काशी में जन्मे क्षितिमोहन सेन ने इस प्राचीन नगरी से भारतीय संस्कृति और हिंदू धर्म के लिए शोध की गहरी जड़ें प्राप्त कीं। कबीर की मिट्टी ने उनमें भारतीय संतों के प्रति जिज्ञासा और श्रद्धा के भाव जगाए, गंगा की पावन लहरों ने उन्हें मानव प्रेम और सहज भावों से संपन्न किया, रवींद्रनाथ ठाकुर के विश्वभारती में रहकर और रमकर उन्होंने कर्म प्रेरणा को आत्मसात किया।
आचार्य क्षितिमोहन सेन मध्ययुगीन भारतीय धर्म साधना के बहुत बड़े पंडित हैं। अपनी ज्ञानपिपासा को उन्होंने केवल पुस्तकों से ही नहीं बुझाया है, बल्कि देश के प्रत्येक भाग में जाकर साधकों से परिचय प्राप्त किया है। प्राचीन संतों की मौखिक परंपरा से प्राप्त वाणियों का जो रूप चला आ रहा था, उसका संकलन किया है और उनकी ओर आधुनिक पंडित मंडली का ध्यान आकृष्ट किया है।
क्षितिमोहन सेन का जन्म काशी में हुआ था, उन्होंने काशी के क्वींस कॉलेज से संस्कृत में एम० ए० करने के बाद कुछ समय चंबा राज्य के शिक्षा विभाग में काम किया। उनके परिवार को चिकित्सा और विद्या के क्षेत्रों में ख्याति-प्राप्त थी। बाल्यकाल से ही उन्हें महामहोपाध्याय पं० सुधाकर द्विवेदी और महामहोपाध्याय पं० गंगाधर शास्त्री जैसे पंडितों का सत्संग प्राप्त हुआ। कवींद्र-रवींद्र के आमंत्रण पर वर्ष १९०८ में शांति निकेतन गए और विश्वभारती के ब्रह्मचर्याश्रम में योगदान करने लगे और कवींद्र के अंतरंगों में हो गए। शांति निकेतन में वे दीर्घकाल तक अध्यापक रहे और अंत में वहाँ के विद्याभवन के अध्यक्ष बने। विश्व-भारती की देशिकोत्तम-उपाधि से सम्मानित होने वाले वे पहले थे। अवकाश ग्रहण के बाद भी वे जीवनपर्यंत 'कुल स्थविर' के रूप में शांति निकेतन में रहे और आश्रमवासियों में कर्म प्रेरणा का संचार करते रहे।
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी शांति निकेतन के अपने कार्यकाल के दौरान आचार्य जी के सान्निध्य में आए थे और उनसे बहुत प्रभावित हुए थे। द्विवेदी जी के शब्दों में,
"पिछले बीस वर्षों से मैं आचार्य जी के संपर्क में रहा हूँ। इस बीच मैंने उनकी अद्भुत ज्ञाननिष्ठा, मोहनकारिणी वाक्शक्ति, सरस लेखन शैली, उदार हृदय और अपरिमित स्नेह का जो परिचय पाया है, वह आश्चर्यजनक है। वे संत साहित्य के पंडित ही नहीं हैं, स्वयं भी उसी परंपरा में पड़ते हैं।"
आचार्य सेन ने संतों-फ़क़ीरों के संबंध में निरंतर खोज की। यह खोज उन्हें देश के दूर-दराज के प्रांतों, खेतों की दालानों, मसाला कूटती, पत्थर तोड़ती महिलाओं की चौखटों तक ले गई, जिनके मुख से निकलने वाले लोकगीतों को उन्होंने सराहा और सप्रेम संकलित किया। कबीर, दादू तथा बंगाल के बाउल संतों पर किए गए उनके काम उल्लेखनीय हैं। भारतीय भाषाओं को पास लाने का शक्तिशाली सेतु होने के कारण इन ग्रंथों का महत्त्व और अधिक हो जाता है। चूँकि उनका अधिकतर लेखन बांग्ला में ही है, इसलिए हिंदी पाठक उसका रसास्वादन नहीं कर पाते हैं। आचार्य सेन हिंदू-धर्म और संस्कृत के प्राज्ञ थे, परंतु उन पर सूफ़ी संतों का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्हें समझने के लिए उन्होंने फ़ारसी सीखी और संत कबीर की बहुवादी धार्मिक परंपरा तथा लोक साहित्य और संस्कृति के विशेषज्ञ बन गए।
रवींद्रनाथ ठाकुर का हिंदी संतों से परिचय आचार्यजी ने ही कराया। कविगुरु ने लिखा है,
