कोऊ भयो मुंडिया संन्यासी कोऊ जोगी भयो
कोऊ ब्रह्मचारी कोऊ जतीअन मानबो॥
हिंदू तुरक कोई राफ़जी इमाम साफ़ी
मानस की जात सबै एकै पहचानबो॥
करता करीम सोई राजक रहीम ओई
दूसरो ना भेद कोई भूल भ्रम मानबो।
एक ही की सेव सब ही को गुरुदेव एक
एक ही सरूप सबै एकै जोत जानबो।
(१५॥८५॥अकाल उस्तत॥ दशम ग्रंथ-गुरु गोबिंद सिंह)
आपने मानवीय एकता पर अनेक गद्यांश-पद्यांश पढ़े होंगे, लेकिन ऐसी अनुपम रचना दुर्लभ है। हम सभी एक ही प्रकाश की ज्योति हैं, इसमें कोई संदेह रह ही नहीं जाता।
इन पंक्तियों का कवि है, संसार के इतिहास का वह अनोखा व्यक्ति, जिसे शहीद पिता का पुत्र एवं शहीद पुत्रों का पिता होने का गौरव हासिल है। विश्व इतिहास में एकमात्र गुरु जिसने अपने शिष्यों को एक विशिष्ट पहचान देकर कहा- “अब आप भी मुझे अमृत छ्का कर अपना शिष्य स्वीकार कीजिए” और यह प्रचलित हो गया- ’वाह, वाह! गोबिंद सिंह, आपे गुरु चेला’।
एक महान योद्धा, कवि, संगीतकार, भक्त, तपस्वी, दानी, गृहस्थ, बैरागी, संत-सिपाही की अवधारणा के जनक एवं जीवंत उदाहरण, एक पूर्ण पुरुष जो ना केवल उत्कृष्ट मानवीय गुणों से संपन्न थे, अपितु गुणों की खान थे; ऐसे पारस, कि जो उनके संपर्क में आया, वह सोना बनकर निखर गया।
उनके शत्रु इस बात पर गर्व करते थे, कि वह उनके शत्रु हैं। वे ऐसे एकमात्र योद्धा थे, जो अपने बाण के आगे एक छोटा सा सोने का टुकड़ा लगाते थे, ताकि मृतक शत्रु सैनिक के परिवार वाले उसका ससम्मान अंतिम संस्कार कर सकें।
आपका जन्म माता गूजरी की कोख से २२ दिसंबर, १६६६ को पटना साहब में हुआ, जहाँ आज प्रसिद्ध ऐतिहासिक गुरुद्वारा है। ९ वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता गुरु तेग बहादुर जी को देश और धर्म की रक्षा के लिए शहीदी देने को प्रेरित किया; जब पंडित कृपाराम के नेतृत्व में कश्मीरी पंडितों का जत्था उनकी शरण में उपस्थित हुआ और उनसे प्रार्थना की, कि औरंगज़ेब के आदेश पर इफ़्तिखार ख़ान द्वारा जबरन धर्म परिवर्तन से उन्हें बचाएँ। इफ़्तिखार ख़ान का सीधा आदेश था, कि या तो इस्लाम स्वीकार करो या मृत्यु। पिता गहन सोच में डूब गए, फिर बोले, इस कार्य के लिए किसी संत, आध्यात्मिक पुरुष को अपनी बलिदानी देनी होगी। ९ वर्षीय गोबिंद बोले- 'आपसे बेहतर कौन हो सकता है ?' पिता ने पुत्र को गले लगाया , गुरु घोषित किया और अपने चुनिंदा शिष्यों के साथ चल दिए दिल्ली, औरंगज़ेब से मिलने।
उसके बाद इस संत-सिपाही, कवि-योद्धा के संघर्ष के बारे में क्या कहें। जब किसी बच्चे को संघर्ष शब्द का अर्थ समझना होता है, तो लोग उनके जीवन का उदाहरण देते हैं। महान आश्चर्य की बात यह, कि ऐसे संघर्षरत योद्धा के भीतर कैसा कोमल हृदय भक्त-कवि रहता था। मृदु भाषी, द्वेष-क्रोध से मुक्त, यमुना के किनारे (पाउंटा साहब: वर्तमान में प्रसिद्ध गुरुद्वारा) कवि दरबार लगाया करते थे। ऐसा मानना है, कि अक्सर ५२ कवि कविता पाठ किया करते थे। कुल कवियों और विद्वानों की संख्या १२५ अनुमानित है। इनमें से कुछ प्रमुख नाम हैं- भाई नंदलाल, सेनापति, अमृत राय, हंसराम, मंगल आदि। इनकी सुंदर रचनाएँ गुरु द्वारा पुरस्कृत की जाती थीं। आप स्वयं उच्च कोटि के रचनाकार थे। संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, पंजाबी तथा ब्रज भाषा के विद्वान थे। बहुत पढ़ते और लिखते थे। न केवल स्वयं, अपितु अपने सेवकों को भी निरंतर प्रेरणा देते एवं उनकी शिक्षा का प्रबंध करते थे। एक बार विद्वान कवि चंदन ने उनसे अपनी काव्य प्रस्तुति पर विवेचना का निवेदन किया। गुरु ने अपने घसियारे धन्ना सिंह को बुला भेजा। धन्ना सिंह ने ऐसा सुंदर विवेचन किया, कि कवि चंदन सहित सभी दरबारी स्तब्ध रह गए।
