Tuesday, September 6, 2022

'रूपकुँवर' ज्योतिप्रसाद अगरवाला : असमिया कला, संस्कृति और साहित्य के शिल्पी

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रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद अगरवाला (अग्रवाल) ने अपने लेखन, नाटकों, संगीत और फ़िल्मों से असमिया जन-संस्कृति को एक नई चेतना दी। असम में मध्य-युग (१५वीं-१६वीं सदी) में संत शंकरदेव मानव-समाज के लिए सभी आवश्यक क्षेत्रों में कार्य करके नया वैष्णव आंदोलन लाए थे। उन्होंने धर्म, कला, संगीत, वाद्य-यंत्र, नाटक, रंगमंच आदि विषयों पर अनेक ग्रंथों की रचना की थी। उस युग में पूर्ण सांस्कृतिक सुधार आंदोलन का श्रेय जिस प्रकार शंकरदेव को जाता है, उसी तरह आधुनिक युग में साहित्य, कला और संस्कृति में पुनरुद्धार के लिए ज्योतिप्रसाद अगरवाला का नाम लिया जाता है। असम के लोग इन्हें इतना अधिक पसंद करते हैं और सम्मान देते हैं कि वे उन्हें 'रूपकुंवर' कहते हैं। न तो इनसे पहले और न ही इनके बाद, अब तक ऐसी उपाधि किसी को मिली है। 

पृष्ठभूमि 

वर्ष १८११ में ज्योतिप्रसाद के पूर्वज (चार पीढ़ी पहले) नवरंगराम अगरवाला १७-१८ वर्ष की उम्र में राजस्थान के शेखावाटी इलाके से आकर असम में बस गए थे। उन्होंने शुरू में कुछ समय किसी के यहाँ मुनीम की नौकरी की। उसके पश्चात निजी व्यवसाय प्रारंभ कर असमिया लड़की से शादी करके असमिया समुदाय में ही रच-बस गए। नवरंगराम के बेटे हरिविलास अगरवाला ने वर्ष १८९९ में शंकरदेव और माधवदेव संतों की प्राचीन हस्तलिखित पांडुलिपियाँ प्रकाशित करके असमिया विद्वानों और साहित्यकारों के लिए असम की साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत उजागर की। इनके इस प्रयास से असमिया भाषा, जो तब तक बांग्ला की एक बोली मानी जाती थी, के पुनरुद्धार और मान्यता प्राप्ति के आंदोलन को बढ़ावा मिला। अगरवाला कुनबे में एक से बढ़कर एक कई विद्वान हुए जिनमें कोई कवि, कोई प्रकाशक और कोई संगीतज्ञ रहे, जिनका असम के साहित्य और संस्कृति के विकास में बड़ा महत्त्व है। नवरंगराम की चौथी पीढ़ी में १७ जनवरी १९०३ को डिब्रूगढ़ ज़िले में स्थित तामुलबरी चाय बाग़ान में ज्योतिप्रसाद अगरवाला का जन्म हुआ था। ज्योतिप्रसाद पर लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा रही। पुरखों से विरासत में चाय के बाग़ान और माँ-बाप से घुट्टी में संगीत मिला। कई वाद्ययंत्र बजाने में माहिर इनके पिताजी परमानंद अगरवाला लोक-गीत गाते थे और माँ किरणमय काकती अपने समय की एक प्रसिद्ध गायिका और समाज-सुधारक थीं। ज्योतिप्रसाद के व्यक्तित्व-निर्माण में माँ का बहुत बड़ा हाथ रहा। इन्हीं के समर्थन से वे बाद में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए एडिनबर्ग विश्वविद्यालय गए थे। 

