ज़िला जौनपुर, उत्तरप्रदेश के बरांई गाँव में एक संपन्न किसान परिवार में २ मई १९३० को जन्मे विशिष्ट कथाकार मार्कण्डेय, १८ मार्च २०१० को हमसे विदा हो गए; हंस अकेला उड़ चला...
प्रेमचंदोत्तर हिंदी कथा-साहित्य में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान रखने वाले मार्कण्डेय के हृदय में स्वतंत्र भारत के सपने का बीज उनके बाबा ने बोया था। उनकी आरंभिक शिक्षा गाँव की जिस पाठशाला में हुई, वहाँ के और परिवार के वातावरण ने उन्हें सहज ही खादी, चरखा, गाँधी और झंडे से परिचित करा दिया था। बचपन में बाबा के आकस्मिक देहावसान ने मार्कण्डेय को अकेला कर देने के साथ-साथ सृजनात्मक भी बना दिया। अब अपने एकांत में उन्होंने खुली आँखों संसार को उसकी वास्तविकता में देखना शुरू किया; जन-जीवन की व्यथा, अभाव और शोषण का अनुभव किया। उन्होंने देखा कि माँ घर के निकट ही झोपड़ी में रहने वाली गरीब स्त्री को भोजन दे आती थी। दादा से देश-प्रेम, त्याग और बलिदान तथा माँ से स्नेह-सहानुभूति का भाव सहज ही उनके स्वभाव का अंग हो गया। यह प्रभाव उनकी कहानियों में भी आया। 'महुए का पेड़' कहानी माँ की स्नेह-सहानुभूति का सुपरिणाम हुई, तो आज़ादी के सांप्रदायिक दंगों ने 'शहीद की माँ' कहानी लिखवाई।
उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मार्कण्डेय इलाहाबाद आए, उस समय यह शहर भारत की सांस्कृतिक राजधानी के रूप में विख्यात था। इलाहाबाद में उन्होंने 'कबीर में लोकतत्व' विषय पर डी० फिल० करने का विचार किया, किंतु इस शहर ने उन्हें लेखक के जीवन की व्यस्तता दी। उनके अग्रज-सहयोगी लेखकगण शहर में विराजते थे, सबसे मिलते-जुलते-बढ़ते मार्कण्डेय प्रगतिशील लेखक संघ की गोष्ठियों में मुखर होने लगे। लीक पर चलने के बजाय वे सामाजिक स्थितियों पर अपनी टिप्पणियों में जनाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते। ऐसी ही एक गोष्ठी में मार्कण्डेय ने 'गुलरा के बाबा' कहानी का पाठ किया। कालांतर में यह प्रशंसित कहानी अपने समय की प्रसिद्ध पत्रिका 'कल्पना' में प्रकाशित होकर बहुत चर्चित हुई। वे स्वयं अज्ञेय द्वारा संपादित 'प्रतीक' पत्रिका में प्रकाशित अपनी कविता 'पथ के रोड़े' को अपनी प्रथम प्रकाशित रचना मानते हैं।
इलाहाबाद में उनकी मुलाकात निराला, पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा आदि अनेक साहित्यकारों से हुई। कालांतर में मार्कण्डेय ने अमरकांत और शेखर जोशी के साथ मिलकर 'नई कहानी' आंदोलन को आकार दिया।
कथाकार के रूप में विख्यात मार्कण्डेय जी के दो महत्वपूर्ण कविता संग्रह भी हैं- 'सपने तुम्हारे थे' और 'यह धरती तुम्हें देता हूँ'। 'पत्थर और परछाइयां' नाम से मार्कण्डेय जी का एकांकी संग्रह भी प्रकाशित है। आलोचना की एक महत्त्वपूर्ण पुस्तक 'कहानी की बात' भी हिंदी जगत को उनकी देन है। अपने बाल-हृदय का परिचय देते हुए उन्होंने कालिदास, बाणभट्ट, भवभूति, बाल पंचतंत्र एवं हितोपदेश जैसे बाल-साहित्य की रचना भी की।
मार्कण्डेय ने १९६९ में 'कथा' नामक पत्रिका का संपादन प्रारंभ किया, उनके संपादन में 'कथा' के कुल चौदह अंक निकले। कहानी, उपन्यास, एकांकी, कविता और आलोचना साहित्य को समृद्ध करते हुए, वे एक सफल संपादक के रूप में भी प्रतिष्ठित हुए।
