Tuesday, September 27, 2022

सुंदरदास : योग के परमवेत्ता संत कवि

Sant Sundardas ji | Khandelwal Vaish Samaj Jhotwara Jaipur

भारतीय संस्कृति में संतों को ईशतुल्य माना जाता है। संतों के विचारों का भारत की जनता पर ही नहीं अपितु विश्व-मानव समाज पर गहरा प्रभाव है। संत समाज ने ऋषि-मुनियों और मनीषियों की सुदीर्घ दार्शनिक व सामाजिक विचारधारा को सरल एवं सहज भाषा शैली में आम जन के समक्ष प्रस्तुत किया है। संत समाज का मत है कि जीव विशुद्ध ब्रह्मतत्व है, उसमें कोई भेदभाव नहीं है, जो भेद दिखाई पड़ता है वह माया और अविद्या के कारण है, किसी जाति, धर्म अथवा वर्ग-विशेष के कारण नहीं। यही कारण है कि संतों ने सार्वभौमिकता का प्रतिपादन किया है। भारतीय साहित्य में संत साहित्य की समृद्ध परंपरा विद्यमान है, जिनमें कबीर, रैदास, गुरु नानक, दादूदयाल, वषना, मलूकदास, सुंदरदास, सूरदास, तुलसीदास,  ज्ञानेश्वर, नामदेव, तुकाराम, मीराबाई, त्यागराज, अल्लामा प्रभु आदि शामिल हैं     

"राम ते अधिक राम कर दास 

सुंदर की सुंदर गिरा, अर्पण सुंदरदास को।

स्वीकार कर प्रकट करें, पाठक हृदय प्रकाश को।।

 

"राम ते अधिक राम कर दासा " के अनुसार संतप्रवर श्री दादूदयाल जी महाराज की कीर्ति के साथ उनके शिष्यों, दासों की भी यशकीर्ति लोकपथ को आलोकित करती रही है। ब्रह्मप्रकाश सर्वत्र है और इस ब्रह्मांड में ही आत्मा का एकाकार हो। निष्काम भक्त अपने चित्त की शुद्धि और वृत्ति द्वारा अपने ईष्ट के निकट रहते हैं। उस ब्रह्म में रस रूप आत्मा को लगाने वाले, अनंत तेज रूप ब्रह्मप्रकाश से दमकते श्री दादू दयाल जी महाराज के अनन्य शिष्य, भक्ति, ज्ञान, और योग के परमवेत्ता संत कवि श्री सुंदरदास जी की महिमा अपार है। भक्तमाल में उन्हें दूसरा शंकराचार्य कहा गया है,

शंकराचार्य दूसरौ, दादू कै सुंदर भयौ।

सुंदर ने सुंदर रचे, सुंदरता के साज।

सुंदर मन से मनन कर, सुंदरांद लहैं आज।।

सुंदरदास जी तेजस्वी, कुशल वक्ता और सरल स्वभाव के बाल-ब्रह्मचारी कवि थे। अपने गुरु महात्मा संत दादू दयाल की गूढ़ वाणी और शास्त्रों का अद्वितीय प्रदर्शक माने जाने वाले सुंदरदास, वेदांत मर्मज्ञ, संस्कृत भाषा के प्रकांड विद्वान, छंदशास्त्र योग में निष्णात थे। वे संत परंपरा में सर्वाधिक सुशिक्षित, काव्य कला में निपुण और शुचिता पर बल देने वाले कवि कहे जाते हैं। उन्हें राघवकृत भक्तमाल में शंकराचार्य की पदवी दी गईभक्तिकालीन ज्ञानाश्रयी शाखा के भक्त कवियों में वे एक विशिष्ट स्थान रखते हैं।

