भारतेंदु युग के प्रख्यात कवि बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' के साहित्य का फलक बहुत विस्तृत है। वे अपने युग के एक प्रख्यात रचनाकार थे। उन्होंने कविता, नाटक, निबंध, आलोचना आदि विधाओं में प्रभावी सृजन कर युगीन समस्याओं को उद्घाटित किया। उनका जन्म संवत १९१२ के भादो माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी, तदनुसार अँग्रेज़ी वर्ष की १ सितंबर १८५५ ई० को ग्राम दत्तापुर आजमगढ़ में हुआ था। उनके पिता पं० गुरुचरणलाल उपाध्याय सरयूपारीय ब्राह्मण थे। मिश्रबंधुओं ने उनका जन्म-स्थान मिर्जापुर माना है। जबकि प्रेमघन की रचनाओं से दत्तापुर ही उनका जन्मस्थान प्रामाणिक रूप से सिद्ध होता है। उन्होंने अपने जन्मस्थान की दुर्दशा का वर्णन अपनी कृति 'जीर्ण जनपद' में किया है। दरअसल प्रेमघन के पुरखे उत्तर प्रदेश में बस्ती जिला के निवासी थे, कालांतर में सुल्तानपुर में आकर दोस्तपुर नामक गाँव में बस गए। कुछ महीनों के पश्चात प्रेमघन के प्रपितामह पंडित जगन्नाथ प्रसाद जिला मिर्जापुर में रहने लगे।
उनकी माता, तुलना देवी, परम विदुषी एवं धर्म-परायण महिला थीं जिनका संस्कार प्रेमघन पर पड़ा। वे भी धर्म-कर्म, तीर्थ-दर्शन और राष्ट्रप्रेम के प्रति गहरा लगाव रखते थे। वे घुमक्कड़ी स्वभाव के थे। माँ ने बचपन में हिंदी ककहरा सिखा दिया था। कहें कि माँ ही उनकी प्रथम पाठशाला थीं। उनकी स्कूली शिक्षा की शुरुआत फारसी में हुई थी। उन दिनों अँग्रेज़ी शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान था क्योंकि अँग्रेज़ी पढ़े-लिखे व्यक्ति को विशेष सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था और नौकरी मिलने में दिक्कत नहीं आती थी। घर की आर्थिक हालत ठीक न रहते हुए भी प्रेमघन को १८६७ ई० में अवध (गोंडा) गवर्नमेंट स्कूल में भर्ती करा दिया गया ताकि वे फारसी के अतिरिक्त अँग्रेज़ी सीख सकें। किंतु अपने स्वतंत्र स्वभाव के कारण उनका संपर्क अयोध्यानरेश महाराज सर प्रतापनारायण सिंह (ददुआ साहेब), महाराज उदयनारायण सिंह, लाला त्रिलोकी आदि ताल्लुक़ेदारों से हुआ। उनके संपर्क के प्रभाव से उनमें घुड़-सवारी, मृगया, गजसंचालन, निशानेबाजी करने की आदत पड़ गई। बाद में मिर्जापुर में प्रेमघन की पढ़ाई घर पर हुई। ब्रजभाषा के प्रतिष्ठित रसज्ञ-कवि रामानंद पाठक ने उन्हें संस्कृत की शिक्षा दी। साहित्य के प्रति लगाव भी उन्हीं की प्रेरणा से हुआ। हिंदी, संस्कृत, फारसी और अँग्रेजी भाषाओं में पारंगत थे।
प्रेमघन का वास्तविक नाम बद्रीनारायण था। चौधरी का खिताब किसी अँग्रेज़ द्वारा उनके पूर्वजों को दिया गया था जो बाद में उनके लिए रूढ़िबद्ध हो गया। प्रेमघन जी बहुत ही विनम्र एव हँसमुख स्वभाव के थे। मिर्जापुर की मित्र-मंडली में बात-बात पर खूब ठहाके लगाते थे। उनके मन में सबके प्रति निजत्व और प्रेम-भाव भरा था। लेकिन पारिवारिक विघटन से वे खिन्न थे। उन विपरीत परिस्थितियों में भी साहित्य-सृजन करते रहे। उनका रहन-सहन साधारण था परंतु रंगीले-रसिक स्वभाव के कारण आकर्षक वेशभूषा पहनते थे। भारतेंदु से उनका निकट का संबंध था और उनके समान ही वे रसिक और हिंदी के प्रगाढ़ प्रेमी थे। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, "प्रेमघन जिससे मिलते थे जी खोलकर मिलते थे।" उनमें गहरा स्वदेशानुराग, स्वाभिमान और आभिजात्य भरा था। वे वाक्-पटु होने के साथ हास्य-विनोदी थे। अपनी बात को लक्षणा और व्यंजना में अभिव्यक्त करने की विशेषता के कारण उनके संगी साहित्य-प्रेमी उन्हें 'प्रेमघन' संज्ञा से संबोधित करने लगे।
यौवन के संधिकाल में उनका झुकाव संगीत की ओर हुआ। ताल, लय, राग का उनको विशेष परिज्ञान था। वे रसिक व्यक्ति थे इसलिए राग-रंग में अपने को लीन कर लिया। १८७१ ई० में वे कलकत्ता से गंभीर रूप से अस्वस्थ होकर आए उसी बीमारी के दौरान उनकी भेंट पं० इंद्रनारायण सांगलू से हुई जो शीघ्र ही मित्रता में बदल गई। सांगलू जी शायरी करते थे और मित्रों को भी शायरी करने के लिए प्रेरित करते थे। उनकी संगति से ग़ज़लों और नज़्मों की ओर रुचि जागृत हुई। उर्दू-फारसी का गहरा ज्ञान था ही अतः भाषाई रुकावट न आई। अस्तु, इन रचनाओं के लिए वे "अब्र"(तखल्लुस) रखकर ग़ज़ल, नज़्म और शेरों की रचना करने लगे। सांगलू के कारण ही उनका भारतेंदु से मैत्री-भाव बढ़ा था जो धीरे-धीरे प्रगाढ़ होता गया और भारतेंदु के रंग में वे पूरी तरह से रंग गए, यहाँ तक कि रचनाशीलता और जीवन-पद्धति में भी उन्हीं के से हो गए।
साहित्यिक अवदान
उस काल का वातावरण उतना स्वस्थ नहीं था। ब्रिटिश हुकूमत में शोषण-दमन जारी था। समाज में रूढ़ियाँ, कुरीतियाँ व अंधविश्वास व्याप्त थे। समसामयिकता के प्रति वे सचेत थे। साहित्य सृजन के साथ-साथ उन्होंने 'आनन्द कादम्बिनी', 'नागरी नीरद' और अन्यान्य सप्ताहिक और मासिक पत्र-पत्रिकाओं का सफलतापूर्वक संपादन किया। संपादन के साथ ही वे स्वतंत्र रूप से निबंध भी लिखते रहे। प्रेमघन की रचनाओं को क्रमशः तीन खंडों में विभक्त किया जा सकता है (१) प्रबंधकाव्य, (२) संगीत काव्य, (३) स्फुट निबंध। वे कवि ही नहीं उच्चकोटि के गद्यलेखक और नाटककार भी थे। गद्य में निबंध, नाटक, आलोचना, प्रहसन आदि लिखकर अपनी साहित्यिक प्रतिभा का बड़ी पटुता से निर्वाह किया। छोटे-छोटे विषयों पर सारगर्भित निबंध लिखे हैं। छोटी सी बात को भी बढ़ा-चढ़ाकर लच्छेदार भाषा में कहना उनकी अपनी विशेषता थी पर वाक्य-संरचना क्लिष्ट, वाक्य लंबे और संस्कृत शब्दों का प्राधान्य नहीं है। मुहावरों का प्रचुर प्रयोग हुआ है किंतु कलात्मक काव्यात्मकता मिलती है। यथा, "यदि मनुष्य अपने अमूल्य समय को न खोना चाहे तो उसे क्षुद्र कामों में प्रवृत्त होना न चाहिए। ऐसे कृत्यों का करना अनुचित है जिसे पीछे समझ मनुष्य लज्जित होता है और पछताता है। मनुष्य को अपने पद और योग्यता के अनुसार काम करना उचित है।"