Monday, March 7, 2022

अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले स्वच्छंद रचनाकार: अज्ञेय



'अज्ञेय' साहित्य-जगत् का बहुत आदरणीय नाम है। वे सेतु कवि हैं। हिन्दी जगत् में छायावाद के स्वर्णयुग से लेकर नयी कविता और साठोत्तरी कविता की पुत्रियों तक वे विन्ध्याचल की भाँति फैले हुए हैं। साहित्य में अज्ञेय के साथ ही प्रयोगवाद का पदार्पण हुआ। यद्यपि इससे पहले प्रगतिवाद पाँव पसारे हुए था। इनसे जुड़कर नयी कविता आई। सच तो यह है कि नये कवियों में अज्ञेय सबसे प्रखर व्यक्तित्व के कवि बनकर उभरे। उनकी कविताओं के साक्ष्य पर कहा जा सकता है कि वे आधुनिक  हैं, नये हैं और आजीवन अडिग चलते रहने का दम रखते हैं। उन्हें प्रयोगवाद का प्रवर्तक (प्रथम नहीं) और नयी कविता का शलाका पुरुष कहा गया है। उनका पूरा नाम सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ है। उनका जन्म ७ मार्च १९११ को उत्तर प्रदेश के कुशीनगर(देवरिया) (गोरखपुर मंडल) में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीहीरानन्द वात्सायन था। प्रसाद के पश्चात अज्ञेय जैसा बहुमुखी साहित्यकार कोई  दूसरा दिखाई नहीं देता। 

अज्ञेय  की रुचियाँ बहुमुखी थीं, खासकर उन सब बातों में जिससे साहित्य का सीधा नाता न हो, जैसे चित्रकला, मूर्तिकला, फोटोग्राफी, मनोविश्लेषण और डाक्टरी का ख़ब्त उनपर भरपूर रहा तो दूसरी तरफ नदी-नालों और पहाड़ों-झीलों के आसपास भटकने का भी आनन्द लेते रहे। वे मूलतः यायावरी वृत्ति के अन्तर्मुखी व्यक्तित्व वाले थे। आत्मचिंतन और आत्मविश्लेषण की प्रवृत्ति उनके विरल व्यक्तित्व की अतिरिक्त विशेषता थी।

अज्ञेय की छवि एक विवादास्पद कवि की भी रही है। उन्होंने उत्तर-छायावादी कवियों के साथ काव्य-जगत् में प्रवेश किया जब आवेगमयी उच्छ्वासयुक्त कविता लिखी जा रही थी। निराशा, हताशा और नियति की अभिव्यक्ति में गीतों का माधुर्य बिखर रहा था। यद्यपि अज्ञेय की कविता-यात्रा की शुरुआत गीत-सृजन से ही होती है--'भग्नदूत' से 'पूर्वा' तक। इस क्रम में गीत का शरीर भले ही गलता गया किन्तु आत्मतत्व-कण छिटक-छितराकर उत्कृष्ट अज्ञेय-काव्य और अज्ञेय गद्य-खण्डों में समाहित हुए। रेखांकित विशेष यह कि यहाँऔर अन्त तक, जहाँ भी अज्ञेय-कविता मानक या कुछ महान हुई वहाँ वह गीत का साथ नहीं छोड़ पायी। अज्ञेय  के गीत-काव्य को अगर वस्तुपरक व्यापक दृष्टि से देखा जाय तो प्रमुखतः वह नर-नारी के प्रेम पर आधारित है।