अपने समकालीन साहित्यकारों पर लिखे उनके समीक्षात्मक लेख चर्चित होने के साथ-साथ विवादास्पद भी हुए। अपने लेखन पर मार्कण्डेय जी बहुत महत्वपूर्ण बात कहते हैं- "मात्र अनुभवों की अंधी गली में मेरा मन कभी रमा ही नहीं और हर बार, हर नए जीवनानुभव के साथ एक नया प्रश्न उठने लगा। मान्यताओं और आडंबरों से ऊबकर यथास्थिति के विरुद्ध कुछ कहने की अकुलाहट ही शायद मेरे लिखने का कारण बनी।" उनके समस्त लेखन में इसकी प्रतिध्वनि सुनी जा सकती है।
मार्कण्डेय जी के आठ कहानी संग्रह और दो उपन्यास प्रकाशित हुए। प्रथम कहानी संग्रह 'पानफूल' सन १९५४ में बद्रीविशाल पित्ती जी की प्रेरणा से नवहिंद पब्लिकेशंस हैदराबाद से छपा। बाद में १९५७ में इसे स्वयं मार्कण्डेय ने अपने प्रकाशन 'नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद' से छापा। इसमें कुल बारह कहानियाँ हैं। अनेक आलोचक इसे नई कहानी आंदोलन का प्रथम कहानी संग्रह मानते हैं। उसकी पहली ही कहानी एक मशहूर कहानी बन गई। इस संग्रह में व्याप्त परिवर्तनशील ग्रामीण यथार्थ ने आलोचकों का ध्यान आकृष्ट किया। उनकी मानवीय दृष्टि, चरित्रों के औदात्य और भाषिक क्षमता ने अपनी पहचान बनाई।
उनका दूसरा कहानी संग्रह 'महुए का पेड़' १९५५ में प्रकाशित हुआ, यह दस कहानियों का संकलन है। 'महुए का पेड़' शीर्षक कहानी पुनः उनकी ख्याति का आधार बनी।
तीसरे कथा संग्रह 'हंसा जाई अकेला' ने १९५७ में प्रकाशित होकर ख्याति अर्जित की। सहज शैली में कही गई इन कहानियों में लेखक गाँव का नया धरातल छूने का प्रयास करता है। इस संग्रह में कुल सात कहानियाँ हैं- कल्यानमन, सोहगइला, दौने की पत्तियाँ, बातचीत, हंसा जाई अकेला, चाँद का टुकड़ा तथा प्रलय और मनुष्य। संकलन की शीर्षक कहानी का 'हंसा' निश्छल ग्रामीण है। उसका सरल व्यक्तित्व गाँव में सबके बीच लोकप्रिय रहा था, किंतु सहसा वह कठिन परिस्थिति में जा फंसता है।
कथाकार का चौथा कहानी संग्रह 'भूदान' सन १९५८ में प्रकाशित हुआ। संग्रह में आठ कहानियाँ हैं, जिनमें मार्कण्डेय एक नई कथा-भूमि का संधान करते हैं। मानव मूल्यों और राजनीतिक समझ को रेखांकित करती ये कहानियाँ निम्न-मध्यवर्ग की टूटन का आलेख भी हैं।
मार्कण्डेय का पाँचवा कहानी संग्रह 'माही' १९६० में उनके ही प्रकाशन 'नया साहित्य प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ। रागात्मक संबंधों की कहानियों का यह संसार कथाकार की एक नई दुनिया का प्रवेश-द्वार जैसा लगता है।
छठा कहानी संग्रह 'सहज और शुभ' १९६४ में प्रकाशित हुआ, कथाकार मार्कण्डेय ग्राम जीवन की ओर लौटते दिखाई देते हैं। संग्रह की सात कहानियाँ जीवन के बदलाव को बखूबी साकार करती हैं।
मार्कण्डेय का सातवाँ कहानी संग्रह 'बीच के लोग' एक लंबे अंतराल के बाद १९८५ में प्रकाशित हुआ। भूमिका में वे स्पष्ट कहते हैं- "यह सातवाँ संकलन एक अरसे बाद तब प्रकाशित हो रहा है, जब आत्मानुभूति पर आधारित भाववादी अनुरक्ति का दबाव कहानी को यथार्थवादी मार्ग से विचलित कर रहा है।" इसमें लँगड़ा दरवाजा, बादलों का टुकड़ा, बीच के लोग, बयान, गनेसी और प्रिया सैनी नामक छः कहानियाँ संकलित हैं।
मार्कण्डेय जी के अंतिम कहानी संकलन 'हलयोग' में ग्रामीण जीवन के अंतर्विरोध व्यक्त हुए हैं।
'सेमल के फूल' १९५६ में प्रकाशित मार्कण्डेय जी का प्रथम उपन्यास है। मूलतः यह एक निर्मल प्रेम संबंध को परिभाषित करता है। उपन्यास का धारावाहिक प्रकाशन सुप्रसिद्ध पत्रिका 'धर्मयुग' में हुआ। सर्वोदयी नेता सुमंगल और युवा नीलिमा का पावन प्रेम परंपरागत समाज में स्वीकृति नहीं पाता, तो बलिदान के पथ पर पूर्णता प्राप्त करता है।
