Friday, March 4, 2022

समकालीन हिंदी साहित्य के संत लेखक व क्रांतिदूत: फणीश्वरनाथ रेणु

 


“काहे छाड़ि आयला हंसा रे-ए-ए....हमरो अभागल गाँव ।

बाबा मोरा आ-रे-हंसा-आ-आ, पोखरी खोदायी गइले

पोखरी में फूले पुरइन फूल-आ-रे-हंसा हमरो पोखरिया”

 

आंचलिकता के महानायक, सामाजिक-राष्ट्रीयतावादी लेखक, कथा-गायक, स्वतंत्रता सेनानी व क्रांतिदूत, हिंदी साहित्य के दूसरे प्रेमचंद कहलाने वाले पद्मश्री फणीश्वर नाथ रेणु ने जो भोगा, वही लिखा, और वो भी पारम्परिक कथा-मार्ग से हटकर। वे अपने आप को कृषक पहले और लेखक बाद में मानते थे। उन्होंने आंचलिक साहित्य को मुख्य धारा से जोड़ा। 

 

रेणु तभी लिखते थे जब अंदर की आवाज़ उन्हें बाध्य करती थी। रेणु ने लिखा तो कम परन्तु देश-विदेश में लाखों पाठकों को दीवाना बना दिया। समीक्षकों व साहित्यकारों ने उन पर शोध ग्रंथ लिखे हैं। उदाहरणार्थ, मेरे ऑस्ट्रेलियाई साथी डॉ. इयन वूल्फोर्ड का शोध प्रबंध फणीश्वरनाथ रेणु और उनके लोकगीतों के बारे में है। इस सिलसिले में वे स्वयं रेणु के परिवार के साथ गाँव में रहे तथा देशज भाषा सीखी। रेणु का साहित्य निरंतर नए दृष्टिकोणों से जाँचा जा रहा है, जो उनकी महानता दर्शाता है।


प्रारम्भिक शिक्षा व संस्कार

फणीश्वर नाथ 'रेणु' का जन्म ४ मार्च १९२१ को बिहार के अररिया जिले में औराही हिंगना गाँव में हुआ था। रेणु को घर में प्यार से फनेसर कहते और दादी रिनुआ; उनके जन्म के समय परिवार को पहली बार ऋण जो लेना पड़ा था। आगे चलकर बाबा नागार्जुन ने उन्हें ‘रेणु’ उपनाम दिया।


बचपन से ही रेणु स्वाधीनता-संग्राम के प्रति निष्ठावान थे। उस समय अंग्रेज अपने विरोध में छपने वाले  साहित्य को ज़ब्त कर लेते थे। ‘चाँद’ पत्रिका के प्रसिद्ध ‘फाँसी अंक’ (नवम्बर १९२८), जिसमें भगत सिंह जैसे अनेक क्रांतिकारियों के लेख थे, की तलाश में घर आए दरोग़ा ने जब उनके पिता से पूछताछ की तो - मुझे समझते देर न लगी कि पिताजी झूठ बोल रहे हैं। मुझे पता था के ये सभी पवित्र ग्रन्थ तो उनके सिरहाने रखे हैं, मैं वहाँ से खिसका, किताबें चुपचाप उठाईं, स्कूल के बस्ते में डालीं, छाता उठाया और बग़ल में दबाकर घर से निकलने लगा।

एक देसी दरोग़ा ने पूछा, ‘ऐ बाबू! हउ बगलिया में का बा हो?’

मैंने उत्तर दिया, सिमराहा जा रहा हूँ, फ़ारबिसगंज की गाड़ी पकड़ना है, स्कूल का टाईम है।

दरोग़ा ने जाने दिया। शाम को वापिस आया तो घर के लोग मेरी चालाकी पर दंग थे।”


उनकी प्रारम्भिक शिक्षा फारबिसगंज और अररिया में हुई। नवीं कक्षा में साथियों के साथ हस्त लिखित ‘खंगार सेवक’ पत्रिका लिखते थे, चित्र भी बनाते। पूर्वज बंगाल से आए थे और खंगार क्षत्रिय कहलाते थे। आगे की पढ़ाई नेपाल के विराटनगर आदर्श विद्यालय से हुई जो ‘नेपाल के गांधी’ कृष्ण प्रसाद कोईराला चलाते थे। कोईराला परिवार में रहकर मेट्रिक पास की। इंटरमीडिएट काशी हिंदू महाविद्यालय बनारस से किया। वहाँ समाजवादियों में लोकप्रिय हुए और स्टूडेंट फ़ेडरेशन के सचिव बने। इसी दौरान उन्होंने एक लम्बी कविता आवाम लिखी जो यूनिवर्सिटी का प्रत्येक छात्र गुनगुनाता था। 