सुंदरदास का जन्म जयपुर राज्य की प्राचीन राजधानी दौसा में रहने वाले खंडेलवाल वैश्य परिवार में चैत्र शुक्ल की नवमी तिथि संवत १६५३ को हुआ। माता का नाम सती और पिता का नाम चोखा जी (परमानंद) था। सुंदरदास  के जन्म की एक लोककथा भी प्रसिद्ध है। पूर्वकाल में प्रचलन था कि साधू अपना वस्त्र बुनने हेतु सूत माँगकर लाते थे और इस अनुक्रम में आमेर नगर में दादूदयाल के शिष्य जग्गाजी ने एक महाजन के घर टेर लगाई कि 'दे माई सूत, ले माई पूत'महाजन की कुँवारी कन्या सती नाम्नी परिहास में सूत देते हुए बोली, "लो बाबा जी सूत" जग्गा जी बोले "लो माई पूत"। इसके पश्चात अंतर्यामी महात्मा दादू ने कहा कि इस कन्या के भाग्य में पुत्र होने के कारण अपने आशीष का मान रखने को अब तू ही इसके गर्भ से जन्मेगा। सती का विवाह जयपुर राज्य की प्रथम राजधानी दौसा नगर में महाजन साह परमानंद "बूसर" गोत्री खंडेलवाल बनिए संग हुआ। इस तरह संत सुंदरदास का जन्म हुआ और यह कथा लोक में प्रचलित हुई। राघवदास कृत भक्तमाल में सुंदरदास की जन्मकथा वर्णित है,

दिवसा है नग्र चोखा बूसर है साहूकार, सादर जन्म लियो ताहि घर आइ कै।

पुत्र की चाहि पति दई है जनाइ, त्रिया कह्यो समझाइ स्वामी कहौ सुख दाइ कै।।

स्वामी मुख कही सुत जनमैगो सही, पै वैराग लेगो वही घर रहै नहीं माई कै।

एकादस बरस में त्याग्यी घर माल सब, वेदांत पुरान सुने बारानसी जाइ कै।।

ऊँची कद काठी, उभरा हुआ ललाट, सुंदर चमकीले नैन, गौरवर्णीय आकर्षक देहयष्टि, मधुर वाणी, मृदल, संयमित आचरण और व्यवहार के सुंदरदास जी अनुशासन प्रिय थे। बच्चों के साथ चर्चा करना उन्हें आनंददायक लगता। अपनी दिनचर्या के वे वृद्धावस्था तक सामान रूप से निर्वाह करते रहे, जिसमें भजन, कीर्तन और स्वाध्याय शामिल था। 

संवत १६५९ में निर्गुणसंत दादू दयाल दौसा पहुँचे। तब सुंदरदास की आयु मात्र वर्ष की थी। उन्हें देख दादूदयाल ने उनकी सुंदरता से अभिभूत होकर कहा, यह बालक बड़ा ही सुंदर है और उनका नाम सुंदर पड़ गया। यहीं से वे दादूदयाल जी के शिष्य हो गए। कहते हैं, दादूदयाल के शिष्य जग्गाजी ही सुंदरदास थे। यह उनके अपने पूर्व संस्कारों के पुण्य प्रतापों का ही फल था कि सुंदरदास ने संवत १९६० में दादूदयाल के देह त्यागने तक, मात्र दो वर्षों में ही गुरु सान्निध्य में अपना जीवन सफल कर लिया। मात्र आठ वर्ष की अल्पायु में जब दादूदयाल परमधाम को सिधारे, तब भी इनकी काव्य-प्रतिभा विलक्षण थी। जिसके कारण इन्हें बाल-कवि और बाल-साधु कहकर संबोधित किया गया 

एक बार दादूदयाल के उत्तराधिकारी गरीबदास ने सुंदरदास जी को अपमानित किया तो उन्होंने शिक्षार्थ जो पंक्तियाँ कही, वे सकल लोक प्रसिद्ध हुईं,