'चिन्ता' सचमुच में यातना और चिन्ता की बात लेकर आया था। 'चिन्ता' के लगभग सभी गीत और अन्य संग्रहों के (पूर्वा तक) गीत इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। 'पूर्वा' में संकलित भग्नदूत खण्ड के अन्तर्गत कुछ गीत तथा गीतात्मक रचनाएँ भक्ति-रस भी हैं--असीम प्रणय की तृष्णा, नहीं तेरे चरणों में, कहो कैसे मन को समझा लूँ -- विशेष पठनीय हैं। इन पर छायावादी-रहस्यवादी प्रभाव पड़ा है। अज्ञेय  के आरंभिक गीत-सृष्टि  से इतना स्पष्ट  है कि कवि ने अपने मनोभावों-रागों को  गीत के माध्यम  से व्यक्त करना चाहा है लेकिन उसके पास छायावाद संरचनात्मक शैली-प्रवृत्ति से पृथक कहने के लिए कुछ खास नहीं है-- न हीअभिव्यंजना कोई नया रास्ता खोज पा रही है। रूढ़ उपमानों, प्रचलित प्रतीकों तथा घिसे-पिटे बिम्बों-रूपकों के प्रयोग से इन गीतों से न तो छायावादी अभिव्यंजना का नया बोध व्यक्त हुआ है, न उत्तरार्द्ध के गीतकार-कवियों जैसा, अभिव्यक्ति की दिशा में, सहज-सुबोध जन-मन का मुहावरा ही है। 

काव्य-विश्लेषण

"भग्नदूत" में व्यक्ति की प्रणय-पिपासा अहमन्यता, कुंठा, हताशा, खीझ जाहिर होती है; महत्वाकांक्षाएँ भूखी बिल्ली की अंधेरे में चमकती हरी-हरी आंखों-सी लगती हैं, किन्तु आश्चर्यजनक यह है कि यहाँ से आगे (का) प्रकृति-राग जीवन-दर्शन और अन्तर्यात्रा के संवेदनशील पक्ष बहुत चमकीली शैली में सम्प्रेषित होते गए--ऐसा अन्यत्र  दुर्लभ है। "चिन्ता" कृति में १९३२-३३ से १९३६ तक के गीत हैं। इन छह गीतों में गीतात्मक गद्यात्मक गूँजें हैं। इनमें भावोन्मेष भी है और विवेक-वेग भी। प्रेयसी के साथ पुरुष के आदिम प्रणय-भावों, संघर्षों-सम्बन्धों का, बुद्धि के धरातल पर से मर्मस्पर्शी अभिव्यंजन करना कवि का लक्ष्य रहा। कुल मिलाकर "चिन्ता" के गीत आत्मपरक हैं।

"पूर्वा" संकलन में कवि का आत्म-विद्रोह ध्वनित हुआ है। कवि का स्वर ओजस्वी है तथा उसकी दृष्टि अपने विषण्ण राजनीतिक-सामाजिक परिवेश पर ठहरती है। इसके लिए घृणा का गान, बन्दी का गान, अखण्ड ज्योति, दिवाकर के प्रति दीप, रक्तस्राव वह मेरा साकी जैसी रचनाएँ ओजपूर्ण हैं। किन्तु निश्चय ही इन रचनाओं में 'दिनकर' काव्य जैसी स्वर-बुलन्दगी नहीं, न पं. माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन, नेपाली, सोहनलाल द्विवेदी  तथा भगवतीचरण वर्मा के काव्य के जैसा राष्ट्र  और मानववाद भाव-बोध ध्वनित हुआ है। यहाँ अज्ञेय के असन्तुष्ट  कवि का स्वर है। अगर अज्ञेय  का अहम् जन-मन की चिन्ता में रमकर मुखरित होता तो इन गीतों का अपना मानववादी-राष्ट्रवादी मूल्य-महत्व स्थापित होता। पर ऐसा नहीं हुआ।

