Thursday, March 24, 2022

ब्रह्मज्ञानी रचनाकार जो शहीदों के सरताज कहलाए : गुरु अर्जन देव जी


बिसरि गई सभ ताति पराई॥ जब ते साध संगति मोहि पाई॥१॥रहाउ॥

ना को बैरी नहीं बिगाना सगल संगि हम कउ बनि आई॥१॥

जो प्रभ कीनो सो भल मानिओ एह सुमति साधू ते पाई॥२॥

सभ में रवि रहिआ प्रभ एकै पेख पेख नानक बिगसाई॥३॥८॥

 (राग कानड़ा, अंग १२९९, गुरु अर्जन देव, श्री गुरु ग्रंथ साहब)

"जब से मैंने गुरु (साधू) की संगति पाई, मुझे दूसरों से ईर्ष्या, परायापन भूल गया। अब न कोई मेरा वैरी है, न ही कोई बेगाना है। मुझे सबसे निभानी आ गई है, मेरी सबसे बन जाती है। जो भी प्रभु करते हैं, वह भला लगता है, यह सुमति मैंने गुरु से पाई है। एक ही ईश्वर सबमें निवास करता है, जिसे देख-देख कर नानक प्रसन्न होता है।"

इन पंक्तियों के रचयिता हैं, पूरे ब्रह्मांड को ईश्वरीय रूप में देखने वाले ब्रह्मज्ञानी गुरु अर्जन देव जी। सभी सिख गुरुजनों ने अपने काव्य में नानक उपनाम लिया है। सिख दर्शन की मान्यता है कि सभी गुरुजनों की जीवन यात्रा गुरु नानक की ज्योति-यात्रा ही थी, केवल शरीर बदले थे। सो, गुरु अर्जन पाँचवें नानक कहलाए।

गुरु अर्जन देव केवल सैद्धांतिक ज्ञान के कारण ही ब्रह्मज्ञानी नहीं कहलाते, अपितु मात्र ४३ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने अपने विराट कर्म के आकाश को ऐसा आकर्षक इंद्रधनुष दिया कि बड़े-बड़े विद्वान अवाक् रह गए। इन महापुरुष द्वारा संपन्न कुछ अनोखे महान कार्यों की चर्चा हम यहाँ करते हैं। इनके किस कृत्य को महानतम कहा जाए, इस पर विद्वान एकमत नहीं हो पाते।

गुरु अर्जन ने विचार किया कि सिख गुरु साहिबान की रची हुई गुरबाणी ने लाखों लोगों के जीवन को आनंद से भर दिया है। यह अमृत धारा निरंतर बहती रहनी चाहिए। अतः इस समूचे आध्यात्मिक साहित्य को सदा के लिए प्रवाहमान रखने हेतु आपने आदि ग्रंथ का संकलन- संपादन प्रारंभ किया। आपने विश्व को ऐसी अद्भुत आध्यात्मिक कृति दी, जो विश्व इतिहास में बेमिसाल है, ना तो किसी संत या धर्म प्रवर्तक ने आपसे पहले ऐसा किया, ना आपके बाद। गुरु अर्जन ने भारत के विभिन्न प्रांतों के, विभिन्न मतों-संप्रदायों के, विभिन्न जातियों-वर्णों के १५ संतों- भक्तों की रचनाओं को भी पाँच सिख गुरुओं की रचनाओं के साथ सम्मिलित किया और इसे सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ घोषित कर दिया। इनमें वैष्णव ब्राह्मण रामानंद का पद भी है और जुलाहे कबीर के दोहे भी। रविदास चमार भी हैं, धन्ना जाट भी हैं, सैण नाई भी। बंगाल से गीत गोविंद के रचयिता जयदेव हैं, तो महाराष्ट्र के नामदेव और राजस्थान के पीपा भी। सूफ़ी मुसलमान शेख फ़रीद और भीखन भी। पुरानी पंजाबी, खड़ी बोली, सिंधी, राजस्थानी, संस्कृत के अपभ्रंश शब्द, फ़ारसी, विविध भाषाओं में रचे आध्यात्मिक साहित्य का संगम है यहाँ। गुरु अर्जन के भगीरथ प्रयास पर आश्चर्य तब होता है, जब यह ज्ञात होता है कि इस आध्यात्मिक साहित्य के समुद्र को उन्होंने भारत में प्रचलित ६० रागों में विभाजित किया। इस ब्रह्मज्ञानी ने तो १६०४ में ही राष्ट्रीय एकता का संविधान हमें दे दिया था। कैसा अद्भुत संपादकीय कौशल रहा होगा। इसके बाद गुरु गोबिंद सिंह जी ने केवल गुरु तेग बहादुर जी की वाणी और राग माला को जोड़ा। इसके अतिरिक्त किसी संपादकीय संशोधन की आवश्यकता नहीं हुई। वर्ष १६०४ में यह कैसी आध्यात्मिक और सामाजिक क्रांति थी?, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

