Thursday, September 15, 2022

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय : किवंदतियों में उलझा जीवन रचनाओं में सुलझता रहा

 

ज़िंदगी के अनुभवों को लेखकीय कौशल में पिरो कर अक्सर रचनाकार अपने साथ-साथ अनगिनत मौन का स्वर भी बन जाते हैं। संघर्षों और पीड़ाओं में सिमटी सामाजिकता को शरतचंद्र ने भी शब्दों की गूँज दी। 


शरतचंद्र चट्टोपाध्याय, जिनके लेखन से ज्यादा उनका रहस्यमयी आचरण चर्चित रहा। किंतु यह धारणा सत्य है कि उनकी प्रकृति बहुत जटिल थी। वे हमेशा अपने मनोभावों को छिपाने का प्रयास करते थे। अपने गुणों पर चुप्पी और अवगुणों का प्रचार करने वाले शरत इन संदर्भों में कितनी ही काल्पनिक कथाएँ गढ़ लेते थे। पुष्टिकरण की माँग होते ही उसे गल्प कहकर नकार देना उनकी आदत थी। लेकिन साहित्यिक पृष्ठभूमि में उनका योगदान अद्भुत रहा। विशेषकर उस वर्ग की आवाज़ बनना, जिसकी पीड़ा के लिए वह स्वयं भी कभी मुखर नहीं हुआ था।


परगना ज़िले के मामूदपुर निवासी बैकुंठनाथ चट्टोपाध्याय संभ्रांत ब्राह्मण परिवार के स्वाधीनचेता व्यक्ति थे। स्वभाव में निर्भीकता और ईमानदारी उनकी हत्या का कारण बन गए। उनकी पत्नी रातों-रात पुत्र मोतीलाल के साथ देवानंदपुर अपने भाई के पास चली आईं। कुछ वर्षों के पश्चात मोतीलाल का विवाह भागलपुर के केदारनाथ गंगोपाध्याय की बेटी भुवनमोहिनी से हुआ। दंपति की प्रथम पुत्री अनिला के बाद दूसरी संतान के रूप में १५ सितंबर १८७६ को शरतचंद्र का जन्म हुआ। उनका बाल्यकाल अभावों से शुरू हुआ। पिता बहुमुखी प्रतिभा के धनी तो थे, किंतु दिशाहीन। वे किसी भी कार्य को ज़िम्मेदारीपूर्वक नहीं निभा पाते थे। परिणामस्वरूप परिवार आर्थिक तंगी का शिकार हो गया। पाँच वर्षीय शरत ने विद्यालय जाना तो शुरू किया लेकिन उनका ध्यान पढ़ाई से ज्यादा शरारतों में रहता। अध्यापक के चिलम में ईंटों के टुकड़े डाल देना, बाग से फल चुराना, पतंगबाजी और घुमक्क्ड़ी करना, यात्रा दलों में मधुर गायन से मनोरंजन करना, सबमें शरत अव्वल थे। इसमें उनकी मित्र धीरू का भी उन्हें भरपूर साथ मिला। बचपन की इस संगिनी को ही आधार बनाकर मानो उन्होंने देवदास की पारो, बड़ी दीदी की माधवी, और श्रीकांत की राजलक्ष्मी का सृजन किया हो। 


मोतीलाल कुशल कलाकार और रचनाकार तो थे, किंतु पारिवारिक जिम्मेदारियों में अक्षम। जिसकी वजह से शरत की माँ को अक्सर अपने पिता का आश्रय लेना पड़ता। भागलपुर और देवानंदपुर के बीच सपरिवार चक्कर लगाते शरत का विद्यालय से भी नाता टूटता-जुड़ता रहता। बार-बार स्थान बदलने और स्वस्थ माहौल न मिलने से वे विद्रोही हो चुके थे। तीक्ष्ण बुद्धि मित्रों संग तंबाकू पीने, छुरी लेकर घूमने, बाग से फल-फूल चोरी करने में दिखने लगी। वे लूटपाट करते और गरीबों में बाँट देते, मछलियाँ बेच कर लोगों का इलाज कराते, किसी के भी दुख में खुद को भूल कर साथ देनेवाले शरत ने तमाम बाधाओं के बाद भी प्रवेशिका अर्थात दसवीं पास कर ली।