(समय की सार्थकता को सिद्ध करता 'समय' : शीर्षक निबंध से) यह प्रेमघन का एक महत्वपूर्ण निबंध है। समय की सार्थकता समवेद, सृष्टि-सृजन, सुरुचि, समवेत्ता है। समय सुखमय, शुभजीवन और लक्ष्मी का अक्षय भंडार है। यह सत्य का पथ-प्रदर्शक है। समसामयिकता से सिक्त रचनाओं के अतिरिक्त कुछ रचनाएँ धार्मिक भावनाओं का प्रकाशन करती हैं। 'युगल मंगल स्तोत्र' रचना इसी प्रकार की है। 'ब्रजचन्द पंचम' कृष्ण के यशोगान में सृजित है। सन १८८५ में प्रकाशित 'पितर प्रलाप' हिंदुओं की दयनीय दशा को चित्रित करती है।
"जान निकट बलिदान दिन अजा रही बिलखाय।
हाय मेमने महहिंगे कीजै कौन उपाय।"
'कलम और कारीगरी' (१८८१) उनकी कविताओं का एक महत्वपूर्ण संग्रह है। इसमें शृंगार के प्रकरण में यत्र-तत्र प्राकृतिक दृश्यों के मोहक-मार्मिक बिंब चित्रित हैं। 'शोकाश्रु बिन्दु' के अंतर्गत रचित पंक्तियाँ भारतेंदु के व्यक्तित्व की विराटता को व्यंजित करती हैं। 'प्रेम पीयूष वर्षा' फुटकर कविताओं का एक बड़ा रुचिप्रद संकलन है। 'सूर्य स्तोत्र' में सूर्य की वंदना की गई है। 'मंगलशाला' (१८८१) तत्कालीन कवियों के स्वाभिमान के साथ देशप्रेम की महत भावना से संपूरित है। १८९८ में प्रकाशित 'हास्य बिन्दु' में उनकी हास्य-विनोदपूर्ण रचनाएँ हैं। 'आनन्द बधाई' में हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प है तो 'लालित्य-लहरी' बिहारी की सतसई के आधार पर रचित शृंगारपरक भावों का दिग्दर्शन कराती है।
"बनियान बसन्त बसेरो कियो, बसिए तेहि त्यागी तपाइये ना।
दिन काम कुतूहल के जे बने, तिन बीच बायोगैस बुलाये ना।
घन-प्रेम बढ़ा के प्रेम अहो, बिना-वारी बृथा बरसाइये ना।
चित्र चैत की चाँदनी चाह भरी, चरखा चलिबे की चलिये ना।"
उन्होंने 'संगीत काव्य' भी लिखा है जो अपने ढंग की अनोखी कृति है। संगीत के निकष को बड़ी बारीकी से इसमें विवेचित किया है। प्रेमघन का काव्यक्षेत्र विस्तृत था। आरंभ में वे ब्रजभाषा को कविता की भाषा मानते थे। किंतु कालांतर में उन्होंने जिस प्रकार खड़ीबोली का परिमार्जन किया, उनके काव्य से स्पष्ट है। 'बेसुरीतान' शीर्षक लेख में उन्होंने भारतेंदु की आलोचना करने से चूक नहीं की। 'प्रेमघन सर्वस्व' शीर्षक से उनकी कृतियों का संपादन हिंदी-साहित्य सम्मेलन ने दो भागों में किया। (सन १९१२) में प्रेमघन हिंदी-साहित्य सम्मेलन के तृतीय अधिवेशन के अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे।
शिल्प-सौष्ठव
प्रेमघन ने शिल्प पर विशेष ध्यान दिया है। काव्य-रचना में कीमियागरी नहीं, कारीगरी है। उनकी गद्य रचनाओं में हास-परिहास पुटपाक होता था। कथोपकथन शैली का 'दिल्ली दरबार में मित्र मंडली के यार में देहलवी' उर्दू-फारसी के शब्दों से संयुक्त चुस्त मुहावरेदार भाषा का उम्दा उदाहरण है। उनकी प्रायः सभी रचनाएँ समसामयिक संदर्भों से संबंधित हैं। जाति-उद्धार, राष्ट्रप्रेम, भाषाप्रेम, सांस्कृतिक सजगता, परंपरा की रक्षा, लोक-संस्कृति की विविधता, सनातन धर्म के महत्व आदि को केंद्र में रखकर प्रेमघन ने अपने भावों को गंभीरता से व्यक्त किया है। यही भारत की आत्मा है। इन सबकी अभिव्यक्ति के लिए ही उन्होंने काव्य-शक्तियों का उपयोग किया है। उस युग में अधिकांश लेखकों में आनुप्रासिक शब्दों के प्रति विशेष आकर्षण की प्रवृत्ति प्रेमघन में भी दृष्टिगत होती है।
