"विदेशों में अय्याशियों का कोटा पूरा करके मैं दिल्ली ऐसे लौटता हूँ, जैसे अपनी रखैल भागमती के पास। दिल्ली और भागमती में बहुत समानताएँ हैं। ज़ाहिल और बर्बर लोगों के हाथों लंबे समय तक रौंदे जाने के बाद दोनों ने ही अपने मोहक आकर्षण को विकर्षित करने वाली बदसूरती के मुखौटे में छिपाना सीख लिया है। अपना असली स्वरूप वे मुझ जैसे प्रेमी के सामने ही प्रकट करती हैं।"
भागमती कौन? - सांवले रंग का, चेचक के निशान से भरे चेहरे वाला एक कुरूप किन्नर, जिसका कद नाटा है, तंबाकू और बीड़ी से दांत ऊबड़-खाबड़ और पीले; कपड़े भड़कीले और आवाज़ ख़ासी तेज़; बातें भौंडी और व्यवहार बातों से कई ज़्यादा भौंडा।
खुशवंत सिंह का नायक उससे प्रेम करता है ठीक वैसे ही जैसे वह अपने शहर दिल्ली से करता है। किन्नर से प्रेम, प्रेम के अंतरंग क्षणों और नायक की व्याभिचारिता में गुँथी दिल्ली की छह सौ वर्षों की उठा-पटक से लेकर ८४ के दंगों तक की तफ़सीली दास्तान खुशवंत जैसे मनोवैज्ञानिक और इतिहासकार की बेखौफ़ और मँजी हुई कलम ही बयाँ कर सकती है। प्रेम, वासना, घृणा, हिंसा, प्रतिशोध और आँसुओं से भरी सदियों की इस गाथा को खुशवंत ने पच्चीस बरस अपने श्रम और समझ की मथनी से मथकर ४०० पन्नों के 'डेल्ही-ए नॉवेल' में सँजोया। 'डेल्ही' एक अंतर्राष्ट्रीय मास्टरपीस है।
सिंह एक ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने अपनी छवि की रत्ती भर भी परवाह तो नहीं की, बल्कि स्वयं उसके परखच्चे उड़ाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी पुस्तकों, स्तंभों, और स्वच्छंद टिप्पणियों से पाठकों, चाहने वालों और ना चाहने वालों के दिमाग में वे हमेशा अनुमान और अटकलें कौंधाते रहे। और फिर उन पर ही फ़ैसला भी छोड़ दिया - "मेरा काम सुबह ४:३० बजे शुरू होता है और देर शाम तक चलता है। आप खुद ही सोचिए, अगर मैं शराबी और औरतों के पीछे भागने वाला होता, तो क्या इतना काम कर पाता, जितना मैं करता हूँ? जो आदमी ८० से ज़्यादा किताबें लिखता है, उसके पास अय्याशी करने का कितना वक़्त होता है? न के बराबर!"
खुशवंत की ३० सालों की मित्र, पत्रकार और लेखिका सादिया दहलवी कहती हैं, "He was out to prove that he was a dirty old man, a drunk and a lecherous womaniser. He was none of the above."
सिंह के पत्रकार और लेखक पुत्र राहुल कहते हैं, "My dad was always surrounded by beautiful women. But nothing happened."
आगे राहुल सिंह कहते हैं, "He was very scared of my mom." इस बात से सिंह साहब भी पूरी तरह सहमत दिखे, "सरदारनी के कारण ही तो मेरे घर में इतना अनुशासन है। ठीक साढ़े बारह बजे लंच और फिर सिर्फ़ एक घंटे का आराम। सात बजते ही ड्रिंक और ठीक आठ बजे डिनर। बाकी का सारा वक़्त पढ़ना और लिखना।" हर शाम सात बजे के बाद से उनके कई भारतीय और विदेशी दोस्त उनसे मिलने आते थे। यह जॉनी वॉकर और टॉक टाइम था।
खुशवंत सिंह की प्रकाशक और संपादक, एकांतप्रिय पुत्री माला दयाल सुजान सिंह पार्क के अपने पैतृक घर में समय व्यतीत करते वक़्त कहती हैं, "कुछ लोग घर को संग्रहालय में बदलने की सलाह देते हैं, पर मुझे लगता है, संग्रहालय मृत जगहें हैं। ...अपने पिता की ज़िंदादिली बहुत याद आती है -आखिरी दिनों तक कैसे खाने और चटपटी बातों से उनकी आँखों में चमक आ जाती थी!"
