वारा आयोजित किया गया था। १९४७ में उन्होंने कोलकाता में आयोजित ४७वें 'प्रभास बंगा साहित्य सम्मेलन' का उद्घाटन किया और कलकत्ता विश्वविद्यालय से शरत मेमोरियल पदक प्राप्त किया। १९५२ में उन्हें विधान सभा का सदस्य नामित किया गया। वे १९५२-६० के बीच पश्चिम बंगाल विधान परिषद के सदस्य थे और १९६०-६६ के बीच संसद के राज्यसभा के सदस्य।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय के लेखन की विशेषता थी कि वे प्रादेशिक जीवन का व्यापक रूप में चित्रण करते थे उनके साहित्य को पढ़ते हुए ऐसे लगता था कि आप चलचित्र देख रहे हैं, संभवतः यही उनकी लोकप्रियता का कारण भी था। गाँव की मिट्टी के प्रति उनका गहरा प्यार ही उनकी मानवीय संवेदनाओं को उजागर करता है। उनकी रचनाओं में यथार्थ वर्णन में रूढ़ियों की दुर्गन्ध, शोषण आदि का वर्णन होते हुए भी मानवीय प्रेम की संवेदना का स्रोत मिलता है। जीवन में प्रेम को वे जीवन की सबसे बड़ी संवेदना मानते थे। ताराशंकर की साहित्यिक दृष्टि मानवीयता के उदात्त आदर्शों से युक्त थी, मानव जाति में उनका अगाध विश्वास था। उपन्यास 'गणदेवता' के संबंध में उपन्यासकार का कहना है, "गणदेवता बंगाल के ग्राम्यजीवन पर आधारित उपन्यास है। कृषि पर निर्भरशील ग्रामीण-जीवन की शताब्दियों प्राचीन सामाजिक परंपरा किस प्रकार पाश्चात्य औद्योगिक क्रान्ति के फलस्वरूप यंत्र-सभ्यता के संघात में धीरे-धीरे दम तोड़ने लगी थी, यही इस उपन्यास में दिखाया गया है। कृषि निर्भर ग्राम-जीवन जिन सामाजिक परंपराओं पर टिका हुआ था उनका रूप संभवतया संसार के कृषि-निर्भर, यंत्र-सभ्यता से अछूते ग्रामीण जीवन में सर्वत्र एक ही है।"
ताराशंकर अपनी कलात्मकता और शब्दों की शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे जो सामाजिक ताने-बाने को यथार्थ रूप में अभिव्यक्त करते हैं। उनके कथा साहित्य में नए दृष्टिकोण में यथार्थ को स्वीकार कर सकारात्मकता की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट किया गया, साथ ही यह दृष्टि प्रतिपादित की गई कि पाठकगण तत्कालीन समाज के रुढ़िवादी विचारों से निकल कर अब तक के सीमित मानवीय संबंधों की सच्चाई को समझ सकें। ताराशंकर कहते थे कि क्रांति की बजाय उन्हें गाँधी ने अधिक प्रभावित किया और यही कारण था कि उनके उपन्यासों के नायक अक्सर आदर्श पुरुष हैं। जमींदार परिवार में जन्म लेने के कारण उनके मन में जमींदारों के प्रति अनुराग होना एक स्वाभाविक सी बात थी। हालांकि उन्होंने अपने लेखन में जमींदारी व्यवस्था की बुराइयों का पर्दाफाश भी किया है उनके अनुसार, "मैं आजीवन ग्राम बांग्ला की मिट्टी से जुड़ा हुआ लेखक रहा इसीलिए कलकत्ता और उसकी साहित्यिक गोष्ठियां मुझे कभी रास नहीं आई, मेरी कहानियों और उपन्यास गांव गांव घूमने और ग्रामीण यथार्थ को गहराई से समझने के मेरे अनुभवों से तैयार हुए हैं इसलिए मैं अपनी रचनाओं का महत्त्व समझता हूँ।" जीवन के सत्य को छूते हुए बांग्ला साहित्य के शीर्ष बिंदु थे, ताराशंकर बंद्योपाध्याय। १४ सितंबर १९७१ को भारतीय साहित्य के श्रेष्ठ साहित्यकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय अपना दैहिक जीवन त्याग परमसत्ता में विलीन हो गए। समस्त हिंदी परिवार की ओर से ताराशंकर बंद्योपाध्याय को पुण्यतिथि पर शत-शत नमन।
