हिंदी साहित्य जगत में केदारनाथ सिंह का पदार्पण गीत काव्य से कविता के प्रांगण में हुआ। उनकी लोकप्रियता की रश्मियाँ हिंदी भाषी समाज की सीमाओं को पार कर भारत की दीगर भाषाओं में फैलीं तथा समादृत हुईं। वह जीवन व समाज के जटिल यथार्थ को बड़े सधे शब्दों में सहज तरीके से अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं। उनकी कविताओं में गाँवों, कस्बों व महानगरों की विविध जीवन छवियाँ व उससे जुड़े गहरे यथार्थ का प्रतिबिंबन होता है।
केदारनाथ सिंह का कविता लेखन १९५२-५३ के आसपास प्रारंभ हुआ और उन्होंने अपनी लेखनी से चार पीढ़ियों के कवियों को प्रभावित करते हुए, कविता लिखने के गुर सिखाए। केदारनाथ की कविताओं का फलक गाँव से लेकर महानगर तक व्याप्त है। लोक, आस्था और विश्वास के साथ-साथ समय और समाज की अनुगूँज इनकी कविताओं में सुनी जा सकती है। सहज और सामान्य प्रतीत होने वाली काव्य पक्तियों में गहरा अर्थ बोध अभिव्यक्त हुआ है, यह कवि की विलक्षण संवेदनशीलता का परिचायक है।
केदारनाथ सिंह का असली घर भाषा के अंदर है। वे शब्दों में जीते और साँस लेते हैं। शब्द उन्हें सहारा भी देते हैं और विश्वास भी। यह सत्य है कि हमारा संपूर्ण जगत वास्तव में शब्दों का ही स्थापत्य है। इस संसार की सभी चीज़ों को नाम देना, उनको अर्थ देना भी है। इस तथ्य को उचित ढंग से न समझते हुए ही हम शब्द और भाषा से छल करते दिखाई देते हैं, उस छल के शिकार भी होते हैं। हमारे समय में यह छल बढ़ा है, शब्दों को व्यर्थ और भाषा को सरोकार विहीन बनाने की जो नई प्रक्रिया दिख रही है, उसकी कई अदृश्य त्रासदियों से हम बेखबर हैं। जाने-अनजाने, हम अपनी मनुष्यता को भी क्षतिग्रस्त तथा अपनी सभ्यता को अवरुद्ध कर रहे हैं। परंतु केदारनाथ सिंह शब्दों को जीने का सामान बना लेते हैं, शब्द उनके लिए जैसे साँस लेते हुए इंसान हैं, जिनके बारे में वे कहते हैं -
ठंड से नहीं मरते शब्द
वे मर जाते हैं साहस की कमी से
कई बार मौसम की नमी से
मर जाते हैं शब्द।
कवि के पूरे कविता-संसार में यह प्रयोग रोचक है। वे चीख को भी पहचानते हैं और चुप्पी को भी। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन 'अज्ञेय' ने सन १९५९ में प्रकाशित तीसरा सप्तक में केदारनाथ सिंह की कविताओं को शामिल किया। तीसरे सप्तक की एक प्रमुख कविता में केदारनाथ सिंह लिखते हैं -
अगर नहीं मेरे स्वरों में तुम्हारे स्वर
अगर नहीं हैं मेरे हाथों में तुम्हारे हाथ
अगर नहीं मेरे स्वरों में तुम्हारी आहट
तो मेरे भाई,
मुझे पछाड़ खाए बादलों की तरह