"मैं अपने अपरिचित हिंदी साहित्य के क्षेत्र में विशुद्ध रस रूप की खोज में था। ऐसे ही समय एक दिन क्षितिमोहन सेन महाशय के मुख से बघेलखंड के कवि ज्ञानदास के दो-एक हिंदी पद सुनने को मिले। मैं कह उठा- यही तो मुझे चाहिए था। विशुद्ध वस्तु, एकदम चरम वस्तु - इसके ऊपर अब तान नहीं चल सकता।"
जहाँ रवींद्रनाथ ठाकुर में कबीर के प्रति रुचि सेन जी की पुस्तक 'Medieval Mysticism of India' से उत्पन्न हुई और उन्होंने कबीर की सौ कृतियों का संकलन करके उनका प्रकाशन वर्ष १९१२ में अँग्रेज़ी पुस्तक '100 Poems of Kabir' के रूप में किया, तो वहीं कवींद्र के कहने पर क्षितिमोहन सेन ने कबीर पर पुस्तिका-स्वरूप चार खंड वर्ष १९१० में प्रकाशित किए थे। इन खंडों में कबीर की रचनाओं के संक्षिप्त परिचय के बाद रचनाएँ देवनागरी और बांग्ला में दी गई हैं और नीचे उनका बांग्ला रूपांतरण भी। कबीर की हिंदी-साहित्य पटल पर धूमिल होती छवि को उजास देने का महत्त्वपूर्ण काम आचार्य जी ने किया है।
क्षितिमोहन सेन द्वारा हिंदी में लिखी दोनों पुस्तकों में हिंदू धर्म और समाज के विषय में शोधपरक जानकारी संग्रहीत है।
हज़ारीप्रसाद द्विवेदी के अनुरोध पर क्षितिमोहन सेन ने 'भारतवर्ष में जातिवाद' पुस्तक को पहले हिंदी में प्रकाशित किया था। यह पुस्तक क्षिति जी के वृहत प्रयत्न 'भारतवर्ष का सांस्कृतिक इतिहास' का एक हिस्सा है। द्विवेदी जी अपने संपादकीय में इस पुस्तक के बारे में लिखते हैं, "इस पुस्तक में भारतवर्ष की सबसे बड़ी और अनन्य-साधारण समस्या जातिभेद की शास्त्रीय और वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचना की गई है। इस विषय पर यह पहला प्रयत्न नहीं है, पर पाठक पढ़कर देखेंगे कि इस समस्या को आचार्य सेन ने बिलकुल नए ढंग से देखा है। इसमे न तो वैज्ञानिक तटस्थता है, न मिशनरी प्रचारक की उत्साह पूर्ण कलुष-दर्शिता और न समाज-सुधारक की हाय-हाय की पुकार। ग्रंथकार ने वैज्ञानिक दृष्टि से विवेचना करते समय भी यह भुला नहीं दिया कि भारतीय पाठक के लिए यह कुतूहल की वस्तु नहीं है, बल्कि जीवन-मरण का प्रश्न है। ग्रंथ में सभी दृष्टियों से इसे समझने का प्रयत्न किया गया है - शास्त्रीय विकास, वैज्ञानिक भित्ति, धार्मिक प्रभाव, वर्तमान रूप, इत्यादि।"
हिंदी में उनकी दूसरी मुख्य पुस्तक 'संस्कृति संगम' है। इसके प्राक्कथन में संस्कृतियों और लोगों के बीच के भेदभावों के कारण आचार्य जी को होने वाले आघात की भी अनुभूति होती है और मानव-जाति के प्रति विश्वास के रूप में उनकी आशावादिता भी देखी जा सकती है। संवेदनशील आचार्य जी के दुःख का कारण अपने ज्ञान और शक्ति के दंभ में चूर मनुष्य है। वे कहते हैं कि ज्ञान और शक्ति मनुष्य के प्रेम और साधना को अतिक्रम करके उच्छृंखल हो गए हैं। इसलिए आज दुःख का अंत नहीं है। समूची मानव-सभ्यता आज संकटापन्न है। सहोदर भाई और महारथी होने के बावजूद भी कर्ण और अर्जुन को एक दूसरे को न समझने के कारण ही पारस्परिक संघर्ष का अवसर मिला। उसी संघर्ष से महाभारत की प्रलयाग्नि जल उठी। इस युग में उसी प्रलयाग्नि का पुनराभिनय न हो, इसीलिए विश्व-भारती के भीतर से रवींद्रनाथ की वाणी आज सारे भारतवर्ष को पुकार रही है - 'सभी इस साधना की वेदी पर समवेत हो, परस्पर एक दूसरे को समझो, भाई के साथ भाई का जो अपरिचय है, द्वंद्व है, दुर्गति है, उसका अवसान हो!'