अज्ञेय मूलतः गीतकार कवि हैं। उनके काव्य में गीत की आत्मपरकता तथा अनुभूति की लय अनुस्यूत है, भले ही वह स्वर-ताल-लय, टेक-अंतरा आदि के निर्वाह में पूर्ण अनुकूल नहीं है। अज्ञेय के गीतों की उल्लेखनीय असमर्थता यह है कि भाषा जीवन-संघर्ष की नहीं है और न वह छायावादी शैली के अनुरूप है। वे एक सफल सम्पादक हैं, आलोचक हैं, कथाकार हैं, पर इस हर होने के पीछे उनका 'कवि मनीषी' ही है। सन् १९५० तक रचित उनके काव्य में कुछ उदात्त काव्यांश भी हैं। प्रायः उनकी लघु कविताएँ, लम्बी कविताओं की अपेक्षा कुछ उदात्त रहीं हैं। बकौल कवि--'लम्बे सर्जना के क्षण कभी भी खो नहीं सकते।' "इत्यलम्" संग्रह १९४६ में प्रकाशित हुआ। संग्रह की कविताएँ पाँच खण्डों में विभक्त हैं, पहला खण्ड "भग्नदूत", जिसकी चर्चा ऊपर की जा चुकी है। अन्य चार खण्ड  हैं--बन्दी-स्वप्न, हिय हासिल, वंचना के दुर्ग और मिट्टी की ईहा। बन्दी-स्वप्न में कवि की आत्मा का रुदन और हाहाकार व्यक्त हुआ है, हिय हासिल  में कवि ने अपने विशिष्ट रहस्यवाद का परिचय दिया है। वंचना के दुर्ग-खण्ड में कवि यौन-कुंठाओं का प्रकृति पर प्रभाव बताते हैं। मिट्टी की ईसा खण्ड में कवि की चेतना उसके शीर्षक के अनुरूप ही गूढ़ भाव ग्रहण कर लेती है। यथा-


अवतंसों का वर्ग हमारा
खड्गधार भी, न्यायपूर्ण भी
हमने क्षुद्र तुच्छता जन से
अनायास ही बांट लिया
श्रम भार भी, सुख भार भी-
बल्कि गढ़ गये हैं आगे भी-
हम निश्चय ही हैं उदार भी
(पृष्ठ 168)

"बावरा अहेरी" अज्ञेय-कविता की पहली कृति है जो आगे और पीछे के सर्जनात्मक बोध की कड़ी है। यह अज्ञेय के कवित्व-विकास में ऐतिहासिक महत्व रखता है। इसके निवेदन में अज्ञेय ने लिखा है, “...साहित्य कला और सहृदय समाज के प्रति आस्था और कुछ मूल्यों के प्रति उदासीन या निष्ठावान समाज में मूल्यों के आग्रह पर टिका भी रह सकूँ। अज्ञेय-कविता जैसी सहजता-सुन्दरता-सुगठित सुडौल कृति किसी और कृति में दुर्लभ है। "इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे" में यथार्थ बोध और जनप्रिय वाक् के बीच रिफाईंड रचनात्मक बोध का एक द्वन्द्व चल रहा होता है। यहाँ उत्कृष्ट और आश्चर्यजनक यह है कि यह समूची कविता जैसी भी है, प्रतिबद्ध होने के आरोप से मुक्त है। इसमें मनःस्थिति और सर्जना की स्वायत्तता है।

"अरी ओ करुणा प्रभामय" में कुछ कविताएँ अनूदित हैं इसलिए इनमें मौलिकता कम लगती है, किन्तु अज्ञेय का तिलिस्म यहाँ भी कायम है किसी एक काया में किसी और का जीव डाल देना कोई मामूली काम नहीं होता। शायद ब्रह्मा के सृजन से छोटा तो यह होता ही नहीं। इसीलिए  कवि को काव्य-सृष्टि का ब्रह्म (भी) कहा गया है, क्योंकि यह सृजन का पुनर्सृजन है। यह शायद मौलिक सृजन करने से ज्यादा चमत्कारपूर्ण सृजन-प्रक्रिया का साक्ष्य होता है। दरअसल "अरी ओ करुणा प्रभामय" की कविताएँ एकभाषा-भूमि पर उगी वे लय-लताएँ हैं जिन्हें भारतीय भाषा-भूमि पर इस चमत्कार  से लगाया गया है कि उनकी फूलन और महक में कुछ और आकर्षण और अतिरिक्त  आनन्द होता है। देखिए-


