
निबंध हिंदी गद्य साहित्य की एक महत्वपूर्ण विधा है। निबंध मतलब बंधन से बंधा हुआ, एक ऐसी रचना जिसमें लेखक किसी भी वस्तु, व्यक्ति या स्थिति पर अपने विचार सुनियोजित ढंग से प्रस्तुत करता है। हालाँकि हिंदी निबंध लेखन का प्रारंभ भारतेंदु युग से माना जाता है, लेकिन निबंध की भाषा में प्रौढ़ता, प्रचुरता और गंभीरता द्विवेदी युग में आई। इस काल में निबंध की भाषा और अधिक परिष्कृत हुई। गोविंद नारायण मिश्र, द्विवेदी युग के महान निबंधकारों में से एक थे। गोविंद नारायण मिश्र का जन्म कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया, सन १८५९ को कलकत्ता में एक संपन्न, सुसंस्कृत और संस्कृतभाषी परिवार में हुआ। उनके परदादा और दादा संस्कृत के प्रकांड विद्वान और ज्योतिष शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। उनके दादाजी, पंडित लक्ष्मी नारायण मिश्र के ज्ञान से प्रभावित होकर वर्धमान के महाराजा ने उनको अपने दरबार में पंडित नियुक्त किया था। उनके पिता गंगा नारायण मिश्र कलकत्ता में अँग्रेज़ों की नौकरी करते थे। गंगा नारायण मिश्र जी को संस्कृत से अगाध प्रेम था, अतः उन्होंने अपने पुत्र को संस्कृत पढ़ाने के विचार से काशी से एक विद्वान पंडित को बुलाया और मात्र चार साल तीन माह और तीन दिन की उम्र में गोविंद नारायण का विद्या अभ्यास शुरू हो गया। उन्होंने गुरूजी से घर पर ही अष्टध्याय, अमरकोश, यजुर्वेद संहिता और मुहूर्त चिंतामणि आदि ग्रंथ पढ़े। पाँच वर्ष की आयु में उन्हें कलकत्ता संस्कृत कॉलेज में दाखिला मिल गया। वे घोड़े पर सवार होकर कॉलेज जाया करते थे। उनके गुरूजी, राममय तर्कालंकार उनकी स्मरणशक्ति, लगन, अनुशासन और अध्ययनशीलता से बहुत प्रभावित थे। राममय तर्कालंकार स्वयं एक अच्छे कवि थे, उनके सानिध्य से बालक गोविंद ने छोटी अवस्था में ही संस्कृत में कविताएँ लिखना आरंभ कर दिया था। गोविंद नारायण कक्षा के सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी थे। लेकिन दुर्भाग्य से बाल्यकाल से ही उनकी आँखों में कुछ विकार आ गया। जिसकी वजह से उन्हें बीच-बीच में आँखों पर काली पट्टी बाँधे रखनी पड़ती और पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ती। लेकिन आँखों में थोड़ा सुधार आते ही वे फिर पढ़ाई शुरू कर देते। इसी तरह उन्होंने प्राचीन हिंदी साहित्य, प्राकृत, संस्कृत व्याकरण और उच्च कोटि के अँग्रेज़ी ग्रंथों का अध्ययन किया। आँखों का यह विकार जीवन पर्यंत उनके साथ बना रहा।