टूटने दो
टूटने दो।
केदारनाथ सिंह जी का पहला कविता संग्रह सन १९६० में 'अभी बिलकुल अभी' प्रकाशित हुआ। जिसमें उनकी प्रारंभिक कविताएँ हैं, जो गीत शैली में हैं। उस संग्रह में प्रकाशित उनकी एक कविता है -
वो तन-मन में बिजली की कौंधों की शाम,
मदरसों की छुट्टी, वो छंदों की शाम,
वो घर भर में गोरस की गंधों की शाम
वो दिन भर का पढ़ना, वो भूलों की शाम,
वो वन-वन के बाँसों-बबूलों की शाम,
झिड़कियाँ पिता की, वो डाँटों की शाम,
भाई, शाम बेच दी है, मैंने शाम बेच दी है।
केदारनाथ सिंह जी का दूसरा काव्यसंग्रह 'जमीन पक रही है' सन १९८० में प्रकाशित हुआ। जिसमें आम आदमी की ज़िंदगी और उसकी संवेदनाओं से जुड़े पहलुओं पर कवि ने अपनी तूलिका से रंग बिखेरे। इस बाज़ारवादी अर्थव्यवस्था में जहाँ पूंजी की लूट खसोट और मनुष्यता का अवमूल्यन हो रहा हो और भूख पेट में मरोड़ पैदा कर रही हो, तो वहीं रोटी का मूल्य बढ़ जाता है। कवि अपनी कविता 'रोटी' में कहता है -
उसके बारे में कविता करना
हिमाक़त की बात होगी
और वह मैं नहीं करूँगा
मैं सिर्फ़ आपको आमंत्रित करूँगा
कि आप आएँ और मेरे साथ सीधे
उस आग तक चलें
केदारनाथ सिंह का अगला काव्य संग्रह 'यहाँ से देखो' वर्ष १९८८ में प्रकाशित हुआ। जिसमें प्रकृति और मनुष्य के मध्य तारतम्य तथा उनके साथ मानवीय जीवन का एकाकार हो जाना कवि की प्रमुख विशेषता है। उनके इसी संग्रह की कविता 'जनहित का काम' में वह कहते हैं -
वह एक अद्भुत दृश्य था
बरसकर खुल चुका था
खेत जुतने को तैयार थे
एक टूटा हुआ हल मेड़ पर पड़ा था
और एक चिड़िया बार-बार बार-बार
उसे अपनी चोंच से
उठाने की कोशिश कर रही थी
उनकी प्रसिद्ध कृति 'अकाल में सारस' का प्रकाशन वर्ष १९८८ में ही हुआ। यह कविता संग्रह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रसिद्ध हुआ। इस कविता संग्रह में उनकी कविता 'अकाल में सारस' का यह अंश मानव की भूख और लिप्सा से उपजे प्राकृतिक संकट तथा मनुष्य एवं अन्य जीवों के प्रति उसके प्रभाव की एक सुंदर अभिव्यक्ति है -
--- लेकिन सारस
उसी तरह करते रहे परिक्रमा
न तो उन्होंने बुढ़िया को देखा
न जल भरे कटोरे को
सारसों को तो पता तक नहीं था
कि नीचे रहते हैं लोग
जो उन्हें कहते हैं सारस
केदारनाथ सिंह जी का पाँचवाँ काव्य संग्रह 'उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ ' वर्ष १९९५ में प्रकाशित हुआ। उसकी एक कविता है -
मेरी आत्मा एक घर है
जहाँ अपने लंबे उदास खर्राटों के साथ
यह दुनिया सोती है
और मैं सोता हूँ उसके बाहर
मैदान में
.............
