Tuesday, September 13, 2022

कन्हैयालाल सेठिया : राजस्थानी माटी का ओज


किस निद्रा में मग्न हुए हो, सदियों से तुम राजस्थान!

कहाँ गया वह शौर्य तुम्हारा, कहाँ गया वह अतुलित मान! 


ये ललकारती पंक्तियाँ उस कवि की कलम से रची गई हैं जिसने पराक्रम की पर्याय भूमि राजस्थान में जन्म लिया। राजस्थान भारत का वह पश्चिमी भूभाग है, जहाँ न केवल क्षत्रियों बल्कि क्षत्राणियों की वीरगाथाएँ भी अमर इतिहास का हिस्सा रही हैं। वर्ष १९१९ में समृद्ध संस्कृति और अद्वितीय शौर्य की इस धरती पर कवि कन्हैयालाल सेठिया का जन्म चूरू जिले के सुजानगढ़ में हुआ। एक कुशल व्यापारी और शिक्षा प्रेमी सज्जन पिता की संतान सेठिया जी ने जन सहृदयता और साहित्य सेवा का गुण विरासत में पाया।


सूरज की किरणों से चमकती धौंरों की माटी में जो अपनेपन के तत्व हैं, उन्हीं में से सेठिया जी ने संवेदना को चुनकर अपने पहले काव्य संग्रह ‘वनफूल’ की कविताओं में सजा दिया। इस संग्रह की सभी कविताएँ करुणा और कोमल भावनाओं की प्रतिछाया हैं। लेकिन स्वतंत्रता संग्राम के समय जो रत्न उस धरती से उपजा जहाँ राणा सांगा, राणा प्रताप और पृथ्वीराज चौहान जैसे शूरवीरों ने जन्म लिया, उसके जीवन में केवल शांत रस की महकती कल्पनाएँ कैसे अपना प्रभुत्व सिद्ध कर सकती थी! देश के विक्षुब्ध वातावरण ने शीघ्र ही सेठिया जी की कलम में क्रांति की सुलगती स्याही भर दी और वर्ष १९४२ में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'अग्निवीणा' के माध्यम से अँग्रेज़ी हुकुमत पर उन्होंने अपना पहला वार किया। इसका एक राजस्थानी गीत 'कुण जमीन रो धणी' जो अँग्रेज़ी राज की छत्रछाया में पल रहे सामंती शासकों के उत्पीड़न पर एक करारी चोट है, असंख्य किसानों का कंठहार बन गया। इस संग्रह की सभी कविताएँ देश की युवा शक्ति के हृदय में जोश भरती हुँकार थीं। इसका परिणाम यह हुआ कि सेठिया जी पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया जो देश की स्वाधीनता के बाद ही निरस्त हुआ।


सेठिया जी के मानस में बालपन से ही स्वराज्य की चेतना ने अपने पैर पसारने शुरु कर दिए। युवाकाल में जब वे अपनी शिक्षा का एक सत्र पूरा कर कलकत्ता से अपने घर लौट रहे थे तो साथ में एक तिरंगा छिपा लाए और अपनी वय के करीब ८०० बच्चों को इकट्ठा कर अपने निवास स्थान से अपनी घुड़साल तक झंडे के साथ जुलूस निकाला। २०वीं सदी के चौथे दशक की शुरुआत में यूँ तो पूरा राजस्थान ही रियासती शासन के अंतर्गत आता था, जहाँ जागीरदारी की अव्यवस्थाएँ चलती थीं। लेकिन बीकानेर रियासत जिसके अंतर्गत सुजानगढ़ शहर आता था, देशसेवी कार्यकर्ताओं के दमन के लिए कुख्यात थी। उस काल में झंडे के साथ जुलूस! ऐसा कृत्य सरकार की दृष्टि में एक बड़ा अपराध था। सरकारी दृष्टि में नहीं आने के कारण सेठिया जी पर कोई कार्रवाई तो नहीं हुई लेकिन इस घटना ने आसपास के लोगों को इनकी प्रवृत्ति और प्रकृति का परिचय अवश्य दे दिया। 