खुशवंत सिंह का जन्म २ फ़रवरी १९१५ को अविभाजित भारत के एक मुस्लिम बहुल गाँव हदाली, पंजाब (अब पाकिस्तान में) के एक सिख परिवार में हुआ। खुशवंत जब पाँच वर्ष के थे, तब परिवार दिल्ली आ बसा। उनके पिता सर शोभा सिंह अपने समय के बड़े और प्रसिद्ध ठेकेदार थे। इतने बड़े कि उनका परिवार १९२० और ३० के दशक में सर एडवर्ड लुटियंस द्वारा डिजाइन की गई नई दिल्ली की बड़ी निर्माण परियोजनाओं में शामिल था। उस समय शोभा सिंह को आधी दिल्ली का मालिक भी कहा जाता था।
नई दिल्ली की पहली सह शिक्षा संस्था मॉर्डन स्कूल, दरियागंज में बालक खुशवंत का दाखिला हुआ। तीस बच्चों की कक्षा में तीन लड़कियाँ थी। कँवल इन तीन लड़कियों में एक थी। कँवल के पिता सर तेजा सिंह मलिक सेंट्रल पी० डब्ल्यू० डी० के पहले भारतीय चीफ़ इंजीनियर थे। सिंह बताते हैं, "हम मॉर्डन स्कूल की पहली ही जोड़ी होंगे, जो बीस साल बाद (३० अक्तूबर १९३९) विवाह बंधन में बँधे। …जब आप राष्ट्रपति भवन जाते हैं तो नार्थ और साउथ ब्लॉक के मेहराबदार ताखों में शिलापट्टों पर एक तरफ़ नई दिल्ली को बनाने वाले ठेकेदारों के नाम हैं, जिनमें मेरे पिता का नाम सबसे ऊपर है। दूसरी तरफ़ आर्किटेक्टों और इंजीनियरों के नाम हैं, जिनमें कँवल के पिता का नाम है।"
खुशवंत कभी भी पढ़ाकू किस्म के नहीं रहे और कम से कम पढ़ाई कर के काम निकाल लेने की कोशिश में रहते, इसलिए लगभग हमेशा ही तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मॉर्डन स्कूल और सेंट स्टीफेंस से शुरुआती पढ़ाई करने के बाद खुशवंत ने लाहौर गवर्नमेंट कॉलेज से स्नातक किया और कानून की पढ़ाई के लिए लंदन के किंग्स कॉलेज में दाखिला लिया। किंग्स कॉलेज - नाम ही शाही था, तो सिंह ने यूनिवर्सिटी कॉलेज या लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के बजाय इसे चुना और १९३४ में इंग्लैंड का रुख किया। १९३९ में एल० एल० बी० और बार० एट० लॉ० करने के बाद लाहौर लौटकर वकालत करने लगे। जल्द ही राजनयिक सेवा के तहत नौकरी मिली और ब्रिटेन में भारतीय उच्चायुक्त का प्रेस अटैची और सूचना अफ़सर बनकर लंदन गए। इन्हीं दिनों उनकी लिखी कहानियाँ ब्रिटेन और कनाडा की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में छपने लगीं। सिंह ने 'द पोर्ट्रेट ऑफ ए लेडी' लघु कथा के माध्यम से लंदन पत्रिका में एक लेखक के रूप में अपनी प्रतिष्ठा स्थापित की। १९५०-५१ में भारत लौटकर भारत-विभाजन पर अपना पहला उपन्यास 'मनो माजरा' लिखा, जिसे प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय 'ग्रोव प्रेस पुरुस्कार' से नवाज़ा गया। यह 'ट्रेन टू पाकिस्तान' के नाम से छापा गया, जिसपर १९९८ में पामेला रूक्स ने इसी नाम से हिंदी फिल्म बनाई। ब्रिटेन में काम करते समय सिंह सिख इतिहास, कला और धर्म