'नदी की बाँक,
गोरी चमक बालू की
विदा की आर्द्र लालिमा
मेघ की रेखा--'

अनूदित होकर भी आस्वादन  के अर्थ में ये कविताएँ उतनी उम्दा और 'टेस्टी' हैं जितनी अपनी होती हैं या हो सकती हैं। निश्चय  ही अज्ञेय का काव्य  पाठक को अभिभूत करता है और आस्वादन  कराने का काव्य है।

"आँगन के पार द्वार" कृति की कविताएँ निसर्ग के सौन्दर्य-बोध की दृष्टि से विशिष्ट हैं। अज्ञेय-कविता में जो प्रतीक-बिम्ब प्रस्तुत होते हैं वे वैसे रँगीन फिल्मों में खिंचे चलते-फिरते दिलफरेब से होते हैं। कवि को सागर से गहरा लगाव है--वह जीवन को सागर सा देखना चाहता है,

पहले सागर आंका
विस्तीर्ण प्रगाढ़ नीला,
ऊपर हलचल से भरा,
पवन के थपेड़ों से आहत,
शत- शत रंगों से उद्वेलित,
फेनोर्मियों से टूटा हुआ,
किन्तु प्रत्येक टूटने में
अपार शोभा लिए हुए,
चंचल उत्सृष्ट--जैसे जीवन!

भारतीय ज्ञानपीठ-पुरस्कार से सम्मानित "कितनी नावों में कितनी बार" का संवेदनात्मक बोधनिर्वैयक्तिक होता हुआ  प्रबोध बनाने का माद्दा रखता है। जिजीविषा के प्रति अगाध आस्वादन निसर्ग के स्तर-से अस्तित्व की पहचान की जिज्ञासा; जीवन-यात्रा में सबसे अलग होकर व्यक्तित्व  की पहचान; वस्तुओं तथा तथ्यों के प्रति तर्क व संदेह; समाधान के लिए बौद्धिक द्वन्द्व; प्रीति की प्यास, पीड़ा, प्रकृति का सनातन एवं स्वायत्वधर्मा सौन्दर्यार्षण और क्षण-क्षण में उद्भासित रूपों रंगों, रसों, रागों और रिक्तता के सत्य का अनुसंधान--इतने व्यापक विविध कथ्य को इस कृति में ध्वनि दी गई  है। 

"क्योंकि उसे मैं जानता हूँ" में कुल चौवन कविताएँ हैं। इनमें आधुनिक-सामयिक संगीन प्रासंगिक सन्दर्भों में जीते-जूझते जाता मानव-जीवन की क्रूर नियति की तथा व्यक्तित्व की छीलन-छीजन-टूटन और सबसे महत्वपूर्ण मर्म की मुक्ति के गहरे सन्दर्भों; मूल्यों की पहचान, खोज की ध्वनि आंच-सी सुलगती है। "सागर-मुद्रा" में सोलह कविताएँ ग्रीक भाषा से अनूदित हैं। 'अरी ओ करुणा प्रभामय' की शब्द-कला का यहाँ उत्कर्ष प्रतीत होता है। कुछ कविताओं में उदात्त और सहज का सम्मिलित अभिव्यंजन भी हुआ है। "पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ" में विशेष रेखांकन यह है कि इसमें कंट्रास्ट की अभिव्यक्ति उपकरण क्षण-क्षण में खोज लेने की प्रबल प्रवृत्ति-विकास के परिणाम प्रतीत होते हैं। इसमें कुछ कविताएँ विदेशी-सन्दर्भ की हैं। उनमें प्रस्तुत ऋतु-चित्र और परिदृश्य भी विदेशी हैं। बावजूद इसके इसमें भारतीयता की बारीक झलक भी दिखाई देती है।