वे प्रश्न करते हैं कि अगर आज भी इस साधना का आरंभ न हो, तो फिर आज नवयुग कैसा?
भारत में वैदिक, अवेस्तिक (पारसी-धर्म), बौद्ध, वैष्णव आदि साधनाएँ एकत्र हुई हैं। इस्लाम की साधना भी यहाँ आ पहुँची है। तिब्बत, चीन और वृहत्तर भारत की साधनाएँ यहाँ मिश्रित हुई हैं। प्रांतीयता की क्षुद्र सीमाएँ यहाँ क्या धीरे-धीरे लुप्त नहीं हो जाएँगी? बड़े दुःख के साथ कबीर ने कहा था - "बेड़ा ही खेत खाय।" यह दारुण बेड़ा जिनकी सहायता से टूटने जा रहा है, वे प्रणम्य हैं।
इस पुस्तक के माध्यम से वे कहते हैं कि हमारी प्रथा दूसरे को ग्रास बनाने की नहीं बल्कि अपनाने की रही है। शिव और शक्ति के मिलन बिना शिव और शक्ति दोनों ही व्यर्थ हैं, शिव शक्ति के साथ रहकर ही समर्थ हैं, नहीं तो हिल सकने में भी समर्थ नहीं। कोई बूँद जब अकेले चलती है तो रास्ते में सूख कर नष्ट हो जाती है, परंतु अगर उसमें बूँदें अनवरत मिलती रहें, तो वह धारा से नदी बनती है और सागर की ओर चलती है। वैसे ही विभिन्न संस्कृतियाँ एक दूसरे में समाहित होकर, एक दूसरे को परिपूर्ण करके मानव-सभ्यता के विराट सागर तक पहुँच सकती हैं।
'साहित्य संगम' के बारे में हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है, "इस पुस्तक में पाठक आचार्य जी के अपूर्व मानव प्रेम और सहज भाव का भी परिचय पाएँगे। साथ ही अपने देश की उस महती प्रतिभा का साक्षात्कार पाएँगे, जो विषम परिस्थितियों में अपना रास्ता निकाल लेती हैं और अनैक्य के भीतर ऐक्य का संदेश खोज लेती हैं। आचार्य सेन ने दिखाया है कि न जाने किस पुराने युग से कितनी ही मानवमंडलियाँ इस देश में अपने आचार-विचारों और संस्कारों को लेकर आई हैं, कुछ देर तक एक दूसरे के प्रति शंकालु भी रही हैं, पर अंत तक भारतीय प्रतिभा ने नानात्व के भीतर से ऐक्य-सूत्र खोज निकाला है।"
अपनी इन पुस्तकों के माध्यम से वे लगातार यह स्पष्ट करते रहे कि भारतवर्ष ही नहीं समूचे विश्व का हित संस्कृतियों की विभिन्नताओं को अपनाने और अपनी लोक परंपराओं में स्वच्छंद रूप से उन्हें घुलने-मिलने देने में है। दो विश्व-युद्धों की विभीषिकाओं के बाद यह बात उनके लिए और पारदर्शी हो गई होगी।
क्षितिमोहन सेन की पुस्तक 'Hinduism', हिंदू-धर्म से विदेशी पाठकों का परिचय कराने वाली उतनी ही महत्त्वपूर्ण पुस्तक है, जितनी डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन द्वारा लिखित 'The Hindu Way of Life' है। सेन जी की यह किताब दो भागों में है: पहला भाग हिंदू धार्मिक विचारों और आचरणों को समर्पित है और दूसरे में हिंदू-धर्म का संक्षिप्त इतिहास आविर्भाव से वर्तमान तक दिया गया है। लेखक का मानना है कि हिंदू धर्म एक वृक्ष की तरह है, जो धीरे-धीरे बढ़ा है न कि एक इमारत, जो किसी बड़े शिल्पी ने किसी एक दौर में खड़ी की हो। अतः इसे समझने और समझाने के लिए समग्र दृष्टि एवं समावेशी प्रवृत्तियों के प्रति उदारता रखनी होगी।
