अभी आठ की घंटी बजते
भूखा शिशु-सा चीख़ उठा था
मिल का सायरन।
और सड़क पर उसे मनाने
नर्स सरीखी दौड़ पड़ी थी
श्रमिक-जनों की पाँत
यंत्रवत, यंत्रवेग से।
वहीं गेट पर बड़े रौब से
घूम रहा है फ़ोरमैन भी
कल्लू की वह सूखी काया
शीश नवाती उसे यंत्रवत………….
शेखर जोशी एक प्रसिद्ध कहानीकार के साथ कवि भी हैं। 'न रोको उन्हें शुभा' तथा 'पार्वती' उनके दो कविता संग्रह भी हैं। इस आलेख की शुरुआत उनकी 'कारखाना' नामक कविता के एक अंश से शुरू कर रहा हूँ। जिसमें एक मिल का सायरन बजते ही तमाम मजदूरों के झुंड फैक्ट्री के अंदर ऐसे समा जाते हैं जैसे अजदहे के मुँह में तमाम शिकार। शाम ढलने पर फैक्ट्री से बाहर आते वे थके-माँदे पस्त मजदूर ऐसे प्रतीत होते हैं जैसे उस अजदहे ने उनके खून की आखिरी बूँद तक पीकर उन्हें अपने मुँह से उगल दिया हो।
शेखर जोशी नई कहानी के जन्मदाता होने के साथ-साथ इस मुहिम को साहित्यिक क्षेत्र में एक नए जनमानस के साथ साकार करना चाहते हैं। उनकी कहानियों में पहाड़ी इलाकों के रमणीक दृश्यों के बजाय पहाड़ी इलाकों की गरीबी, कठिन जीवन संघर्ष, उत्पीड़न, यातना, प्रतिरोध, उम्मीद और नाउम्मीदी से भरे औद्योगिक मजदूरों के हालात, शहरी, कस्बा और निम्न वर्ग के सामाजिक-नैतिक संकट, धर्म और जाति से जुड़ी रूढ़ियाँ यह सभी उनकी कहानी के विषय रहे हैं।
शेखर जोशी की कहानियों में शिल्प और संवेदना के अंतर्संबंधों की सुरम्य रचना के साथ जीवन और समाज के सहज उन्नयन एवं परिवर्तनकारी दृष्टि के प्रति दायित्वबोध साफ़ दृष्टिगोचर होता है। कथात्मक गठन में भाषा के सूक्ष्म उपयोग का उन जैसा आधुनिक बोध हिंदी कहानी में अपरिचित है। अत्यंत सहज भाषा के माध्यम से यह कहानियाँ हमारे समक्ष जिस यथार्थ का उद्घाटन करती हैं, उसके पीछे समकालीन जन-जीवन की बहुविध विडंबनाओं को महसूस किया जा सकता है। सपनों की वास्तविकता से अपरिचित बच्चों की ख़ुशी हो या बिरादरी के दलदल में फंसे व्यक्ति की मनोदशा, लेखकीय दृष्टि उन्हें एक अर्थ-गांभीर्य से भर देती है। उसके पास आदर्शवादी निर्णय हैं तो सामने खड़ा कठोर और भयावह यथार्थ भी है। वस्तुतः शेखर जोशी की ये कहानियाँ बिना किसी शोर-शराबे के हमारी सोच के विभिन्न स्तरों को स्पर्श और झंकृत करने वाले रचनात्मक गुणों से परिपूर्ण हैं।
शेखर जोशी का जन्म १० सितंबर १९३२ को उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में तहसील सोमेश्वर में स्थित गाँव औलिया में हुआ था। इनके पिता श्री दामोदर दत्त जोशी गाँव के बहुत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। इनकी माता श्रीमती हरिप्रिया जोशी सीधी सरल गृहस्थ महिला थीं। शेखर जोशी जी की प्रारंभिक शिक्षा अजमेर और देहरादून में हुई। