दिन अठ्ठारह सितंबर, अग्रवाल परिवार
उन्नीस सौ छः में लिया, काका ने अवतार
अपने ही जन्म-दिवस को हास्य में परिवर्तित करने वाले महान हास्य कवि श्री प्रभुलाल गर्ग उर्फ़ काका हाथरसी का जन्म अग्रवाल परिवार में १८ सितंबर १९०६ को हुआ। काका ने अपने जन्म का विवरण कुछ इस प्रकार बताया है, "हाथरस की रसील हास्यधरती पर हमारा अवतरण मध्यरात्रि में हुआ। ग़रीबी के कारण घर में घड़ी तो होती नहीं थी तो हमारे पड़ोसी पं० दिवाकर जी शास्त्री ने १८ तारीख की शुभ घड़ी क़ायम करके हमारी जन्म कुंडली घोषित कर दी। उन दिनों जन्म-मरण की सूचना घर की मेहतरानी दिया करती थी। अतः जन्म होते ही पूरे मुहल्ले में चर्चा हुई - शिब्बो के लड़का हुआ है।"
काका के पिता का नाम शिवलाल गर्ग था, जिन्हें कुछ लोग शिब्बो जी कहा करते थे। जन्मदात्री माता जी का नाम था, बर्फी देवी। अब इतनी मीठी मैया की कोख से जन्म लेनेवाला बालक मधुरस या हास्यरस से ओतप्रोत हुआ तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हल्ला हो गया मोहल्ले में कि शिवलाल के जो लल्ला हुआ है, वह पैदा होते ही हँस रहा है। किंतु बाद में जब इस मामले की जाँच-पड़ताल हुई तो यह असलियत सामने आई कि शिशु की मुद्रा क्षण-क्षण में कुछ ऐसी बनती रहती थी कि रोने या हँसने का निर्णय करना कठिन हो जाता था। काका के पूर्वज उत्तर प्रदेश के गोकुल महावन से निकल कर हाथरस में बस गए थे। यहाँ बसने के पश्चात उनके पितामाह ने बर्तन-विक्रय की दुकान शुरू की थी, जो परंपरागत बँटवारे के बाद दूसरे पक्ष में चली गई और काका के पिता शिवलाल गर्ग को एक बर्तन की दुकान में मुनीमगिरी करनी पड़ी थी।
समय था सन १९०६ का, जिस वर्ष प्लेग जैसी भयंकर बीमारी से पूरा भारत जूझ रहा था और जिसने हज़ारों घरों को उजाड़ दिया था। इस बीमारी से जूझने में काका का परिवार भी असमर्थ रहा और उनके पिता की मृत्यु हो गई; तब काका केवल १५ दिन के थे। २० वर्षीय उनकी माता श्रीमती बर्फी देवी इस आघात से विषण्ण सी हो गईं और बड़े बेटे भजनलाल, बेटी किरनदेवी और उन्हें लेकर मायके इगलास, ज़िला अलीगढ़ भाइयों के पास चली गईं। ननिहाल में काका और उनके भाई एवं बहन के साथ उनकी माँ की सभी ज़रूरतों का ध्यान उनके मामाओं ला० देवकिशन, ला० रोशनलाल और ला० मन्नीलाल ने रखा। परंतु अपना घर अपना होता है, इसलिए मानसिक शांति की ज़रूरतों के चलते उनकी माँ फिर से अपने पुराने मकान हाथरस आ गईं। अपनी बहन की सहायता हेतु उनके मामा उन्हें हर माह ८ रु० भेजते थे और अपने बहन व भांजे के कुशल-मंगल की जानकारी लेने हर माह हाथरस आ जाया करते थे। काका के १० वर्ष होने के पश्चात उनके मामा उन्हें इगलास पढ़ाई पूरी करने ले आए, जहाँ काका ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के साथ-साथ प्रतिमाह ६ रु० पर एक नौकरी भी शुरू कर दी थी। उन्हें आमदनी अनाज के गोदाम में बोरियों का हिसाब-किताब रखने के लिए मिलती थी। संघर्ष के अपने दिनों में काका ने मथुरा में अपने मौसाजी के यहाँ चाट-पकौड़ी का ख़ोमचा भी लगाया था।
हालाँकि कविता लेखन का शौक़ उन्हें बचपन से ही रहा है। प्रासंगिक क्षणों को हास्य पैरोडी में लिखने में वे बहुत तीव्रबुद्धि और हाज़िरजवाब थे। उस समय उन्होंने अपने मामा के पड़ोसी वकील पर एक पैरोडी लिखी थी, पर न जाने कैसे वह कविता वकील साहब के हाथ लग गई और जवाब में पिटाई मिली थी। वे पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार थीं,
एक पुलिंदा बाँधकर, कर दी उस पर सील,
खोला तो निकले वहाँ लखमीचंद वकील।
लखमीचंद वकील, बदन में इतने भारी
बैठ जाएँ तो पंचर हो जाती है लारी।
अगर कभी श्रीमान, ऊँट गाड़ी में जाएँ
पहिए चूँ-चूँ करें, ऊँट को मिर्गी आए।
अपने हास्यरंग के साथ-साथ प्रभुलाल जी बचपन से ही रंगमंच से जुड़े थे। उन्हें नाटक में काम करने का बहुत शौक़ था। एक नाटक में उन्होंने काका का किरदार निभाया और तभी से प्रभुलाल 'काका' के नाम से प्रसिद्ध हो गए। काका जी अपने लिखे नाटकों का निर्देशन स्वयं किया करते थे। 'झूला कौ झटका', 'फ्री स्टाइल गवाही', 'लल्ला कौ ब्याह', 'भंग की तरंग', 'लाला डकारचंद' और न जाने कितने प्रहसन काका ने न केवल लिखे बल्कि सफलतापूर्वक मंचित भी किए हैं। काका जी ने 'जमुना किनारे' फ़िल्म में अभिनय भी किया है। जिसके कथाकार हास्य कवि अशोक चक्रधर जी थे। हालांकि वह फ़िल्म रिलीज़ हो न सकी। काका ने उसमें एक उस्ताद का अभिनय किया था। चौदह साल की उम्र में अपने परिवार के साथ इगलास से हाथरस आने के पश्चात उन्होंने एक जगह मुनीम की नौकरी कर ली। दो वर्ष पश्चात १६ वर्ष की उम्र में उनका विवाह श्रीमती रतन देवी से हो गया। उनकी कविताओं में रतन देवी हमेशा काकी का किरदार निभाती रही हैं। विवाह के कुछ दिनों बाद दुर्भाग्यवश काका की नौकरी छूट गई और काका को फिर कुछ वक़्त मुफ़लिसी में गुज़ारना पड़ा। काका चित्रकारी की कला में भी निपुण थे, जिसके चलते उन्होंने चित्रशालाएँ भी चलाई, परंतु उन्हें उसमें भी कोई ख़ास सफलता हासिल नहीं हुई। संगीत से उन्हें बहुत लगाव था, जो उनके प्राणों में बसता था। बचपन से ही बाँसुरी बजाते थे। सन १९३२ में हाथरस में संगीत की उन्नति के लिए अपने कुछ मित्रों के सहयोग से 'गर्ग ऐंड कंपनी' की स्थापना की, जिसका नाम बाद में 'संगीत कार्यालय हाथरस' हुआ। इसी कार्यालय से संगीत पर 'संगीत पत्रिका' प्रकाशित की गई थी। इसका प्रकाशन आज भी अनवरत जारी हैं। उनकी पहली कविता 'गुलदस्ता' पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। जिसकी पंक्तियाँ थी,
घुटा करती हैं मेरी हसरतें दिन रात सीने में
मेरा दिल घुटते-घुटते सख्त होकर सिल न बन जाए
जीवन संघर्षों के बीच हास्य की फुलझड़ियाँ जलाने वाले काका हाथरसी की वर्ष १९४६ में 'कचहरी' नामक पहली पुस्तक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में काका की रचनाओं के अतिरिक्त अन्य हास्य कवियों की रचनाओं को भी संकलित किया गया था। सन १९५७ में पहली बार काका को दिल्ली के लाल किले पर आयोजित कवि सम्मेलन का आमंत्रण मिला, जहाँ उन्हें १८५७ के स्वतंत्रता संग्राम की शताब्दी मनाए जाने के उपलक्ष्य में हास्य कविता की जगह क्रांति पर कविता करने कहा गया। काका ठहरे हास्य कवि परंतु क्रांति को ध्यान में रखते हुए वीर रस पर भी काका ने मंच पर 'क्रांति का बिगुल' नामक कविता सुनाई, जिससे सम्मेलन के संयोजक श्री गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगाकर मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा व सराहना की। हास्य को जीवन का टॉनिक बताने वाले काका आजीवन उसी के प्रचार और प्रसार में लगे रहे। उन्होंने कितने ही उदास चेहरों को मुस्कानें बाँटी हैं, उनकी रचनाएँ पढ़ने और सुनने वालों के मन को हास्य के उजाले से भर देती हैं।
काका के रचनाकोश में सिर्फ़ हास्य कविताएँ ही नहीं बल्कि कुछ ग़ज़लें भी हैं। वे ग़ज़लें दर्द भरी नहीं बल्कि हास्य से परिपूर्ण हैं। काका उन्हें 'हज़ल' कहा करते थे। उन्होंने जीवन में लगभग दस हज़लें भी लिखी हैं। काका अपनी कविताओं और हास्य व्यंग्य को उस टाइपराइटर पर टाइप किया करते थे जो उन्होंने सन १९६५ में खरीदा था और सन १९६९ में जिसे बालकवि बैरागी को दे दिया था। काका की रचनाओं में हास्य-व्यंग्य के साथ-साथ छोटी-छोटी अवस्थाओं पर गहरे कटाक्ष भी होते हैं। हास्य के माध्यम से उनका समाज में व्याप्त दोषों, कुरितियों, भ्रष्टाचार और राजनीतिक कुशासन को रोकने का प्रयास होता था।
काका जी इसीलिए अपने समकालीन कवियों से और पूर्ववर्ती हास्य-व्यंग्य कवियों से भिन्न थे, क्योंकि उन्होंने अपनी कविता में सहज वर्ण-मैत्री के मुहावरों और तुकांतों को अपनाया, जैसे,
'बैठते ही विमान में, सन्न–सन्न होने लगी कान में'
अपने ८८ वर्ष में एक कवि सम्मेलन में उन्होंने कहा था, "अब जीवन के ८८वें वर्ष में प्रवेश कर रहा हूँ। अपनी प्रसिद्धि की छलांग लगाते-लगाते भगवान तक पहुँच गई हैं। पता नहीं कब उधर से भी कवि सम्मेलन करने का आमंत्रण मिल जाए। किंतु जाने से पूर्व भगवान से अपना पारिश्रमिक ज़रूर तय करेंगे, तब स्वीकृति देंगे।" हास्य-ऋषि काका ने अपनी रचनाओं में जीवन की व्यापक विसंगतियों को समेटा है। 'नाम बड़े और दर्शन छोटे' या 'लिंग भेद' जैसी कविताएँ भी उनकी गहरी निरीक्षण क्षमता और खोजपूर्ण दृष्टि की परिचायक हैं। यहाँ तक की स्वयं अपनी दाढ़ी-महिमा का बखान उन्होंने इस प्रकार किया है,
काका दाढ़ी राखिए, बिन दाढ़ी मुख सून
जों मसूरी के बिना, व्यर्थ देहरादून
व्यर्थ देहरादून, इसी से नर की शोभा
दाढ़ी से ही प्रगति, कर गए संत विनोबा
मुनि वशिष्ट यदि दाढ़ी, मुँह पर नहीं रखाते
तो क्या भगवान राम के गुरु बन जाते?
काका के व्यंग्य लेखन में हास्य के साथ-साथ सामाजिक दोषों के खिलाफ़ जनमत तैयार होता है, जो समाज सुधार की प्रक्रिया के लिए प्रेरक हुआ करता है। अनुशासनहीनता और भ्रष्टाचार पर कटाक्ष करते हुए उनकी एक हास्य-व्यंग्य की पैरोडी देखिए,
बिना टिकिट के ट्रेन में चले पुत्र बलवीर
जहाँ 'मूड' आया वहीं, खींच लई जंज़ीर
खींच लाई जंज़ीर, बने गुंडों के नक्कू
पकड़े टी०टी०, गार्ड, उन्हें दिखलाते चक्कू
गुंडागर्दी, भ्रष्टाचार बढ़ा दिन-दूना
प्रजातंत्र की स्वतंत्रता का देख नमूना
या फिर,
राशन की दुकान पर, देख भयंकर भीर
'क्यू' में धक्का मारकर, पहुँच गए बलवीर
पहुँच गए बलवीर, ले लिया नंबर पहिला
खड़े रह गए निर्बल, बूढ़े, बच्चे, महिला
कहँ 'काका' कवि, करके बंद धरम का काँटा
लाला बोले-भागो, ख़त्म हो गया आटा
जहाँ हँसी की संभावना न के बराबर हो, वहाँ भी काका ने ठहाके लगवाए। ताउम्र हँसने-हँसाने वाला कोई शख़्स ख़ुद की मौत पर भी लोगों को हँसने को कह जाए, ऐसा शायद ही कहीं हुआ हो। इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ कि श्मशान घाट पर रोने की जगह लोगों के ठहाकों की आवाज़ गूँज रही थी। बचपन से ही रोतों को हँसाने में माहिर काका जी का स्वर्गवास भी उनके जन्म दिवस वाले दिन १८ सितंबर को वर्ष १९९५ में हुआ। उनकी इच्छानुसार उनकी शवयात्रा ऊँट गाड़ी पर निकाली गई। पीछे हज़ारों की भीड़ लगी हुई थी। हाथरस के अलावा आसपास के गाँव-देहात के लोग गाते-बजाते काका को अंतिम विदाई देने आए थे। महिलाएँ छत से फूल बरसा रही थीं। कोई इमरती की माला पहना रहा था, कोई समोसे की, कोई कपास की। जिसका जो व्यापार था, उसने वैसी माला चढ़ाई। ढोलक-मंजीरे के साथ तत्काल रसिया बनाए जा रहे थे और गाए जा रहे थे, 'सुरपुर सिधारौ हमारौ काका, सुरपुर कूं।' कवियों का एक जत्था काका की कविताएँ सुनाते हुए महायात्रा में शामिल था। सब अंतर्मन से काकामय थे। काका की ऊँटगाड़ी पर लिखा था, "हिंदू मुस्लिम सिख ईसाई, हर पल हँसते रहना भाई।"
श्मशान में जहाँ पर शव को रखा जाता है, वहाँ कवियों के लिए मंच बना दिया गया। उधर काका पंचतत्वों में विलीन हो रहे थे, इधर मरघट में कवि काव्यपाठ में तल्लीन थे। काका की कामना थी कि अंतिम यात्रा में कोई रोएगा नहीं, सचमुच लोगों ने अपने आँसुओं पर नियंत्रण रखा। सिर्फ़ एक की आँखें आँसुओं से लबालब भरी हुई थीं और वह थीं काकी की।
आज ही के दिन यानी १८ सितंबर को काका जी का जन्म हुआ और मृत्यु भी। एक बार फिर काका हाथरसी स्मारक पर चंद लोग जुटेंगे, काका की कुछ रचनाओं को पढ़ा जाएगा और हास्य की गंगा प्रवाहित करने वाले काका को फिर लोग भूल जाएँगे। ऐसे में काका की एक कविता बहुत याद आती है,
पड़ा पड़ा क्या कर रहा,
रे मूरख नादान,
दर्पण रखकर सामने,
निज स्वरूप पहचान
प्रभुलाल गर्ग उर्फ़ काका हाथरसी : जीवन परिचय |
जन्म | १८ सितंबर १९०६, हाथरस, उत्तर प्रदेश |
निधन | १८ सितंबर, १९९५ |
माता | श्रीमती बर्फी देवी गर्ग |
पिता | श्री शिवलाल गर्ग |
पत्नी | श्रीमती रतन देवी गर्ग |
भाई-बहन | श्री भजनलाल और श्रीमती किरन देवी |
व्यवसाय | लेखक, नाटककार, कवि |
साहित्यिक रचनाएँ |
कुछ विशिष्ट रचनाएँ (काका जी ने १००० से भी ज्यादा कविताओं और रचनाओं को लिखा है जो यहाँ सारी प्रस्तुत कर पाना असंभव है) |
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प्रकाशित पुस्तकें |
काका काकी की नोकझोंक काका की चौपाल काका की फुलझड़ियाँ काका की महफ़िल काका के गोलगप्पे काका के ठहाके काका के प्रहसन हास्य के गुब्बारे बेस्ट ऑफ काका हाथरसी
| काका के व्यंग्य बाण काका तरंग काका-काकी के लव लैटर्स खिलखिलाहट मेरा जीवन ए-वन यार सप्तक लूटनीति मंथन करि हास्य वर्णमाला जय बोलो बेईमान की
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संपादन | |
कुछ खास बात | काका की पहचान - उनकी दाढ़ी मृत्यु वाले दिन श्मशान घाट पर हुआ कवि सम्मेलन संगीत के जानकार चित्रकार ट्रस्ट द्वारा प्रतिवर्ष एक कवि को काका हाथरसी पुरस्कार से सम्मान
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पुरस्कार व सम्मान |
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संदर्भ
सूर्यकांत सुतार 'सूर्या'
बरसों से साहित्य से जुड़े होने के साथ-साथ कई समाचार पत्रों, पत्रिकाओंं एवं पुस्तकों में लेख, कविता, ग़ज़ल, कहानियाँ प्रकाशित।
चलभाष - +२५५ ७१२ ४९१ ७७७
ईमेल - surya.4675@gmail.com
रोचक
ReplyDeleteनमस्कार सूर्या जी।
ReplyDeleteकाका हाथरसी पर आपने बहुत ही रोचक और मर्मस्पर्शी लेख लिखा है। काका हाथरसी की जीवन-यात्रा, संघर्ष, स्वभाव की प्रफुलता और शब्दों की मारक-क्षमता का आपने बहुत अच्छा वर्णन किया है।
बधाई व साधुवाद!
बहुत बधाई हो सर।काका हाथरसी के जीवन आधारित रोचक, सारगर्भित और सार्थक आलेख लेखन के लिए आभार। हम उनके जीवन को इतना निकट से जान पाये। नमस्कार🙏🏻
ReplyDeleteबेहद शानदार आलेख👍👍
ReplyDeleteसूर्या जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपने लगभग सभी हास्य व्यंग के शीर्षस्थ साहित्यकारों पर लेख लिखे और सभी लेख अंदर तक गुदगुदाने वाले थे। आपने अपने इस लेख के माध्यम से काका हाथरसी जी के सृजन एवं जीवन के रोचक प्रसंगों को लेख में सम्मिलित कर लेख को बहुत सरस बना दिया। आपको इस जानकारी भरे लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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