असीम आकाश
स्वयं में कितने रंगों की छटायें समेटे रहता है। कभी नील, तो कभी नील-लोहित,
कभी धूप में तपता अभ्रक-सा चमकीला, कभी ढ़लती सूर्य-रश्मिओं की नारंगी छटायें, तो कभी
श्वेत-श्याम मेघों से घिरा स्लेटी कालिमा युक्त। कृष्ण चंदर का आभा-मंडल भी इसी अपरिमित
आकाश के समान स्वयं में विविध श्वेत-श्याम छटायें समेटे था।
कभी तो वह बलदेव सिंह (एक रियासत के राजा ) के राजकुमारों
द्वारा जबरदस्ती छीन लिया गया अपना सफेद हत्थी वाला चाकू न लौटाने पर उन्हें चाँटा
तक मार देते हैं, तो कभी पाँचवी जमात में फारसी पढ़ाने वाले उस्ताद की मार से तँग
आकर लेख लिख डालते हैं। 'मिस्टर ब्लैक' जो कि दीवान सिंह 'मफ्तू' के अखबार 'रियासत' में प्रकाशित भी हो जाता है, और पिता से डांट पड़ने
का सबब भी बनता है। कभी वह लाहौर के फॉर्मन क्रिश्चियन कॉलेज में पढ़ने के जमाने
में भगत सिंह के साथ जा मिलते हैं और क्रांतिकारी सरगर्मियों में भाग लेकर उनके साथ दो
महीने तक लाहौर किला में नजरबंदी के काट आते हैं। स्पष्ट है कि बचपन से ही उनके
भीतर अन्याय, जागीरदारी और पूँजीवाद के खिलाफ विद्रोह कुलबुलाने लगा था। कृष्ण चंदर
की यह पंक्तियाँ उनके भीतर के आक्रोश को दर्शाने के लिये काफी है- "यह
तो मुझे बाद में मालूम हुआ कि लोग इसी तरह करते हैं, सफ़ेद हत्थी वाला चाकू, कोई हसीन
लड़की, ज़रख़ेज़ ज़मीन का टुकड़ा, सब इसी तरह हथिया लेते हैं, फिर वापस नहीं करते।"
दूसरी ओर, विद्रोही स्वभाव के बीच उनकी संवेदनशीलता
की जड़ें बहुत गहरी थीं। अन्याय किसी भी रूप में हो रहा हो, उसके विरुद्ध
उनका स्वर सदा बुलंद रहा। अपने मित्र मंटो की मृत्यु पर विक्षुब्ध होकर उनके लेखन
और यथार्थ चित्रण की तुलना गोर्की के लोअर डेप्ट्स के चरित्रों से करते हुए कहते
है कि वहाँ लोगों ने गोर्की के लिए अजायबघर बनवाए, मूर्तियाँ स्थापित की,
नगर बसाये और पहुँच मंटो पर मुकदमे चलाए, भूखों मारा, पागलखाने पहुँच या
हमने ग़ालिब, प्रेमचंद और हसरत के साथ यही तो किया।
रंगीन मिजाजी भी एक ऐसा पक्ष रहा इस अजीम
शायर और मूर्धन्य लेखक के जीवन का बम्बई (मुम्बई ) की फिल्मी दुनिया की शराब
और शबाब में डूबी रंगीन रातों के जादूई तिलिस्म में डूबने से भी परहेज नही था
उन्हें। उनके व्यक्तित्व में सच्चाई इतनी कि अपने बारे में एक निबंध ‘सेल्फ़ पोर्ट्रेट’ में लिखा है- "मैंने
अनेक बार झूठी कसमें खाई हैं, अपने आप को और दूसरों को धोखे दिए हैं, ख़ुशामदें की
हैं, लड़ा हूँ, शराब पी है, भंग और चरस भी। मैं अपनी प्रशंसा से खुश हुआ हूँ, दूसरों
की प्रशंसा से जला हूँ। जब किसी से काम पड़ता है तो उसके पीछे हो लेता हूँ और काम होते
हुए उसे ऐसे फ़रामोश कर देता हूँ जैसे वह मेरी ज़िंदगी में कभी था ही नहीं। कई बार दोस्तों
ने मुझसे उधार माँगा, जेब में होते हुए भी मैंने पैसे नहीं दिए। कई बार जब मैंने उधार
माँगा और उन्होंने मुझे नहीं दिए, तो मैंने दिल-ही-दिल में उन्हें गाली दी। कई बार
मैंने सड़क पर चलती औरतों को बहका लिया, क्योंकि वे ख़ूबसूरत थीं। अब अगर वे सही सलामत
घर पहुँच गयी हैं, तो यह उनकी और कानून की ख़ुशकिस्मती है; वरना जहां तक मेरे इरादे
का ताल्लुक है, मैं उन्हें बहका और बरगला
चुका हूँ।" ऐसे विचित्र और अद्भुत
