किसी निर्विकार योगी की भाँति साहित्य में रमे रहना आसान नहीं होता, किंतु शरीर के उतार-चढ़ाव के बीच सियारामशरण गुप्त ने हिंदी जगत को जो साहित्य दिया, वह अतुलनीय है। दुःख-पीड़ा से सने सहज, सरल करुणामय गुप्त जी को जिसने नहीं देखा, वो 'पाथेय' जैसी रचना का भाव संपूर्ण रूप में नहीं समझ सकता।
सियारामशरण गुप्त का जन्म ४ सितंबर १८९५ (भाद्रपद पूर्णिमा सं.१९५२ विक्रमी) को चिरगाँव, ज़िला झाँसी, उत्तर प्रदेश में हुआ था। इनके पिता सेठ रामरण कनकने और माता काशी जी वैष्णव भक्त थीं, जिनके व्यक्तित्व की छाप उनकी रचनाओं में स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है। आप हिंदी साहित्य जगत में 'दद्दा' नाम से विभूषित राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के अनुज थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें भैया कहकर बुलाते थे। अग्रज मैथिलीशरण गुप्त जैसे विशाल वटवृक्ष की छाया में पुष्पित और पल्लवित सियारामशरण गुप्त ने हिंदी साहित्य में अपनी अलग ही छवि स्थापित की। साहित्य जगत में उन्हें जो प्यार और दुलार मिला, वह बिरले ही किसी को मिलता है।
सियारामशरण जी ने प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद घर पर ही उर्दू, अँग्रेज़ी और गुजराती का ज्ञान प्राप्त किया। वे उच्च संस्कार से सुसज्जित एक ऐसे मानव थे, जो प्रत्येक व्यक्ति के विकास की कामना करते थे। गुप्त जी अपने जीवन में विनोबा भावे और महात्मा गाँधी के विश्व शांति और अहिंसा आदि विचारों से बहुत प्रभावित थे। उनकी रचनाओं में गाँधी दर्शन प्रचुरता से परिलक्षित होता है। सत्य, अहिंसा, उच्च मानव मूल्य उनकी रचनाओं का आधार है। इसीलिए उन्हें गाँधीवादी राष्ट्रधारा के प्रतिनिधि कवियों में स्थान दिया जाता है। बापू की हत्या पर वे बिड़ला भवन गए, वहाँ उन्होंने जो देखा, वे बातें उनकी आशा के अनुकूल नहीं थी। इस संबंध में उन्होंने घनश्याम दास बिड़ला से पत्राचार भी किया। उनकी रचना 'बापू' एक अति प्रशंसित कृति है। सुभाषचंद्र बोस के झाँसी दौरे का स्वागत भाषण भी उन्होंने पढ़ा। आज़ादी के उस दौर में सियारामशरण गुप्त ने देश के प्रति समर्पित काव्यों की रचना की। राष्ट्रप्रेम की कितनी उदात्त भावना उनकी इन पंक्तियों में प्रस्फुटित हुई है,
संसार देख ले फ़िर हमें
तुच्छ नहीं हैं हम कभी;
निज भारतीय बल वीर्य का,
आओ! परिचय दें अभी।
देशप्रेम में पगी 'मौर्य विजय' उनकी पहली कृति है, जो सन १९१४ में प्रकाशित हुई थी। 'दूर्वादल' उनकी अधिक परिष्कृत और परिमार्जित रचना है। यह संबोधन शैली में रचित एक महत्वपूर्ण कृति है। सच्चा साहित्यकार वही, जो अतीत से प्रेरित होकर वर्तमान के सुंदर साहित्य का निर्माण करता है। उन्होंने बाबा तुलसी के बारे में कितना मनोहारी चित्रण किया है,
बसे हुए हैं रोम रोम में
प्रिय उपदेश तुम्हारे,
सहचर, सखा और सद्गुरु भी
हो तुम सदा हमारे। (दूर्वादल)
ज्वलंत समस्याओं और घटनाओं का जीवंत चित्र उनकी रचनाओं में मिलता है। करुणा, यातना और द्वंद्व का भाव उनके काव्य की महती विशेषता है। 'एक फूल की चाह' गुप्त जी की एक लंबी और प्रसिद्ध कविता है, जिसकी मार्मिकता हृदय को झकझोर देती है,
अंतिम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल माँ का प्रसाद भी
तुझको दे न सका मैं हा!