पर शोध और लेखन करते रहे। १९६० के दशक की शुरुआत में उनका दो-खंडों का सिक्खों का इतिहास प्रकाशित हुआ - यह कृति सिखों के इतिहास की लगभग एक मानक कृति बन गई। समर्पित पक्षी प्रेमी (बर्ड वॉचर) खुशवंत ने पर्यावरण, फूलों और पक्षियों के बारे में भी लिखा। सिंह के 'आई शैल नॉट हियर द नाइटिंगेल' (१९५९), 'दिल्ली : ए नॉवेल' (१९९०) और 'द कंपनी ऑफ वीमेन' (१९९९) इंडो-इंग्लिश फिक्शन में मील का पत्थर माने जाते हैं। आत्मकथा 'ट्रुथ', 'लव एंड ए लिटिल मैलिस' (२००२) में उनके जीवन की प्रमुख घटनाओं का ब्यौरा है। हमरा कुरैशी के साथ उन्होंने 'एब्सोल्यूट खुशवंत : द लो-डाउन ऑन लाइफ', 'डेथ एंड मोस्ट थिंग्स इन-बिटवीन' (२०१०) और 'द गुड, द बैड एंड द रिडिकुलस' (२०१३) की रचना की। उनका अंतिम उपन्यास, 'द सनसेट क्लब' (२०१०) अस्सी की उम्र के बूढ़ों की राजनीति, दर्शन और शारीरिक सुख पर चर्चाओं पर आधारित है।
सिंह ने प्रतिष्ठित पत्रिकाओं एवं समाचार पत्रों जैसे 'दि इलसट्रेटेड वीकली', 'नैशनल हेराल्ड', 'न्यू डेल्ही', 'हिंदुस्तान टाइम्स' आदि का संपादन किया। ८० से ८६ तक खुशवंत राज्यसभा के सदस्य रहे। सन ७४ में मिली पद्मभूषण की उपाधि उन्होंने सन ८४ के 'ऑपरेशन ब्लू स्टार' के विरोध में लौटा दी। वर्ष २००७ में खुशवंत को पद्मविभूषण से विभूषित किया गया।
उनके कॉलम 'विद मैलिस टुवर्ड्स वन एंड ऑल' को पूरे भारत में सिंडिकेट किया गया था और भारत के कई राष्ट्रवादियों ने पाकिस्तान और मुसलमानों के प्रति उनके सौहार्दपूर्ण रवैये से उन्हें 'भारतीय धरती पर रहने वाला अंतिम पाकिस्तानी' भी करार दिया। व्यंग्य-विनोद की दुनिया में सिंह के संता और बंता का मुकाम अतुलनीय है। विनोद और सेन्स ऑफ ह्यूमर को सिंह बहुत तवज्जो देते थे। यहाँ तक कि अख़बार के स्तंभ का अंत वे एक चुटकुले से करना पसंद करते थे। जैसे उनकी लगभग हर विधा ने उन्हें प्रसिद्धि भी दिलाई और आलोचना भी, वैसे ही उनके चुटकुलों ने भी। कई संस्थानों ने इसे पारंपरिक मूल्यों पर आघात माना और उन पर आपत्ति जताई। सड़े-गले सामाजिक ढाँचों, धर्म-जाति, शराब-सेक्स आदि पर धड़ल्ले से अपनी कलम चलाते हुए धर्म को न मानने वाले इस पक्के सिख ने लगभग १०० अमूल्य किताबें विश्व साहित्य को दीं और जीवन के ९९ वें बसंत में (२० मार्च २०१४) अपनी दिल्ली की फ़िज़ाओं में सदा के लिए समा गया।
तो यों कि
"संता को शनिवार को कैसे हँसाया जाय, बुधवार को चुटकुला सुनाकर"।
"संता बर्फ़ क्यों नहीं जमा पाया, ओ जी, हर बार रेसिपी भूल जाता है"।
"डॉक्टर बोला, बंता, अगर तू ८ किलोमीटेर रोज़ दौड़ेगा तो ३०० दिन में ३४ किलो वज़न कम कर लेगा।
३०० दिन के बाद बंता का फ़ोन आया, डॉ० साब, वज़न तो कम हो गया, बस एक समस्या है?
क्या?
बस, ये कि घर अब २४०० किलोमीटर दूर है"।
आप हँसे!