गुरु अर्जन का रचना संसार देखने से पता चलता है कि वे पूरी मानवता को आत्मसात कर चुके थे। एक उदाहरण देखिए,

कोई बोलै राम राम कोई खुदाइ॥ कोई सेवै गुसईआ कोई अलाहि॥१॥

कारण करण करीम॥ किरपा धारि रहीम॥१॥ (राग रामकली, अंग८८५)

कह रहे हैं कि सब उसी परमात्मा के गुण गा रहे हैं, अपनी-अपनी भाषा में और अपने-अपने तरीके से। आगे शबद में कहते हैं कि कोई नीला ओढ़ता है, कोई सफ़ेद, कोई तीर्थ जाता है, कोई हज करता है, कोई स्वर्ग की कामना करता है, कोई उसे बहिश्त कहता है। वास्तव में जिसने प्रभु के हुक्म को पहचान लिया, उसने परमात्मा के रहस्य-भेद को जान लिया। कहने के भाव मर्म को समझना महत्वपूर्ण है। भाषा की, पद्धति की भिन्नता पर विवाद करना मूर्खता है।

गुरु के साहित्यिक श्रम का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उनके स्वयं के रचित २२१८ शबद गुरु ग्रंथ साहब में हैं। गुरु ग्रंथ साहब का लगभग आधा भाग तो गुरु अर्जन देव जी की रचनाओं से ही सुशोभित है। गुरु अर्जन की साहित्य रचना की विशेषता है सृष्टि, ब्रह्म, आध्यात्म और मनोविज्ञान की गूढ़तम गुत्थियों का समाधान,  सरल व सुंदर काव्य में प्रस्तुत कर देना। जो भी पढ़े, वह सहज-सरल आनंद को प्राप्त कर ले और स्वर्ग के सुख का अनुभव करे।

हर व्यक्ति के सामने सबसे बड़ा दार्शनिक प्रश्न यह आता है, मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है? मेरे इस संसार में आने का प्रयोजन क्या है? अँग्रेज़ी विद्वान इसे यूँ पूछते हैं, व्हॉट इज़ योर ट्रू कॉलिंग? इसका उत्तर बड़ा डॉक्टर, अभियंता, वैज्ञानिक या कलाकर बनने से नहीं मिल सकता। लाखों लोगों ने अपना अनुभव बताया है कि बहुत प्रसिद्ध, बहुत धनाढ्य हो जाने पर भी मन का खालीपन नहीं जाता। तृप्ति नहीं होती, मन शांत नहीं होता, आनंद गीत नहीं गाता। गुरु अर्जन ने दो पंक्तियों में उत्तर दिया है,

भई परापति मानुख देहुरीआ॥

गोबिंद मिलण की इह तेरी बरीआ॥

(राग आसा,अंग १२)

"तुझे मनुष्य की देह प्राप्त हुई है। परमात्मा से मिलन का यही एक अवसर है। बस यही प्रयोजन है, मानव जीवन का। यदि यह सिद्ध हो गया तो सभी सांसारिक उपलब्धियाँ स्वर्ग का सुख देती हैं। यह नहीं हुआ तो सब मिट्टी है।"

तो यह स्वर्ग पाने में रुकावट क्या है? माया एवं भ्रम।

गुरु अर्जन कहते हैं,

माई माइआ छलु॥

तृण की अगनि मेघ की छाइआ

गोबिंद भजन बिन हड का जलु॥

(राग टोडी, अंग ७१७)