क्या दुनिया असतूत करैगी, क्या दुनिया के रूसे से।

साहिब सेती रहो, सुरखरू, आतम बखसे ऊसे से।।

क्या किरपन मूँजी की माया, नाँव होय नपूंसे से।

कूड़ा बचन जिन्होंने भाष्या, बिल्ली मरै मूंसे से।।

जन सुंदर अलमस्त दिवाना, सब्द सुनाया धूँसे से।

मानू तो मरजाद रहेगी, नहिं मानूं तो घूंसे से।। 

गुरु दादूदयाल महाराज के परमधाम जाने के उपरांत उनके शिष्य प्रागदास के साथ डीडवाणा और संस्कृत के प्रकांड विद्वान साधु जगजीवण जी  के साथ दौसा में अपने माता-पिता के पास संवत १९६३ तक सत्संग और पठन-पाठन किया। इसी वर्ष मात्र ग्यारह वर्ष की आयु में काशी आकर लगभग उन्नीस वर्ष संस्कृत विद्या, वेदांत, दर्शन, पुराण और योग का अभ्यास किया 

संवत १६८२ में तीस वर्ष की आयु में सुंदरदास फतेहपुर-शेखावाटी पहुँचे, जहाँ गुरुभाई प्रागदास के साथ योगाभ्यास, साधु-भक्तों और साहूकारों के साथ कथा-कीर्तन इत्यादि करते हुए लोक हेतु सत्मार्ग प्रशस्त करने का कार्य किया। वस्तुतः लोकसेवक बनकर आए सुंदरदास जी ने जाति-पांति, ऊँच-नीच, और जातिवाद का विरोध किया है। गुरु दादूदयाल की गूढ़ वाणी के वे अद्वितीय वाचक माने जाने लगे। इनके ग्रंथों को दादूदयाल वाणी का प्रदर्शक कहा जाता है। फतेहपुर के नवाब अलफ़ खाँ, उनके पुत्र दौलत खाँ और ताहिर खाँ, सुंदरदास के चुंबकीय व्यक्तित्व से प्रभावित थे और उन्हें 'मर्दे ख़ुदा' कहते थे।

संवत १६९९ में गुरुभाई प्रागदास के गोलोकवासी हो जाने के उपरांत चित्त को लगाने हेतु सुंदरदास ने उत्तरीय भारत राजपूताने की यात्रा की। बड़े तीर्थ स्थानों, राजस्थान, पंजाब, दिल्ली, लाहौर, बंगाल, उड़ीसा, गुजरात, मालवा, बदरीनाथ और दादूदयाल जिन स्थानों पर रुके, वहाँ जाकर गुरमुख भक्तों से भेंट की। अनवरत भ्रमण के साथ ही ग्रंथों की रचना भी करते रहे। 

स्वच्छता शुचिता का विशेष ध्यान तथा गंदगी से घृणा करने वाले सुंदरदास जी ने देशाटन के समय पंजाब, दक्षिण मारवाड़, फतेहपुर, गुजरात और पूरब के आचार-व्यवहार में बिखरी अशुद्धता और मलिनता पर कटाक्ष करते हुए उपहास उड़ाया है। गुजरात के लिए कहा कि 

"आभड छात अतीत सौ कीजिए बिलाय रु कूकर चाटत हांडी"


मारवाड़ के विषय में,

"वृच्छन नीर उत्तम देसन चीर सु देसन में गत देश है मारू" 


फतेहपुर की स्त्रियों को "फूहड़ नार फतेहपुर की"


और दक्षिण के संबंध में लिखा,

"राँधत प्याज बिगारत नाज, ना आवत लाज करै सब भच्छन"


पूरबी देशों के आचार-व्यवहार पर,

"ब्राह्मण क्षत्रिय वैश रु सूदर, चारुहिं बरन के मंछ बघारत"


मालवा, उत्तराखंड तथा कुरसाना उनके प्रिय क्षेत्र थे,

"मालवो देस भली सब ही तें"

"जोग करन को भली दिशि उत्तर"