क्षितिमोहन सेन ने भारतीय समाज और हिंदू-धर्म से संबंधित विषयों पर कई शोधपरक पुस्तकें लिखी हैं। प्राचीन भारत में भारतीय नारी की स्थिति पर गहन शोध कर लिखी उनकी पुस्तक बहुत महत्वपूर्ण है।
देश में भाषा की स्थिति पर भी उनके विचार बिलकुल स्पष्ट थे -आदर्श और साधना की एकता मनुष्य को एकता अवश्य देती है, पर भाषा की भिन्नता उस एकता को जाग्रत नहीं होने देती।
शोधकार्य और पुस्तक लेखन के अलावा वे आजीवन शांति निकेतन में अध्यापन कार्य करते रहे और वहाँ आने वाली युवा-प्रतिभाओं को गढ़ कर सुंदर चरित्रों में ढालते रहे। इस दिशा में उनकी एक उल्लेखनीय उपलब्धि यह रही कि विश्वख्याति प्राप्त अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के बौद्धिक विकास पर उनका गहरा प्रभाव पड़ा। इस प्रभाव से ही अमर्त्य सेन ने संस्कृत सीखी और भाषाई विद्वता हासिल की। अपने नाना की छत्रछाया और शांति निकेतन के परिवेश में रहकर अमर्त्य सेन अपने निरीश्वरवाद का आधार माधवाचार्य के 'सर्वदर्शन समाग्रह' तथा ऋग्वेद के 'सृष्टि गीत' में पा सके। शांति निकेतन में कवींद्र और उनके नाना की मानवता, दोनों की सार्वभौमिक दृष्टि, ‘संकीर्ण राष्ट्रीयता’ की दीवारों को तोड़ने का उनका सतत आग्रह, विविधता का उनके द्वारा आत्मसात, तथा समरसता और धर्मनिरपेक्षता की उनकी पैरवी ने अमर्त्य सेन के विचारों के लिए नींव का काम किया।
प्रतिष्ठित शिक्षित वर्ग की पृष्ठभूमि से आए क्षितिमोहन सेन के मानस पटल को मध्यकालीन संत साहित्य ने कुछ ऐसा छुआ कि उनकी लेखनी ने भारतीय संस्कृति और उससे जुड़े विषयों पर अद्वितीय ग्रंथ देकर भारतीय साहित्य को संपन्न किया। भारतीय प्रतिभा की अनेकता में एकता स्थापित करने की क्षमता में विश्वास रखने वाले इस पंडित और कर्मयोगी के समक्ष मैं नतमस्तक हूँ।संदर्भ
All the World is a Stage, Sunil Kant Munjal, SK Rai
https://openthemagazine.com/lounge/books/amartya-sen-a-prologue-to-greatness/
भारतवर्ष में जातिभेद, क्षितिमोहन सेन
संस्कृति संगम, क्षितिमोहन सेन
Hinduism, Kshitimohan Sen
Medieval Mysticism of India, Kshitimohan Sen
लेखक परिचय
प्रगति टिपणीस
प्रगति जी द्वारा लिखित आज के आलेख ने मन प्रसन्न कर दिया। उनका यह संदर्भ कि- आदर्श और साधना की एकता मनुष्य को एकता अवश्य देती है, पर भाषा की भिन्नता उस एकता को जागृत नहीं होने देती। कितनी गहराई व यथार्थ को उद्घाटित करती है यह पंक्ति। इस पर भी भारतीय मनीषा को स्वीकारना होगा, प्रयास करना होगा।
ReplyDeleteआचार्य क्षितिमोहन जी के जीवन-पथ-रचनाधर्म पर प्रगति जी ने बहुत अंदर तक घुसने के प्रयास में सफल रहीं; साधुवाद!
Excellent Pragati!
ReplyDeletehttps://thewire.in/books/amartya-sen-memoir-home-in-the-world-review
Here Amartya Sen pays homage to his grandfather.