युवा सेठिया जी ने गाँधी जी के प्रभाव से खद्दर पहनना, चरखा चलाना, दलित उद्धारक कार्य करना और मुख्य रूप से लोगों में राष्ट्रीय चेतना को प्रदीप्त करने का कार्य आरंभ किया। उनके संकल्पों की दृढ़ता के दर्शन तब होते हैं, जब वे १९३४ ई० में गांधीजी से प्रथम साक्षात्कार होने पर हरिजन फंड के लिए अपनी बचत के चार आने उनके हाथ पर रख देते हैं। इतना ही नहीं दलितों के उत्थान हेतु उन्होंने आगे चलकर हरिजन विद्यालय, विशेष कला प्रशिक्षण केंद्र आदि का निर्माण करवाया। राज्य सरकार से पत्राचार करते हुए हरिजनों को पक्के घरों हेतु आर्थिक सहायता दिलवाने और उन्हें सामाजिक उत्सवों में सम्मिलित करने हेतु सफल प्रयास किए। लंबे संघर्ष और रूढ़िवादियों का कोपभाजन बनते हुए उन्होंने पूरे चुरू जिले के हरिजनों को सार्वजनिक कुँवों से पानी भरने का अधिकार भी दिलवाया। अनुसूचित जातियों के उत्थान हेतु निरंतर संघर्षरत सेठिया जी के प्रयासों से अनेक परिवारों ने शराब व मांसाहार का त्याग कर स्वयं को सुसंस्कृत बनाया। वर्ष १९५५ में जब वियोगी हरि सुजानगढ़ आए तो सेठिया जी के प्रयत्नों से हरिजनों की दशा में आए परिवर्तन को देखकर गदगद हो गए। उन्होंने कहा कि ऐसा परिवर्तन भारत भर में केवल गिने चुने स्थानों पर ही देखने में आया है।


वर्ष १९४२ में सेठिया जी ने सुजानगढ़ में आयोजित बीकानेर राज्य साहित्य सम्मेलन में कार्यक्रम के मुख्य मंच पर स्थानीय राजकीय अधिकारियों के विरोध के बावजूद महात्मा गाँधी का चित्र लगाया। उन्होंने १५ अगस्त १९४८ को भारत के स्वाधीन होने पर भी रियासतों के सब अधिकारियों के राष्ट्रीय ध्वज के साथ बीकानेर राज्य का ध्वज फहराने का विरोध किया और वर्ष १९४८ में केंद्र द्वारा जागीरदारी प्रथा के उन्मूलन के उद्देश्य से कमीशन के समक्ष स्वयं उपस्थित होकर अपने विचार व्यक्त किए। ऐसे अनेक कार्य उनकी सामाजिक चेतना को दर्शाते हुए उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान की पगड़ी पहनाते हैं।


स्वाधीनता के बाद जब प्रांतों के नवनिर्माण की बात आई और आबू को गुजरात प्रांत में मिला दिया गया तो एक विरोध का स्वर सुनाई दिया। जो इसे इतिहास और संस्कृति की दृष्टि से गलत बता रहा था। इस सशक्त स्वर ने सरकारी निर्णय को बदल दिया। यह स्वर उन निस्पृही सेठिया जी का ही था जिन्होंने इस विरोध के एवज में मिलने वाले सम्मान को नकार दिया और इस पुनर्विलय को ही अपना अभिनंदन माना।


जब देश पर चीन का आक्रमण हुआ तो कवि की युग चेतना काव्य संग्रह 'आज हिमालय बोला' के रूप में सामने आई। जिसकी समस्त कविताएँ राष्ट्रीय संकट के समय की पुकार को अभिव्यक्त करती हैं।

 