आर्थिक मुद्दों पर जूझती भुवनमोहिनी ने परिवार सहित पिता की शरण ली। इस पीढ़ी के पहले लड़के के रूप में जन्मे शरत को उनके नाना-नानियों ने कभी कोई कमी नहीं होने दी, किंतु इस बार का आना अलग था। भागलपुर आने पर उन्हें दुर्गाचरण एम ई स्कूल की छात्रवृत्ति क्लास में भर्ती करा दिया गया। नाना स्कूल के मंत्री थे तो किसी ने उनकी पिछली शिक्षा के बारे में नहीं पूछा। अब तक उन्होंने बोधोदय ही पढ़ा था। यहाँ सीता वनवास, चारु पाठ, सद्भाव सद्गुरु और प्रकांड व्याकरण पढ़कर बहुत जल्द उन्होंने प्रखर विद्यार्थियों में अपनी गिनती करा ली। ननिहाल में सयुंक्त परिवार था। नाना के कठोर अनुशासन से परे हमउम्र मामा-मौसियों के साथ वे नित नई शैतानियाँ करते। नाना के बाहर जाते ही "कैट इज़ आउट, लेट माउस प्ले" की घोषणा के साथ ही चंचलता से भर उठने वाले शरत को विद्यालय की घड़ी को आगे बढ़ा देने, परिवार में निषिद्ध खेलों को ही खेलने में जितना सुख मिलता, उतना ही एकांत में बैठ कर आत्मचिंतन करने और अनुभवों को लिखने में मिलता था।


किशोरावस्था तक आते-आते उनका कहानियाँ गढ़ कर सुनाने और लिखने का कौशल चरम पर था। काशीनाथ, काकबासा, कोरेल ग्राम आदि कहानियाँ उस दौरान ही मस्तिष्क में उभरी थीं। सूक्ष्म तरीके से समाज को पर्यवेक्षित करना उन्हें बचपन से ही आता था, जो आगे चलकर उनकी रचनाओं में उभरता गया। पिता के कार्यस्थल 'डेहरी ऑन सोन' के अल्पकालिक प्रवास को उन्होंने 'गृहदाह' में भी स्थान दिया। देवदास की चंद्रमुखी, विलासी का मृत्यंजय, इंद्रनाथ के रूप में मित्र राजू, आदि सभी कुछ निजी अनुभवों की पिटारी में समाहित था। कुछ समय बाद ही उनकी सबसे छोटी बहन की प्रसूति में माता की मृत्यु हो गई, जिससे उन्हें बड़ा आघात पहुँचा। बड़ी बहन अनिला की शादी हो चुकी थी और अब घर में शरत के दो छोटे भाई प्रभास और प्रकाश के साथ बहन सुशीला रह गई थी। घरजँवाई मोतीलाल के स्वभाव के कारण अब ननिहाल में भी रहना संभव नहीं था। अलग रहने पर पिता की यायावर प्रकृति में जल्दी ही घर भी बिक गया। २१ वर्ष की उम्र में शरत ने बनैली इस्टेट के कर्मचारी के रूप में पहली नौकरी की, जो ज्यादा दिन तक नहीं चली। शरत एक साथ दो विपरीत जीवन जीते थे। नशा करना, नाटक खेलना, वेश्यागमन, शमशानों में जाना आदि करके जहाँ वे समाज से बहिष्कृत होते जा रहे थे, तो दूसरी ओर लेखन की गंभीरता उन्हें भीतर के एकांत को बढ़ा रही थी।  


शरत के बचपन से ही से उनके जीवन में स्त्रियों का प्रभाव और साथ बना रहा। माँ और बहन की ममता, स्नेह और विद्या से जोड़ती नानी-मामियों की संगत, धीरू जैसी दोस्त, विधवा निरुपमा के आकर्षण से लेकर काल्पनिक प्रेमिका नीरदा तक, तो वहीं एक तरफ नर्तकियों का कला प्रेम, सभी कुछ शरत को स्त्री मन की जटिलताओं और पीड़ाओं से परिचित करा रहा था। यही वजह रही कि उनकी रचनाओं में स्त्री पात्र पुरुष पात्रों से ज्यादा मजबूत थे क्योंकि उनकी स्त्रियाँ परंपराओं को तोड़ने का साहस करने लगी थीं। अपनी लेखनी से शरत ने तथाकथित बंगाली समाज की विसंगतियों को उजागर कर स्त्रियों को साहस दिया।