तेजपुर में इनका निवास-स्थान कई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का साक्षी है। गाँधीजी अपनी असम यात्रा के दौरान दो बार वहीं ठहरे थे। असम में विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार की पहली होली उसी घर के प्रांगण में जली थी। उस समय के संगीतकारों, साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों का वहाँ अक्सर आना-जाना होता था, जिसका प्रभाव ज्योतिप्रसाद के व्यक्तित्व पर भी पड़ा। तेजपुर में गाँधीजी के वर्ष १९२१ के भाषण से प्रभावित होकर ज्योतिप्रसाद मैट्रिक की पढ़ाई बीच में छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े थे। बाद में इन्होंने कोलकता से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करके वहीं के नेशनल कॉलेज में प्रवेश लिया, लेकिन दो साल बाद वे पढ़ाई बीच में ही छोड़कर घर लौट आए। वापस असम लौटकर इन्होंने भारत की स्वतंत्रता और असम के सांस्कृतिक आंदोलन के लिए ख़ूब काम किया। उसी दौरान ज्योतिप्रसाद ने अपने चाचा चंद्रकुमार अगरवाला के साप्ताहिक 'असमिया', जो स्वतंत्रता संग्राम की गतिविधियों पर प्रकाश डाल रहा था, में काम करना प्रारंभ कर दिया। उनका मानना था कि अँग्रेज़ हमारी कला और संस्कृति को जानबूझकर, योजनाबद्ध रूप से नष्ट कर रहे हैं। ज्योतिप्रसाद ने असम की समृद्ध, सांस्कृतिक विरासत की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित करने तथा उसके पुनरुत्थान के लिए कलाकारों, क्रांतिकारियों और बुद्धिजीवियों से आग्रह किया और इस काम में स्वयं को समर्पित कर दिया। उन्होंने शोषण, अन्याय, भेदभाव तथा अन्य बुराइयों को सांस्कृतिक क्रांति द्वारा दूर करने की कोशिश की। ज्योतिप्रसाद का कहना है कि आदर्शवाद और यथार्थवाद के संश्लेषण से एक सुंदर दुनिया का निर्माण किया जा सकता है। वे कहते हैं, "मैं  एक ही समय में आदर्शवादी और यथार्थवादी दोनो हूँ। मैं अपने आदर्श को साकार करने के लिए यथार्थवादी हूँ और वास्तविकता को प्रस्तुत करने के लिए आदर्शवादी हूँ।"

इनकी छुटपन से ही कला, संगीत और लेखन में इतनी रुचि थी कि १४ वर्ष की उम्र में ही 'सोनित कुंवारी (Sonit Konwari)' नाटक लिख दिया था। रोमांस और सौंदर्य पर आधारित ऊषा और अनिरुद्ध की इस प्रेम-कहानी में ऊषा अपने सम्मान और देश की रक्षा के लिए अपना जीवन बलिदान कर देती है। वर्ष १९२४ में इस नाटक का असम के 'बान' थिएटर में मंचन भी हुआ था। लोकधुनों पर आधारित इसके गीत लोगों ने बहुत पसंद किए। कालांतर में सोनित कुंवारी नाटक का संशोधित संस्करण गुवाहाटी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल किया गया। आगे चलकर इन्होंने कई नाटक लिखे, जिनमें से कुछ के नाम हैं, कारेंगार लीगिरि, रूपलिम, लभीता, खनिकार, नीमाती कैना, सोन पखिली (तितली) आदि। रूपकुँवर ने अपनी रचनाओं में महिला पात्रों को केंद्र में रखा है और अधिकांश नाटकों के नाम महिला पात्रों के नामों पर रखे हैं। 

ज्योतिप्रसाद ने अर्थ-शास्त्र और दर्शन-शास्त्र में बीए करने के लिए वर्ष १९२६ में एडिनबर्ग विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। कुछ समय में ही इन्हें लगने लगा कि इनके भीतर का कलाकार बीए की डिग्री-कामना से अधिक  शक्तिशाली है। वहाँ इन्होंने यूरोपीय संगीत और कला के गहन अध्ययन से स्वयं को और समृद्ध किया। एडिनबर्ग में ये भारत की राजनीतिक स्थिति से भी अवगत रहते थे और तब भारत में स्वतंत्रता-संग्राम अपने चरम पर था। ज्योतिप्रसाद भारतीय युवाओं के लिए देशप्रेम और जोश से भरे गीत लिखकर भारत भेजते रहते थे। एडिनबर्ग निवास के दौरान उनकी सिनेमा में रुचि इतनी गहरी हो गई थी कि सन १९३० में एडिनबर्ग से स्वदेश लौटने से पहले इन्होंने फ़िल्म निर्माता हिमांशु राय की सिफ़ारिश से जर्मनी के यू० एफ़० ओ० ( Universum Film Aktiengesellschaft) स्टूडियो में नौ महीने के फ़िल्म-निर्माण का कोर्स किया। हिमांशु राय ने इन्हें 'सोनित कुंवारी' नाटक पर अँग्रेज़ी फ़िल्म बनाने के लिए पटकथा लिखकर यू० एफ़० ओ० स्टूडियो भेजने की सलाह दी थी। ज्योतिप्रसाद ने वैसा किया भी, लेकिन किसी कारणवश उस पर फ़िल्म नहीं बनी।  