यूंकि,

पारदर्शी पलकें

और आंखें? सब -कुछ

उनमें कहा जाता है--

वे कुछ  नहीं बताती

आत्मा की खिड़कियाँ।

(पृष्ठ 47)

प्रयोगवादी विवृत्ति

अज्ञेय की यह मान्यता कि सृष्टि में चिन्तन का मूल विषय ही स्त्री-पुरुष का चिरन्तन प्रेम-व्यापार था, फ्रायड की मान्यता के अनुकूल है। इसी भाव को व्यक्त करने लिए उन्होंने यौन प्रतीकों का सहारा लिया है। मनोवैज्ञानिक यथार्थ के नाम प्रयोगवाद में जो भी चित्रण अज्ञेय ने किए हैं उन पर फ्रायड का प्रभाव स्पष्ट है। 'कला, कविता या साहित्य को प्राणवान बनाने में कलाकार के अहं का प्राण और उसकी चेतना का योग है। प्रयोगवादी काव्य का परिवेश ही कुछ ऐसा था कि सांस्कृतिक, वैयक्तिक, सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्र में टूटन और घुटन व्याप्त हुई थी। अज्ञेय के प्रयोगवादी कवि के सामने कई अन्तर्विरोध थे। व्यष्टि और समष्टि के सम्बन्धों में विश्रृंखलता आ जाने से टूटन की स्थिति पैदा हो जाती है। अज्ञेय की उस मान्यता के अनुरूप ही है कि आधुनिक युग का साधारण व्यक्ति यौन वर्जनाओं का पुंजी है।

अप्रतिम प्रतीक-बिम्ब 

भावात्मक और अभिव्यंजनात्म दोनों दृष्टियों से प्रतीक का काव्यात्मक मूल्य है। अज्ञेय-कविता में प्रतीक और बिम्ब के प्रयोग प्रभावशाली हैं। कवि की भावभूमि, कला और चेतना तथा सौन्दर्य-बोध में अन्तर्दृष्टि प्रदान करने वाले ये परीक्षण ही हैं। अज्ञेय ने युगीनबोध और गति को समझकर उसे जीवन के यथार्थ सत्य के रूप में वाणी दी है और इसके लिए उन्होंने जीवन्त प्रतीकों और बिम्बों का प्रचुर प्रयोग किया है। उन्होंने न सिर्फ कुंठा अन्तर्मन की दुरूस्त को ही व्यक्त नहीं किया है बल्कि परिवेश को सच्ची अभिव्यक्ति दी है।

अज्ञेय  के कई संकलनों के नाम भी प्रतीकात्मक हैं। इत्यलम् छायावादी रचनाओं की समाप्ति का प्रतीक है तो 'आंगन के पार द्वार 'से आध्यात्मिकता ध्वनित होती है। उनके ऋतु-चित्रों में प्रमुखतः प्रतीकात्मक प्रयोग सरलता, सुता और सुबोधता की दृष्टि से हुआ है। सागर, पेड़, मछली, चांद, सूरज, तारे, नदी, पर्वत इनकी कविताओं में प्रतीकात्मक ढंग से काव्य-सौष्ठव की सृष्टि करने में सहायक है। अज्ञेय की प्रतीक योजना में पर्याप्त विविधता है। प्रतीकों के माध्यम से सत्यान्वेषण करते हुए उन्होंने  अपनी सौन्दर्यानुति और जीवनानुभूति को मूर्त रूप प्रदान किया है।