दुर्भाग्यवश कुछ समय बाद शरत के पिता की भी मौत हो गई। खाने-कमाने के अलावा अब बहन और भाईयों का भरण पोषण बड़ा प्रश्न था। अंततः उनकी अलग-अलग व्यवस्था करके शरत रंगून के लिए रवाना हो गए। यह समय बंगाल के लिए कुरीतियों के विरोध और जागृति के स्वागत का था। राजा राममोहन राय के ४३ वर्ष बाद शरत का जन्म हुआ था। साहित्य में बंकिमचंद्र के आंनदमठ के बाद क्रांति का स्वर फूट चुके थे। पुनर्जागरणवाद के इस काल में ईश्वरचंद्र विद्यासागर, माइकेल मधुसूदन और कुमारी तोरुदत्त के नाम प्रमुख थे। शरत ने अपने लेखन से इसे और सुदृढ़ कर दिया।


अपने नायक श्रीकांत की तरह जिस समय वे एक लोहे का ट्रंक और पतला सा बिस्तर लेकर रंगून पहुँचे, वहाँ प्लेग की वजह से आने वालों को क्वारंटीन किया जा रहा था। समय के इस नए रूप से परिचित होते हुए कुछ दिन वे अपने मौसा अघोरनाथ के घर रहे, जो उन्हें अपनी तरह वकील बनाना चाहते थे। शरत ने रेलवे के ऑडिट ऑफिस में नौकरी की, लेकिन निभा नहीं पाए। वे न तो बर्मा भाषा की परीक्षा पास कर सके, ना वकालत पढ़ सके। प्लेग से मौसा की मृत्यु के बाद वे फिर दिशाहीन हो गए। कभी रंगून, उत्तरी बर्मा, कभी वैरागी साधुओं की तरह  घूमना तो कभी अस्थायी नौकरियाँ ही अब उनकी ज़िंदगी थी। अपने अजीब व्यवहार के कारण यहाँ भी उनके चरित्र पर सवाल उठने लगे और दूसरी तरफ कला-साहित्य के सृजन प्रसिद्धि दिलाते रहे। कविवर निर्मलचंद ने उन्हें 'रंगून रत्न' की उपाधि तक दे डाली। अपने आपको निरीश्वरवादी कहने वाले शरत को उच्च वर्ग के बंगालियों से मिली नफरत, निम्न वर्ग की ओर आकृष्ट करती गई। वे उनके बीच जाकर रहने लगे। कुछ समय बाद योगेश्वर मिस्त्री की बेटी शांति से उनका विवाह हो गया। जीवन में ठहराव आने ही लगा था कि लगभग दो साल बाद प्लेग की चपेट में आकर उनकी पत्नी और पुत्र मृत्यु को प्राप्त हो गए। इस आघात को सहने में संगीत, लेखन और चित्रकला ने उनका बहुत साथ दिया। अपने चित्रकार मित्र बाथिन को उन्होंने छवि कहानी में अमर कर दिया था। 


रंगून आने से पहले उन्होंने अपनी सभी रचनाएँ मित्र के पास छोड़ दी, जिसमें एक लंबी कहानी थी 'बड़ी दीदी'। उनसे बिना पूछे मित्र सौरींद्र मोहन ने उसे 'भारती' में छपने को दे दिया। 'भारती' का वह अंक छपते ही बंगाल के साहित्यिक क्षेत्र में हलचल हो गई। बहुतों ने सोचा कि रवींद्रनाथ ने इसे छद्म नाम से लिखा है, किंतु उन्होंने इसे नाकारा और कहा जिसने भी लिखा है वह असाधारण रूप से शक्तिशाली लेखक है। शरत को भी समाचार मिला पर वे स्वभाववश शांत रहे और अपने बारे में किसी से चर्चा नहीं की। बंगाल क्लब से जुड़े योगेंद्रनाथ सरकार जैसे मित्रों ने उनकी प्रतिभा को पहचान लिया था। धीरे-धीरे शरत का सम्मान बढ़ रहा था। उन्हीं दिनों बंगाल के कृष्णदास अधिकारी की बेटी मोक्षदा( हिरण्यमयी देवी) से उन्होंने शैव रीति से विवाह कर लिया, बिलकुल 'शुभदा' के मालती और सुरेंद्र की तरह। जीवन फिर स्थिरता की ओर बढ़ा तो लेकिन इस कदम से उन्हें बहुत अपयश मिला। 