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान ही रक्षा-विभाग में ई०एम०आई० एप्रेंटिसशिप के लिए जोशी जी का चयन हो गया। वहाँ से वे १९८६ तक सेवा में रहे। तत्पश्चात स्वैच्छिक रूप से पद त्याग कर स्वतंत्र लेखन में संलग्न हैं। इनकी कहानियों का अनुवाद अँग्रेज़ी, चेक, पोलिश, रूसी व जापानी भाषाओं में भी हुआ है। वर्ष १९५५ में धर्मयुग कहानी प्रतियोगिता में इन्हें प्रथम स्थान प्राप्त हुआ था। शेखर जोशी जी जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी हैं। शेखर जोशी जी लंबे समय तक बीमार रहे, दो बार ब्रेन-हैमरेज के भी शिकार हुए। लेकिन अपनी तीव्र आत्मशक्ति और जिजीविषा से हमारे मध्य हैं और लगभग ९० वर्ष की आयु में भी साहित्य सेवा कर रहे हैं। इस समय अपने छोटे बेटे संजय जोशी जी के पास रह रहे हैं। इनके बड़े पुत्र प्रतुल जोशी जी भी साहित्यकार हैं। इनकी एक बेटी कल्पना पंत भी हैं। शेखर जोशी जी को उत्तर-प्रदेश हिंदी साहित्य संस्थान द्वारा वर्ष १९८७ में महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान तथा वर्ष १९९५ में साहित्य भूषण सम्मान, वर्ष १९९७ में पहल-सम्मान, मैथिलीशरण गुप्त सम्मान, इफ्को द्वारा प्रदत्त श्री लाल शुक्ल सम्मान तथा इसी वर्ष २०२२ में अमर उजाला द्वारा आकाश दीप सम्मान से अलंकृत किया गया है।
शेखर जोशी जी के कहानी लिखने के कथ्य और शिल्प ने इन्हें समकालीन कथाकारों के मध्य पर्याप्त सम्मान प्रदान किया है। इनकी कहानियों में कुमाऊँ के आँचलिक जीवन से लेकर छोटे-बड़े महानगरीय सामाजिक लोक जीवन का सर्वाधिक चित्रण हुआ है। किंतु आँचलिक जीवन और औद्योगिक प्रतिष्ठानों के मध्यम एवं निम्न वर्गीय जीवन संदर्भों के निरूपण की दृष्टि से शेखर जोशी के कहानी साहित्य का विशेष महत्व है। उनके कथा साहित्य में उत्तराखंड के पर्वतीय अंचल में परिव्याप्त स्थानीय सामाजिक लोक जीवन का कुशलतापूर्वक चित्रांकन हुआ है। उनकी कहानियों के शीर्षक भी स्थानीय नामों, स्थानों अथवा लोकग्राह्य संज्ञाओं की व्यंजना करते हैं। वस्तुतः शेखर जोशी जी की कहानियाँ सामाजिक जीवन की विसंगतियों को बड़ी सहजता और सरलता से पाठक को परिचित कराती हैं तथा एक बड़ा सवाल छोड़ देती हैं।
शेखर जोशी के रचना संसार में समाज के हाशिए के आदमी विशेष तौर पर मजदूर तबके के लोग हैं। आम आदमी की खामोशी और चुप्पी की तरह शेखर जोशी जी की कहानियाँ भी हैं। आजादी के बाद भारत अपने अस्तित्व के निर्माण के संक्रमण काल में जब विकास की मिश्रित अर्थव्यवस्था अपनाकर पूँजीवादी की ओर चला तो मेहनतकश और निम्न मध्यम वर्ग को जिंदगी की जद्दोजहद के लिए संघर्ष करना पड़ा। कृषक वर्ग को भी प्रकृति के आसरे ही अपनी फसल उपजाने तथा बाजार में लूट का शिकार होने को मजबूर होना पड़ा। उन सभी के दुख व पीड़ा को जोशी जी ने अपनी कहानियों में विभिन्न चरित्रों के माध्यम से ढाला है।
उनकी प्रसिद्ध कहानी 'कोसी का घटवार' एक ऐसे सेवानिवृत सैनिक गुंसाई एवं उसकी प्रेमिका लक्षिमा की कहानी है, जिसमें गुंसाई जीवनपर्यंत कुँवारा रहता है, लक्षिमा की शादी दूसरी जगह हो जाती है। बाद में जब विधवा लक्षिमा अपने बच्चे के साथ घोर गरीबी व दारुण दौर में गुंसाई से मिलती है, तो एक मर्यादा, स्वाभिमान तथा खुद्दारी का अनुभव गुंसाई को कराती है। इस कहानी का कोलाज़ उस दौर की पहाड़ी जिंदगी की गरीबी, भयंकर सूखा व पानी की कमी आदि से बुना गया है। इस कहानी का निम्न अंश पठनीय है, "गुंसाई को लछमा का यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा। रूखी आवाज़ में वह बोला, दुख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है। स्साला! कितना कमाया, कितना फूँका