दूसरा बहुचर्चित उपन्यास 'अग्निबीज' १९८१ में प्रकाशित हुआ। आज़ादी के बाद के भारतीय ग्राम्य-जीवन का चित्र खींचता यह उपन्यास देश की सामाजिक और राजनीतिक चेतना को रूपायित करता है। इसमें किसान जीवन के सामाजिक संदर्भों, उनके शोषण, उनके साथ होने वाले अत्याचार-अन्याय को शब्द मिले हैं।
मार्कण्डेय कहानीकार के रूप में जाने जाते हैं, किंतु उनका कवि रूप भी कम समर्थ नहीं है। कवि राजेश जोशी ने उचित ही कहा है- "मार्कण्डेय जी को पढ़ते समय यह याद रखना जरूरी है कि वे एक कवि भी थे। उनकी कहानी एक कवि कथाकार की कहानी है या नहीं, यह दीगर बात है; लेकिन इतना तो उनकी कहानी पढ़ते हुए, बिना हिचक कहा जा सकता है; कि वह एक कवि-मन रखने वाले कथाकार की कहानी है।"
चेखव को संसार का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार मानने वाले कथाकार मार्कण्डेय एक प्रतिबद्ध रचनाकार हैं। उनकी कहानियाँ गाँव की छवियों और उलझनों-परेशानियों को गहराई से छूती हैं। आज़ाद भारत में परेशानियाँ भुगतते किसान और खेतिहर मज़दूर उनके कथा-साहित्य में मौजूद हैं। उनके अभाव-ग्रस्त जीवन की व्यथा-कथा मार्कण्डेय की तमाम कहानियाँ कहती हैं। एक ओर उस दुनिया के बाशिंदे हैं, जो सुख भोगते हैं; दूसरी ओर उसी दुनिया में काम करते-मरते-खपते लोग भी हैं। दोनों उनके कथा-साहित्य में मूर्त होते हैं। दमकते भारत के बरक्स ये कहानियाँ अँधेरे के भारत का साक्ष्य भी हैं। न केवल इंसान, बल्कि सवरइया सरीखे बैल भी कथाकार की आत्मीयता के दायरे में आते हैं। पति के न रहने पर कर्ज़ उतारने को महाराजिन बैल न बेचेगी, भले ही पति की निशानी अपना शीशफूल क्यों न बेचना पड़े। यह प्रेमचंद की परंपरा की दो बैलों हीरा-मोती की कथा जैसी है।
हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले किसान, अभाव-ग्रस्त जीवन, कर्ज़ की मार, लगान का बोझ लेकर आखिर जाएँ तो जाएँ कहाँ? हताशा ही उनके भाग्य में लिखी है, लेकिन मार्कण्डेय सर्वत्र किसान-हितैषी की भूमिका में दिखाई देते हैं। वे जीवन की आशा के कथाकार हैं।
प्रेमचंद की मृत्यु के बाद हिंदी कहानी नगर-केंद्रित हो गई थी। मार्कण्डेय ने अपना कथा-लेखन ग्रामीण परिवेश को केंद्र में रखकर किया। एक अंतराल के बाद ग्रामीण कथा स्थितियों की माटी की महक पाठकों के लिए ताज़े हवा के झोंके की तरह आई थी। उनकी सहज प्रवाहपूर्ण भाषा उत्तरप्रदेश के गाँवों की बोलियों से संपन्न है।
लगभग अर्धशताब्दी का विस्तार लिए अपने विपुल कथा-संसार में मार्कण्डेय ने जितने दलित, स्त्री, किसान, अल्पसंख्यक और हाशिए के समाज के पात्रों को उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि और सजग चेतना के साथ प्रस्तुत किया है, वह प्रेमचंद की कथा-परंपरा का नवीनीकरण और विस्तार है।
कथाकार मार्कण्डेय : जीवन परिचय |
मूल नाम | श्री मार्कण्डेय सिंह |
छद्म नाम | 'चक्रधर' |
जन्म | २ मई १९३०, गाँव- बरांई, ज़िला- जौनपुर, उत्तरप्रदेश |
निधन | १८ मार्च २०१०, राजीव गांधी कैंसर इंस्टीट्यूट, नई दिल्ली |
पिता | श्री ताल्लुकेदार सिंह |
माता | श्रीमती मोहरा देवी सिंह |
पितामह | ठाकुर महादेव सिंह |
अर्धांगिनी | श्रीमती विद्यावती सिंह (१९४९) |