बिना विचलित हुए वे चरित्रहीन पूरा करने में लग गए। साथ ही नारी के इतिहास का प्रबंध भी लिख रहे थे। एक दिन उनके घर में भयंकर आग लग गई और सब कुछ जल कर राख़ हो गया। उनकी लाइब्रेरी, पेंटिंग्स, साथ ही चरित्रहीन की पांडुलिपि भी। लेकिन सबसे पहले उन्होंने अपनी पत्नी हिरण्यमयी देवी के साथ अपनी मैना और कुत्ते को बचाया। पशु-पक्षियों से उन्हें अतिशय प्रेम था। उनके पक्षी नूरी, बाटू-बाबा विशेषकर कुत्ते भेलू से उनका प्रेम जगजाहिर था। जिसकी मृत्यु पर उन्होंने अपने घर में ही उसकी समाधि बनवाई थी। 


शरत का यह विचित्र मन ही था कि वे अपनी रचनाएँ प्रकाशन योग्य नहीं समझते थे और उनके भारतीय मित्र उनके लिखने और छपने के प्रति कटिबद्ध थे। उन्होंने वापस चरित्रहीन लिखना शुरू किया। फणींद्र पाल के संपादन में 'यमुना' में जो लेखन शुरू हुआ तो क्रम टूटा नहीं। 'भारती', 'साहित्य', सुप्रसिद्ध नाटककार द्विजेंद्रलाल राय (भारतवर्ष पत्र के संपादक), जलधर सेन आदि सभी चाहते थे कि शरत उनके लिए लिखें। 'यमुना' में छपी उनकी कहानी रामेर सुमति ने एक बार फिर बंग्ला साहित्य को वाचाल कर दिया, परंतु धीरे-धीरे उनके लेखन को अश्लीलता की श्रेणी में रख कर विरोध भी किया जाने लगा। विद्रोही शरत ने लिखना जारी रखा। कुछ गलतफहमियों के कारण 'यमुना' से भी संबंध खत्म हो गया।  


अपने काम की वजह से वे छुट्टी लेकर भारत आते, लेकिन अफीम आदि के नशे से लगातार उनका स्वास्थ्य गिर रहा था। उन्होंने बर्मा छोड़ दिया और वापस कलकत्ता आकर बस गए। इस दौरान 'मंझली दीदी', 'पल्ली समाज' और 'चंद्रनाथ' प्रकाशित हो चुके थे। 


जिस समय वे रंगून गए थे, उपेक्षित और दिशाहीन थे। लेकिन जब तेरह सालों बाद लौटे तो एक कथाशिल्पी के रूप में ख्यातिप्राप्त थे। कलकत्ता आने पर उन्होंने भाई-बहनों को पास बुला लिया। प्रकाशचंद्र साथ रहने लगे, प्रभासचंद्र संन्यासी के रूप में रामकृष्ण आश्रम का वृंदावन में संचालन कर रहे थे। वे और बड़ी बहन शरत से मिलने आते  किंतु छोटी बहन ने दूरी बनाए रखी। परिवार के पास आकर शरत को जाति बहिष्कृत होने का दंश सालने लगा था। अब वे स्थायित्व चाहते थे। जीवन के मध्य में आने के बाद सम्मान और सफलताओं का समय शुरू हो चला था। देखते ही देखते उनकी रचनाएँ बंगाल पर छा गईं। 'विराज बहू', 'श्रीकांत', 'देवदास', 'निष्कृति', 'चरित्रहीन', 'काशीनाथ', 'गृहदाह', 'बामन की बेटी' आदि एक के बाद एक  पुस्तकों के रूप में वे प्रकाशित होते चले जा रहे थे। देना-पावना आदि रचनाएँ धारावाहिक के रूप में प्रकाशित होने लगी थीं। 