गुरुजी ने श्री दशम ग्रंथ में अद्भुत काव्य रचना का परिचय दिया है। परमात्मा की परिभाषा का अद्वितीय उदाहरण देखिए:
चक्र चिन्ह अरु बरन जात अरु पात नहिन जिह।
रूप रंग और रेख-भेख कोऊ कहि न सकत किह।
अचल मूरत अनुभव प्रकाश अमितोज कहिजै।
कोटि इन्द्र इन्द्राणि, शाह शाहाणि गणिजै।
त्रिभुवन महीप सुर नर असुर नेति नेति बन तृण कहत।
तव सरब नाम कथै कवन करम नाम बरनत सुमत।
(॥१॥जाप साहब॥अकाल उस्तत॥ दशम ग्रंथ - गुरु गोबिंद सिंह)
गुरु जी संपादकीय प्रतिभा के भी धनी थे। आपने सिखों के पवित्र ग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहब का अंतिम संपादन भी किया। प्रथम संपादन पांचवें गुरु अर्जुन देव जी ने किया था। आपने अपने निधन से पहले सिखों को आदेश दिया, कि आपके जाने के बाद केवल गुरु ग्रंथ साहब को ही जीवंत गुरु माना जाए।
एक संपादक के लिए इस लोभ का संवरण करना, कि ऐसे ग्रंथ को अमर शोभा से सुशोभित किया जाए, जिसमें उसकी स्वयं की रचना ना हो, सभी संपादकों की प्रेरणा के लिये उत्कृष्ट उदाहरण है। गुरु ग्रंथ साहब में गुरु गोबिंद सिंह जी द्वारा रचित केवल अंतिम पृष्ठ (१४३०) पर राग माला है, जिसमें विभिन्न राग-रागिनियों का वर्णन है। गुरु तेग बहादुर जी द्वारा रचित प्रसिद्ध श्लोक (दोहा शैली में), सलोक महला ९ में भी एक श्लोक गुरु गोबिंद सिंह जी का माना जाता है। गुरु-पिता ने शायद पुत्र की परीक्षा लेने के लिए संदेश भेजा था-
बल छुटक्यो बंधन परे कछु न होत उपाय
कहु नानक अब ओट हरि गज ज्यों होहु सहाय।
पुत्र ने उत्तर भेजा:
बल होआ बंधन छुटे सब किछु होत उपाय।
नानक सब किछु तुमरै हाथ में तुम ही होत सहाय।
(श्री गुरु ग्रंथ साहब, पृष्ठ १४२९)
ऐसी मान्यता है, कि गुरु जी का यह विवेकपूर्ण निर्णय इसलिए लिया गया, क्योंकि गुरु ग्रंथ साहब में केवल प्रभु की स्तुति में कही गई संतों की वाणी है, जो सिखों को सदाचारी गुरसिख जीवन के लिये प्रेरित करती है। ग्रंथ में कोई व्यक्तिगत किस्से- कहानियाँ नहीं हैं। दूसरी ओर कवि गुरु गोबिंद सिंह ने विविध विषयों पर लिखा है। आपने पौराणिक साहित्य और कथाओं को ऐसी भाषा और शैली में प्रस्तुत किया, जिसे आम आदमी समझ सके। यद्यपि आप स्वयं मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं करते थे एवं परमेश्वर की जन्म एवं मृत्यु से परे निराकार ब्रह्म के रूप में ही आराधना करते थे, आप चाहते थे, कि आपके सिखों को यह ज्ञान होना चाहिए, कि भारत के पौराणिक ग्रंथों में क्या लिखा हुआ है। सो, इन सारी पौराणिक कथाओं का वर्णन आपने एक आराधक की भाँति नहीं , एक अनुवादक या किसी नाट्य प्रस्तुति के सूत्रधार की भाँति किया है।
आपकी अनेक रचनाओं का संकलन भाई मणि सिंह ने दशम ग्रंथ के रूप में किया। अधिकांश रचनाएँ ब्रज भाषा में हैं। अन्य प्रयुक्त भाषाएँ हैं- पंजाबी, हिंदी, फ़ारसी एवं अवधी। इनमें प्रमुख एवं महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं- जाप साहब, अकाल उस्तत (स्तुति) , बचित्तर (विचित्र) नाटक, चंडी चरित्र १ और २, चंडी दी वार, चौबीस अवतार, बेनती चौपाई, सवय्ये, जफ़रनामा एवं हिकायत।
आपने ३३ वर्ष की आयु में खालसा पंथ की स्थापना की। ४२ वर्षों से भी कम के जीवन काल में आपने इस संसार को अद्भुत मानवीय मूल्य दिए। सदैव अपने सिखों को यही संदेश दिया, कि मैं भी तुम्हारी तरह हाड़- मांस का बना हुआ मनुष्य हूँ। जो कुछ मैं कर रहा हूँ, वह मेरा हर सिख कर सकता है। लोग संघर्ष और कठिनाई से बचने के लिए महान कार्य को अंजाम देने वाले व्यक्ति को भगवान बना देते हैं, और यह कह कर उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाते हैं- वह तो भगवान थे, कर सकते थे। हम सामान्य मनुष्य ठहरे। हम क्या कर सकते हैं?