कुरसाना की प्रशंसा करते हुए वे लिखते हैं,

पूरब-पश्चिम उत्तर-दक्षिण, देस बिदेस फ़िरे सब जानें।

केतक द्योंस फतेपुर माहिं सु, केतक धयोंस रहे डीडवानें।।

केतक द्योंस रहे गुजरात हू, उहाँ हू कछु नहिं आयी है ठानें।

सोच विचार के सुंदरदास जु, याही  तें आनि  रहे कुरसाने।।

वैराग्य, गुरुभक्ति और अनुभव ज्ञान से रंजित उनकी वाणी में सत्य स्थापित है। अति मनोहारी सवैया, गुरुभक्ति में पगे छंद और साधु-शिरोमणि वाणी भारतवर्ष के साहित्य जगत की अतुलनीय धरोहर हैं। वे शृंगार रस के घोर विरोधी थे। योग और अद्वैत वेदांत के समर्थक सुंदरदास जी ने भारतीय तत्त्वज्ञान, भक्तियोग, दर्शन, ज्ञान, नीति और उपदेश आदि विषयों को परिमार्जित सरल स्वरुप में सालंकृत ब्रजभाषा में प्रस्तुत किया है। काव्य रीतियों के ज्ञान के कारण ये अन्य निर्गुणी संतों से भिन्न दिखाई देते हैं। वस्तुतः सुंदरदास जी की रचनाएँ संतकाव्य के शास्त्रीय संस्करण के रूप में मान्य हो सकती हैंरीतिकालीन कवियों से प्रभावित होकर उसी भाँति इन्होंने चित्र काव्य की भी सृष्टि की। वर्णों को विचित्र रूप से प्रस्तुत करना चित्र अलंकार कहलाता है। जैसे कमलबंध में पद्य के अक्षर कमल का आकार ले लेते हैं। उनकी रचनाओं में हार बंध, वृक्ष बंध, चौकी बंध, कंकण बंध और छत्र बंध आदि अनेक चित्र बंध देखने को मिलते हैं। शांतरस मय होते हुए भी उनका काव्य अभिधा, लक्षणा, व्यंजना आदि तीनों शब्द-शक्तियों द्वारा सुंदर शब्द योजना, रस, अलंकार और माधुर्य से परिपूर्ण है। उन्होंने सांसारिक कवियों की भाँति मात्र अलंकार से सजी हुई केवल तुकबंदी को काव्य नहीं माना। वे हर प्रकार से शिक्षित कवि थे। छंदों का विपुल श्रेष्ठ ज्ञान उनके पास था। भक्ति और ज्ञानचर्चा के अतिरिक्त नीति और देशाचार आदि पर भी इन्होंने बड़े सुंदर पद कहे हैं। सिद्धहस्त कवियों के समान बहुत से कवित्त, सवैये आदि रचे हैं। उनके प्रसिद्ध ग्रंथ "सुंदर बिलास" में  श्रेष्ठ कवित्त, सवैये मिलते हैं, जो यमक, अनुप्रास और अर्थालंकार से अलंकृत हैं। वाणी अति मधुर, सरल प्रसाद गुण युक्त तथा शांत रस प्रधान है। सुंदर बिलास के सवैये पाठक मन को अपना प्रेमी बना ही लेते हैं। हास्य-व्यंग्य उनके रचना संसार में दिखाई देता है। महीन कटाक्ष और चुटकियों में वे वेदांत मतों की गंभीरता सरल-सहज भाषा में सर्वसाधारण के हितार्थ प्रस्तुत करने में सिद्धहस्त थे। सांसारिक भटकन में उलझे हुए मन को स्थिर करने का संदेश देते हुए वे कहते हैं,

मन ही बडौ कपूत है, मन ही बडौ सपूत। 

सुंदर जौ मन थिर रहै, तो मन ही अवधूत॥


अर्थ, काम, क्रोध, लोभ और मोह की लिप्सा में फँसे हुए मनुष्य को सचेत करते हुए कहते हैं


गज अलि मीन पतंग मृग, इक-इक दोष बिनाश। 

जाके तन पाँचौं बसै, ताकी कैसी आश।।

सुंदर जाके बित्त है, सो वह राखैं गोई।

कौड़ी फिरै उछालतो, जो टुटपूंज्यो होई।।


सुंदरदास जीवन में त्रुटि हो जाना स्वाभाविक मानव स्वभाव मानते हैं और सुधार के लिए प्रेरित करते हैं,