इस जिंदगी में। कोई हिसाब। पर क्या फायदा? किसी के काम नहीं आया। इसमें एहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है, स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी। परंतु गुंसाई के इस तर्क के बावजूद भी लछमा अड़ी रही, बच्चे के सिर पर हाथ फेरते हुए उसने दार्शनिक गंभीरता से कहा, 'गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जे। पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाए। अपने-पराए हँस-बोल दें, तो बहुत हैं दिन काटने के लिए।"
'दाज्यु' जिस पर बाल फिल्म भी बनी है, एक पहाड़ी बाल-मजदूर बच्चे की कहानी है, जो मैदानी इलाके में एक ढाबानुमा होटल में बाल-मजदूरी करता है, वहीं उसे उसके इलाके के एक सभ्रांत मिल जाते हैं, उसकी बाल सुलभ इच्छा उन सभ्रांत से प्यार पाने की ललक है। कुछ हद तक वे संभ्रांत उसे प्यार भी करते हैं, लेकिन एक दिन उनका ईगो आड़े आ जाता है, और वे उस बच्चे को अपमानित कर देते हैं। बच्चे के सारे अरमान टूट जाते हैं और वह बहुत व्यथित होकर मजदूरी करता है, यंत्रवत एक मशीन की तरह, क्योंकि वह बच्चा अंदर तक टूट चुका है। कहानी का यह अंश दृष्टव्य है, "दाज्यु चाय लाऊँ? चाय नहीं, लेकिन यह दाज्यू-दाज्यू क्या चिल्लाते रहते हो दिन-रात। किसी की प्रेस्टिज का ख्याल भी नहीं है तुम्हें? जगदीश बाबू का मुँह क्रोध के कारण तमतमा गया, शब्दों पर अधिकार नहीं रह सका। मदन 'प्रेस्टिज' का अर्थ समझ सकेगा या नहीं, यह भी उन्हें ध्यान नहीं रहा, पर मदन बिना समझाए ही सब कुछ समझ गया था। मदन को जगदीश बाबू के व्यवहार से गहरी चोट लगी। मैनेजर से सिरदर्द का बहाना कर वह घुटनों में सर दे कोठरी में सिसकियाँ भर-भर रोता रहा। घर-गाँव से दूर, ऐसी परिस्थिति में मदन का जगदीश बाबू के प्रति आत्मीयता-प्रदर्शन स्वाभाविक ही था। इसी कारण आज प्रवासी जीवन में पहली बार उसे लगा जैसे किसी ने उसे ईजा की गोदी से, बाबा की बाँहों से, और दीदी के आँचल की छाया से बलपूर्वक खींच लिया हो।"
शेखर जोशी की एक और कहानी एक मध्यम वर्गीय व्यक्ति के मजदूर बनने की कहानी 'बदबू' है। हालात ने उसे अपनी सूखी और ठहरी हुई जिंदगी में भूचाल ला दिया, उन्हीं परिस्थितियों ने उसे कारखाने में ला पटका, जहाँ मजदूर के लिए कार्य दशाओं के बुरे होने के साथ-साथ उनका भयंकर शोषण भी जारी है। इस कहानी का यह अंश विशेष है, "सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा आज वह भी घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है। उसने चाहा कि एक बार फिर हाथों को सूंघ ले। लेकिन उसका साहस न हुआ। मगर फिर बड़ी मुश्किल से वह धीरे-धीरे दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही। पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों से केरासीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी।"