प्रगति बहुत बढ़िया आलेख है। द्विवेदी जी की टिप्पणी पढ़ कर आचार्य क्षितिमोहन जी की भारतवर्ष में जातिवाद पढ़ने का मन हो आया!
ReplyDeleteअभी यहाँ पढ़ा कि उनकी ‘Hinduism’ अब भी Penguin से प्रिंट में है तो वह भी पढ़नी होगी। तुमने बहुत बढ़िया आलेख लिखा है, जैसे कम सामग्री में माँ समग्र भोजन बाना लेती हैं, वैसे ही तुम्हारे passion, activism और न्यायप्रियता ने Internet पटल से गुमे हुए किरदार को समग्रता से आलोकित किया है!
विशुद्ध रस की अनुभूति हुई...इनके बारे में कुछ भी नहीं पता था, ऐसे कितने ही लेखकों के बारे में इस जरिए पता चल रहा है..आपकी कटिबद्धता को भी सलाम प्रगतिजी
ReplyDeleteबहुत सुंदर आलेख है, प्रगति जी। पढ़कर आनंद हुआ।आचार्य क्षितिमोहन सेन का सुंदर , ऋषि समान व्यक्तित्व एवं आजीवन सतत कर्मरत जीवन बड़ा प्रभावित करने वाला है। आश्चर्य होता है, कि ऐसे विद्वान साहित्यकार हमारे देश में हाशिये पर कैसे सरक जाते हैं। आपको मेहनत कर सामग्री एकत्रित करने एवं रोचक,जानकारीपूर्ण प्रस्तुतीकरण के लिए साधुवाद। आगे भी ऐसे ही सुंदर लेखन के लिए शुभकामनाएँ।💐
ReplyDeleteप्रगति जी नमस्कार। हर बार की तरह आपने एक उत्तम लेख पटल पर रखा। आपका यह लेख शुरु से अंत तक निरन्तरता बनाये हुए है। और कब समाप्त हुआ पता ही नहीं चला। क्षितिमोहन सेन जी संस्कृति एवं साहित्य के मर्मज्ञ थे। आपका यह लेख उनको और पढ़ने की उत्सुकता उत्पन्न करता है। आपको लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteशांतिनिकेतन के शैक्षणिक विस्तार, अनुसंधान और विपुल साहित्यिक समृद्धि में पंडित क्षितिमोहन जी का महनीय योगदान था। आध्यात्मिक प्रवृति के धनी क्षिति बाबू के पास काशी के पंडितो के पावन संस्मरणों का खजाना था। आदरणीया प्रगति जी के आज के आलेख में अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित अमर्त्य सेन के नाना आचार्य क्षितिमोहन जी का साहित्यिकजीवन बड़े ही साधनतत्व पध्दति से उल्लेखित है। आपके लेखन रचना का संग्रह बहुत ही ज्ञानवर्धक और मानस क्षितिज को विस्तारित करने वाला है। आलेख में क्षिति बाबू के ज्ञातव्य विषयों और संस्कृत शाश्त्रों का गंभीर अध्ययन दिखाई पड़ता है। ऐसे शोधपुरक और विलक्षण प्रतिभावित आलेख की सररंचना के लिए आपका आभार और पुनः-पुनः खूब शुभकामनाएं। अति सुंदर।
ReplyDeleteप्रगति, इस अद्भुत लेख के माध्यम से मेरे जैसे और कई लोगों का क्षितिमोहन सेन से परिचय कराने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद। कितनी अच्छी बात कही है उन्होंने - विश्व का हित संस्कृतियों की विभिन्नताओं को अपनाने और अपनी लोक परम्पराओं में स्वछंद रूप से उन्हें घुलने-मिलने देने में है। इस शोधपरक, पठनीय, ज्ञानवर्धक, दिलचस्प और गंभीर आलेख के लिए तुम्हें बधाई।
ReplyDeleteप्रगति जी एक बार फिर आपकी लेखनी ने चमत्कृत किया। लेख पढ़ना शुरू किया तो अंत तक पढ़ती चली गयी। शीर्षक भी बहुत अच्छा दिया आपने। क्षितिमोहन सेन जी के साहित्यिक जीवन और उनकी लेखनी के द्वारा हिन्दी साहित्य को समृद्ध करने की दिशा में किये गए उनके योगदान को आपने बहुत सुंदरता और समग्रता के साथ हमसे परिचित कराया है। सुन्दर लेख के लिए बहुत बधाई और धन्यवाद।
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