राही मासूम रज़ा के साहित्य संसार का गहन अनुशीलन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि वे भारतभूमि के महान प्रतिभा पुत्र हैं। उनके सृजन में सामाजिक एवं राजनीतिक चेतना का यथार्थ परिलक्षित हुआ है। ऐसी बात नहीं है कि वे मनोवैज्ञानिक शक्ति का आश्रय पाकर कथा-साहित्य की रचना में प्रवृत्त घटना-प्रधान को महत्त्व नहीं देते। मनोभावों के उनके सूक्ष्म चित्रण में घटनाएँ स्वतः स्फुटित हो उठती हैं। पात्रों की मनोगति, भाव-भंगिमा, विचार, व्यक्तित्व निर्माण की क्षमता, परिस्थितिजन्य मानसिकता से जिन घटनाओं का जन्म होता है, उनमें दृष्टि और दर्शन होता है, तथा अन्य पात्रों या पाठकों के प्रति संप्रेषणीयता का भाव परिलक्षित होता है। राही व्यक्ति के अंतःकरण से उत्पन्न अनुभूति और व्यवहार जगत के संघर्षों की टकराहट से उत्पन्न घटनाओं को महत्त्व देते हैं। राही मासूम रज़ा की कहानियों और उपन्यासों में देश-विभाजन की तत्कालीन समस्याओं, राग-रंग, हास्य रोदन, सुख-दुःख की अभिव्यक्ति का प्रभाव देखा जा सकता है। प्रारंभिक कहानियों में उनके आदर्शवाद का आग्रह इन्हीं उपरोक्त कारणों की देन है। आदर्श की स्थापना में राही मासूम रज़ा ने मानवावस्था के जिन सोपानों को उद्घाटित किया है, उसमें सेवा, त्याग, सहिष्णुता, भाईचारा, प्रेम और स्नेह, शील और सौंदर्य, आदि उदात्त गुणों का आधिक्य है। हृदय-प्रदेश की उन्नत अवस्थाओं की स्थापना में रज़ा साहब कोरे भावुक नहीं हैं, वरन उन्होंने मानव-मन की प्रदीप्त भावानुभूतियों के उत्कर्ष से उपलब्ध उस दिव्यज्योति का दर्शन कराया है, जिसका अर्थ मनुष्य की परिभाषा को गौरव प्रदान करता है।
राही मासूम रज़ा स्वभावतः सामाजिक सरोकार के रचनाकार हैं। उन्होंने जिन सामाजिक विद्रूपताओं, समस्याओं एवं चुनौतियों को महसूस किया, उन्हें यथातथ्य रूप में पाठक के सामने रखने का प्रयास किया है। उनके 'आधा गाँव' उपन्यास में भारतीयता की ऐसी ख़ुशबू है, जिससे पाठक सुवासित हो भाव विभोर होते रहे हैं, और उनके रचना-संसार को पढ़कर एवं उसका अनुशीलन कर भारतीयता की वह परिभाषा समझते रहे हैं, जिसमें पाठक से सामाजिक यथार्थ का नग्न-सत्य से साक्षात्कार होता है।
डॉ० राही मासूम रज़ा का जन्म १ अगस्त १९२७ को एक संपन्न एवं सुशिक्षित शिया परिवार में गाज़ीपुर ज़िले के गंगौली गाँव में हुआ था। उनके पिता गाज़ीपुर की ज़िला कचहरी में वकालत करते थे। राही की प्रारंभिक शिक्षा गाज़ीपुर में हुई। बचपन में पोलियो हो जाने के कारण उनकी पढ़ाई कुछ सालों के लिए बाधित हो गई थी, लेकिन इंटरमीडिएट करने के बाद वे अलीगढ़ आ गए और यहीं से कला निष्णात (एम० ए०) करने के बाद सन १९६४ में उन्होंने अपने शोधप्रबंध 'तिलिस्म-ए-होशरुबा में चित्रित भारतीय जीवन का अध्ययन' पर पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। तत्पश्चात उन्होंने चार वर्षों तक अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य किया। अलीगढ़ में रहते हुए ही राही जी के भीतर साम्यवादी दृष्टिकोण एवं प्रगतिवादी चेतना का विकास हुआ और वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य हो गए। अपने व्यक्तित्व के इस निर्माण-काल में वे बड़े ही उत्साह से साम्यवादी सिद्धांतों के द्वारा समाज के पिछड़ेपन और समस्याओं को दूर करना चाहते थे और इसके लिए वे जीवनभर सक्रिय प्रयत्न भी करते रहे। राही सन १९६८ से बंबई में रहने लगे थे। वहाँ वे साहित्य सृजन एवं साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फ़िल्मों के लिए भी लिखते थे, जो उनकी जीविका का साधन था। उन्होंने ३०० से अधिक फ़िल्मों और १०० से अधिक दूरदर्शन के हिंदी धारावाहिकों के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन किया। उन्हें सबसे अधिक प्रसिद्धि महाभारत धारावाहिक के लिए पटकथा एवं संवाद लेखन से मिली, जिसकी प्रशंसा-रेटिंग ८६ प्रतिशत से अधिक थी और जो उस समय के सभी धारावाहिकों के शीर्ष पर था। फलतः राही जी को पटकथा सम्राट कहना अधिक उचित होगा। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे और अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यंत लोकप्रिय और जनप्रिय रहे। वर्ष १९७९ में आई फ़िल्म 'मैं तुलसी तेरे ऑंगन की' के लिए उन्हें पहली बार फ़िल्मफ़ेयर का सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखन पुरस्कार प्राप्त हुआ।
राहीजी का रचना संसार बहुत ही समृद्ध एवं विविधताओं से भरा हुआ है। उर्दू शायरी से उनकी रचना यात्रा का श्रीगणेश हुआ। प्रारंभिक दौर में वे लोकप्रिय शायरी, नज्में एवं गजलें लिखते थे। राहीजी ने १९४६ में लिखना आरंभ किया तथा उनका पहला उपन्यास 'मुहब्बत के सिवा' वर्ष १९५० में उर्दू में प्रकाशित हुआ। वे कवि भी थे और उनकी कविताओं का प्रथम संग्रह 'रक़्स-ए-मय' उर्दू में प्रकाशित हुआ। परंतु इसके पूर्व, वे एक महाकाव्य 'अठारह सौ सत्तावन' लिख चुके थे। उनकी रचना 'छोटे आदमी की बड़ी कहानी' परमवीर चक्र विजेता शहीद अब्दुल हमीद की वीरता, पुरुषार्थ एवं वतन मर मिटने के जज़्बे को समर्पित है। उसके बाद उनका बहुचर्चित उपन्यास 'आधा गाँव' वर्ष १९६६ में प्रकाशित हुआ, जिसने राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों की श्रेणी में लिखवा दिया। यह उपन्यास उत्तरप्रदेश के नगर गाज़ीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गाँव गंगोली में शिक्षा की दुर्दशा एवं शिक्षास्तर की कहानी कहता है।
राही जी ने स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है, "वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफ़र था। मैं गाज़ीपुर की तलाश में निकला हूँ, लेकिन पहले मैं अपनी गंगोली में ठहरूँगा। अगर गंगोली की हक़ीक़त पकड़ में आ गई, तो मैं गाज़ीपुर का महाकाव्य लिखने का साहस करूँगा।" उनका दूसरा उपन्यास 'हिम्मत जौनपुरी' मार्च १९६९ में प्रकाशित हुआ। 'आधा गाँव' की तुलना में यह जीवन चरित्रात्मक उपन्यास अत्यंत छोटा है। हिम्मत जौनपुरी लेखक के बचपन के साथी थे और लेखक का विचार है कि दोनों का जन्म एक ही दिन पहली अगस्त सन सत्ताइस को हुआ था।
उसी वर्ष राही का तीसरा उपन्यास 'टोपी शुक्ला' प्रकाशित हुआ। राजनीतिक समस्या पर आधारित इस चरित्र-प्रधान उपन्यास में भी एक गाँव-निवासी की जीवनगाथा पाई जाती है। राही इस उपन्यास के ज़रिए भारत-पाकिस्तान के विभाजन के कारण हिंदुओं और मुसलमानों के बीच आई दरार को चित्रित करते हैं। सन १९७० में प्रकाशित राही के चौथे उपन्यास 'ओस की बूँद' का आधार भी हमारे समाज की यही विकट सामाजिक समस्या है। इस उपन्यास में पाकिस्तान के बनने के बाद जो सांप्रदायिक दंगे हुए, उन्हीं का जीता-जागता चित्रण एक मुसलमान परिवार की वेदना एवं पीड़ा द्वारा प्रस्तुत किया गया है।
सन १९७३ में राही का पाँचवाँ उपन्यास 'दिल एक सादा काग़ज़' प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के रचना-काल तक सांप्रदायिक दंगे कम हो चुके थे। पाकिस्तान के अस्तित्व को स्वीकार लिया गया था और भारत के हिंदू तथा मुसलमान शांतिपूर्वक जीवन बिताने लगे थे। इसलिए राही ने अपने इस उपन्यास का आधार बदल दिया। अब वे राजनीतिक समस्या प्रधान उपन्यासों को छोड़कर मूलतः सामाजिक विषयों की ओर उन्मुख हुए। इस उपन्यास में राही ने फ़िल्मी कहानीकारों के जीवन की गतिविधियों, आशा-निराशाओं एवं सफलता-असफलताओं का वास्तविक एवं मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। सन १९७७ में प्रकाशित उपन्यास 'सीन ७५' का विषय भी फ़िल्मी संसार से लिया गया है। इस सामाजिक उपन्यास में बंबई महानगर के उस बहुरंगी जीवन को विविध दृष्टि से उभारने का प्रयत्न किया गया है, जिसका एक प्रमुख अंग फ़िल्मी जीवन भी है। इस उपन्यास में फ़िल्मी जगत से संबद्ध व्यक्तियों के जीवन की असफलताओं एवं उनके दुखःमय अंत का बड़ा जीवंत एवं मार्मिक चित्रण देखने को मिलता है।
राही मासूम रज़ा के कथा साहित्य का विश्लेषण करने से हम पाते हैं कि राही मासूम रज़ा का सातवाँ उपन्यास 'कटरा बी आर्ज़ू' सन १९७८ में प्रकाशित हुआ, जिसका आधार राजनीतिक एवं प्रशासनिक समस्या है। इस उपन्यास के द्वारा लेखक यह बताना चाहते हैं कि आपातकाल के समय सरकारी कर्मचारियों एवं अधिकारियों ने जनता को बहुत कष्ट पहुँचाया। पूरा शासन एवं प्रशासन-तंत्र आम जनता के प्रति बेरुख़ी का एक नमूना बन गया था। जनता के हितों की अनदेखी की जा रही थी। लोकतंत्र के मूल्यों की हत्या कर दी गई थी। सरकारी तंत्र द्वारा आम जनता का दमन एवं शोषण हो रहा था। आपातकाल का दंश एवं पीड़ा आम जनता ने जितनी भोगी, लेखक का मानस पटल उतना ही व्यथित एवं दुखी होता गया।
राही मासूम रज़ा की अन्य कृतियाँ हैं - 'मैं एक फेरी वाला', 'शीशे के मकाँ वाले', 'गरीबे शहर', 'क्रांति कथा' (काव्य संग्रह), 'हिंदी में सिनेमा और संस्कृति', 'लगता है बेकार गए हम', 'ख़ुदा हाफ़िज़ कहने का मोड़' (निबंध संग्रह) साथ ही उर्दू में प्रकाशित सात कविता संग्रह। इसके अलावा उन्होंने हिंदी फ़िल्मों के लिए बेहतरीन पटकथाएँ भी लिखी, जिससे सिने-जगत तो लाभान्वित हुआ ही, साथ ही उन्होंने फ़िल्म पटकथा लेखन की एक मिसाल स्थापित की। राही ने दस-बारह कहानियाँ भी लिखी हैं। जब वे इलाहाबाद में थे, तो पंद्रह-बीस उर्दू उपन्यास उन्होंने अन्य नामों से 'रूमानी दुनिया' के लिए लिखे थे। राही जैसे लेखक कभी भुलाए नहीं जा सकते। उनकी रचनाएँ हमारी उस गंगा-यमुना तहज़ीब की मिसाल हैं, जो वास्तविक हिंदुस्तान की परिचायक है। वे कहा करते थे, "मैं तीन माओं का बेटा हूँ - नफ़ीसा बेग़म, अलीगढ़ यूनिवर्सिटी और गंगा। नफ़ीसा बेगम मर चुकी हैं और अब साफ़ याद नहीं आतीं। बाक़ी दोनों माएँ ज़िदा हैं और याद भी हैं।" उनकी नज़्म वसीयत इन्हीं भावों पर आधारित है -
मेरा फ़न तो मर गया यारों
मैं नीला पड़ गया यारों
मुझे ले जाकर गाज़ीपुर की गंगा की गोदी में सुला देना
अगर शायद वतन से दूर मौत आये
तो मेरी यह वसीयत है
अगर उस शहर में छोटी सी एक नदी बहती हो
तो मुझको
उसकी गोद में सुला कर
उससे कह देना
कि गंगा का बेटा आज से तेरे हवाले है
प्रख्यात धारावाहिक 'महाभारत' की पटकथा ने उन्हें संपूर्ण विश्व में लोकप्रियता के शिखर पर पहुँचा दिया था। हमारे देश की संस्कृति में हिंदू तथा इस्लाम धर्मों की जड़ें गहराई तक एक दूसरे में इतनी मिली हुई हैं कि उन्हें अलग करना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है। शायद यही कारण है कि कविवर रसखान ने भगवान श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का वर्णन किया है और राही साहब ने महाभारत की अद्वितीय एवं अद्भुत पटकथा लिखी है।
कहा जाता है कि बी० आर० चोपड़ा ने राहीजी से सहमति लिए बिना ही उनको महाभारत के पटकथा लेखक के रूप में घोषित कर दिया था, इस बात को जानकर राही साहब नाराज़ हो गए थे। बी० आर० चोपड़ा को अपने इस चयन के लिए अनेक उलाहनाओं एवं आलोचनाओं का शिकार होना पड़ा था। उन्होंने अनेक ऐसे शिकायती पत्र जब राही साहब को दिखाए, तो उन्होंने दृढ़संकल्प के साथ महाभारत की पटकथा लिखने का निर्णय लिया और अंततोगत्वा विश्व प्रसिद्ध महाभारत महाकाव्य की पटकथा लिखकर अमर हो गए। प्रभात ख़बर के माध्यम से- धारावाहिक महाभारत की पटकथा लिखते समय राही ने व्यास के 'महाभारत' को अँग्रेज़ी, हिंदी, संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू लगभग उन तमाम भाषाओं में सौ से अधिक बार पढ़ा था, जिनमें वह उपलब्ध है। 'गीता' लिखते समय वह अलीगढ़ आकर रहने लगे थे। उनका कहना था कि गीता 'महाभारत' का सार है और उसे वह सुकून से लिखना चाहते हैं। उसी समय भारतीय जनता पार्टी के नेता श्री अटल बिहारी बाजपेयी ने उन पर यह आरोप लगाया था कि वे महाभारत में कृष्ण चरित्रकथा को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे हैं। तब राही साहब ने बाजपेयी जी से यह पूछा था कि क्या आपने महाभारत पढ़ी है? अटल जी के हाँ कहने पर राही साहब बिगड़ गए थे और कहा कि आप झूठ बोल रहे हैं, यदि आपने महाभारत पढ़ी होती तो मुझे यह यकीन है कि आपके जैसा पढ़ा लिखा व्यक्ति यह बयान नहीं देता, और अटल जी निरुत्तर हो गए थे। इस प्रकार के विमर्श से उनके अदम्य साहस एवं आत्मविश्वास का परिचय मिलता है।
उनके साहित्य में समय एवं समाज प्रतिबिंबित होता रहा है और वे आजीवन सामाजिक उन्नयन एवं सामाजिक चेतना को जागृत करते रहे और यही उनकी खास विशेषता रही।
उनकी एक मशहूर नज़्म -
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो
लेकिन मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है
मेरे लहू से चुल्लू भर महादेव के मुँह पर फेंको
और उस योगी से कह दो - महादेव
अब इस गंगा को वापस ले लो
यह ज़लील तुर्कों के बदन में गाढ़ा गरम
लहू बन कर दौड़ रही है
कलम का यह महान सिपाही,और ता-ज़िंदगी ख़ुद को किसी भी धर्म से परे भारत का बेटा कहने वाला इंसानियत का पुजारी १५ मार्च १९९२ को हम सब से रुख़्सत हो गया, पर अपनी सोच की ख़ुश्बू आज भी बिखेर रहा है।
संदर्भ
कटरा बी आर्ज़ू, डॉ० राही मासूम रज़ा, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, २००४।
हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास - रामस्वरूप चतुर्वेदी , लोकभारती प्रकाशन, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद।
हिंदी उपन्यास का नया दौर - सं० डॉ० राजेंद्र तिवारी, लोकगीत प्रकाशन, सेक्टर ३४ ए, चंडीगढ़-१६००२२।