शेखर जोशी जी की एक और कहानी 'गलता लोहा' में जीवन की जरूरतें भारतीय समाज के धब्बा रूपी जाति व्यवस्था के परखच्चे उड़ा देती है। मोहन जो उच्चकुल ब्राहमण का सुपुत्र है, घोर गरीबी के कारण अपनी शिक्षा पूरी करने पिताजी के दोस्त के साथ शहर जाता है। वहाँ वह अपने पिता के दोस्त की गुलामी के अलावा कुछ नहीं सीख पाता। पिता के दोस्त एक छोटे तकनीकी वर्कशाप में उसे कुशल कारीगरी सीखने की ट्रेनिंग में लगा देते हैं। जब वह गाँव आता है तब अपने स्कूल के सहपाठी मित्र धनराम जो पढ़ने में बहुत कमजोर था, तथा अब अच्छा लोहार है, से मिलता है। पुरानी यादों के साथ वह बातें करते हैं। मोहन को धनराम से अपने खेतिहर औजारों को पिटवाना था। लेकिन यहाँ पर मोहन स्वंय वह काम करने लगता है, जो ब्राहमण पुत्र है। जिसकी एक-एक हथौड़े की चोट ब्राह्मणवादी जाति व्यवस्था को चकनाचूर करती नजर आती है।
शेखर जोशी की कहानियाँ विषमता और शोषण की सड़ांध से बीमार समाज और उसमें रहने वाले बीमार मनुष्य को व्याख्यायित करते हैं। उनकी कहानी 'नौरंगी बीमार है' में नौरंगी एक कामगार है, वह अपने काम से ईमानदारी का परिचय देता है और मालिक से पुरस्कृत भी होता है। फिर वही नौरंगी लालच कर उसी कारखाने में छोटी-मोटी चोरी कर लेता है, इससे वह उसी बीमार समाज का हिस्सा हो जाता है। दूसरे दिन वही नौरंगी उसी कारखाने में गर्व से काम पर आता है, हालाँकि कल की चोरी के बारे में कोई नहीं जान पाता, लेकिन उसने चोरी तो की ही है। तो क्या वास्तव में नौरंगी बीमार है और क्या वह इस बीमार समाज का हिस्सा है? यह प्रश्न पाठक को खुद हल करना है।
शेखर जोशी जी की कहानी 'सिनारियो' में वृत्तचित्र बनाने वाला युवक रवि एक पहाड़ी गाँव में सूर्यास्त के समय सिंदूरी आभा से नहाया हुआ हिमालय का हिम विस्तार देख मंत्र मुग्ध हो जाता है। लेकिन वह जिस घर में ठहरा है, वहाँ घोर पहाड़ी दरिद्रता के बीच बूढ़ी आँमा और उनकी तेरह साल की पोती सरुली रहती है। सुबह चूल्हे की आग अचानक बुझ गई है, माचिस मँहगी पड़ती है, सुबह चाय बनाने के लिए सरुली कलछुल लेकर आग लाने निकल पड़ती है। सुदूर घर से आग लाते समय संतुलन बिगड़ने से आग जमीन पर बिखर जाती है, सरुली अपने हाथ से उन अंगारों को फूंक-फूंक कर कलछुल पर रखती है, बगैर इस बात की परवाह किए कि उसके हाथ जल रहे हैं। जब मैंने यह कहानी पढ़ी, तो मुझे महसूस हुआ कि हिम-पर्वतों की खूबसूरत सिंदूरी आभा पर राख जैसा धूसर रंग बिखर गया हो।
शेखर जोशी की एक और प्रसिद्ध कृति 'मेरा औलिया गाँव' जिसमें प्राकृतिक आभा के चित्रण के साथ-साथ गाँव के आपसी जटिल रिश्ते, जीवन जीने के लिए जद्दोजहद आदि सभी रंग दृष्टिगोचर होते हैं। वहीं इस किताब को पढ़ते वक्त प्रसिद्ध विद्वान राहुल सांस्कृत्यायन की उनके गाँव पर लिखी किताब 'कनैला की कथा' और रसूल हमजातोव की प्रसिद्ध किताब 'मेरा दागिस्तान' की याद आना स्वाभाविक है।
और अंत में शेखर जोशी के दूसरे काव्य-संग्रह 'पार्वती' से कुछ अंश जिसमें 'गांधारी की संवेदना' कविता में वह नारी की पीड़ा के साथ-साथ उसकी शक्ति व साहचर्य को बहुत सुंदर शब्दों में अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं।
इतिहास के राजमार्ग पर चलकर
पूर्वजों का कीर्ति रथ आता है।
आदर्शों के द्रुतगामी सैन्धव बढ़ चले
आह! अनुसरण न कर पाए हम पगचारी।
ओ मेरे चक्षुहीन धृतराष्ट्र।
तुम्हें दिग्भ्रम होता है,
चतुर्दिक अंधकार है राह नहीं मिलती
मैं तुम्हारी वेदना की सहभागिनी बनूँ
अभेद्य आवरण से ढक लूँ अपने
अपने भी दृष्टिपथ को?