अज्ञेय  की काव्य-भाषा

अज्ञेय की भाषा के अनेक रूप हैं। वे केवल प्रयोगधर्मी न होकर आज के सर्जक और शब्द-अन्वेषक के रूप में शब्द-साहचर्य की खोज करते एवं शब्द-योजना द्वारा अर्थवत्ता की सृष्टि करते हैं। उनकी छन्द-मुक्त रचनाओं की शब्द-संगति में अन्तर्निहित शब्द-संयोजन मिलता है।  जहाँ शिल्प के विविध अँग नवीन प्रयोग से युक्त रहे, वहीं छन्द के प्रति नवीनता का आग्रह भी है। चूँकि अज्ञेय की कविता-भाषा में तत्सम-तद्भव शब्दों के साथ अनेक अप्रचलित आंचलिक और देशज शब्दों, क्रिया-पदों, विशेषणों, प्रतीकों, बिम्बों, रूपकों के आकर्षक चेहरों को कहीं भावमयता की तो कहीं दार्शनिकता की कथनी है तो कहीं मुद्रा में मौन की मनमोहिनी है। खास बात यह है कि उनकी भाषा की संरचनात्मक-शैलीगत एक खास नितान्त है। संरचनात्मक यह शिनाख्त़ स्थिर है, कबीर की काव्य-भाषा की तरह उसमें बहते नीर की-सी रवानी नहीं है। अज्ञेय-कविता की भाषा के शब्दों के रूप कठिन से कठिन भी हैं और सरल से सरल भी।

अज्ञेय-कविता की सर्वाधिक मूल्यवान वस्तु रोमान की है जिसमें काव्यमूल्यों की अभिव्यक्ति को खुलकर खेलने-खिलखिलाने का मुक्त-स्वर मिला है। उनकी कविता में कॉन्ट्रास्ट-कॉन्टेंट-क्राफ्ट के उपकरणों का, आत्म-अनुभव का अनुसंधान और उसका क्षण-पटल पर अंकन 'हरा अँधकार' में लक्ष्य-लक्ष्यार्थ है। अज्ञेय के शब्दों में--

'भाषा की शक्ति

यह नहीं कि उसके सहारे

सम्प्रेषण होता है

शक्ति इसमें है कि उसके सहारे

वह सम्बन्ध  बनता है जिसमें

सम्प्रेषण सार्थक होता है'


  

अज्ञेय: सक्षिप्त जीवन परिचय

पूरा नाम

सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन ‘अज्ञेय

जन्म

७ मार्च १९११, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश

मृत्यु

४ अप्रैल १९८७, दिल्ली

पिता

पण्डित हीरानन्द शास्त्री

भाषा-ज्ञान

संस्कृत, फ़ारसी, अँग्रेज़ी, बांग्ला, हिन्दी

 

शिक्षा एवं व्यवसाय

१९२५-१९२७

पंजाब एंट्रेन्स की परीक्षा पास कर मद्रास क्रियश्चन कॉलेज से इन्टर किया।

१९२७-१९२९

लाहौर के फ़ॉरमन कॉलेज से बीएससी किया; तत्पश्चात एम ए (अँग्रेज़ी) में दाखिला लिया किन्तु क्रन्तिकारी गतिविधियों के कारण पढ़ाई छोड़नी पड़ी।

व्यवसाय

लेखक, कवि, पत्रकार, उपन्यासकार, क्रान्तिकारी

अज्ञेय  की रचनाएँ

कविता- संग्रह

भग्नदूत १९३३, चिन्ता १९४२, इत्यलम् १९४६, हरी घास पर क्षण भर १९४९, बाँवरा अहेरी १९५४, इन्द्रधनुष रौंदे हुए थे १९५७, अरी ओ करुणा प्रभामय १९५९, आँगन के पार द्वार १९६१, पूर्वा इत्यादि और हरी १९६५, सुनहले शैवाल १९६६, कितनी नावों में कितनी बार १९६७, क्योंकि मैं उसे जनता हूँ १९७०, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूँ १९७६, महावृक्ष के नीचे १९७७, नदी की बाँक पर छाया १९८१, ऐसा कोई  घर देखा आपने १९८६, प्रिज़न डेज़ एण्ड अदर पोम्स (अँग्रेज़ी में) १९४६.