मुस्कुराए!
तो बस, खुशवंत हैं!
संदर्भ
दिल्ली: ए नॉवेल (खुशवंत सिंह)
'I miss my father’s liveliness', says Khushwant Singh’s daughter, Lifestyle News, The Indian Express
मेरे साक्षात्कार - खुशवंत सिंह
छायाचित्र साभार : Khushwant Singh | The Times (२००४)
लेखक परिचय
आई टी प्रोफेशनल, कवि, लेखिका और अध्यापिका।
प्रथम काव्य संग्रह 'जीवन वृत्त, व्यास ऋचाएँ' भारतीय उच्चायोग, लंदन से सम्मानित और भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा २०२० में प्रकाशित। कहानी के माध्यम से जर्मन सीखने के लिए बच्चों की किताब 'श्पास मिट एली उंड एजी' गोयल पब्लिशर्स द्वारा २०१४ में प्रकाशित।
लंदन में निवास, पर्यटन में गहरी रुचि, भाषाओं से विशेष प्यार।
ईमेल - richa287@yahoo.com
पसंदीदा दिल्ली हो या वहाँ के बाशिंदे, पाकिस्तान
ReplyDeleteकी रेल यात्रा या शायरों पर किताब, सम्पादन या व्यंग्य, लेखन के अपने हर अन्दाज़ से हैरान करने वाले ख़ुशवंत सिंह को नमन।
होली आज के इस आलेख से निश्चित रूप से अधिक रंगीन हो गयी।
ऋचा, तुम्हें इस सुंदर लेखन की बधाई और आभार।
ऋचा जी नमस्ते। खुशवंत सिंह जी पर आपका यह लेख बहुत बढ़िया है। खुशवंत सिंह जी की बेबाकी उनके व्यक्तित्व एवं साहित्य में भरी हुई है। उनका जीवन जीने का अंदाज बेहतरीन था, जिसमें खुशियों की जगह अधिक थी दुःखों की कम। हालाँकि वो विवादों में भी रहते थे और उसका आनंद भी लेते थे। आपका यह लेख उन्हीं के अनुरूप विविध रंगों से भरा है। आपको इस लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteखुशवंत सिंह के किस्से , उन के साहित्य से अधिक पापुलर है । बाकि आप ने प्रयास , बहुत अच्छा किया है ।
ReplyDelete- बीजेन्द्र जैमिनी
पानीपत - हरियाणा
नाम जैसे खुशरंग साहित्यकार माननीय खुशवंत जी की रचनाओं से ऐसा प्रतीत होता था कि वह हमारे निकट खड़े होकर हमारे ही कंधे पर हाथ रखकर बातें करते हो। उन्हें साहित्य जगत में असली पहचान *इलेस्ट्रेटेड वीकली पत्रिका* के संपादक के रूप में मिली। ऊपर से आधुनिक दिखनेवाले खुशवंत सिंह जी अंदर से बहुत ही रुढ़िवादी शख़्श थे। अपने लेखन में किसी का भी आलोचनात्मक मूल्यांकन करने में वह कभी पीछे नहीं हटते थे। आदरणीया ऋचा जी ने भी खुशवंत जी के व्यक्तित्व को उभारने में इस लेख के द्वारा लेखन में कोई कंजूसी नही की है। बेहद ही खूबसूरत ढंग से लेख का प्रस्तुतिकरण करने के लिए आपका आभार और *हिंदी से प्यार हैं* परिवार-जनों को होली की रंग और हुल्लड़भरी शुभकामनाएं। आओ सब मिलकर थंडाई पीने चलते हैं।
ReplyDeleteखुशवंत सिंग को परस्पर विरोधी काम करके विवाद में घिरे रहना अच्छा लगता था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के समर्थक खुशवंत सिंग ने सैटेनिक वर्सेज देखी नही और भारत सरकार को इस पर प्रतिबंध लगाने का मशवरा दे दिया। उन्हे पता नही था कि वे कीड़ों से भरा जार खोल रहे हैं। पाकिस्तान चौक गया यह कौनसी पुस्तक है जिस को भारत बैन लगा रहा है? फिर रशदी की स्वतंत्रता और उसके जीवन का क्या हुआ किसी से छुपा हुआ नही है
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