शरत को दूसरों की पीड़ा उद्वेलित कर देती थी, लेकिन अब अपने ही पात्रों की भावुकता पर वे चिंतन करने लगे थे। 'चरित्रहीन' का काफी विरोध हुआ, घंटों बहस होती थी। लोग उनसे मिलते और रचनाओं-पात्रों पर अपनी भावनाओं के अनुसार अच्छी और बुरी प्रतिक्रिया देते। एक तरफ उनके गुरु रवींद्रनाथ ठाकुर, परमाथ चौधरी, अमृतलाल बासु, क्षीरोप्रसाद विद्याविनोद, सतेंद्रनाथ दत्त जैसे साहित्यिक विद्वानों से परिचय का विस्तार हो रहा था, दूसरी ओर सौरींद्रमोहन मुखर्जी, हेमेंद्रकुमार राय, मणिलाल गांगुली, पवित्र गांगुली, अमल होम, और दिलीपकुमार राय, विभूति जैसे मित्रों का साथ था। 


जीवन स्तर अब ऊँचा उठ चुका था। वेशभूषा भी बदल चुकी थी। डबल ब्रेस्ट की कोट-कमीज, शांतिपुरी धोती, फीते वाले जूते, चाँदी मूठ वाली छड़ी, सुनहरी फ्रेम का चश्मा व्यक्तित्व को शोभित करने लगे थे। लेकिन बिगड़ता स्वास्थ्य कांति छीन रहा था। 


इन दिनों शरत लोकप्रिता के चरम पर थे। देश ने भी नई करवट ले ली। १९१९ में जलियाँवाला बाग की घटना ने सबको दहला दिया। बड़े-बड़े सरकार परस्त भी विद्रोही हो उठे थे। रवींद्रनाथ टैगोर ने सर की उपाधि लौटा दी। शरतचंद्र भी देशबंधु चितरंजनदास के साथ आंदोलनों में शामिल हो गए। हालाँकि इस मित्रता की वजह से शरत को काँग्रेस कमेटी के पद से इस्तीफा देना पड़ा। राजनितिक सक्रियता से सभा-समाज में उनका कद बढ़ता जा रहा था। गाँधी और सुभाष चंद्र बोस से भी उन्हें बहुत स्नेह था। गाँधी जी ने महादेव देसाई से उनके कुछ उपन्यासों का गुजराती में अनुवाद कराया। देशबंधु की मृत्यु के बाद शरत ने राजनीति छोड़ दी। साहित्य की तरफ वापस लौट कर उन्होंने पाथेर दाबि लिखी। यह क्रंतिकारियों के बीच इतनी लोकप्रिय हुई कि समाज में निषेध कर दी गई। इसको लेकर अपने गुरु तुल्य रवींद्रनाथ से उनका मतभेद भी रहा। 


मन की शांति के लिए उन्होंने अपना मकान सामता गाँव में रूपनारायण नदी के तट पर बनाया। नए घर में आते ही भाई प्रभासचंद्र की मृत्यु हो गई। पशु-पक्षी की मौत भी न सह पाने वाले शरत के लिए यह असहनीय था। भाई की समाधि पर वे काफी समय बिताते। उन्हीं दिनों न्यू थियेटर्स ने उपन्यासों को रजत पट पर उतारना आरंभ कर दिया था। राजकुमार प्रमथेश बरुआ ने उनके उपन्यास पर फिल्म 'देवदास' बनाई, इसके बाद देवदास दो बार और बनी और बॉक्स ऑफिस पर सफल रही। उनके उपन्यास परिणीता आदि पर फ़िल्मों के साथ धारावाहिक भी बनें।


शरतचंद्र यथार्थवाद विशेषकर मध्यमवर्गीय समाज का यथार्थ को लेकर साहित्य क्षेत्र में उतरे थे। उन्होंने अपनी रचनाओं में सामाजिक रूढ़ियों पर प्रहार किया था। बंग्ला समाज में महिलाओं को कभी इतना महत्वपूर्ण स्थान नहीं मिला था। उनकी ५७वीं जयंती पर बड़ी संख्या में महिलाओं ने उनका अलग से सम्मान किया था और उनके प्रति अपना प्रेम प्रकट किया था।