गुरुजी ने स्वयं को भगवान कहे जाने से सिखों को वर्जित कर दिया।
आपने कहा -
जे हमको परमेसर उचरिहैं
ते सब नरक कुण्ड में परिहें ।।३२।।
(पृष्ठ ५६, बचित्तर नाटक, दसम ग्रंथ)
७ अक्टूबर, १७०८ को आपने इस संसार से विदा ली।
संदर्भ
- श्री गुरु ग्रंथ साहब
- दशम ग्रंथ
- द सिख्ज़ , पतवंत सिंह, हार्पर कोलिंज़ (१९९९) पृष्ठ ४५
- फ़ाउंडर ऑफ़ द खालसा , द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह - अमनदीप एस. दहिया, हेज़ हाऊस पब्लिशर्स (२०१४) पृष्ठ २१-२२
- फ़ाउंडर ऑफ़ द खालसा , द लाइफ़ एंड टाइम्स ऑफ़ गुरु गोबिंद सिंह - अमनदीप एस. दहिया, हेज़ हाऊस पब्लिशर्स (२०१४) पृष्ठ ७४-७५
गुरु की महिमा को लिखना सचमुच गुरु कृपा के बिना सम्भव नहीं। हरप्रीत जी आप बधाई के पात्र हैं। आपने गुरु गोबिंद सिंह जी के साहित्य पक्ष को इस लेख के माध्यम से मुझ जैसे अल्पज्ञ लोगों तक गुरु प्रसाद रूप में पहुँचाया। आपका हार्दिक आभार एवं महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteगुरु की महिमा अपरम्पार है उसके ज्ञान का सागर अथाह। हरप्रीत जी, आप उस सागर से कुछ ऐसे चुनिंदा मोती निकालकर लाए हैं जिनसे प्रत्येक पाठक को उस सागर की एक दीप्त झलक मिल सके। आपका लेख श्रद्धा, समर्पण, उत्सुकता, मानवीय एकता जैसे विचारों से ओतप्रोत है। इस आलेख को पढ़कर मेरे जैसे अल्पज्ञ लोग गुरु गोबिंद सिंह के साहित्य को निश्चित रूप से जानना और पढ़ना चाहेंगे। इस अद्भुत लेखन के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई और तहे दिल से शुक्रिया।
ReplyDeleteआद. हरप्रीत जी
ReplyDeleteकितना धारदार, प्रगाढ़ और सृजनात्मक लेख आपके द्वारा लिखा गया हैं। बड़ी ही स्पष्टता और रोचकता से आपने वर्णनात्मक शैली में इस लेख को लिखा हैं। आज तक मैं श्री गुरु गोबिंद जी को एक धर्मगुरु के रूप में ही जानता, समझता था परन्तु आपके प्रतिभासंपन्न लेख ने मुझे उनके अन्य रूप के साथ साथ साहित्यिक रचनाकार से भी परीचित करा दिया। आपने अपने गुरु से हमें अवगत कराया यह हमारा सौभाग्य हैं। आपको इतने उत्कृष्ट और दमदार लेखन के लिए हार्दिक बधाई और ढ़ेर सारी शुभकामनाएं। मेरे ज्ञान कोष की वृद्धि खातिर आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
हरप्रीत जी, गुरु की महिमा का बखान गुरु का सच्चा शिष्य ही कर सकता है। आपकी लेखनी धन्य है, जिसने गुरु गोविंद सिंह जी के साहित्यिक पक्ष को उजागर किया ।
ReplyDeleteगुरु गोविंद सिंह जी का शबद 'मितर पियारे नूं' मेरे पापा गाया करते थे और बहुत भावुक होकर गुरु साहब की प्रेरक कहानियाँ हम भाई-बहन को सुनाते थे।
आज आपका लेख पढ़ कर कितनी ही स्मृतियाँ जीवित हो उठीं।
साधुवाद।
मन गदगद है हरप्रीत भाई यह लेख पढ़ कर! आज पवित्र हो गया यह ब्लॉग!
ReplyDeleteबचपन से सूनी हुई गुरुवाणी आपकी कलम से फिर सजीव हो उठी. सादर नमन.
ReplyDeleteबढ़िया आलेख, हरप्रीत जी। धन्यवाद 🙏
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