जर्मनी से लौटकर वे पुनः राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय हो गए और अपने लेखन से जनता को प्रेरित करने लगे। मुखरित स्वर में क्रांति की भावना से लिखे और गाए उनके गीत जनता के बीच बहुत लोकप्रिय हुए। इनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के लिए अँग्रेज़ सरकार ने इन्हें एक साल तीन महीने जेल में रखा और ५०० रूपये का जुर्माना लगाया। रूपकुँवर ने वर्ष १९३२ में जेल में ही असमिया नाटककार लक्ष्मीनाथ बेजबरुआ के नाटक 'जयमति कुंवारी' पर 'जयमति' फ़िल्म की पटकथा लिख ली थी। वे जेल से रिहा होते ही अपने फ़िल्म बनाने के इरादे को पूरा करने में जुट गए। इसके लिए इन्होंने अपने पैतृक चाय-बाग़ान 'भोलागुरी' को 'चित्रबन' फ़िल्म स्टूडियो में बदलकर अपने फ़िल्म प्रोडक्शन को 'चित्रलेखा मूवीटोन' नाम दिया। यह भारत का पहला ओपन-एयर-स्टूडियो है। ज्योतिप्रसाद फ़िल्म में अभिनय के लिए केवल ग़ैर-पेशेवर कलाकार ही ले रहे थे। उन्हें पुरुष किरदार तो आसानी से मिल गए, लेकिन महिला पात्रों की भूमिका के लिए लड़कियों को तैयार करना मुश्किल काम था। ज्योतिप्रसाद के बहुत प्रयत्नों के बाद पंद्रह-सोलह वर्षीय आईदेऊ हैंडिक जयमति की भूमिका निभाने के तैयार हुई थी। फ़िल्म के बाद का एक सत्य यह है कि सामाजिक बंधन तोड़कर फ़िल्म में जयमति की भूमिका निभाने वाली आईदेऊ हैंडिक का उसके परिवार और गाँव वालों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया था। फ़िल्म की सभी महिला कलाकारों को समाज की नाराज़गी झेलनी पड़ी थी, लेकिन उन्होंने ज्योतिप्रसाद के साथ मिलकर महिलाओं की मुक्ति का मार्ग खोला तथा सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण बदलने में सहायता की।

ज्योतिप्रसाद ने सिनेमा का इस्तेमाल मनोरंजन के साथ-साथ सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक उथल-पुथल दिखाने के लिए किया है। जयमति फ़िल्म में संस्कृति और सामाजिक बुराइयों के बीच संघर्ष उजागर किया गया है। यह फ़िल्म असमिया महिलाओं की शक्ति और देशभक्ति की, उत्पीड़न के ख़िलाफ़ एक महिला के आत्मबल की कहानी है। जयमति फ़िल्म, असम में १७वीं सदी के अंत में हुई वास्तविक घटनाओं पर आधारित है। नायिका ने स्वार्थ के लिए नहीं, आम लोगों की भलाई के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया। उसकी मृत्यु के बाद उसका पति असम का राजा बना, जिसने वहाँ शांति और सद्भावना लौटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस फ़िल्म के निर्माता, निर्देशक, पटकथाकार, संगीतकार, सेट-डिज़ाइनर सब कुछ ज्योतिप्रसाद थे। १० मार्च, १९३५ को कोलकता के 'रौनक' सिनेमा हॉल में फ़िल्म का उद्घाटन लक्ष्मीकांत बेजबरुआ के हाथों हुआ। इसके प्रीमियर शो में प्रमथेश बरुआ, पृथ्वीराज कपूर, कुंदन लाल सहगल, देविका रानी, धीरेन गांगुली, फणी मजूमदार जैसी हस्तियाँ उपस्थित थीं। स्वतंत्रता-पूर्व भारत की राजनीति में सक्रिय रहने वाले पहले फ़िल्म-निर्माता ज्योतिप्रसाद अगरवाला हैं।