गोविंद नारायण एक महान व्यक्तित्व के स्वामी थे। वे एक सच्चे और ईमानदार व्यक्ति थे। यही सच्चाई और ईमानदारी उनकी लेखनी में भी दिखती है। किसी की चापलूसी और अनावश्यक व अनुचित प्रशंसा करना उनका स्वभाव नहीं था। पिता की मृत्यु के बाद उन्होंने अँग्रेज़ों की नौकरी की, परंतु अपने स्वभाव के अनुकूल न होने के कारण उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया। वे एक कुशल अध्यापक थे। उन्हें सर्वसम्मति से कलकत्ता साहित्य विद्यालय का आजीवन सभापति और प्रधानाचार्य नियुक्त किया गया था। उनकी स्मरण शक्ति अद्भुत थी। एक बार जो पढ़ लेते उस पर उनका आधिपत्य हो जाता। वार्तालाप में मैक्समूलर, हक्सले, लोकमान्य तिलक आदि की पुस्तकों का ज़िक्र करते हुए और उद्धरण देते हुए वे पृष्ठ संख्या यहाँ तक पंक्ति संख्या भी बता देते थे। उन्हें हिंदी, संस्कृत, मराठी, गुजराती, बांग्ला और अँग्रेज़ी भाषा का अच्छा ज्ञान था। साहित्य के अलावा उन्हें संगीत का बेहद शौक था। उनकी आवाज़ बहुत मधुर थी और ऐसी मधुर आवाज में जब वे कविता सुनाते तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। उन्हें गणित और आयुर्वेद की भी जानकारी थी। गणित के कठिन से कठिन सवाल वे चुटकियों में हल कर लिया करते। उन्होंने क्षय रोग की एक औषधि बनाई थी, जो स्थायी उपचार देती थी।
गोविंद नारायण सनातन धर्म के कट्टर अनुयायी थे। धर्म-कर्म में उनकी अपार श्रद्धा और भक्ति थी। उन्हें अपने सारस्वत ब्राह्मण होने पर बहुत गर्व था। वे प्रतिदिन दो तीन घंटे पूजा में व्यतीत करते थे। कलकत्ता सनातन धर्मसभा की स्थापना से ही वे उसके प्रमुख कार्यकर्ता थे। इसी धर्मसभा ने आगे चलकर पिंजरापोल तथा संस्कृत पाठशाला जैसी उपकारी संस्थाओं की स्थापना की। उन्होंने बंग-भंग आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और बाद में पंडित मदन मोहन मालवीय के संपर्क में आने पर खादी को जीवन पर्यंत धारण किया।
गोविंद नारायण प्रकांड विद्वान, सुलेखक और धुरंधर समालोचक के साथ-साथ एक निर्भीक और प्रखर वक्ता भी थे। बंगधर्म-मंडल के वार्षिक अधिवेशन में उनका संतुलित धाराप्रवाह व्याख्यान सुनकर बंगाल के पुरुषरत्न, सर गुरुदास बंद्योपाध्याय ने कहा, "मुझे अब तक यह बात ज्ञात नहीं थी कि हिंदी भाषा भाषियों में भी इस प्रकार के उच्चकोटि के व्याख्याता हैं।" सन १९११ में संपन्न दूसरे हिंदी साहित्य सम्मेलन के लिए वे सभापति चुने गए। उस अवसर पर प्रयाग में हिंदी और संस्कृत के विद्वान पं० चंद्रधर शर्मा गुलेरी ने उनके पांडित्य की बहुत प्रशंसा की। सभापति के रूप में उनका प्रभावशाली भाषण मध्यमा परीक्षा की पाठ्य पुस्तकों में शामिल किया गया। एक बार ताहिरपुर के राजा शशिशेखरेश्वर राय के सभापतित्व में कलकत्ता में एक सभा का आयोजन हुआ, जिसमें बंगाल के अनेक विद्वान उपस्थित थे। सभापति ने बिना पूर्व सूचना दिए ही किसी प्रस्ताव का समर्थन करने के लिए गोविंद नारायण जी का नाम लिया। उनका तात्कालिक समयोपयोगी भाषण सुन सभी लोग आश्चर्यचकित हो गए। उनकी वक्तृता सुनकर भारतधर्म महामंडल के सर्वनानानंद जी ने उन्हें उपाधि से विभूषित करने की इच्छा प्रकट की थी, किंतु उन्होंने उसे अस्वीकार कर दिया। प्रसंग आने पर कितना ही बड़ा आदमी क्यों न हो उसकी तीव्र आलोचना करने से भी नहीं चूकते थे। एक बार कलकत्ता के श्रीविशुद्धानंद सरस्वती विद्यालय में द्रभक्षा महाराज के सभापतित्व में एक सभा की गई थी। मिश्रजी को भी व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया गया। उस समय अपने व्याख्यान में धर्म के नाम पर उसी का गला घोंटनेवालों का प्रसंग आने पर उन्होंने कठोर शब्दों में महाराज को चेतावनी दी, जिसे सुन कर महाराज हक्के-बक्के रह गए।