खरीदारी के शौक़ीन शरतचंद्र खर्च तो खूब करते पर कभी पैसा जमा करके नहीं रखते। उत्तम सौंदर्य बोध के कारण अपनी पढ़ने की मेज को सजा कर रखने का चाव अंत तक बना रहा। गाँव से शहर की दौड़ में उन्होंने कलकत्ता में भी मकान बनवा लिया, मॉरिस गाड़ी भी ले ली थी।


शरतचंद्र की प्रसिद्धि विदशों तक पहुँच चुकी थी। कई भाषाओं में उनकी रचनाओं का अनुवाद होने लगा। ६१ वर्ष की उम्र में उन्हें ढाका की ओर से डीलिट् की उपाधि मिली। शरत को अब अपने जाने का आभास हो चुका था। उन्होंने सारी संपत्ति पत्नी और भाई के बच्चों के नाम कर दी और १६ जनवरी १९३८ को अपनी अंतिम सांस ली। उनकी मृत्यु पर विशाल जन समूह ने उन्हें विदाई दी। उनकी स्मृति में आज भी हावड़ा में शरत मेले का आयोजन किया जाता है। 


एक बार रवींद्रनाथ टैगोर ने उनसे आत्मकथा लिखने को कहा था, उनका उत्तर था- "गुरुदेव यदि मैं जानता कि मैं  इतना बड़ा आदमी बनूँगा तो मैं किसी और प्रकार का जीवन जीता।"


बंगाल के गोपालचंद्र राय, वाराणसी के विश्वनाथ मुखर्जी आदि कई लोगों ने शरत पर लिखने का प्रयास किया, लेकिन विष्णु प्रभाकर जी की 'आवारा मसीहा' ने मानो शरत को पुनर्जीवन दे दिया। उन्होंने इसे लिखने में १९४५ से लेकर १९७३ तक पूरे १४ वर्ष लगाए। हालाँकि इसके लिए उन्हें काफी विरोध का भी सामना करना पड़ा था। लेकिन इसे पढ़े बिना शरत को बिल्कुल न जानने जैसा है। इतना कुछ है इस कृति में, कि उसे महसूस करने और बाँटने की इच्छा होती है। शरतचंद्र ने अपनी कलाओं, लेखन, देशभक्ति, प्रेम और स्वभाव के जिन रूपों को जिया था, उसे समेटने के लिए शब्दों का अभाव हमेशा बना रहेगा।


शरतचंद्र चट्टोपाध्याय : जीवन परिचय

जन्म

१५ सितंबर १८७६, देवानंदपुर, हुगली(पश्चिम बंगाल)

निधन

१६ जनवरी १९३८, कोलकाता

व्यवसाय

लेखन, कलाकार

भाषा

बांग्ला

साहित्यिक रचनाएँ

  • देवदास

  • चरित्रहीन

  • श्रीकांत

  • गृहदाह

  • पंडित मोशाय

  • मंझली दीदी

  • शेष प्रश्न

  • देना-पावना

  • दर्पचूर्ण

  • पाथेर दाबि

  • अक्षरणीया

  • निष्कृति

  • काशीनाथ

  • अनुपमा का प्रेम

  • दत्ता

सम्मान

  • डीलिट् की उपाधि (ढाका)

  • जगततारिणी सम्मान (कलकत्ता)


संदर्भ

  • आवारा मसीहा - विष्णु प्रभाकर
  • विभिन्न आलेख 

लेखक परिचय

अर्चना उपाध्याय 

डिज़ाइनर इन टेक्सटाइल मिनिस्ट्री 
फाउंडर एन्ड डायरेक्टर 'अंतरासत्व'

4 comments:

  1. वाह, शानदार लिखा

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  2. 🙏🌼 अद्भुत

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  3. Good, all the best Archna Ji.. 👍

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  4. अर्चना जी नमस्ते। आपका लिखा एक और अच्छा लेख पढ़ने को मिला। आपने लेख में शरतचंद्र चट्टोपाध्याय जी के साहित्य एवं जीवन यात्रा का सुंदर वृत्तांत दिया। उनके जीवन के बहुत सारे प्रसंगों को जानने का अवसर मिला। आपको इस जानकारी भरे रोचक लेख के लिए हार्दिक बधाई।

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