इस विराट व्यक्तित्व के पीछे असह्य पीड़ा छिपी हुई थी। पत्नी और बच्चों की असामयिक मृत्यु से वे टूट गए थे। 'विषाद' में यह करुण कथा स्पष्ट परिलक्षित होती है,
हाय! देकर वह दिव्य प्रकाश
किया है तूने तमो विकास,
मेघ! मत तू ये आँसू डाल
हृदय से ही निष्ठुर है काल।
दुःख और रोगों की पीड़ा ने उन्हें कुंदन की तरह निखार दिया था। "पीड़ा में ही पवित्रता है" की उक्ति उन पर शत-प्रतिशत चरितार्थ होती है। पुत्री रमा की मृत्यु पर लिखी गई 'आर्द्रा' उनकी वेदना का चरम है। निराला की 'सरोज स्मृति' जैसी लंबी न होने के बावजूद यह रचना करुणा और मार्मिकता का संगम है। श्वास जैसे कई गंभीर रोगों से जूझते हुए, उन्होंने हिंदी को कालजयी कृतियाँ दी हैं, इसी कड़ी में उनका 'नारी' उपन्यास एक सशक्त कृति है, जो प्रेमचंद जैसे महान उपन्यासकार के उपन्यासों से टक्कर लेता है। उन्होंने मात्र तीन उपन्यास 'गोद', 'अंतिम आकांक्षा' और 'नारी' लिखे, जिसमें 'नारी' ने उन्हें लोकप्रियता के चरम पर पहुँचा दिया। ग्राम्य जीवन की झलक प्रस्तुत करता यह उपन्यास एक नया आयाम स्थापित करता है। उनके इस उपन्यास पर डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल के इस कथन के बाद कहने को कुछ शेष ही नहीं रह जाता, "मेरी बहुत दिनों से यह अभिलाषा रही है कि अँग्रेज़ी लेखिका जैन ऑस्टन ने अँग्रेज़ी देहातों के जनपदीय जीवन का जैसा अमर चित्र खींचा है, वैसा चित्र भारतीय जन जीवन का भी किसी हिंदी लेखक की कृपा से हमें साहित्य में मिलता। सियारामशरण के 'नारी' उपन्यास को पढ़कर कुछ उसी प्रकार का संतोष मुझे प्राप्त हुआ था।"
सियारामशरण गुप्त जी एक मानवतावादी, महान साहित्यकार थे। विश्व युद्ध की विभीषिका उन्हें कचोटती है। उनकी रचनाओं में युद्ध की विभीषिका पर करारा प्रहार भी दृष्टिगोचर होता है। 'नकुल' उनका प्रसिद्ध काव्य ग्रंथ है। इस काव्य में गुप्त जी युद्ध के बहाने मनुष्य को मानवता का पाठ सिखाते नजर आते हैं,
मुझको तो विश्वास नहीं है रंचक इसमें,
देंगें कैसे अमृत बुझे स्वयमपि जो विष में।
गुप्त जी की भाषा सरल, सहज तथा व्यावहारिक शब्दावली लिए खड़ी बोली है। वर्णनात्मक, चित्रात्मक, विचारात्मक और भावात्मक शैली उनकी विशेषता है। कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, अनुवाद और निबंध सहित साहित्य की कई विधाओं को उन्होंने समृद्ध किया है। 'पुण्य पर्व' नाटक सांस्कृतिक मूल्य पर आधारित है, जिसका सांस्कृतिक धरातल अत्यंत ऊँचा है। उन्होंने 'सच और झूठ' निबंध बेहद अलग अंदाज़ में लिखा है। गणेश शंकर विद्यार्थी के बलिदान को समर्पित 'आत्मोत्सर्ग' साहित्य की अनमोल धरोहर है। गुप्त जी जितने श्रेष्ठ कवि थे, उतने ही श्रेष्ठ कथाकार और उपन्यासकार भी थे। 'काकी' कहानी का यह दृश्य कितना भावुक है!,
विश्वेश्वर हतबुद्धि होकर वहीं खड़े रह गए। उन्होंने फटी हुई पतंग उठाकर देखी। उस पर चिपके हुए काग़ज पर लिखा हुआ था- काकी।
सियारामशरण गुप्त जी कहा करते थे, "हम तो गुफ़ा में बैठकर तपस्या करेंगे।" और वह आजीवन एक तपस्वी की भाँति साहित्य सेवा करते रहे। इस सौम्य तपस्वी की तपस्या का प्रतिफल हिंदी को सदैव आलोकित करता रहेगा। प्रसिद्ध साहित्यकार नगेंद्र ने उनके साहित्यिक अवदान के बारे में उचित ही लिखा है, "हर एक स्थान पर आपको तपः पूत आत्मा का छना हुआ विशुद्ध रस मिलेगा, जिसमें स्वाद बहुत अधिक न हो परंतु शांति अनिवार्य है।… तप पक्ष का एक अकेला कवि है 'सियारामशरण गुप्त'।"
संदर्भ
सियाराम शरण गुप्त - डॉ० नगेंद्र
दूर्वादल - सियाराम शरण गुप्त
पाथेय - सियाराम शरण गुप्त
विषाद - सियाराम शरण गुप्त
लेखक परिचय
मनीष कुमार श्रीवास्तव
परास्नातक भौतिकी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय। सहायक अध्यापक व साहित्यकार।
भिटारी, आलमपुर, रायबरेली उत्तर प्रदेश।
मेरी एक पुस्तक 'प्रकाश : एक द्युति (हाइकु क्षितिज)' प्रकाशित है। कई काव्य साझा संग्रह, एक कहानी साझा संग्रह, अनेक रचनाएँ व आलेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर प्रकाशित।
सटीक व सारगर्भित आलेख के लिए साधुवाद!