बहुआयामी व्यक्तित्व वाले प्रतिभाशाली कृष्ण चंदर का जन्म २३ नवम्बर,
१९१४ को भरतपुर, राजस्थान में हुआ था। उनका परिवार मूल रूप से अविभाजित पंजाब,
भारत के वजीराबाद जिले गुजरांवाला का था। चंदर ने अपना बचपन जम्मू और कश्मीर राज्य
के पुंछ में बिताया।
कृष्ण चंदर ने मैट्रिक का इम्तिहान द्वितीय श्रेणी
में विक्टोरिया हाईस्कूल से पास किया। जिसके बाद उन्होंने लाहौर के फ़ार्मन क्रिस्चियन
कॉलेज में दाख़िला ले लिया। उसी ज़माने में उनकी मुलाक़ात भगत सिंह से हुई। एम.ए में
वह फ़ेल हो गए ,तो शर्म की वजह से घर से भाग कर कलकत्ता चले गए; लेकिन जब मालूम हुआ
कि उनकी माता उनके लापता हो जाने से बीमार हो गई हैं, तो वापस आ गए। उसके बाद उन्होंने अंग्रेज़ी
में एम.ए और फिर एल.एल.बी. किया। उन्होंने विभिन्न पत्रिकाओं के लिए लिखना शुरू
कर दिया था, और साहित्य मण्डलियों में उनकी पहचान बनने लगी। उस दौर में उनके
कई संग्रह 'ख़्याल', 'नज़्ज़ारे' और 'नग़मे की मौत' प्रकाशित हो चुके थे, जिन्हें खूब
सराहा गया था।
कृष्ण चंदर शुरू से ही प्रगतिशील आंदोलन से संबद्ध
हो गए थे और १९३८ में कलकत्ता में आयोजित अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ के सम्मेलन
में उन्होंने सूबा पंजाब के प्रतिनिधि की हैसियत से शिरकत की थी। यहीं उनका परिचय
सज्जाद ज़हीर और प्रोफ़ेसर अहमद अली आदि से हुआ और उन्हें प्रगतिशील लेखक संघ सूबा पंजाब
का सचिव नियुक्त कर दिया गया।
१९४२ में पहला विशाल विशिष्ट विरोधी लेखक सम्मेलन
दिल्ली में आयोजित हुआ, जिसमें प्रगतिशील लेखक अज्ञेय, कृष्ण चंदर, शिवदान सिंह इत्यादि
सम्मिलित थे। प्रगतिशील लेखक संघ के बैनर तले फैज, सरदार जाफरी, मजाज, कैफ़ी आज़मी,
इस्मत चुगताई, अश्क, साहिर, फिराक जैसे शायर और लेखक सम्मिलित थे। १९४४ के प्रगतिशील
लेखक संघ के अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने कहा- "अब
वक्त आ गया है कि हम लेखक खुल्लम-खुल्ला साम्यवाद का प्रोपेगेंडा शुरू कर दें, क्योंकि
अब दो ही रास्ते हैं; निरंतर प्रगतिशील साम्यवादी विचारधारा या निष्क्रिय और निश्चेष्ट
मृत्यु।"
कृष्ण चंदर इप्टा से भी जुड़े रहे एवं सज्जाद
जाहिर साहब के साथ शाम-ए-अफ़साना नाम का आंदोलन चलाकर इप्टा के लिए चंदा एकत्र करने
के लिए भी सक्रिय रहे। इस बाबत नामवर सिंह जी ने एक आलेख में जिक्र किया है कि उन्होंने
बनारस में अपनी कहानी 'सरदार जी' का पाठ यूँ किया कि जैसे श्रोताओं के सम्मुख
चलचित्र चल रहा हो।
१९३९ में ऑल इंडिया रेडियो
के उपनिदेशक अहमद शाह बुखारी ने उन्हें ऑल इंडिया रेडियो लाहौर में कार्यक्रम
सहायक की नौकरी दे दी। उन्होंने तीन साल तक लाहौर, दिल्ली और लखनऊ में कार्यक्रम सहायक
के रूप में काम किया। उस समय दिल्ली के रेडियो स्टेशन पर सआदत हसन मंटो के सम्पर्क
में आये। उसी ज़माने में उनकी माँ ने उनकी शादी साधारण रंग रूप वाली गर्म मिजाज
लड़की विद्यावती से कर दी, जिनके साथ वो ख़ुश नहीँ थे। उन्हें तीन संतानें हुई।
कृष्ण चंदर
रेडियो की नौकरी से संतुष्ट नहीं थे। संयोग से पुणे की शालीमार फ़िल्म कंपनी
के फिल्म निर्माता-निर्देशक ज़ेड अहमद ने उनकी कहानी 'सफ़ेद खून' पढ़ी और उन्हें अपनी