'या विधि सुख सुविधा समान सम्पन्न हो मन।'
'अलबेली असली अरदली सिपाही केरी।'
'आगे-आगे चलत लोग हमरे हिय हेरी।'
आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, उपमा, संदेह, प्रतिमान, विभावना, उत्पेक्षा, विशेषोक्ति के प्रयोग के अलावा अर्थालंकार की सुष्ठु योजना भी सामान्यतः मिलती है। प्रबंधकाव्यों में रीतिकालीन परंपरागत छंदों, दोहा, रोला, बरवै, कुंडलिया, सवैया, छप्पय, कवित्त, भुजंगासन प्रपात, हरितालिका प्रभृति प्रयोग किए हैं। खड़ीबोली के (संस्कृत के तत्सम और तद्भव, देशज) शब्दों के साथ उर्दू-फारसी शब्द-प्रयोग हुए हैं। अप्रस्तुत विधान भी परिलक्षित होता है। गद्य-पद्य के अलावा उन्होंने लोकगीतात्मक काली, होली, चैता की रचना भी की है जो ठेठ भावप्रवण मीरजापुरी भाषा के अच्छे एवं बेजोड़ प्रतिदर्श हैं। उनकी गद्यशैली की समीक्षा से यह स्पष्ट हो जाता है कि खड़ीबोली गद्यके वे प्रथम आचार्य थे। समालोच्य पुस्तक के विषयों का अच्छी तरह विवेचन करके उसके विस्तृत निरूपण की चाल उन्होंने चलाई। इस प्रकार प्रेमघन का स्मरण हिंदी-साहित्य के प्रमुख उत्थान का स्मरण है।
संदर्भ
- https//hi.m.wikipedia.org.wiki.
- आधुनिक हिंदी काव्य, डॉ० भगीरथ मिश्र/डॉ० बलभद्र तिवारी, मध्य प्रदेश हिंदी ग्रथ अकादमी, प्रथम संस्करण १९७३
- हिंदी साहित्य का इतिहास, संपादक : डॉ० नगेंद्र, ने० प० हाउस, नई दिल्ली-२, प्रथम संस्करण १९७८
- हिंदी के मानक निबंध, संपादक : डॉ० राहुल, भावना प्रकाशन, १०९-ए, पटपड़गंज दिल्ली ९१
- हिंदी गद्य और उनकी शैलियाँ, रामगोपाल सिंह चौहान, साहित्य रस-भंडार, आगरा, प्र० सं० १९५५
- प्रेमघन : जीवन और साहित्य, डॉ० गायत्री शुक्ल यश पब्लिकेशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली ३२
लेखक परिचय
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आदरणीय डॉ राहुल जी,
ReplyDeleteचौधरी प्रेमघन जी का बहुत ही वृस्तत आलेख आपने जोड़ा है।उनके प्रात्यक्षित व्यवहार और रचनात्मक संसार की अभिव्यक्ति बिल्कुल खुले मन से संजोयी गयी है। उनकी कविताओं की भी अभिव्यंजक जानकारी देकर काव्यक्षेत्र को वृस्तत किया गया है। निश्चित रूप से आलंकारिक शब्दों के विशेष प्रवृत्ति से आलेख प्रवाहमय हो रहा है। इस सुरुचिपूर्ण आलेख प्रस्तुति के लिए आपका आभार और अनंत शुभकामनाएं।
डॉ. राहुल जी नमस्ते। आपके लेख के माध्यम से बद्रीनारायण चौधरी 'प्रेमघन' जी को विस्तार से अवसर मिला। लेख बहुत अच्छा एवं शोधपरक है। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत शानदार आलेख सर 🙏🙏
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