जैसे हंसनीर कौ तजत है असार जानि,

सार जानि क्षीर कौ निरालौ कर पीजिये।

जैसे दधि मथन मथन काढ़ी लेत घृत,

और रही पही  सब छाछि छाडि दीजिए।

जैसे मधु मक्षिका, सुवास कौ भ्रमर लेत

तैसे ही विचार करि भिन्न -भिन्न कीजिये।

सुंदर कहत तातैं वचन अपने भांति,

बचन में बचन विवेक कर लीजिये।।

सुंदरदास संस्कृत भाषा के प्रकांड पंडित होने के साथ ही हिंदी, फ़ारसी, पूरबी, गुजराती, मारवाड़ी, सधुक्कड़ी, पूर्वी बोली आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखते थे। उन्होंने सर्वसाधारण को लक्ष्य मानकर ही सरल भाषा में रचना की, जिससे लोक का भला हो सके। 

अनुमानतः संवत १७४५ के पश्चात सुंदरदास साँगानेर (दादूदयाल के शिष्य) और श्रेष्ठ कवि रज्जब और उनके शिष्यों के साथ रहे। यहाँ उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की। रोगग्रस्त होने के बाद भी मात्र राम का सुमिरन करते ध्यानालीन रहते। संवत १७४६ में संत सुंदरदास ने देह त्याग दी। अंतसमय में जो वचन सुंदरदास जी ने कहे वे "अंतकाल की साखी" नाम से प्रसिद्ध हैं,

मान लिये अंतःकरण, जे इन्द्रिन के भोग।

सुंदर न्यारो आतमा, लगो देह को रोग।।

वैद्य हमारे रामजी, औषधि हू हरि नाम।

सुंदर यहै उपाय अब, सुमिरण आठों  जाम।।

सुंदर संशय को नहीं, बड़ी महुच्छव येह।

आतम परमातम मिल्यो, रहो कि बिनसो देह।।

सात बरस सौ में घटैं इतने दिन की देह।

सुंदर आतम अमर है, देह खेई की खेह।।


दादू पंथी साधुओं, सेवकों और शिष्यों की भारी भीड़ उनकी अंतिम यात्रा में उमड़ी। वर्तमान धाभाई बगीचे के निकट दाह संस्कार संपन्न हुआ। इस स्थान पर श्वेत शिला पर सुंदरदास जी शिष्य नारायणदास के पदचिह्न और एक दोहा अंकित है,


सम्बत सत्रा से छियाला, कातिक सुदी अष्टमी उजाला।

तीजे पहर भरस्पति बार, सुंदर मिलिया सुंदर सार।।


दादूदयाल जी के शिष्यों बावन थांभा-धारियों में सुंदरदास जी सबसे छोटे थे। फतेहपुर शेखावाटी इनका स्थान रहा। इनके पाँच शिष्य टिकैतदास, श्यामदास, दामोदरदास, निर्मलदास और नारायणदास प्रसिद्ध हुए जो फतेहपुर, मोर, चूरू, बीकानेर इत्यादि स्थानों में रहे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय भक्त साहित्य के मर्मज्ञ रहे श्री नंदकिशोर पांडे कहते हैं, "देश में संत साहित्य का महत्व कम नहीं होने वाला। आज जो हिंदी और हिंदी की ताकत है, यह संत साहित्य के बल से प्राप्त हुई है। इस देश की भावनाओं को संतों ने निर्मित किया है। अतः साहित्य कभी भी अप्रासंगिक नहीं हो सकेगा।" यदि हम साहित्य के भीतर कुछ पढ़ना-लिखना चाहते हैं, तो हमें संत साहित्य का अवलोकन अवश्य करना होगा। भाषा वांग्मय के सिद्धहस्त रचनाकार सुंदरदास के गुणों और शास्त्रज्ञान के कारण ही दादू संप्रदाय में प्रचलित है,

दादू दीन दयालु के, चेले दोय पचास।

कइ उडगण कई इंदु हैं, दिनकर सुंदरदास।।


सुंदरदास : जीवन परिचय

जन्म

चैत्र शुक्ल , सं० १६५३ (१५९८ ई०) दौसा (जयपुर)

निधन

कार्तिक शुक्ल , सं० १७४६ (१६८८ ई०) (सांगानेर

माता 

सती

पिता 

 चोखा जी  (परमानंद)