हिंदी गद्य साहित्य - डॉ० रामचंद्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी।
आधुनिक साहित्य, नंददुलारे वाजपेयी, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली।
हिंदी भाषा साहित्य - किरण बाला, वी० के० पब्लिशिंग हाउस, बरेली, उत्तर प्रदेश।
आदमी दुनिया में कहीं भी चला जाए, उसे उसकी ज़मीन खींचती है। यह चुंबकत्व बड़ा शक्तिशाली है।राही मासूम रज़ा साहब ने इस चुंबक पर कई बार लिखा। रंजीत जी ने अंत में उद्धृत किया है :
ReplyDelete“मेरी रग-रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है”
बड़ा खूबसूरत काव्य है राही का :
१. रात ने ऐसा पेंच लगाया टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चाँद
(हम तो हैं परदेस में देस में निकला होगा चाँद )
२.यादों से बचना मुश्किल है उनको कैसे समझाएँ ,
हिज्र के इस सहरा तक हमको आते हैं समझाने लोग
३. जिन से हम छूट गए अब वो जहाँ कैसे हैं
शाख़-ए-गुल कैसी है ख़ुश्बू के मकाँ कैसे हैं
ऐ सबा तू तो उधर ही से गुज़रती होगी
उस गली में मेरे पैरों के निशाँ कैसे हैं
महाभारत के कथ्य में भी बार-बार अपनी जन्मभूमि से, अपनी ज़मीन से प्यार उमड़ उमड़ कर दिखाया है उन्होंने। अपनी ज़मीन से प्यार करने वाले इस साहित्यकार को सलाम।
रंजीत जी , इस सुंदर आलेख के लिए आपको बधाई । 💐💐
डॉ. रंजीत जी नमस्कार। आपका डॉ. राही मासूम रज़ा जी पर यह लेख बहुत बढ़िया है। राही साहब जन सरोकारों के साहित्यकार थे। उनका साहित्य और सिनेमा का जन जन में प्रभाव रहा। आपने इस लेख में राही साहब के रचनाक्रम को बखूबी उतारा। आपको इस रोचक लेख के लिये हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteरंजीत जी, इस बेहतरीन आलेख के लिए बधाई और आभार स्वीकार करें। राही मासूम रज़ा साहब के विस्तृत कृतित्व और विराट व्यक्तित्व को आपने बखूबी उकेरा है। बहुत अच्छा लगा पढ़कर।
ReplyDeleteकमाल, कमाल, कमाल! बहुत ही बढ़िया लिखा है आपने रंजीत जी! अध्ययन भी विशद है इस विषय पर आपका! साधुवाद!
ReplyDelete*इस सफर में नींद ऐसी खो गई*
ReplyDelete*हम न सोए रात थक कर सो गई*
हिंदी के अग्रणी उपन्यासकार, फ़िल्म संवाद लेखक और धारावाहिक महाभारत के संवादों के लिए प्रसिद्ध श्रद्धेय डॉ राही साहब साहित्य और समाज मे सर्वाधिक लोकप्रिय अभिव्यक्ति थे। उनका रचनासंसार साहित्य के दृष्टिकोण और विविध संदर्भों से अनुकूलित होता था। उनके साहित्य में शिल्प विधान, कथानक विधान, पात्र, चरित्र चित्रण और भाषा इत्यादि अतिवृस्तत होता था। आदरणीय डॉ रंजीत कुमार जी ने उनकी साहित्यिक प्रतिभा को इस आलेख द्वारा अति सुशोभित किया है। सुंदर और सरल शब्दों में लिखा गया यह आलेख उनके प्रति कृतज्ञता और उनको और जानने की गरिमा को प्रोत्साहित करता है। उनके जीवन की यथार्थता औऱ सत्य को उभारने वाले इस सुंदर लेख के लिए आपका धन्यवाद।
वाह...बहुत बढ़िया आलेख। रंजीत जी आपने प्रस्तुत लेख में डॉ राही मासूम रज़ा साहब के विशाल रचना संसार को समग्रता के साथ रेखांकित किया ही है। साथ ही उनके व्यक्तित्व के हर आयाम को भी उल्लेखित किया है। इस शोधपरक और रोचक आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई। आभार।
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