गोविंद नारायण का पारवारिक जीवन बहुत सुखमय नहीं रहा। पिता की असमय मृत्यु होने से परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई थी। पंद्रह वर्ष की आयु में उनका विवाह हुआ और उनके तीन पुत्र और पाँच पुत्रियाँ हुईं। दो पुत्रों की मृत्यु शैशव काल में ही हो गई थी। सन १९०० से १९०४ तक चार साल में उन्होंने अपनी पत्नी, एक मात्र पुत्र और माता को खो दिया, इससे उनका मन बहुत खिन्न हो उठा। जब घर एकदम सूना हो गया और पुत्र संतान एक भी न बची, तब अपनी मौसी के बहुत आग्रह पर इच्छा न रहते हुए भी उन्हें दूसरा विवाह करना पड़ा। दूसरी पत्नी से उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियाँ हुईं, लेकिन दोनों ही पुत्र जल्द ही काल के गाल में समा गए। जीवन के अंतिम दिनों में वे रोगग्रस्त हो गए। काफी उपचार के बावजूद २३ सितंबर १९२६ को काशी में उनका निधन हो गया।
गोविंद नारायण की साहित्यिक यात्रा की शुरुआत बचपन से ही हो गई थी। उनका लेखन उच्च कोटि का था तथा उन्होंने साहित्य की गद्य व पद्य दोनों विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई। दुर्भाग्य से उनकी पद्य रचनाओं में से केवल एक गुरुजन वंदना उपलब्ध है, जो माधुरी में प्रकाशित हुई थी। यह गुरुजन वंदना उन्होंने योगीपुरा निवासी स्वामी नित्यानंद सरस्वती के निकट बैठकर उनकी स्तुति में रची थी।
उर धरु जुगल पद जल जात।
अखिल ब्रह्मानंद-रसनिधि चीचि-बीच जबात।
बहत त्रिगुणाध वह उभ लहरि सरस सुहात,
भावतरन के करन कारन पोत जुग दरखात।
परमहंस सरस्वती श्रीस्वामि शानद कंद,
योगिराज प्रसिद्ध सिद्ध अकाम पूर्णानंद
अति मनोहर कांति कांत प्रशांत तेजः पुंज,
किधौं बपुधरि अवतरयो भूविदहन कलिमल-कुंज।
हरिहरान्मक परम ईश्वर सकल कला समेत
लखड प्रगठ्यो श्राप कलि में धर्मापन हेत।
गोविंद नारायण जी ने साहित्यिक और सांस्कृतिक विषयों पर निबंध लिखे है। उनकी शैली में अलंकारों की प्रधानता है तथा संस्कृत के तत्सम शब्दों के अतिशय प्रयोग से उनके निबंध जटिल प्रतीत होते हैं। यहाँ तक कि उनकी साहित्य की परिभाषा भी शब्दों का विकट जाल है। साहित्य को परिभाषित करते हुए उन्होंने लिखा है, "मुक्ताहारी नीर-क्षीर-विचार सुचतुर कवि कोविद राज हिम सिंहासनासिनी मंदहासिनी, त्रिलोक प्रकाशनी सरस्वती माता के अति दुलारे, प्राणों से प्यारे पुत्रों की अनुपम, अनोखी, अतुलवाली, परम प्रभावशाली सजन मनमोहिनी नवरस भरी सरस सुखद विचित्र वचन रचना का नाम ही साहित्य है।" रामचंद्र शुक्ल ने इनके गद्य-विधान को 'सायास अनुप्रास में गुथे शब्द-गुच्छों का अटाला' कहा है।
उनकी इच्छा थी कि कोई एक ऐसी पुस्तकमाला प्रकाशित की जाए जिसे पढ़कर कोई भी साहित्य का लाभ ले सके। इसी उद्देश्य से उन्होंने सन १८८३-८४ में 'शिक्षा सोपान' नामक पुस्तक माला लिखना आरंभ किया। जिसके दो अंक प्रकाशित हो पाए, शेष पाँच अंक अलिखित ही रह गए। लेकिन दोनों अंक लोगों द्वारा बहुत पसंद किए गए। उनकी प्रतियाँ बाजार में आते ही हाथों-हाथ बिक जाती थीं। इसके पहले उन्होंने 'कवि और चित्रकार' लिखना आरंभ किया। उनका मानना था कि संस्कृत की कादंबरी की कोटि का कोई ग्रंथ हिंदी में भी होना चाहिए। उन्होंने ग्रंथ लेखन शुरू तो किया पर उसको पूरा नहीं कर पाए। 'कवि और चित्रकार' लेख की लेखन-शैली प्राचीन गद्यकाव्य-जैसी थी।
षटऋतु वर्णन में उन्होंने जिस तरह से ऋतुओं को विस्तृत रूप से चित्रित किया है, उससे उनका वैज्ञानिक और तार्किक दृष्टिकोण तथा प्रकृति प्रेम साफ दिखाई देता है। 'विभक्ति-विचार' में हिंदी की विभक्तियों को शुद्ध बताकर उनके प्रयोग की विधि पर प्रकाश डाला गया है।
'शिक्षा सोपान' के लगभग २१ साल बाद उन्होंने 'सारस्वत सर्वस्व' नामक पुस्तक लिखी। उक्त पुस्तक के संबंध में वे लिखते हैं, पुत्र के परलोकवासी होने पर उन्हें सारा संसार अंधकारमय दिखने लगा। अपने जीवन से भी निराशा हो गई। जब किसी भी कार्य में मन न लगा तब व्याकुलता के उन्हीं दिनों में उक्त ग्रंथ लिख कर केवल एक सप्ताह में प्रकाशित कराया गया। 'सारस्वत सर्वस्व' प्रकाशित होने के पश्चात उन्होंने लिखने का विचार त्याग दिया था, पर फिर लोगों के विशेष आग्रह पर उन्हें लेखनी उठानी पड़ी। सन १९०५-०६ में भारतमित्र के तत्कालीन संपादक बाबू बालमुकुंद गुप्त सरस्वती के तत्कालीन संपादक, पं० महावीर प्रसाद द्विवेदी के 'भाषा की अनस्थिरता' शीर्षक लेख की कड़ी आलोचना 'आत्माराम' के नाम से करते हुए द्विवेदी जी के साथ हँसी ठिठोली कर रहे थे। हिंदी के अनेक लेखक गुप्तजी का ही समर्थन करते थे। गुप्तजी जैसे तेज़-तर्रार समालोचक से लोहा लेने की हिम्मत किसी हिंदी लेखक में नहीं थी। अंत में शिवदत्त शर्मा आदि सरीखे साहित्यकारों के आग्रह पर मिश्र जी ने उस आलोचना की प्रत्यालोचना बंगवासी में 'आत्मारामकी टे टे' शीर्षक लेखमाला से की। उस लेखमाला से द्विवेदी जी को बहुत साहस और सहारा मिला। 'आत्माराम की टे टे' लेखमाला से उनकी समालोचना-शक्ति तथा आमोद-प्रियता का भी परिचय मिलता है। इस प्रत्यालोचना से गुप्त जी एकदम चुप हो गए।
भाषा की अस्थिरता के प्रसंग के कुछ सालों बाद सखाराम गणेश देवस्कर ने विभक्ति का प्रश्न उठाया। उन्होंने पत्र द्वारा द्विवेदी जी से पूछा कि अन्य भाषाओं में तो शब्दों के साथ विभक्तियाँ लिखी जाती हैं और हिंदी में भी कुछ लेखक साथ ही लिखते हैं। पर आप इसके विरुद्ध बीच में कॉमा (,) तक लगा देते हैं, इसका कारण क्या है? द्विवेदी जी तो मौन रहे, लेकिन यहाँ भी गोविंद नारायण जी ने कमान संभाली। उन्होंने 'हितवार्ता' पत्रिका में एक समृद्ध लेखमाला लिखी। हिंदी का घनिष्ठ संबंध संस्कृत और प्राकृत से ही है। इसके बाद उन्होंने 'प्राकृत विचार' शीर्षक से दूसरी लेखमाला हितवार्ता पत्रिका में ही निकाली। इन दोनों लेखमालाओं को प्रकाशित कराने का श्रेय संपादक अंबिका प्रसाद जी तथा तत्कालीन हितवार्ता के संपादक बाबूराव बिष्णु पराड़कर को जाता है, जो मिश्र जी से निरंतर लेख लिखाकर ले जाया करते थे। 'विभक्ति विचार' लेखमाला सन १९१२ में प्रकाशित की गई। हिंदी निबंध लेखन के इतिहास में गोविंदनारायण मिश्र का उल्लेखनीय अवदान है।
गोविंद नारायण मिश्र : जीवन परिचय |
जन्म | कार्तिक माह, शुक्ल पक्ष की तृतीया, १८५९, कलकत्ता |
निधन | २३ सितंबर १९२६ |
पिता | गंगा नारायण मिश्र |
व्यवसाय | अध्यापन, लेखन, संपादन |
संपादन | सारसुधानिधि |
साहित्यिक रचनाएँ |
शिक्षा सोपान विभक्ति विचार प्राकृत विचार कवि और चित्रकार सारस्वत सर्वस्व
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संदर्भ
- श्री गोविंद निबंधावली, प्रकाशक दामोदरदास खन्ना, १९७१
- हिंदी साहित्य में ललित निबंधों की दशा व दिशा। अमित शुक्ल, इनोवेशन द रिसर्च कांसेप्ट, २०१९
लेखक परिचय
डॉ० नीरू भट्ट
मूलतः उत्तराखंड से है, आजकल वड़ोदरा में रहती है।
इन्होंने पीएचडी (पशु पोषण) और इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा, की पढ़ाई की है। बचपन से लिखने पढ़ने का शौक था, उसी को पूरा करने में लगी हैं।
नमस्ते, नीरु जी।गोविंद नारायण मिश्र जी पर आपका आलेख पढ़ा। एक तो यह कि आलेख को पढ़ते हुए लगता है कि कितने श्रम से यह पूरा किया गया है। कितने तथ्य आपने खोजकर प्रस्तुत लिए हैं और घटनाओं, उनसे जुड़े व्यक्तियों का कितना विस्तृत वर्णन है। निरंतरता और रोचकता अंत तक बनी रहती है। आपको इतनी जानकारी देने के लिए धन्यवाद। इस सुंदर आलेख के लिए बधाई। 💐💐
ReplyDeleteगोविंद नारायण जी का साहस बड़ा प्रेरणादायक है। जीवन में इतनी कठिनाइयाँ आने के बाद भी, इतनी अधिक स्वास्थ्य-सम्बंधी परेशानियों के बाद भी उनका इतना सृजन करना , इतने काम कर जाना, आश्चर्य भी देता है और प्रेरणा भी। 💐💐
नीरू जी, गोविन्द नारायण मिश्र जी पर आपका आलेख शोधपरक, दिलचस्प और जानकारीपूर्ण है। उनके रचना-कर्म के साथ-साथ यह गोविन्द नारायण जी के वैयक्तिक तेवरों तथा साहित्य के प्रति उनकी लगन और श्रद्धा को बख़ूबी पाठकों के सामने रखता है; आपको इस सुन्दर लेखन की बधाई और आभार
ReplyDeleteनीरू जी नमस्ते। गोविंद नरायण मिश्र जी पर आपका लिखा बढ़िया लेख पढ़ा। आपकी मेहनत और शोध को यह लेख इंगित करता है। लेख के माध्यम से मिश्र जी के सृजन एवं जीवन के बारे में विस्तृत जानकारी मिली। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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