द्रुतगामी सैन्धवों की टाप सुन पायेंगे हम
मिल पायेगी राह दोनों को गिरते - पड़ते
नहीं, चल न पायेंगे इस अनचीन्हे पथ पर हम
मैंने ज्योति पाई है आओ, यह बाँह पकड़ो
सम्बलहीन चल पाया है, कौन यहाँ, कब, कहो।
संदर्भ
कोशी का घटवार
शेखर जोशी की प्रतिनिधि कहानियाँ
कविता कोश
पार्वती काव्य संग्रह
विकिपीडिया
लेखक परिचय
सुनील कुमार कटियार
जनवादी लेखक संघ की उत्तर-प्रदेश राज्यपरिषद के सदस्य, उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवा निवृत्त, जनवादी चिंतक, स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन।
शिक्षा - एम०ए० अर्थशास्त्र।
जनपद फर्रुखाबाद में निवास।
मोबाइल नं० ७९०५२८२६४१ / ९४५०९२३६१
मेल आईडी - sunilkatiyar57@gmail.com
शिक्षा - एम०ए० अर्थशास्त्र।
जनपद फर्रुखाबाद में निवास।
मोबाइल नं० ७९०५२८२६४१ / ९४५०९२३६१
मेल आईडी - sunilkatiyar57@gmail.com
सुंदर आलेख
ReplyDeleteअपने प्रिय रचनाकार को इन शब्दों में साकार पाकर प्रसन्नाचित्त हूं
बहुत सारगर्भित, समग्र आलेख.
विजया जी, आलेख पसंद करने के लिए आपका बहुत-बहुत आभार।
ReplyDeleteसुनील जी, अद्भुत! कितना सुंदर और सरस परिचय कराया आपने शरद जोशी जी का। माना उनकी कहानियों के ताने-बाने और कविताओं की विषय-वस्तु समाज की विसंगतियाँ क्या बीमार समाज ही है, पर आपने जिन उदाहरणों और उद्धरणों से उसे रेखांकित किया, उससे मन में आनंद की अनुभूति हुई। सुन्दर लेखन के लिए आपको बहुत बधाई और यूँ की सक्रिय रहने के लिए शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteसुनील जी, आपके अन्य आलेखों की तरह शेखर जोशी पर लिखा यह आलेख भी हर तरह से मंझा हुआ है।कहानियों के उदाहरण बहुत पसंद आए।आपको इसके लिए बधाई और धन्यवाद। (सरोज शर्मा)
ReplyDeleteसुनील जी नमस्ते। आपने शेखर जोशी जी पर अच्छा लेख लिखा है। शेखर जी की कहानियों ने समाज की वास्तविक को उजागर करने में हमेशा सफलता पाई। आपने उनकी अनेक कहानियों की प्रभावी अंश देकर लेख को कहानी की ही तरह रोचक बना दिया। आपको इस बढ़िया लेख के लिए हार्दिक बधाई।
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