राजस्थान की भाषा, संस्कृति और इतिहास के प्रति सेठिया जी की समझ और प्रेम ने उनकी कविताओं को ममत्व की राग भरे स्वर दिए हैं। काव्य संग्रह ‘मींझर’ में संकलित उनकी कविता ‘धरती धौंरा री’ प्रदेश के गौरव, बलिदान और धार्मिक व प्राकृतिक परिवेश की थाती है। इस कविता की लोकप्रियता ने इसे राजस्थान वासियों के लिए अपनी माटी के वंदना गीत के रूप में स्थापित कर दिया है। इसी संग्रह की एक और रचना ‘पातळ और पीथळ’ काव्य की सीमा को तोड़ती हुई प्रदेश का अमर लोक गान बन चुकी है। इन रचनाओं की ख्याति का अनुमान बालकवि बैरागी के इस कथन से लगाया जा सकता है, "मैं महामनीषी श्री कन्हैयालाल सेठिया की बात कर रहा हूँ। अमर होने या रहने के लिए बहुत अधिक लिखना आवश्यक नहीं है। मैं कहा करता हूँ कि बंकिम बाबू और अधिक कुछ भी नहीं लिखते तो भी मात्र वंदे मातरम् ने उनको अमर कर दिया होता। तुलसी को 'हनुमान चालीसा' और इकबाल को 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा' जैसा अकेला गीत ही काफी था। रहीम ने मात्र सौ दोहे यानी कि चौदह सौ पंक्तियाँ लिखकर अपने आप को अमर कर लिया। ऐसा ही कुछ सेठिया जी के साथ है, वे अपनी एक अकेली रचना के दम पर शाश्वत और सनातन हैं, चाहे वह रचना राजस्थानी भाषा की ही क्यों न हो।"

 

पर्यावरण प्रेमी सेठिया जी ने वन संवर्धन के लिए भी प्रयास किए। उनके सुझाव पर जयपुर और कोटा क्षेत्रों के व्यक्तिगत कृषि फार्मों में हजारों चंदन के वृक्ष लगाए गए। अरावली की सूखी व पथरीली उपत्यकाओं को देखकर कवि हृदय व्यथा से भर गया, जिसकी करुणा से उपजी 'नंग धड़ंग अरावली' शीर्षक की एक मार्मिक कविता, जो 'मायड रो हेलो' काव्य संग्रह में संकलित है। इस रचनाकर्म से जैसे अरावली की घाटियों में वृक्षारोपण के कार्यक्रम को जीवनदान मिल गया। इसी संग्रह की अन्य कविता ‘मरुधर’ के शब्द राजस्थान के खेतों की सैर करवाते हुए चना, गेहूं, बाजरा, मोठ, आदि मुख्य फसलों का ज्ञान करवाते हैं, तो खेजड़ी, फोग, आकड़ा आदि क्षेत्रीय पेड़-पौधों के बारे में बताते हैं और मतीरा, काकड़िया, काचर, बौर आदि का मीठा स्वाद भी चखाते हैं। साथ ही कमेड़ी, मोर, तीतर, सेही, ऊँट, आदि विभिन्न पशु-पक्षियों का पता भी देते हैं। 'राजस्थानी भासा', 'परतख पीड़', 'धरती'र भासा', 'भासावां रा फूल', 'भासा री अमर बेल', 'आठ कोड़ गूँगा' और 'धिराणी' जैसी इस संग्रह की अन्य कविताएँ इस सारस्वत पुरुष का भाषा चिंतन स्पष्ट करती हैं। 


हिंदी और राजस्थानी दोनों भाषाओं में साधिकार काव्य रचनाएँ करने वाले सेठिया जी का मानना है कि भारत की अन्य भाषाओं के विकास से हिंदी को बल मिलता है। अपनी रचनाओं के माध्यम से राजस्थानी भाषा को साहित्यिक मान्यता दिलाने के पश्चात उसे संवैधानिक मान्यता दिलाने हेतु भी वे कृतसंकल्प रहे। वे कहते हैं, "कोई भी समाज अपनी भाषा से कट जाता है तो वह अस्तित्व शून्य हो जाता है, दिग्भ्रमित भी हो जाता है। मीरा की मधुर भाषा की अवहेलना की कीमत हम एवं हमारी पीढ़ी को चुकानी ही पड़ेगी।"