गुरु

महात्मा दादूदयाल जी

भाषाज्ञान

संस्कृत, हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, गुजराती, सद्दुकड़ी, पूर्वी बोली

साहित्यिक रचनाएँ

  • ज्ञान समुद्र

  • सर्वांग योग प्रदीपिका

  • पंचेन्द्रिय चरित्र

  • सुख समाधि

  • स्वप्न बोध

  • वेद विचार

  • उक्त अनूप

  • अद्भुत उपदेष

  • पंच प्रभाव

  • गुरु सम्प्रदाय

  • गुरु उत्पत्ति निषानी

  • सहमहिमा निषानी

  • बावनी

  • गुरुदया षटपदी

  • भ्रम विध्वंसक अष्टक

  • गुरुकृपा अष्टक

  • गुरु उपदेष अष्टक

  • गुरुदेव महिमा अष्टक

  • रामजी अष्टक

  • नाम अष्टक

  • आत्मा अचल अष्टक

  • पंजाबी भाषा अष्टक

  • ब्रह्म स्त्रोत अष्टक

  • संस्कृत श्लोक

  • पीर मुरीद अष्टक

  • अजब ख्याल अष्टक

  • ज्ञान झूलना अष्टक

  • सहजानंद

  • गृह वैराग्य बोध

  • हरि बोल चितावनी

  • तर्क चितावनी

  • विवेक चितावनी

  • पवंगम

  • अडिल्ला

  • मडिल्ला

  • बारहमासी

  • आयुर्बलभेद

  • त्रिविध अंतकरण

  • पूर्वी भाषा बरबै

  • सवैया सुंदर विलास

  • साखी

  • पदावली

  • गुढ़ार्थ रचनाएँ

  • चित्रकाव्य

  • कविता लक्षण

  • ज्ञान विचार

  • देषाटन सवैया

  • बाई जी की भेंट सवैया


संदर्भ

  • भक्तमाल, सुंदर बिलास, सुंदर ग्रंथावली 

  • हिंदवी, कविताकोश, सूफ़ीनामा 

  • भारत डिस्कवरी, भारतकोश, विकीपीडिया 


लेखक परिचय

d:\Users\Deepak\Downloads\PHOTO-2022-09-23-15-17-10.jpgभावना तिवारी

कविता लेखन में सक्रिय हैं मूलतः गीतकार भावना तिवारी,डायरी, क्षणिका, मुक्तक, दोहा, चौपाई, हाइकु, ललित-निबंध, आलेख तथा लघुकथा लेखन भी करती हैं। इनका गीत संग्रह, बूँद-बूँद गंगाजल (गीत-नवगीत संग्रह) पर्याप्त चर्चित हुआ कविता विभाग-गाथा एप और शिवोहम साहित्यिक मंच की संस्थापिका। नोएडा इकाई - अखिल भारतीय साहित्य परिषद की उपाध्यक्षा, नोएडा इकाई तथा भारतीय योग संस्थान - नोएडा क्षेत्र से सम्बद्ध हैं। मोबाइल - 9935318378

ईमेल - drbhavanatiwari@gmail.com

3 comments:

  1. भावना जी,आपने सुंदरदास जी के जीवन और साहित्य पर बहुत सुंदर आलेख दिया है। उनकी रचनाओं के उद्धरण बहुत अच्छे हैं और उनका लेखन वही सब कहता है जो दादू, नामदेव, रविदास जैसे संतों- भक्तों ने कहा है। आपको संत-साहित्य की इस सुंदर भेंट के लिए साधुवाद, बधाई। 💐💐 कबीर ने सत्य ही कहा है -
    कबीर माया डोलनी
    पवन झकोलन हार।।
    संतहु माखन खाया
    छाछ पिये संसार।।
    🙏🙏

    ReplyDelete
  2. भावना जी नमस्ते। अपने सुंदरदास जी पर बहुत अच्छा लेख लिखा है। लेख से उनके जीवन एवं सृजन के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपको जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।

    ReplyDelete

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