ReplyDeleteयादें हरी हो गईं।प्रेरक लेख।अभिनंदन।
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ReplyDeleteमनीष जी, आपने बहुत ही सधा हुआ और जानकारीपूर्ण आलेख लिखा है। आपने सियारामशरण जी की कृतियों की छवि प्रस्तुत करने के लिए अच्छे उदाहरणों का चयन किया है और उनकी ओट में उनके व्यक्तित्व का भी परिचित दे दिया। आपको भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ और इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteप्रख्यात अहिंसात्मक आंदोलन को अपने हिंदी साहित्य के माध्यम से चलाने वाले आदरणीय कवि सियारामशरण जी गांधी युग की देन है। अपने बड़े बंधु सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री मैथलीशरण गुप्त की तरह इन्होंने भी साहित्यसंसार में खूब ख्याति बटोरी है। चिरगांव में महात्मा गांधी जी से मिलने के पश्चात उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में पदार्पण किया और अपनी लेखनी से बिना अस्त्र शस्त्र के अंग्रेजी शासन से टक्कर लेने के लिए सत्याग्रह में खड़े रहे। आदरणीय मनीष कुमार जी आपके संक्षिप्त आलेख और रचनाओं के अंश ने महान कवि सियारामशरण गुप्त जी को विस्तार से समझने के लिए मजबूर कर दिया है। आपने इस मानवतावादी वैष्णव कवि के सत्य, अहिंसा और समानता के तत्त्वों को अपने लेखनी द्वारा उचित स्थान दिया है। इस ज्ञानवर्धक और सुंदर आलेख के लिए आपका आभार और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteमनीष जी, आपने बहुत अच्छा लेख लिखा आपको इस लेख के लिये बहुत बहुत बधाई। इस लेख के द्वारा सियारामशरण गुप्त जी को जानने का अवसर मिला तथा उनको पढ़ने की उत्सुकता जागृत हुई। सीमित शब्दों में आपने विस्तृत सृजन को समेटा। पुनः बधाई।
ReplyDeleteउत्तम लेख मनीष जी, ये पढ़कर सियारामशरण जी के बारे में विस्तार से पढ़ने की इच्छा जागृत हो गई है। हार्दिक धन्यवाद व बधाई।
ReplyDeleteसुंदर आलेख
ReplyDeleteमनीष जी अत्युत्तम लेख। सधी हुई शैली में लिखे गए इस सारगर्भित और जानकारीपूर्ण लेख को पढ़कर महान कवि सियारामशरण जी के जीवन परिचय और साहित्यिक यात्रा को विस्तार से जानने का अवसर मिला। आभार। आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteमनीष जी, बहुत सहजता से आपने सियारामशरण गुप्त के व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला है।
ReplyDelete'दुख और रोगों की पीड़ा ने उन्हें कुंदन की तरह निखार दिया था.. ' आपकी इन सधी पंक्तियों की मार्मिकता सियारामशरण गुप्त के समूचे व्यक्तित्व की उदात्तता को प्रकट कर रही हैं। उनके कृतित्व की व्यापकता को दर्शाता आपका आलेख बड़ा सार्थक है।
बधाई व साधुवाद।
मनीष जी, आपने सियारामशरण गुप्त पर सुगठित, रोचक, प्रवाहमय और जानकारीपूर्ण आलेख लिखा है। आपको इसके लिए बधाई और भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
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