वर्ष १९८६ में सेठिया जी को भारतीय ज्ञानपीठ समिति द्वारा मूर्तिदेवी साहित्य पुरस्कार दिया गया। नई दिल्ली में आयोजित इस भव्य समारोह के अध्यक्ष श्री बलराम जाखड़ ने अपने भाषण में कहा कि "यह मेरा अहोभाग्य है कि मैं एक महामानव का सम्मान कर रहा हूँ।" इसी समारोह में सेठिया जी कहते हैं कि "प्रगतिशीलता के दहन का मात्र मुखौटा बनाकर, इस शब्द की अर्थवत्ता को केवल जड़त्व तक ही सीमित कर जो कुछ साहित्य के नाम पर रचा जा रहा है, वह काल की कसौटी पर खरा नहीं उतरेगा। सृजन धर्मी रचनाकार वही है जो भेद से अभेद की ओर, अंधकार से आलोक की ओर बढ़ने की क्षमता और गति समाज को दे। इसी सत्य को अनुभूत और अभिव्यक्‍त करने का प्रयास मैं अपनी कृतियों के माध्यम से करता रहा हूँ।" यह केवल एक कथन नहीं एक कुँजी है, जिसके उपयोग से साहित्य के अध्येता उसकी असल गहराइयों को माप सकते हैं।

 

सेठिया जी द्वारा किए गए लोक कल्याण के विविध कार्यों का प्रखर परिचय उनके उन प्रयासों से मिलता है जो उन्होंने राजस्थान के अभयारण्य की अव्यवस्था की ओर, यातायात व्यवस्था की ओर तथा यत्र-तत्र बिखरी कलाकृतियों के संरक्षण की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित करने हेतु किए। १९५४ के दौरान क्षेत्र में सती प्रथा को पुनर्जीवित करने के सामंती षड्यंत्र को विफल करने हेतु केंद्रीय सरकार को कठोर कदम उठाने के लिए प्रेरित किया और अपराधियों को दंडित कराने में सफल हुए। वर्ष १९५५-५६ में राजस्थान जल बोर्ड की कार्यकारिणी समिति के सदस्य रहते हुए गंगा के बाढ़ वाले जल को राजस्थान के सूखे क्षेत्रों में उपलब्ध करवाने हेतु तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से निरंतर पत्राचार किया और मरुभूमि में पेयजल की समस्या का समाधान करवाया। सेठिया जी द्वारा की गई राष्ट्र और समाज की निष्काम सेवा की झलक दिखाता एक जीवंत दस्तावेज है, 'पत्रों के प्रकाश में कन्हैयालाल सेठिया'। जिसे कलकत्ता के भालोटिया फाउंडेशन ने संकलित व प्रकाशित किया है। 

 

सेठिया जी का काव्य संग्रह 'लीलटांस' राजस्थान के कई विश्वविद्यालयी पाठ्यक्रमों में शामिल है। वर्ष १९७६ में राजस्थानी भाषा की इस सर्वश्रेष्ठ कृति को साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। इनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर जोधपुर और राजस्थान विश्वविद्यालय से शोध उपाधियाँ दी गई हैं।

 

माता से निष्ठा और सेवा के गुण पाकर सेठिया जी ने जो संस्थाएँ स्थापित कीं, उनकी सूची बहुत लंबी है। छात्रावास, अस्पताल, लघु स्वास्थ्य केंद्र, पुस्तकालय, विद्यालय, महाविद्यालय, हरिजन उत्थान समितियाँ, संस्कार केंद्र, बाल केंद्र, एकता समितियाँ व अनेक साहित्यिक संस्थाएँ इस सूची में शामिल हैं।