ताराशंकर बंद्योपाध्याय : जीवन परिचय |
जन्म | २३जुलाई १८९८, लाभपुर |
निधन | १४ सितंबर १९७१, कलकत्ता |
पिता | हरिदास बंद्योपाध्याय |
माता | प्रभावती देवी |
सहोदर | दो भाई, एक बहन |
पत्नी | उमा शशि देवी |
संतान | पुत्र - सनतकुमार बंद्योपाध्याय, सरितकुमार बंद्योपाध्याय पुत्री - गंगा, बुलू, बानी |
साहित्यिक रचनाएँ |
उपन्यास | | यतिभंग कान्ना कालवैशाखी ओ कालो मेये जंगलगढ मंजरी ऑपेरा चिन्मयी संकेत भुवनपुरेर हाट वसंतराग गन्ना बेगम आरण्यवह्नि हीरापन्ना महानगरी गुरुदक्षिणा शुकसारी कथा राधा सप्तपदी विपाशा डाक हरकारा महाश्वेता योगभ्रष्ट, ना, निशिपद्म
|
|
कहानी | छलनामयी जलसाघर रसकली तिनशून्य प्रतिध्वनि बेदेनी दिल्ली का लाड्डू जादूकारी स्थलपद्म प्रसादमाला हारानों सुर इमारत
| ताराशंकर श्रेष्ठ गल्प शिलासन कामधेनु विस्फोरण कालांतर विश-पाथर मानुषेर-मन र्विवारर आसर पौषलक्ष्मी चिरंतनी आईना रामधनु
|
|
नाटक | कालिन्दी दुइ पुरुष पथेर डाक विंश शताब्दी
| द्वीपांतर युगविप्लव कालरात्रि संघात
|
|
आत्मजीवनी | आमार कालेर कथा आमार साहित्य-जीवन आमार साहित्य-जीवन-२ कैशोर-स्मृति
|
कविता | |
सम्मान व पुरस्कार |
१९४० में शरत स्मृति पुरस्कार १९५२-६० प० बंगाल विधान परिषद के सदस्य १९५५ में रवींद्र पुरस्कार उपन्यास 'आरोग्य निकेतन' के लिए १९५६ में साहित्य अकादमी पुरस्कार १९५६ जगततरिणी गोल्ड मैडल, कलकत्ता विश्वविद्यालय १९६२ में पद्म श्री १९६६ में ज्ञानपीठ पुरस्कार 'गणदेवता' उपन्यास पर १९६९ में पद्म भूषण
|
संदर्भ
https://jivanhindi.com/tarashankar -bandopadhyaya/amp
https://m.bharatdiscovery.org>India
www.telegraph india.com
https://kolkata Hindi news.com/special on 123 Rd birth anniversary – of- great- bengal-novelist-tarashankar- bandopadhyay
Tarashankar Bandopadhyay by Mahasweta Devi
https://www amarujala.com>kavya
https:// www getbengal.com
अचला झा
कोलकाता
साहित्यकार तिथिवार और कविता की पाठशाला से जुड़ी हुई हैं।
अचला जी, ताराशंकर बंदोपाध्याय के जीवन के विभिन्न पहलुओं से मिलवाता और उनकी रचनाशीलता पर प्रकाश डालता उत्तम लेख प्रस्तुत किया है आपने। आपको इस लेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteअचला जी नमस्ते। आपने ताराशंकर बंदोपाध्याय जी पर जानकारी भरा लेख लिखा है। आपके लेख के माध्यम से उनके साहित्य को जानने का अवसर मिला। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDelete