परमर्षि अष्टावक्र हमारी सुदीर्घ ऋषि मणि मल्लिका के अद्वितीय रत्न हैं, कदाचित स्वयं में स्वयं का उदाहरण हैं। भारतीय संस्कृति के सनातन सिद्धांतों के प्रतिपादक आर्ष ऋषियों में परमर्षि अष्टावक्र की गणना की जाती हैं। ऋषि उद्दालक के एक शिष्य का नाम कहोड़ था। कहोड़ वेदज्ञ थे, उनके ज्ञान गाम्भीर्य से प्रभावित होकर ऋषि उद्दालक ने अपनी पुत्री सुजाता का विवाह कहोड़ से किया। कुछ दिनों के बाद सुजाता गर्भवती हुईं। एक दिन कहोड़ वेद पाठ कर रहे थे तो गर्भ के भीतर से ही बालक ने कहा पिता श्री आपका वेद पाठ त्रुटि पूर्ण है। कहोड़ ने क्रोधित होकर कहा 'तू गर्भ से ही मेरा अपमान कर रहा है इसलिए तू आठ स्थानों से वक्र अर्थात टेढ़ा होगा।’ इसीलिये उनको अष्टावक्र के नाम से पुकारा गया। उनके जन्म का इतना ही वृत्तान्त उपलब्ध है और यही कथानक प्रसिद्ध है। गर्भस्थ अवस्था में ही अपने पिता के अध्ययन में दोष निकाल कर उनसे 'अष्टवक्र' होने के अभिशाप को -‘क्रोधोअपि देवस्य वरेण तुल्यम', के अनुरूप वरदान रूप में परिणित करने के लिए अष्टकोणीय धर्माकारा की अबोध क्षितिज मालाओं को प्रबोधालंकारों से विभूषित करने के लिए ही जैसे वेदोद्गाता के विशिष्ट रूप से धरा धाम पर अष्टावक्र अवतरित हुए हों।
अष्टावक्र अद्वैत वेदांत के परमोत्कृष्ट ग्रन्थ ‘अष्टावक्र गीता’ के परमर्षि हैं। यह परमर्षि अष्टावक्र का राजा जनक को संवाद रूप में उपदिष्ट किया गया, परम और चरम कोटि का वह वैराग्य ज्ञान है जिसे आत्मसात कर जीव जगत को पलट कर नहीं देखता क्योंकि ‘अष्टावक्र गीता विरक्तियों की गीता संहिता है।’ श्रीमद्भगवतगीता श्री कृष्ण और अर्जुन के संवाद के अनन्तर कर्मयोग, भक्ति योग और ज्ञानयोग का प्रतिपादन है तो अष्टावक्र गीता राजा जनक की जिज्ञासु और प्रश्नायित अंतश्चेतना के अनुत्तरित प्रश्नों का ऋषि अष्टावक्र के सर्वोत्कृष्ट ज्ञान से प्रश्नोत्तर रूप में समाधान है। अष्टावक्र गीता प्रमुख रूप से अद्वैत ज्ञान योग का सर्वोच्च और उत्कृष्ट ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ का आरम्भ राजा जनक द्वारा प्रश्नायित तीन प्रश्नों से होता है।
अष्टावक्र गीता की आध्यात्मिक उपलब्धियों के लिए चित्त का विरागी और वीतरागी होना प्रथम और अनिवार्य शर्त है। माया के प्रबल आकर्षण के कारण वैराग्य होता नहीं, अपितु जगत की नश्वरता का बोध होने पर वैराग्य को प्रगाढ़ और ऋत ज्ञान से उत्पन्न और परिपक्व किया जाता है। जगत के पदार्थों की नश्वरता के बोध से उपराम चित्त की मनोभूमि में ही अध्यात्म प्रस्फुटित होता है। अतः केवली ज्ञान और मुमुक्षा के संयोग से ही आत्म ज्ञान होता है और आत्मज्ञानी ही सभी द्वंद्वों के पार एक रस हो जाता है। जिसने आत्मा को जान लिया उसका संसार स्वयं ही छूट जाता है, संसार छोड़ने से आत्मज्ञान नहीं होता अतः संन्यास कोई विन्यास नहीं वरन अंतश्चेतना की अनुभूति है, क्योंकि मोक्ष और विरक्ति त्यागी मन की आंतरिक अवस्थाएँ हैं। अतः संन्यास अथवा मोक्ष कार्य नहीं अंतस चेतना की अनुभूति हैं।
परमर्षि अष्टावक्र के अद्वैत वेदांत के ग्रन्थ ‘अष्टावक्र गीता’ का मूल सार ज्ञान है—‘जीव यह निश्चय पूर्वक मान ले कि मैं विशुद्ध बोध स्वरूप आत्मा हूँ और आत्मा चैतन्य ऊर्जा मात्र है।’ जड़ प्रकृति चैतन्य की अभिव्यक्ति है। जिस ज्ञानी का मन से तादात्म्य टूट गया, उसका संसार विलुप्त हो गया। वह साक्षी एवं द्रष्टा मात्र हो गया अतः चाह-त्याग ही मूल हैं, चित्त में चाह की लहरें ही तो संसार है। जब तक जितेन्द्रिय नहीं होंगे, तब तक कोई भी इन्द्रिय आपके आंतरिक आत्मिक सुख को चुरा लेगा। बार-बार देह त्याग से भी क्या होगा, वासनाएँ नए-नए रूप धारण करके पुनः-पुनः आती हैं। जिससे तुम्हारा मरना न छूटे उसे लेकर क्या करोगे? कितने ही घर और घट बदल लो कुछ नहीं होगा जब तक ‘अहं' को ‘मैं’ को दिव्यता में नहीं बदलोगे।
आत्मा पारमार्थिक सत्ता है शरीर नहीं। सृष्टि के इस मूल तत्व का नाम ही ब्रह्म हैं। इसी से जन्म इसी में लीन हो जाते हैं।
‘यते वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत्प्रन्त्यभिन्स विशन्ति इति श्रुतेः।’
जिस आत्म ब्रह्म से ये सब भूत प्राणी उत्पन्न होते हैं जिस ब्रह्म की सत्ता से उत्पन्न होकर जीते हैं और फिर मर कर जिसमें लय होते हैं उसी को तुम अपना जानो।
अष्टावक्र गीता सार को यदि मैं एक वाक्य में निरूपित करना चाहूँ तो वह वाक्य है --
‘निर्जीव रहनी, निर्बीज करनी’
यह वस्तुतः जीवन का गहनतम सूक्त है।
मुझ अकिंचन की क्या बिसात जो परमर्षि अष्टावक्र की ‘अष्टावक्र गीता’ के अद्वैत वेदांत को समझ सकूँ। सम्पूर्ण ‘अष्टावक्र गीता’ को मूल संस्कृत से गीतिका छंद में काव्य रूपांतरण का अकिंचन प्रयास किया है। ‘अष्टावक्र गीता’ में २० अध्याय हैं।
साक्षी, आश्चर्यम् सर्वमात्म, लय, प्रकृतेः परः, शान्त, मोक्ष, निर्वाण, वैराग्य, चिद्रूप, स्वभाव, यथासुखम्, ईश्वर, तत्त्वम्, स्वास्थ्य, कैवल्य, जीवन्मुक्ति, स्वमहिमा, अकिंचनभाव।
इस ग्रन्थ का आरम्भ राजा जनक द्वारा प्रश्नायित तीन प्रश्नों से होता है।
१ -मनुष्य ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकता है?
२-मुक्ति कैसे होगी?
३-वैराग्य कैसे प्राप्त होगा?
जनक उवाच (मूल मन्त्र)
१-कथं ज्ञानमवाप्नोति कथं मुक्तिर्भविष्यति
वैराग्यं च कथं प्राप्तमेदत ब्रूहि मम प्रभो।
काव्यानुवाद
हे ईश! मानव ज्ञान कैसे प्राप्त कर सकता अहो!
हमें मुक्ति और वैराग्य कैसे मिल सके कृपया कहो।
इन शाश्वत प्रश्नों के उत्तर में दूसरे ही श्लोक में विषयों को तजने की प्राथमिकता दी है।
२-मुक्तिमिच्छसि चेत्तात विषयान विषवत्वज।
क्षमाज्जरवदयातोषं सत्यं पियूषवद भज।
२ काव्यानुवाद
प्रिय तात! यदि तू मुमक्ष, तज विषयों को जैसे विष तजें।
संतोष, करुणा, सत, क्षमा, पीयूषवत नित-नित भजें।
तीसरे ही श्लोक में पंच तत्वों से परे से भी और पार ले जाते हैं।
मूल श्लोक
३ -न पृथ्वी न जलं नागिननं वायुर्द्योंर्न वा भवान।
एषां साक्षिणमात्मा चिद्रूपं विद्धि मुक्तये।
३ काव्यानुवाद
न ही वायु, जल, अग्नि, धरा, और न ही तू आकाश है।
मुक्ति हेतु साक्ष्य तू, चैतन्य रूप प्रकाश है।
नवमें अध्याय में वासना को त्याज्य कहा है।
४-वासना एव संसार इति सर्वा विमुञ्च ताः।
तत्त्यागो वासना त्यागात, स्थितिरद्य यथा-यथा।
काव्यानुवाद -
हे तात ! तज दे वासनाएं, वासना संसार है।
कृत कर्म अब जो भी करे, प्रारब्ध का ही प्रकार है।
दसवें अध्याय में (मूल श्लोक)
५-यत्र-तत्र भवेतृष्णा, संसारं विद्धि तत्र वै।
प्रौढ़ वैराग्य माशित्य वीत तृष्णा सुखी भवः।
काव्यानुवाद -
जिस वस्तु में इच्छा बेस, समझो वहाँ संसार है।
वैराग्य भाव प्रधान चित्त से, जान सब निःसार है।
अन्य अंश
आत्मज्ञानी जग में रहकर, मानता नहीं गेह है।
विक्षेप और बंधन नहीं, और देह में भी विदेह है।
जिस ज्ञान से सब ज्ञानियों के कर्म होते नष्ट हैं।
वे तथापि कर्म रत, पर मन विरत स्पष्ट है।
सर्वत्र आसक्ति रहित, कुछ वासना हिय में नहीं।
तृप्त ज्ञानी की भला क्या साम्यता जग में कहीं।
‘अष्टावक्र गीता’ के अंत में अद्वैत ज्ञान-
मूल श्लोक
क्व चास्ति क्व च वा नास्ति, क्वास्ति चैकं क्व च द्वयं।
बहुनात्र किमुक्तेन किंचिन्नोतिष्ठते मम।
काव्यानुवाद-
आस्ति और नास्ति कहाँ, और दो कहाँ पर एक है।
नहीं बहुत कहने का प्रयोजन,ब्रह्म सर्वं एक है।
परमर्षि अष्टावक्र ने राजा जनक को आत्म ज्ञान का सार बताया-केवल स्वयं को जानो अर्थात आत्मानुभूति ही ज्ञान का सार है।
लेखक:
डॉ. मृदुल कीर्ति
वेद, वेदांत, दर्शन, गीता, शंकराचार्य, ऋषि जन्य आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, दार्शनिक भारतीय
आर्ष ग्रंथों के, मूल संस्कृत भाषा से, हिंदी भाषा में, विभिन्न छंदों में काव्यानुवाद।
सम्पूर्ण अष्टावक्र गीता के काव्यानुवाद के लिए
साधु! साधु! मृदुल कीर्ति जी, ऋषि अष्टावक्र की गीता के प्रकाशमय संदेश द्वारा , आपके सुंदर काव्यानुवाद के माध्यम से हमें आनंदित करने के लिए आपका हार्दिक आभार। 🙏💐
ReplyDeleteक्लिष्ट श्लोकों का सुंदर काव्यानुवाद।
ReplyDeleteधन्य है, विदुषी लेखिका को साधुवाद ।
आदरणीया डॉ. मृदुल कीर्ति जी ने इस संक्षिप्त आलेख में विरक्तियों की गीत संहिता “अष्टावक्र गीता” के सार ज्ञान को “गागर में सागर” की भाँति समाहित किया है। अष्टावक्र गीता के चयनीत मूल श्लोकों का काव्यानुवाद जिन सरल व सुंदर शब्दों में उन्होंने किया है, वे उनकी अनुपम प्रतिभा के परिचायक हैं। वे स्वयम् इस गीता के गहनतम सूक्त “निर्जीव रहनी, निर्बीज करनी” की मिसाल हैं तथा “मृदुल एवं कीर्ति” दोनों ही शब्द उनके व्यक्तित्व व प्रतिभा पर सही बैठते हैं। हार्दिक बधाई डॉ. कीर्ति जी। 💐
ReplyDeleteआदरणीया मृदुला जी,
ReplyDeleteप्रणाम
आपने आध्यामिकता की ओर आकर्षित करता हुआ आलेख बुना है। परमर्षि अष्टावक्र जी के व्यक्तित्व और रचनात्मक ग्रंथ के बारे में सर्वोत्कृष्ट लेख का अध्ययन प्राप्त हुआ है। हमारे अहं को दूर करके जब तक दिव्यता प्राप्त नही होती तब तक जीवन चैतन्य की ओर लगकर आंतरिक आत्मिक सुख को समाविष्ट नही किया जा सकता इसका खूबसूरत ज्ञान हो रहा है। *अष्टावक्र गीता* के 20 अध्यायों का विलक्षण वृस्तत वृतांत कराकर आत्मानुभूति के दर्शन कराने हेतु आपका आभार। अतिविशिष्ट और श्लोकोंनुवाद पध्दति से लिखा गया यह आलेख इस तिथिवार पटल की शोभा बनकर उभर रहा है। उत्तम लेखन के लिए साधुवाद। आशीर्वाद बनाए रखें। शुभकामनाएं।
जी साधुवाद 🙏🌼 सारगर्भित आलेख में ब्रह्म जैसे गूढ़ विषय पर संस्कृत सूत्र समान संक्षिप्त में अष्टावक्र की विद्वत्समाज को दीगयी सीख, त्रेता युग के राजर्षि जनक महाराज के दरबार से निकल कर, इसी भाँति २१ वीं सदी के वर्ष २०२२ में आधुनिक उपकरण के माध्यम से, इस पटल के सौजन्य से, विश्व व्यापी बन रहा है। अत्यंत सार्थक पहल यूँ ही दूरगामी एवं सफल परिणाम लाने में सक्षम हो जाती है। यह भी सत्य है।
ReplyDeleteआप स्वस्थ रहें व निरंतर उत्कृष्ट साहित्य सृजन से माँ भारत भारती की विस्तृत सम्पदा को अपने सु प्रयासों से, समृद्ध करतीं रहें यह मंगल कामना प्रेषित हैं।
_ लावण्या
डॉ. मृदुल कीर्ति जी नमस्ते। आपने बहुत ही ज्ञानवर्धक लेख लिखा है। लेख में ऋषिवर अष्टावक्र जी के विषय में विस्तृत परिचय मिला। लेख एकदम रोचक कहानी की तरह पाठक को स्वयं से जोड़े रखता है और अंत तक पहुँचकर ही विराम देता है। आपको इस शोधपूर्ण लेख के लिए हार्दिक बधाई। उत्तराखण्ड के श्रीनगर गढ़वाल में एक पर्वत की चोटी है, उसका नाम अष्टावक्र है वहाँ पर इनकी एक छोटी से मूर्ति भी थी। लोक कथाओं में इस स्थान को अष्टावक्र की तपस्थली भी माना जाता है।
ReplyDeleteडॉ मृदुल मेम को बहुत बहुत आभार। अष्टावक्र गीता तत्व ज्ञान की अनमोल निधि है। गौरव का अनुभव होता हमारे शास्त्रों को पढ़ कर ।राजा जनक और अष्टावक्र के मध्य आध्यात्मिक संवाद और सुनने मात्र से ब्रम्ह ज्ञान की अनुभूति कराने वाले अद्भुत ऋषि अष्टावक्र को शत् शत् नमन्। अध्यात्मिक विषय में रुचि होने से अष्टावक्र गीता को कई बार पढ़ लिया और हर बार एक नवीन दर्शन से परिचय हुआ। मैं बहुत प्रभावित हुई इस पुस्तक से। बहुत साधुवाद आपको मेम इस कालातीत आलेख को लिखने के लिए। नमस्कार
ReplyDeleteदीदी सादर नमन 🪷💞👏
ReplyDeleteअष्टावक्र गीता अद्वेतवाद की अद्भुत व्याख्या है ऐसा कहूँ तो अतिशयोक्ति कदापि नहीं। इसका हर श्लोक अनमोल है 💎✍️💎🙇