फ़िल्म कंपनी में संवाद लिखने का निमंत्रण दिया। उन्होंने 'मन का मीत' फ़िल्म की कहानी
लिखी। कृष्ण चंदर ने रेडियो की नौकरी छोड़ दी और पुणे रवाना हो गए। साहित्य
साधना के साथ-साथ फ़िल्मों के लिए उन्होंने कहानियां, पटकथा, संवाद लिखे। उन्होंने
तकरीबन दो दर्ज़न फ़िल्मों की पटकथा और संवाद लिखे; इनमें से ‘धरती के लाल’, ‘आंदोलन’,
‘एक दो तीन’, ‘ममता’, ‘मनचली’, ‘शराफ़त’, ‘दो चोर’ और ‘हमराही’ जैसी फ़िल्में बेहद लोकप्रिय
रहीं। ‘धरती के लाल’ और ‘शराफ़त’ उनकी कहानी पर ही बनी फ़िल्में हैं।
पुणे का ज़माना कृष्ण चंदर की ज़िंदगी का यादगार और रंगीन ज़माना था। उनके
प्रेम के किस्सों में समीना और शायरा शाहिदा निकहत के नाम आये। उसके बाद साहित्यकार और
अलीगढ़ विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर रशीद अहमद सिद्दीक़ी की पुत्री सलमा से प्रेम
हुआ, जो कि विवाहिता और एक बच्चे की माँ थीं। सलमा अपने शौहर से तलाक़
लेकर कृष्ण चंदर की अर्धांगिनी बन गईं। सलमा के साथ उनकी ज़िंदगी बहुत ख़ुशगवार गुज़री।
कृष्ण चंदर १९४६ में पुणे से
बंबई चले गए जहां उनको बंबई टॉकीज़ में डेढ़ हज़ार रुपये मासिक पर नौकरी मिल गई। एक साल
काम करने के बाद वो नौकरी छोड़कर फिल्म निर्माता और निर्देशक बन गए। अपने भाई को लेकर
बनायी उनकी पहली फ़िल्म 'सराय' बुरी तरह नाकाम हुई, दूसरी फ़िल्म 'राख' बनाई जो कभी रीलीज़ ही नहीं हुई। फिल्मों की
असफलता ने उन्हें भारी क़र्ज़ मे डुबो दिया। उन्होंने अपनी कारें बेच दी, नौकरों को
हटा दिया और बंबई में क़दम जमाए रखने के लिए नए सिरे से संघर्ष शुरू किया।
वे समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों,
भ्रष्टाचार, धोखेबाजी, पाखंड, सफ़ेदपोश अपराध, राजनीति के कुकर्म, सांप्रदायिकता इत्यादि
का खेल-खेल में ही पर्दाफाश कर देते हैं।
कृष्ण चंदर
ने कहानियाँ, उपन्यास, व्यंग्य लेख, नाटक यानी साहित्य की सभी विधाओं में खूब काम
किया। बंगाल में हुए भीषण अकाल पर लिखी ‘अन्नदाता’ उनकी कालजयी कहानी है। ‘'गड्डा’,
‘दानी’, ‘पूरे चाँद की रात’, ‘आधे घंटे का खुदा’ जैसी उनकी कई कालययी कहानियाँ
हैं। कहानी ‘कालू भंगी’ में वे हाशिए पर रहने वाले दलित समुदाय के एक शख्स ‘कालू’
के जीवन की त्रासदी को मार्मिक ढंग से चित्रित करते हैं। उन्होंने अपनी कहानियों
में व्यवस्था पर भी तीखे प्रहार किए। लालफीताशाही और अफसरशाही की दास्तां है, व्यंग्यात्मक
शैली में लिखी गई कहानी ‘जामुन का पेड़'। उनकी कहानियों कि विशेषिता है उनकी
सार्वभौमिक दृष्टि और जागरुक बौद्धिकता। उनकी कहानियों में समाजवादी सृजनात्मकता है।
कृष्ण चंदर की अनेक कहानियों का विदेशी भाषा में खूब अनुवाद हुआ, खास कर साम्यवादी
होने के कारण रूसी में।
कृष्ण चंदर
दिल के मरीज़ थे। ८ मार्च १९७७ को मृत्यु के
समय भी उनके हाथ में कलम मौजूद थी। निधन के वक़्त कृष्ण चंदर एक व्यंग्य ‘अदब बराय-ए-बतख’ (बतख के लिए साहित्य) लिख रहे थे। वे अपनी
आत्मकथा पर भी काम कर रहे थे, लेकिन यह उनके जीते जी पूरी नहीं हो पायी। बाद में उनकी
पत्नी सलमा सिद्दीकी ने इसे पूरा किया और राजपाल एंड संस ने प्रकाशित किया।
मृत्यु से एक रात पहले उन्होंने अपनी पत्नी
सलमा सिद्दीकी से कहा- “सलमा, प्रकृति से इतनी जंग करना ठीक नहीं. मेरा