और धैर्य के साथ
सहता है मेरे खर्राटों को
जिन्हें गिरगिट-झींगुर सब सुनते हैं
एक मुझे छोड़कर।
केदारनाथ सिंह की कविता 'बाघ' एक लंबी कविता है। इसमें बाघ हमारे जंगलों से निकल कर शहरी सभ्यता के मुहाने को स्पर्श करता हुआ कविता में गुम हो जाता है। इस कविता के बारे में केदारनाथ सिंह कहते हैं - "पंचतंत्र के गुँफित ढांचे से निकलकर पहली बार जब बाघ का बिंब मेरे मन में कौंधा था, तब यह बिलकुल स्पष्ट नहीं था कि वह एक लंबी काव्य शृंखला का बीज-बिंब बन सकता है। वस्तुतः पहले टुकड़े में लिखे जाने के बाद यह पहली बार लगा कि इस क्रम को और आगे बढ़ाया जा सकता है। फिर तो एक खंड के किसी आंतरिक दबाव से दूसरा खंड अपने आप बनता गया। कथात्मक ढांचे की इस स्वतःस्फूर्ति प्रजनन शीलता से यह मेरा प्रथम काव्यात्मक साक्षात्कार था।"
केदारनाथ सिंह जी की एक और लंबी कविता 'बनारस' एक पूरे शहर के रूप में पूरे विश्व की सभ्यता, संस्कृति और उसकी बनावट के बनने, बिखरने व उसमें अंतर तक समाहित होने का दृश्य प्रतिबिंबित होता है -
यह शहर कि जिसमें रहती हैं इच्छाएँ
कुत्ते, भुनगे, आदमी, गिलहरी, गाएँ
यह शहर कि जिसकी जिद है सीधी-सादी
ज्यादा से ज्यादा सुख-सुविधा, आज़ादी
तुम कभी देखना इसे सुलगते क्षण में
यह अलग-अलग दिखता है हर दर्पण में
साथियों, रात आई, अब मैं जाता हूँ
इस आने-जाने का वेतन पाता हूँ
जब आँख लगे तो सुनना धीरे-धीरे
किस तरह रात भर बजती हैं जँजीरें।
केदारनाथ सिंह का काव्य संग्रह 'टालस्टाय और साईकिल' वर्ष २००५ में प्रकाशित हुआ है। इस कविता संग्रह में बिंब प्रधान कविताएँ हैं। "मुझे सुनाई पड़ती रही रातभर नींद में।"
वर्ष २०१४ में केदारनाथ सिंह जी का काव्य संग्रह 'सृष्टि पर पहरा' प्रकाशित हुआ। केदारनाथ ने इस कविता संग्रह में प्रकृति और मानव के संबंधों व उनकी सीमाओं को रेखांकित किया है। पूँजीवाद की भूख और उसके प्रकृति दोहन के ख़िलाफ़ विद्रोह काव्य संग्रह की प्रमुख विशेषता है।
सन २००३ में प्रकाशित केदारनाथ सिंह की पुस्तक 'कब्रिस्तान में पंचायत' गद्य निबंधों का संग्रह है। इसमें लेखक ने समाज में व्याप्त संवादहीनता व चुप्पी की ओर इशारा किया है। एक स्वस्थ और लोकतांत्रिक समाज के लिए अति आवश्यक है कि संवादहीनता की बर्फ़ को तोड़ा जाए और सत्ता से, समाज के ठेकेदारों से सवाल किए जाएँ, जिससे व्याप्त जड़ता को खत्म करने के लिए स्वस्थ संवाद किए जा सकें। इस संग्रह के एक आलेख 'कब्रिस्तान में पंचायत' में केदारनाथ सिंह लिखते हैं - "कब्रिस्तान का जो पक्ष मुझे सबसे ज्यादा दिलचस्प लगता है, वह यह कि कई बार मृतकों के आजूबाजू ज़िंदा लोगों के घर भी होते हैं। जीवन और मृत्यु का यह विलक्षण सह-अस्तित्व सिर्फ़ एक कब्रिस्तान में ही दिखाई पड़ता है, जहाँ एक ओर नया गढ्ढा खोदा जा रहा है, तो दूसरी ओर बच्चे लुका-छिपी खेल रहे हैं।"
हिंदी साहित्य के ये महान कवि केदारनाथ सिंह, लोक के कवि हैं, लोक उनके जीवन में रचा बसा है। महानगरीय बोध की कविताओं में भी लोक की ऐंद्रिकता दिखाई दे जाएगी। वे अपने रचनात्मक भावलोक से लोक को कभी ओझल नहीं होने देते -
मुझे थाने से चिढ़ है
मैं थाने की
धज्जियाँ उड़ाता हूँ
मैं उस तरफ़ इशारा हूँ
जिधर थाना नहीं है
जिधर पुलिस कभी नहीं जाती
मैं उस तरफ़ इशारा करता हूँ।
हिंदी साहित्य का यह नक्षत्र १९ मार्च, २०१८ को जीवन के ८३ वर्ष पूरे कर अस्त हो गया। अब केवल उनका साहित्य और उनकी लिखी कविताएँ जो आम जनमानस की गाथा हैं, आज भी भ्रमर की तरह कानों के करीब गुनगुना रही हैं।
लेखक परिचय
सुनील कुमार कटियार
उत्तर प्रदेश सहकारी फेडरेशन से सेवानिवृत्त है और जनवादी लेखक व चिंतक के रूप में अपनी पहचान रखते हैं। वर्तमान में स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख प्रकाशित। फ़र्रुख़ाबाद, उत्तर-प्रदेश में रहते हैं।
मोबाइल नं० ९४५०९२३६१७ / ७९०५२८२६४१
ईमेल - sunilkatiyar57@gmail.com
जीवंत आलेख के लिए शुभकामनाएं!