"हे माँ, यह माया तो छलावा है। तृण की अग्नि और मेघ की छाया के समान क्षणिक है। प्रभु के ध्यान के बिना यह बाढ़ के पानी के समान है, जो एक पल चढ़ता है और दूसरे ही पल उतर जाता है।"

यही तो हम दैनिक जीवन में देखते हैं। व्यक्ति काम या क्रोध के क्षणिक आवेश में अनुचित कर बैठता है। उस समय तो उसे लगता है कि वही सही है, लेकिन जब बाढ़ का पानी उतर जाता है तो आत्म-ग्लानि से भर जाता है। फिर वही सांसारिक पीड़ा और रुदन का दुश्चक्र। यदि बुद्धि स्थिर हो, विवेक सतर्क चेतावनी देता हो तो तृण की अग्नि का लोभ क्यों करे? मेघ की छाया के मोह में क्यों फंसे? तो स्थिर बुद्धि के लिए, जागृत विवेक के लिए क्या करे? सुनें गुरु अर्जन की बात ध्यान से,

उस्तति मन महि करि निरंकार॥ करि मन मेरे सति बिउहार॥

निरमल रसना अमृतु पीउ॥ सदा सुहेला करि लेहि जीउ॥ 

नैनहु पेखु ठाकुर का रंगु॥ साधसंगि बिनसै सभ संगु॥   

चरन चलउ मारगि गोबिंद॥ मिटहि पाप जपीऐ हरि बिंद ॥

कर हरि करम स्रवनि हरि कथा॥ हरि दरगह नानक ऊजल मथा॥२॥

(राग गौड़ी,अंग २८१)

"मन में हर समय निरंकार की स्तुति कर। ऐ मेरे मन, तू इसे अपना सद्-व्यवहार बना ले। अपनी रसना से सदैव पवित्र, अमृत वचन का उच्चारण कर। इससे तेरी आत्मा सदैव शांति का अनुभव करेगी। नेत्रों से परमात्मा के विस्मयकारी रंग देख (उसके सृजन का विस्मय)। सत्संग करने से बाकी सब संग छूट जाते हैं। चरणों से प्रभु के मार्ग पर चल। क्षण भर भी प्रभु का नाम लेने से पाप भाव मिट जाता है। सो, प्रभु का काम कर और प्रभु की कथा सुन। इससे प्रभु के दरबार में तेरा माथा सदा उज्ज्वल रहेगा।"

कहने का भाव यह कि अपनी इंद्रियों को हम ऐसे कामों में लगाएँ, जिससे हमारे मन में पवित्र भावों द्वारा शांति और स्थिरता की प्राप्ति होती है। मन ठहर जाता है और मधुरता से भरा रहता है। व्यावहारिक त्रुटि की संभावना न्यूनतम हो जाती है। जैसा भोजन हम शरीर को देते हैं, वैसा ही हमारा शरीर बनता है। इसी प्रकार इंद्रियों के माध्यम से जैसा भोजन हम मन को देते हैं, वैसी ही अवस्था मन की भी होती है।

इसीलिए कहा,

दुइ कर जोड़ि मागउ  इकु दाना साहिबि तुठै पावा॥

सासि सासि नानकु आराधे आठ पहर गुण गावा॥

(राग सूही,अंग ७४९)

"दोनों हाथ जोड़ कर यही दान माँगता हूँ प्रभो, यदि आप प्रसन्न हो जाएँ तो मैं इसे पा लूँ। हर श्वास में आपकी आराधना हो, आठ पहर मैं आपके गुण गाता रहूँ।"

इतना कर लिया तो गुरु अर्जन कहते हैं कि तूने सही युक्ति प्राप्त कर ली,

नानक सतिगुरि भेटिऐ पूरी होवै जुगति॥

हसंदिआ खेलंदिआ पैनंदिआ खावंदिआ विचे होवै मुकति॥

(राग गूजरी, अंग ५२२)

गुरु कहते हैं कि "सच्चे गुरु के मिलने पर पूर्ण युक्ति का ज्ञान हो जाता है। फिर तू इस संसार की रीति के अनुसार यहाँ  हँसते, खेलते, पहनते, खाते हुए भी मुक्त रहता है। लेकिन तू कहीं अपने ज्ञान के अहंकार में आकर फिर से माया के बंधन में ना फँसे, इसलिए अरदास करता रह",