कहानियाँ

विपथगा १९३७, परम्परा १९४४, कोठरी की बात १९४५, शरणार्थी १९४८, जयदोल १९५१, अमर बल्ली और अन्य कहानियाँ १९५४, कड़ियाँ और अन्य कहानियाँ १९५७, अछूते फूल और अन्य कहानियाँ १९६०, ये तेरे प्रतिरूप १९६१, जिज्ञासा और अन्य कहानियाँ १९६५

उपन्यास

शेखर: एक जीवनी (प्रथम भाग (उत्थान) १९४१; द्वितीय भाग (संघर्ष) १९४४), नदी के द्वीप १९५२, अपने-अपने अजनबी १९६१

निबन्ध

त्रिशंकु १९४५, सबरँग १९४६, आत्मनेपद १९६०, हिन्दी साहित्यः एक आधुनिक  परिदृश्य १९६७, आलवाल

भ्रमण-वृत्तान्त

अरे यायावर रहेगा याद? १९५३, एक बूँद सहसा उछली १९६१

सम्पादन

आधुनिक हिन्दी साहित्य (निबंध-संग्रह)१९४२, तार सप्तक (कविता-संग्रह)१९४३, दूसरा सप्तक (कविता-संग्रह) १९५१, पुष्करिणी भाग-२ १९५३, नेहरू अभिनन्दन ग्रन्थ १९४९, नये एकाँकी १९५२, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ १९५२, तीसरा सप्तक (कविता-संग्रह) १९५९, पुष्करिणी सम्पूर्ण १९५९, रूपाम्बरा १९६९

नाटक

उत्तर प्रियदर्शी १९६७

संस्मरण

स्मृति लेखा

विचार गद्य

संवत्सर

डायरियाँ

भवन्ति, अन्तरा और शाश्वती

प्रमुख पुरस्कार

साहित्य  अकादमी

आंगन के पार द्वार पर १९६४

ज्ञानपीठ 

कितनी नावों में कितनी बार १९७९

 

अंतर्राष्ट्रीय 'गोल्डन रीथ' पुरस्कार

 

सन्दर्भ:

 

लेखक परिचय:

डॉ. राहुल श्रीवास्तव: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ एवं हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा पुरस्कृत वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. राहुल की अब तक पैंसठ कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें प्रमुख हैं महाभारत: मूलकथा (दो भाग), श्रीमद्भगवद्गीताः मूलकथा (दो भाग) जिनमें लेखक ने नयी स्थापनाएँ दर्ज की हैं।  रामायणः मूलकथा (3 भाग), बीसवीं सदी हिन्दी के मानक निबन्ध (प्रस्तावना: लेखक डॉ. रामदरश मिश्र)। अखिल भारतीय स्तर पर राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में इनका विशिष्ट योगदान है।

इन्टरनेशनल बायोग्राफिकल्स सेंटर, कैम्ब्रिज, इंग्लैंड द्वारा International who in poetry and poets Encyclopedia में संक्षिप्त परिचय प्रकाशित है। डॉ. राहुल की रचनाओं पर कई विश्वविद्यालयों में शोध-कार्य सम्पन्न हो चुका है।

मो: 9289440642; ई-मेल: rahul.sri1952@gmail.com

7 comments:

  1. अज्ञेय जी के जीवन के प्रत्येक पहलू से परिचित कराते हुए इस उत्कृष्ट आलेख हेतु हार्दिक बधाई एवं आभार आदरणीय । एक निवेदन है, आलेख में इनकी जन्मतिथि में भिन्नता होने के कारण पाठकों को भ्रांति हो सकती है । यहां प्रारंभ में 9 मार्च तथा अंत में परिचय में 7 मार्च अंकित है । कृपया सुधार कर हिंदी प्रेमियों को अनुगृहीत करें ।
    धन्यवाद