बुलावा आ ही गया है तो मुझे मुस्कुराते हुए रुखसत करो और मेरे मरने के फ़ौरन बाद यहाँ
से चली जाना. रोने-धोने की ज़रूरत नहीं। यहाँ और भी कई दिल के मरीज़ हैं। मुमकिन है,
रोने-धोने से उन्हें तकलीफ़ हो। मैं जानता हूं कि मेरी ज़िंदगी का सफ़र ख़त्म हो चुका
है और इस बात पर तुम फूहड़ता से मातम नहीं करोगी।”
जीवन परिचय : कृष्ण चंदर
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जन्म
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२३ नवंम्बर १९१४
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पुण्यतिथि
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८ मार्च १९७७
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रचनाएँ
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एक गधे की आत्मकथा, एक वाइलिन समुन्दर के किनारे,
एक गधा नेफ़ा में, तूफ़ान की कलीयाँ, आसमान रोशन है, हम वहशी हैं, कारनीवाल, एक
गधे की वापसी, ग़द्दार, सपनों का कैदी, सफेद फूल, पिआस, यादों के चिनार, मिट्टी
के सनम, रेत का महल, काग़ज़ की नाव, चांदी का घाव, दिल दौलत और दुनीआ, पिआसी धरती पिआसे लोक, पराजय, जामुन का पेड़, नज्जारे,
ज़िंदगी के मोड़ पर, टूटे हुए तारे, अन्नदाता, तीन गुंडे, समुन्दर दूर है, अजंता
से आगे, मैं इंतजार करूंगा, दिल किसी का दोस्त्त नहीं, ताब का कफन, तलिस्मे खिआल
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पुरस्कार एवं सम्मान
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● १९६६ -सोवियत
लैंड नेहरू पुरस्कार
● १९६९- साहित्य
एवं शिक्षा क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा 'पद्म भूषण' से सम्मानित
● २०१७- उनकी
याद में डाक-तार विभाग ने दस रुपये का डाक टिकट जारी किया
● फाउंटेन पार्क का नाम बदलकर
कृश्न चंदर पार्क, पुंछ कर दिया गया। बगीचे में उनकी प्रतिमा भी लगाई गई।
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लेखक परिचय
लतिका बत्रा, लेखक एंव कवियित्री, व्यंजन विशेषज्ञ, फूड स्टाईलिस्ट
शिक्षा: एम .ए। एम फिल बौद्ध विद्या अध्धयन. दिल्ली विश्वविद्यालय
प्रकाशित पुस्तकें: उपन्यास -.तिलांजली, काव्य संग्रह - दर्द के इन्द्र धनु, शीघ्र प्रकाश्य -पुकारा है जिन्दगी को कई बार...dear cancer
लतिका जी, समाज की हर नब्ज़ को बख़ूबी पहचानने वाले और संवेदनाओं की स्याही में डूबी कलम से अफ़सानों के रूप में नुस्ख़े लिखने वाले हरदिल अज़ीज़ कृष्ण चन्दर पर आपका लेख पढ़कर मन आनंदमयी हो गया। बचपन से लेकर मृत्यु तक जो ग़लत लगा उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले इस अफसाना-निग़ार को सलाम और आपको इस लेख के लिए आभार और बहुत बधाई।
ReplyDeleteलतिका जी, बहुत अच्छा लेख है। इस लेख के माध्यम से कृष्ण चंदर जी के बारे में जानने का अवसर मिला। लेख रोचक और जानकारी भरा है। आपको हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteलतिका जी, जिस तरह से एक आला जीवन उन्होंने जिया, उतनी ही खूबसूरती से आपने उनके जीवन की दास्तान लिखी। बहुत ही सुंदर आलेख एक हरदिल अज़ीज़ लेखक पर...!
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