डंडउति बंदन अनिक बार सरब कला समरथ ॥

डोलन ते राखहु प्रभू नानक देकरि हथ॥

(राग गौड़ी, अंग २५६

"हे, सर्वशक्तिमान! आपको अनेक बार दंडवत प्रणाम करता हूँ और यह प्रार्थना करता हूँ कि आप मुझे अपना हाथ देकर सन्मार्ग से विचलित होने से बचाएँ।"

गुरु अर्जन कहते हैं कि यदि भक्त ने इतना कर लिया तो समझो उसका खेल बन गया। अब तो यह अवस्था है,

सूरज किरणि मिले जल का जलु हूआ राम ॥

जोती जोति रली संपूरन थीआ राम॥

(राग बिलावल, अंग ८४६)

"किरणों का सूर्य में विलय हो गया और जल से जल मिल गया। ज्योति(आत्मा) ज्योति(परमात्मा) में मिल गई और संपूर्ण हो गई।"

गुरु अर्जन की जगत प्रसिद्ध रचना है, सुखमनी साहब। सुखमनी वास्तव में सुखी जीवन जीने की कुंजी है। सिमरन, सत्संग, ब्रह्मज्ञानी, साधू, प्रभु-कृपा, भक्ति, मुक्ति आदि आध्यात्मिक शब्दों के भावार्थ तथा सिद्धांत की बहुत सरल व्याख्या दी गई है। कोई भी व्यक्ति पढ़-समझ कर सुखी जीवन जी सकता है, ऐसा संयोजन किया गया है। २४ श्लोक एवं २४ अष्टपदी हैं। प्रत्येक अष्टपदी के एक पद में पाँच छोटे पद हैं (दो पंक्तियों के)। इस आलेख में ऊपर उद्धृत राग गौड़ी(अंग २८१) का पद सुखमनी से ही लिया गया है।

एक और महान कार्य जो गुरु अर्जन के हाथों संपन्न हुआ, वह था हरिमंदिर साहब (हरमंदर साहब, स्वर्ण मंदिर) का निर्माण। महाराजा रणजीत सिंह ने १८०९ में संगमरमर और तांबे की संरचना से पुनर्निर्माण किया था और १८३० में स्वर्ण पट्टिका से मंडित किया था। लेकिन पहला निर्माण और सिखों के इस आध्यात्मिक केंद्र की संकल्पना गुरु अर्जन द्वारा ही की गई थी। सरोवर का निर्माण गुरु रामदास जी पहले ही कर चुके थे। १६०४ में हरिमंदिर परिसर को पूर्ण कर गुरु अर्जन ने वहाँ आदि ग्रंथ साहब को ससम्मान प्रकाशित किया। गुरु के आदेशानुसार हरिमंदिर के चारों ओर चार द्वार खोल दिए गए, सारे जगत का स्वागत करने के लिए। हरिमंदिर निर्माण का तल नगर के तल से नीचा रखा गया ताकि जो भी प्रभु के द्वार पर आए, विनम्रता से नीचे उतर कर आए।

गुरु अर्जन के ज्ञान और मानवतावादी दर्शन ने सिख विचारधारा का तेज़ी से विस्तार किया। बड़े बड़े ज़मींदार और प्रभावशाली व्यक्तित्व गुरु के शिष्य बन गए। हरिमंदिर साहब के निर्माण और आदि ग्रंथ के प्रकाश ने गुरु की ख्याति दूर-दूर तक फैला दी। गुरु अर्जन ने तरन-तारन, करतारपुर और जलंधर शहरों की स्थापना की।