रेणु एक क्रांतिदूत

 

स्कूली दिनों से ही रेणु स्वतंत्रता संग्राम से जुड़े क्रांतिदूत थे। उन्होंने क्रांतिकारियों की मदद करने वाली ‘वानर सेना’ का नेतृत्व किया। रेणु १९४२ के ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में कूद पड़े। उनका गुट ‘आज़ाद दस्ता’ सेना से गोला-बारूद व हथियार लूट कर रेल-पटरियाँ उखाड़ देता। वे स्वतंत्रता संग्राम में कई बार जेल गए।  इसी समय का एक रोचक प्रसंग- “उन्हें पकड़ने के लिए पुलिसकर्मियों ने गाँव की घेराबंदी की। लाल साड़ी में दुल्हन का शृंगार कर वे बैलगाड़ी में झूठे बारातियों संग निकल पड़े। पुलिस ने रोका, घूँघट उठा कर देखा, मगर उन्हें पहचान नहीं सकी। स्कूली नाटकों का अनुभव वक्त पर काम आया।”

 

बाद में गाँव से गिरफ़्तारी होने पर अररिया तक २० किलोमीटर उन्हें घोड़ों के पीछे घसीटा गया, पर उन्होंने अपने साथियों के नाम नहीं बताए। उन्हें ढाई साल की सज़ा हुई। जेल में टीबी होने पर रेणु बेड़ियों में पटना अस्पताल भेजे गए, जहाँ लतिका चौधरी नामक नर्स ने उनकी सेवा की, जो बाद में उनकी तीसरी पत्नी बनी। 

 

बिहार आंदोलन (१९७४) में जयप्रकाश नारायण के साथ रेणु पुन: सक्रिय हुए और उन्होंने ‘पद्मश्री’ सम्मान लौटा दिया। रेणु की गहन जनप्रतिबद्धता का अनुमान इस घटना से चलता है- ‘बाबा नागार्जुन पटना के एक फुटपाथिया ढाबे में रोटी-सब्जी खा रहे थे। बातों-बातों में आलोचक गोपेश्वर जी ने उनसे कहा कि बाबा, रेणु तो यहाँ रोटी नहीं खा सकते थे। नागार्जुन ने कहा, “हाँ, वह यहाँ रोटी नहीं खा सकते थे, लेकिन इनके लिए वह गोली जरूर खा सकते थे!”’

 

साहित्य - समीक्षा 

फणीश्वरनाथ ‘रेणु‘ हिन्दी में आंचलिकता के महानायक हैं। उनके साहित्य का आधार व केंद्र बिंदु गाँव और वहाँ का लोक जीवन है। आंचलिकता की इस अवधारणा में गाँव की भाषा-संस्कृति व आंचलिक जीवन ही नायक है, न कि कोई पात्र विशेष

 

ग्रामीण जीवन पर आधारित बहुचर्चित आंचलिक उपन्यास ‘मैला आँचल’ (१९५४) की कथा-वस्तु बिहार के एक गाँव मेरीगंज की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक दशा पर आधारित है। उसमें वहाँ की सुंदरता के साथ-साथ कुरूपता, जैसे गरीबी, बीमारी, भुखमरी, अंधविश्वासों, धर्म की आड़ में हो रहे व्यभिचार, शोषण आदि का चित्रण है। रेणु के शब्दों में – 

“‘मैला आँचल’ में फूल भी हैं, शूल भी; धूल भी है, गुलाब भी; कीचड़ भी है, चंदन भी; सुंदरता भी है, कुरूपता भी। - मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।”

 

इस उपन्यास के छपते ही रेणु को रातों-रात एक साहित्यकार के रूप में ख्याति मिली! हाथी पर बिठा कर किताब के संग उनका जुलूस निकाला गया। 

 

इस समय तक आभिजात्यवर्ग का साहित्य पर कब्ज़ा हो चुका था ऐसे में एक धोती-कुर्ताधारी, ग्रामीण लेखक का अचानक संभ्रांत लेखकों के बीच उभरना, मुख्य धारा के लेखकों को रास नहीं आया। यहाँ तक कहा गया कि ‘मैला आँचल’ चोरी की रचना है लेकिन गर्द छटने के बाद 'मैला आँचल' को 'गोदान' के स्तर की ख्याति व प्रशंसा मिली और मुंशी प्रेमचंद जैसे कथा-सम्राट से उनकी तुलना होने लगी। हालाँकि रेणु इस तुलना से खुश नहीं थे। जर्मन लेखक लोथर लुत्ज़े से एक बातचीत में उन्होंने कहा, “मैं अपना नाम बाबा प्रेमचंद से जोड़कर देखा जाना नहीं चाहता था, क्योंकि मैं जानता था, उससे मुझे हानि ही होनी थी, लाभ नहीं।”