संतान | - पुत्र- सौमित्र सिंह (अधिवक्ता, हाईकोर्ट)
- पुत्रियाँ- डॉ० स्वस्ति ठाकुर व डॉ० शस्या सिंह
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शिक्षा और कार्यक्षेत्र |
विद्यालयी | प्रताप बहादुर कॉलेज, प्रतापगढ़ |
स्नातकोत्तर | इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज |
डी०फिल०(अपूर्ण) | इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज |
साहित्यिक रचनाएँ |
कविता संग्रह | |
एकांकी संग्रह | |
कहानी संग्रह | पानफूल (१९५४)- नवहिंद पब्लिकेशंस, हैदराबाद (१९५७ में पुनः प्रकाशित नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद) महुए का पेड़ (१९५५) हंसा जाई अकेला (१९५७) भूदान (१९५८)- नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद माही (१९६०) नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद सहज और शुभ (१९६४)- नया साहित्य प्रकाशन, इलाहाबाद बीच के लोग (१९८५) हलयोग (२०१२)- लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद
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उपन्यास | |
आलोचना | |
बाल-साहित्य | कालिदास बाणभट्ट भवभूति बाल हितोपदेश प्रेमचंद
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संपादन | 'कथा' अनियत कालीन पत्रिका (१९७० से) |
सम्मान और पुरस्कार |
- 'साहित्य भूषण' उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ
- 'हिंदी गौरव सम्मान' उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान, लखनऊ (२००५)
- राहुल सांकृत्यायन पुरस्कार
- प्रेमचंद पुरस्कार (अग्निबीज के लिए)
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संदर्भ
मार्कण्डेय की प्रतिनिधि कहानियाँ : चयन एवं भूमिका- वीरेंद्र यादव
कथा- अंक १५, मार्च २०११ (मार्कण्डेय स्मृति अंक)
डॉ० विजया सती
पूर्व एसोसिएट प्रोफ़ेसर हिंदू कॉलेज दिल्ली विश्वविद्यालय
पूर्व विजिटिंग प्रोफ़ेसर ऐलते विश्वविद्यालय बुदापैश्त हंगरी
पूर्व प्रोफ़ेसर हान्कुक यूनिवर्सिटी ऑफ़ फ़ॉरन स्टडीज़ सिओल दक्षिण कोरिया
प्रकाशनादि- राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय गोष्ठियों में आलेख प्रस्तुति और उनका प्रकाशन
सम्प्रति - स्वांत: सुखाय, लिखना-पढ़ना।
ई-मेल- vijayasatijuly१@gmail.com
डॉ. विजया सती मैडम नमस्ते। आपका आदरणीय मार्कण्डेय जी पर यह लेख बहुत जानकारी भरा है। मेरे लिये तो यह लेख मार्कण्डेय जी के बारे में जानने का सुनहरा अवसर था। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिए बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद।
ReplyDeleteआदरणीया विजया जी बहुत ही सुंदर एवं सरल शब्दों से सजा हुआ आलेख हैं। आदरणीय मार्कण्डेय जी की जीवनी और साहित्यिकदर्शन की जानकारी भी अत्यंत सुसज्जित मात्रा में रखी गयी हैं। सौम्य लेखन के लिए आपको हार्दिक बधाई और ढेरों शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविजया जी, मार्कण्डेय जी पर आपका आलेख बहुत अच्छा लगा। आपने बड़ी सहजता और सुरचिपूर्ण तरीक़े से उनके व्यक्तित्व और उसके निर्माण की बातें रखी हैं और उनके कृतित्व को बड़ी तरतीब से पेश किया है। गाँव की गलियों के पात्रों को अपना लेखन समर्पित करने वाले आदरणीय मार्कण्डेय जी को सादर नमन और आपको इस लेख के लिए आभार और बधाई।
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