उपरोक्त उपलब्धियाँ मुगल बादशाह जहाँगीर के कान खड़े कर देने के लिए पर्याप्त थीं। जहाँगीर को सिख दर्शन और आध्यात्म का कोई ज्ञान नहीं था, न ही उसे इस बारे में सीखने-जानने में कोई रुचि थी। उसे तो कठमुल्लाओं द्वारा भड़काए जाने के बाद अपनी सत्ता की चिंता थी। उसने आदेश दिया कि गुरु को यातना देकर उनकी हत्या कर दी जाए। गुरु अर्जन को लाहौर लाया गया। ज्येष्ठ माह की गर्मी में उन्हें गर्म तवे पर बैठा कर उनके शरीर पर गर्म रेत डाली गई। देखने वाले तड़प उठे, लेकिन ब्रह्मज्ञानी संत के चेहरे पर मुस्कुराहट थी। आपने कहा,

तेरा कीया मीठा लागे॥ नाम पदारथ नानक मांगे॥

"हे प्रभु, तेरा किया हुआ सब मीठा है, स्वीकार्य है, स्वागत योग्य है। अपने सेवक को नाम का दान दिए रखना।"

गुरु अर्जन शहीदों के सरताज बने। उन्होंने सिखों में यह अटूट विश्वास भर दिया कि यह शरीर तो बर्तन है, भांडा है, ठीकरा है। यदि भीतर ब्रह्मज्ञान है, मन-बुद्धि आलोकित हैं तो इस ठीकरे का फूटना क्या? कल का फूटता आज फूटे! उनके बाद से आज तक हर सिख शहीद का सबसे बड़ा प्रकाश स्तंभ रहा है, गुरु अर्जन देव।

इसीलिए मथुरा भाट ने लिखा,

जप्यो जिन अर्जन देव गुरु फिरि संकट जोनि गरभ न आयो।

आपके बाद गुरु हरगोबिंद साहब छठे गुरु बने, जो शस्त्र धारण करने वाले पहले सिख थे और उन्होंने अपने जीवन में किसी युद्ध में पराजय नहीं देखी।  

गुरु  अर्जन देव  जी : जीवन परिचय

जन्म

१५ अप्रैल, १५६३

निधन

३० मई, १६०६

जन्म स्थान

गोइंदवाल, पंजाब

माता

माता भानी  जी

पिता

गुरु रामदास जी

पत्नी

माता गंगा जी

पुत्र

गुरु हरगोबिंद जी

प्रमुख रचनाएँ

श्री गुरु ग्रंथ साहब में प्रकाशित २२१८ शबद  जिनमें सुखमनी साहब सम्मिलित हैं।


 संदर्भ

  • श्री गुरु ग्रंथ साहब  

  • विकिपीडिया

लेखक परिचय


हरप्रीत सिंह पुरी


एक चकोर, जो गुरु अर्जन के चंद्रप्रकाश की किरणें पी कर जी रहा है। इस प्रकाश के बिना उसका जीवित रहना संभव ही नहीं है।

9 comments:

  1. माननीय हरप्रीत जी आपके द्वारा लिखा गया धर्मगुरु गुरु अर्जन देव जी का आलेख उनके आध्यात्मिक साहित्य रचना संसार से अद्भुत ज्ञान प्रस्तुत करा रहा है। सिख धर्म के पवित्र ग्रंथ की जानकारी अति वृस्तत पद्धति से इस लेख में पढ़ने मिल रही है। गुरु के साहित्यिक श्रम का आनंद बड़ा ही सुखद प्रतीत हो रहा है। अति खोज परख और सुंदर शब्द रचना से रचित यह आलेख दैनिक जीवन की सांसारिक पीड़ा से निराकरण करने की विलक्षण ज्ञान का बोध करा रहा है। बहुत बहुत आभार आपका हरप्रीत जी।

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  2. हरप्रीत जी, इस अद्भुत लेख के माध्यम से गुरु अर्जन देव जी से परिचय कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। कितनी अच्छी-अच्छी बातें कही हैं उन्होंने। विभिन्न प्रांतों, सम्प्रदायों और जातियों का सम्मिलित ग्रंथ रचकर राष्ट्रीय एकता का कितना अच्छा काम किया उन्होंने। जितने सरल और स्पष्ट उनके विचार हैं, उतनी ही सरलता और सहजता से आपने उनके बारे में लिखा है। आपके हर बार के परिचय की तरह इस बार भी परिचय अनोखा है। आलेख पढ़कर मुझे सहज आनंद मिला। इसके लिए आपको धन्यवाद।