ReplyDeleteसुनील जी, आपने केदारनाथ सिंह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व सफ़र को उनकी कविताओं के उदाहरणों से बख़ूबी बयान किया है। आपका आलेख एक रोचक यात्रा-वृतांत की तरह पढ़ा गया और केदारनाथ जी के नए बिम्ब, प्रयोग, रचनाएँ दृश्यों के समान आँखों के सामने से गुजरती गयीं। आपको इस आलेख के लिए बधाई और आभार।
ReplyDeleteसाम्यवादी विचारधारा से प्रभावित भारतीय भाषा केंद्र के अध्यक्ष आदरणीय श्री केदारनाथ सिंह जी मूलतः मानवीय सवेंदनाओ के रचनाकार थे। जुबान से शांत प्रगतिशील तत्व की तरह आप हमेशा प्रकृति के प्रेमी रहे हैं। श्रीमान सुनील कुमार जी के आलेख के द्वारा श्रध्देय केदारनाथ जी की रचनाओं की भाषा शैली में बिंब-मयता, वैचारिकता तथा सहजता प्रमुख रूप से दिखाई दे रही है। आपके लेख से बहुत ही प्रभावित और समीक्षात्मक सुंदर चित्रमाला तैयार हो रही है। प्रस्तुत रचनाओं का संदर्भ भी लक्ष्यप्रेरित है जो साहित्यकार के रचनासंसार को अत्यंत सहज और सरल विशिष्ट उपलब्धि प्रदान कर रहा है। अतिसंतुलित आलेख रचना के लिए आपका आभार और अग्रिम आलेखों के लिए शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसुनील जी, लोक साहित्यकार श्री केदारनाथ सिंह जी का सृजन पढ़ने में जो जुड़ाव महसूस होता है वही जुड़ाव आपके इस लेख में भी बना रहा। आपने लेख को रोचक एवं जानकारी युक्त बनाया। इस महत्वपूर्ण लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसुनील जी, मैंने अभी केदारनाथ सिंह जी पर लिखा आपका आलेख पढ़ा। मुझे बड़ा अच्छा लगा। लेख रोचक है , प्रवाहमय है और गहराई से लिखा गया है। केदारनाथ जी के क़ाव्य में शब्द सरल और बहुत गहरे अर्थों को अभिव्यक्त करने वाले होते हैं।कम कवियों में अभिव्यक्ति की ऐसी क्षमता होती है। आपने भी लेख में उतने ही सरल ढंग से गहरे अर्थ को अभिव्यक्त किया है। आपका यह कहना बहुत अच्छा लगा :
ReplyDelete“यह सत्य है कि हमारा संपूर्ण जगत वास्तव में शब्दों का ही स्थापत्य है।इस संसार की सब चीज़ों को नाम देना , उनको अर्थ देना भी है।”
मेरी ओर से आपको यह शुभकामना कि आप सदैव अर्थपूर्ण शब्द लिखें एवं अपने सुंदर लेखन से इस संसार के स्थापत्य को और सुंदर बनाने में सहायक हों। केदारनाथ जी के सुंदर काव्य को सम्मान। आपको सुंदर आलेख के लिए बधाई। 💐💐
सुनील जी बहुत बढ़िया लेख लिखा है आपने। कम शब्दों में गहन और बड़ी बात कहने वाले और कविता में बिम्ब विधान से चमत्कृत करने वाले प्रिय कवि केदारनाथ सिंह जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखते हुए आपने समग्रता के साथ, उनके लेखन के महत्वपूर्ण पक्षो को भी रेखांकित किया है। लेख पढ़कर आनंद आया। आपको इस सुंदर और समृद्ध लेख के लिए बहुत बधाई।
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