असमिया सिनेमा के जनक ज्योतिप्रसाद का नाम भारत के एक क्रांतिकारी फ़िल्म-निर्माता के रूप में लिया जाना चाहिए, लेकिन दुख की बात है कि बहुत कम लोग इनके बारे में जानते हैं। 

ज्योतिप्रसाद ने 'जयमति' के बाद एक और फ़िल्म 'इंद्रमालती' बनाई, जो सन १९३९ में रिलीज़ हुई थी। उसमें भी महिला कलाकारों का कार्य प्रशंसनीय था। उस फ़िल्म के लिए १२ वर्षीय भूपेन हजारिका ने गाना गाया और ग्वाले की भूमिका भी निभाई थी। आगे चलकर भूपेन हजारिका ने ज्योतिप्रसाद को अपना गुरु बना लिया था। 'इंद्रमालती' फ़िल्म के बाद रूपकुँवर ने ग्रामोफ़ोन पर कई नाटक रिकॉर्ड किए। ज्योतिप्रसाद सन १९४२ के 'भारत छोड़ो' आंदोलन की रणनीति तैयार करने के सिलसिले में, कोलकाता में जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया और अरुणा आसफ अली के संपर्क में आए। 

ज्योतिप्रसाद गाँधीवादी भी थे और मार्क्सवादी भी। आज़ादी के बाद सरकार की भ्रष्टाचार और शोषण की नीति से क्षुब्ध होकर इनका रुझान मार्क्सवाद की ओर हुआ। जल्द ही 'इप्टा' से जुड़े और साहित्य लेखन करते रहे। 

ज्योतिप्रसाद मंझे हुए कवि थे। उन्होंने देशभक्ति, स्वतंत्रता-संग्राम, मेहनतकश किसानों, चाय-बाग़ान में काम करने वाली महिलाओं तथा अन्य विषयों पर ३०० से अधिक गीत रचे, जिनमें से अधिकांश को संगीत भी दिया। आधुनिक असमिया संगीत-शास्त्र को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की; लोक-धुनों पर रचे इनके गीत असम संगीत की एक नई शैली बन गए। असम के लोगों को उनकी रची धुनें और गाने इतने पसंद आए कि उन्हें 'ज्योति-संगीत' नाम दे दिया। उन्होंने युवाओं को प्रेरित करने के लिए 'विश्वविजयी नवजवान…', 'शक्तिशाली भारत की तुम क्रांतिकारी संतान…' तथा बहुत सारे अन्य गीत रचे। इनके गीतों और नाटकों ने लोगों को जोड़ने का काम किया। 

जीवन के अंतिम वर्षों में इनका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। १७ जनवरी १९५१ में मात्र ४८ वर्ष की उम्र में कैंसर से उनका देहावसान हो गया। इनका समय असमिया कला और संस्कृति के इतिहास का स्वर्ण-युग था। असम में कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम ज्योति-संगीत के बिना नहीं होता। वहाँ आधुनिक संगीत सीखने की शुरूआत ज्योति-संगीत से होती है। असम में उनकी पुण्यतिथि हर वर्ष साहित्यिक गोष्ठियों और साहित्य से जुड़ी नई योजनाओं के प्रारंभ से उन्हें श्रद्धांजलि देकर 'शिल्पी-दिवस' के रूप में मनाई जाती है। उनकी पुण्यतिथि पर असम में सार्वजनिक अवकाश होता है। इस अवसर पर वर्ष के चुने हुए ५० शिल्पियों को शिल्पी-पेंशन तथा शिल्पी-पुरस्कार दिए जाते हैं। वर्ष १९६१ में असम सरकार ने ज्योतिप्रसाद अगरवाला के सम्मान में गुवाहाटी के पास एक स्टूडियो बनवाकर उसे 'ज्योति चित्रबन' स्टूडियो नाम दिया। 

रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद अगरवाला : जीवन परिचय

जन्म

१७ जून १९०३, डिब्रूगढ़, तामुलबरी चाय बागवान असम, भारत 

निधन

१७ जनवरी १९५१ 

माता 

किरणमय काकती 

पिता

परमानंद अगरवाला

पत्नी 

देवजानी भुइया 

संतान

चिन्मय अगरवाला, विश्वसिंधु अगरवाला, जयश्री, ज्ञानश्री, सत्यश्री, हेमाश्री, मोनोश्री 

व्यवसाय 

लेखक, नाटककार, कवि, फ़िल्म-निर्माता, निर्देशक, संगीतकार 

भाषा ज्ञान

असमिया, अँग्रेज़ी 

कर्मभूमि 

असम 

शिक्षा

  • १९२६ में एडिनबर्ग, ब्रिटेन से अर्थशास्त्र में बीए 

  • जर्मनी में सिनेमेटोग्राफी कोर्स 

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास 

  • आमार गाँव

गल्प 

  • रूपही

  • बगीतरा

  • सोणतरा

  • सोणटिर अभिमान

  • युंजारु

  • सतीर साँवरणि

  • संध्या

  • शिलाकुटी

  • नीला चराइ (नीली चिड़िया)

नाटक 

संपूर्ण नाटक

  • सोनित कुंवरी (१९२४)

  • कारेडर लीगिरि (१९३०)

  • रूपालीम (१९३८)

  • लभिता (१९४८)

  • निमाती कइना

  • खनिकार 

अधूरे नाटक

  • कनकलता

  • सुंदरकुंवर

  • सोन पखिली (तितली)

कविता 

  • लुइतर पारस अग्निसुर

  • ज्योति रामायण

  • घोडा डांगरिया 

बाल-साहित्य 

  • शिशु कविता : भूत पोवाली (भूत का बच्चा)

  • अकोमन लोरा (छोटा बच्चा)

  • अकोमनीर प्रार्थना (छोटे बच्चों की प्रार्थना) 

  • कम्पुर सपोन तथा अन्य 

चलचित्र 

  • जयमति (१९३५)

  • इंद्रमालती (१९३९)

अन्य  

  • चंद्रकुमार अगरवाला (जीवनी) 

  • ज्योतिधारा ( चयनित आलेख पुस्तक)

  • background of Assamese Architecture

सम्मान

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संदर्भ

लेखक परिचय

डॉ० सरोज शर्मा 

भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी 

रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव 

वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा।

4 comments:

  1. सरोज जी नमस्ते। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई। आपका हर लेख जानकारी भरा होता है। आज के लेख के माध्यम से असमिया साहित्यकार रूपकुँवर ज्योतिप्रसाद जी को जानने का अवसर मिला। लेख पढ़कर अच्छा लगा।

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  2. सरोज, सहज और दिलचस्प तरीक़े से तुमने एक और गुमनामी में छिपे सितारे पर की धूल हटा कर उसे हमारे सामने प्रस्तुत किया है। ज्योतिप्रसाद जी के कामों को नमन और तुम्हें यूँ ही उम्दा लेखन करने की शुभकामनाएँ और बधाई।

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  3. सरोज जी सरल सहज शैली में जानकारियाँ उपलब्ध कराता आपका एक और सशक्त लेख। आपके इस लेख को पढ़कर ही असमिया साहित्य्कार ज्योतिप्रसाद जी के व्यक्तित्व और कृतित्व को जानने का अवसर मिला है। इस सारगर्भित और जानकारीपूर्ण लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।

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  4. हमारा महान देश भारत अनगिनत महापुरुषों का स्थान है और हम इस बारे में अनभिज्ञ हैं । ज्योतिप्रसाद अगरवाला के जैसे व्यक्तित्व से हिन्दी पाठकों को परिचित करके यह पटल भी समाज सुधारक का महत्वपूर्ण कार्य कर रहा है।अत्युत्तम शोध परक लेख के लिये सरोज जी को बधाइयाँ ।अनगिनत घटनाओं और जानकारियों को आपने सुगम पठन शैली में पिरोया है।
    सन्तोष मिश्र

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