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  3. हरप्रीत जी नमस्कार। आपका हर लेख गुरुओं की ज्ञान गंगा हम तक पहुँचता है। इसके लिये आपको साधुवाद। आपने इस लेख में गुरु अर्जन देव जी के साहित्यिक योगदान को बहुत अच्छे ढँग से उकेरा है। लेख ज्ञानवर्धक होने के साथ साथ रोचक भी है। आपको लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।

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  4. आदरणीय हरप्रित जी, गुरू अर्जन देव जी का सुंदर परिचय देने हेतु हार्दिक धन्यवाद 🙏 गुरु ग्रंथ साहब में भारत के 15 संतों की रचनाओं को स्थान मिला है।यह राष्ट्रीय एकता और भाईचारे का अद्भुत उदाहरण है। भारतीय संस्कृति के अनमोल हीरा गुरु अर्जन देव जी को सादर प्रणाम। उनके संपादन से भारतीय भाषाओं की विविधता और अमृतपान गुरु ग्रंथ साहब द्वारा प्राप्त हुआ है। आपने उनकी रचनाओं का सरल हिंदी में परिचय प्रदान किया है। भारत संस्कृति,विविधता की रक्षा सही मायने में सिख गुरुओं ने की है। हम सभी उनके हमेशा हृदय से ऋणी है।🙏💐

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  5. गुरु अर्जन देव जी को सादर नमन। कितने पावन विचार थे उनके,काश कि उनकी विचारधारा को हम सब अपना पाते। जीवन जीने के उचित मार्गदर्शन के साथ अद्भुत अध्यात्मिकता। कोटी कोटी नमन। और साधुवाद आपका आदरणीय हरप्रीत जी कि आपने इन मोतियों को माला के रूप में पिरोकार हम तक पहुँचाया। आप अपने लेख में जो स्वयं का परिचय देते हैं उसे भी सादर प्रणाम। हार्दिक आभार।

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  6. गुरु अर्जन देव को सादर नमन करती हूँ। हरप्रीत जी प्रस्तुत लेख में आपने बहुत ही सरल, सहज शैली में, अर्जन देव जी से, उनके ब्रह्मज्ञान, मानवतावादी दर्शन, साहित्यिक योगदान और निर्मल काज को हमसे परिचित कराया है। आपका आभार। इस लेख के प्रारम्भ से आपके परिचय तक, गुरु के प्रति आपका भक्ति भाव भी प्रणम्य है। सबसे बड़ी बात गुरु ग्रंथ साहिब, हरमिंदर साहब के बारे में भी और जानने का अवसर मिला। बहुत बधाई आपको।

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  7. उस चातक (हरप्रीत जी) को प्रणाम जिसने गुरु अर्जन देव के चंद्रप्रकाश की किरणों को पी लिया...कई सबद ऐसे लग रहे थे जैसे कहीं पहले भी सुने हो...कहाँ, कैसे, कब पता नहीं पर इतने अपने से लगे और सबको शास्त्रीय रागों में निबद्ध भी किया गया है, अलौकिक है सब....शत शत नमन

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  8. हरप्रीत जी, आपका हर लेख गुरुओं के प्रति आपकी भक्ति और उनकी सीख से ओत-प्रोत होता है और उसके छीटों से हमारे मन भी उज्जवल हो जाते हैं। गुरु अर्जन देव के बारे में आपने अद्भुत जानकारी बड़े सप्रेम परोसी है जो कितने ही सवालों की भूख को बुझाने में सक्षम है। कितनी सरल सी समझ में आने वाली बाते हैं, पर न जाने हम अमल क्यों नहीं कर पाते? हमेशा अपने-पराये के जाल में फंसे रहते हैं और उसे ही मज़बूत करते जाते हैं, जबकि लक्ष्य है नदी की भांति उस आगाह सागर में विलीन हो जाना। एक ही प्रार्थना है कि सद्बुद्धि का प्रचलन आए। आनंदित करने वाले इस आलेख के लिए आपको ढेरों बधाइयाँ और आभार।

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  9. हरप्रीत भाई इस श्रृंखला का आपका यह तीसरा लेख है- इतना पावन, ज्ञानवर्धक बातें लिए हुए! मन फूल सा खिला 🌺जा रहा है पढ़ कर!

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