सेठिया जी की रचनाओं में प्रदेश का लोक जीवन इस तरह से गूँथा हुआ है जैसे उन्होंने इसे अपनी लेखनी के स्वभाव में पिरो लिया हो। इनमें लोगों के राग-रंग, सुख-दुख, जीवन-मरण व तीज-त्योंहार आदि समस्त विषयों का समावेश है। 'रमणियां रा सोरठा' और 'गळगचिया' जैसी रचनाओं में सेठिया जी ने केवल कुछ ही शब्दों में जीवन के अनकहे विस्तार को पिरोया है। फूल-पत्ते, दीया-बाती, बादल, मोती, डोरी, घड़ा आदि जैसे निर्जीव पदार्थों को पात्र बनाकर इन्होंने लघुतम रचनाओं से गहनतम अभिव्यक्ति की है। 


पंत कहते हैं, "आपकी कविता को पढ़कर स्वतः ही लगता है कि कविता इस युग में मरी नहीं और भी गहन गंभीर होकर जीवन के निकट आ गई है।" भाषा व लोक के इस प्रतिनिधि पुरुष का जीवन प्रयासों का महासागर है जिसमें से वे आजीवन उपलब्धियों के मोती निकालते रहे। समाज व राष्ट्र के अप्रतिम गौरव कन्हैयालाल जी सेठिया निज लोक में रची-बसी वह प्रतिभा है जिसे कुछ शब्दों में समेट पाना अत्यंत कठिन कार्य है।


कन्हैयालाल सेठिया : जीवन परिचय

जन्म

११ सितंबर १९१९, सुजानगढ़, चूरू, राजस्थान

निधन

११ नवंबर २००८

पिता

छगनमल जी सेठिया

माता

मनोहारी देवी

पत्नी

धापू देवी

संतान

जयप्रकाश

विनयप्रकाश

संपत देवी दुग्गड़ (पुत्री)

शिक्षा

बीए, कोलकाता विश्वविद्यालय

साहित्यिक रचनाएँ

राजस्थानी

  • रमणियां रा सोरठा

  • गळगचिया

  • मींझर

  • कूंकंऊ

  • धर कूंचा धर मंजळां

  • मायड़ रो हेलो

  • सबद

  • सतवाणी

  • अघरीकाळ

  • दीठ

  • क क्को कोड रो

  • लीकलकोळिया 

  • हेमाणी

हिंदी

  • वनफूल

  • अग्णिवीणा

  • मेरा युग

  • दीप किरण

  • प्रतिबिंब

  • आज हिमालय बोला

  • खुली खिड़कियाँ चौड़े रास्ते

  • प्रणाम

  • मर्म

  • अनाम

  • निर्ग्रंथ

  • स्वागत

  • देह-विदेह

  • आकाश गंगा

  • वामन विराट

  • श्रेयस

  • निष्पत्ति एवं त्रयी

उर्दू

  • ताजमहल 

  • गुलचीं

सम्मान व पुरस्कार

  • ज्ञानपीठ का मूर्तिदेवी पुरस्कार, १९८८

  • साहित्य अकादमी, १९७६

  • पद्मश्री, २००४

  • राजस्थान विश्वविद्यालय द्वारा पीएचडी की मानद उपाधि, २००५


संदर्भ

  • पत्रों के प्रकाश में कन्हैयालाल सेठिया

  • कन्हैयालाल सेठिया की कविताएँ


लेखक परिचय

सृष्टि भार्गव

राजस्थान की एक बेटी जिसे सेठिया जी ने सिखाया, “धर कूंचा धर मंजळां”।

1 comment:

  1. सृष्टि जी नमस्ते। आपने कन्हैयालाल सेठिया जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख के माध्यम से उनके बारे में विस्तृत जानकारी मिली। लेख में सम्मिलित उनके जीवन से जुड़ी घटनाओं ने लेख को रोचकता प्रदान की। आपने उनके विस्तृत साहित्यिक एवं सामाजिक जीवन को बखूबी लेख में पिरोया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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