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  2. सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय से परिचय तो विद्यालय में ही हो गया था। लेकिन अज्ञेय से पहचान नहीं हुई थी। मैंने अज्ञेय को तब पहचाना जब यह पढ़ा :
    “वन सा खुला हूँ मैं चारों ओर
    वन सा मैं बंद हूँ ।
    शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
    मैं सन्नाटे का छंद हूँ ।”
    अज्ञेय का काव्य बहुत कम में बहुत कुछ कह देने का काव्य है। अज्ञेय का काव्य पढ़ने , सुनने तक सीमित नहीं रहता , लौट कर आता है मस्तिष्क में, सोचने को बाध्य करता है , फिर आँखें चमकती हैं कि ओह ! यह क्या कह डाला तुमने! फिर मस्तिष्क अज्ञेय से भी परे सोचता है उस काव्य को। अज्ञेय सोच को विस्तार देने का नाम है । साँप को ही लीजिए :
    साँप!
    तुम सभ्य तो हुए नहीं
    नगर में बसना
    भी तुम्हें नहीं आया।
    एक बात पूछूँ- (उत्तर दोगे?)
    तब कैसे सीखा डँसना-
    विष कहाँ पाया?
    अज्ञेय हमें सोचना सिखाते हैं ।
    राहुल जी, धन्यवाद यह सब याद दिलाने के लिए । 🙏🙏

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  3. डॉ. राहुल जी नमस्कार। अज्ञेय जी पर आपका यह लेख बहुत अच्छा है। शायद ही कोई ऐसा साहित्य प्रेमी हो जो अज्ञेय जी के साहित्य से परिचित न हो। अज्ञेय जी का हाइकु कविता को हिंदी साहित्य में लाने में भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। आपने इस लेख में अज्ञेय जी के सृजन एवं साहित्य के हर पहलू पर बात की है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  4. बहुत समृद्ध हुई मैं यह आलेख पढ़कर आभार

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  5. यों मैं कवि हूं, आधुनिक हूं, नया हूं
    काव्य सत्य की खोज में कहाँ नही गया हूं

    अपनी कविता में सत्य की खोज करने वाले हिंदी साहित्य के प्रतिभावान और विलक्षण बौद्धिक शक्ति से हिंदी काव्यजगत में नया मार्ग आदरणीय अज्ञेय जी ने प्रस्थापित किया है। अपनी काव्य रचनाओं से कथ्य और शिल्प के धरातल पर मैले पड़ चुके उपमानों को नयी विलक्षण दृष्टि से छायावादी प्रवर्त्तियो में प्रचलित किया है। आदरणीय राहुल श्रीवास्तव जी के आलेख में विस्तारित किया हुआ श्रद्धेय अज्ञेय जी का व्यक्तित्व और कृतित्व बहुत ही नायाब है। विशिष्ट तरह का काव्य विशलेषण वृतांत इस लेख में उनके आधुनिक कवि होने की उदघोषणा करते दिखाई दे रहा है। प्रगतिवादी और प्रयोगवादी विवृत्ती उनके जीवनानुभवों के विविध आयामों से निर्मित होती जान पड़ती है। अजेय जी के मुक्त विचार और समीक्षात्मक यथार्थ सवेंदनाओ का आलेख प्रस्तुत करने हेतु आपका आभार और आगामी आलेखों के लिए शुभकामनाएं।

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  6. राहुल जी, आपने अप्रतिम आलेख लिखा है, अज्ञेय के सृजन-संसार से अच्छा परिचय कराया है। आपको इस अद्भुत लेख के लिए बहुत आभार और बधाई।

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  7. राहुल जी नमस्ते। अज्ञेय जी के जीवन के सभी पहलुओं और रचना संसार को हम सभी से परिचित कराने के लिए आपका बहुत बहुत आभार। एक समृद्ध और उत्कृष्ट लेख के लिए आपको बहुत बधाई।

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            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...