रेणु का मानना था कि हिंदी-प्रदेशों में जातिवादी चेतना इनके  पिछड़ेपन और गरीबी का मुख्य कारण है। ‘मैला आँचल’ जातिवाद जैसी समस्याओं को उजागर करने की कोशिश है। इसके केंद्रीय पात्र डॉ. प्रशांत की कोई जाति नहीं है। उनके दूसरे उपन्यास परती परिकथा (१९५७) के प्रकाशन पर साहित्य में नई बहस पैदा हुई, जहाँ एक ओर कुछ लोग इसे ‘मैला आँचल’ से भी अच्छा मान रहे थे तो दूसरी ओर कुछ इसे उपन्यास तक मानने को तैयार न थे। दूसरी श्रेणी में वे थे जो उनकी लोकप्रियता से नाखुश थे। 

 ‘‘धूसर, वीरान, अन्तहीन प्रान्तर।…पतिता भूमि, परती ज़मीन, वन्ध्या धरती…’’ परती परिकथा उपन्यास की ये पहली पक्तियाँ ही परानपुर गाँव की धरती से जुड़ी समस्याएँ उकेरती हैं, जिसमें सभी जातियों और वर्गों की आर्थिक, सामाजिक व नैतिक समस्याएँ निहित हैं। परानपुर ग्राम का परिचय रेणु के शब्दों में:‘‘इस इलाके में सबसे उन्नत गाँव है परानपुर, किंतु जिस तरह बाँस बढ़ते-बढ़ते अंत में झुक जाता है। उसी तरह गाँव भी झुका है।'

 

निबंधकार और कवि भारत यायावर ने ‘रेणु रचनावली’ के पांच खंडो का संपादन किया है। वे कहते हैं कि हिंदी साहित्य का ध्यान रेणु पर तब गया जब उनके दोनों प्रसिद्ध उपन्यास ‘मैला आँचल’ और ‘परती-परिकथा’ छठे दशक की सबसे बड़ी रचनात्मक उपलब्धियों के रूप में सामने आए। वरिष्ठ लेखक और आलोचक, अवधेश प्रधान रेणु की लोकजीवन से लगाव को उजागर करते हुए लिखते हैं - "रेणु के कथा-चित्र और चरित्र गांव की माटी से ही उगते हैं जैसे धान के पौधे। मनुष्य और प्रकृति का अभिन्न संबंध, उसकी आवश्यकता की अचूक पहचान और चिंता – रेणु के कथा साहित्य की विशेषता है।" 

 

कवि और साहित्यकार लीलाधर मंडलोई के अनुसार- ‘केवल लिखना ही नहीं बल्कि ऐसा जिसको लिख कर कुछ बदला जा सके, वो रेणु का आग्रह था।‘ 

वरिष्ठ आलोचक रवि भूषण कहते हैं - "वे संगीतधर्मी कथाकार हैं। उनकी भाषा ‘काव्यात्मक’ न होकर ‘गीतात्मक’ है। ..  वे संभवतः विश्व के अकेले कहानीकार हैं, जिन्होंने अपने को ‘कथा-गायक’ कहा है। ‘मैला आँचल’ में लोक गीतों का इस्तेमाल किया वो सिर्फ़ प्रतीक के तौर पर नहीं बल्कि कथानक के अभिन्न अंग हैं। ‘मैला आँचल’ में भी एक गीत रेणु के स्वयं का बनाया हुआ है- “अरे ओ बुड़बक बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं जाय रे!”

 

जर्मन लेखक लोथर लुत्ज़े ने रेणु व् अन्य हिंदी कहानियों का जर्मन अनुवाद किया है। उनसे एक बातचीत में रेणु ने हिंदी की मुख्य-धारा के, विशेषकर नयी कहानी आन्दोलन से जुड़े लेखकों के बारे में बात की।  लुत्ज़े ने पूछा कि शहरी लेखकों का मानना है कि आंचलिक लेखक एक ‘कॉटेज इंडस्ट्री’ की तरह हैं, रेणु ने कहा, "मैला आँचल' लिखते समय मैंने पुस्तक के आवरण में इसे आंचलिक उपन्यास कह दिया ताकि इसे मुख्य धारा द्वारा स्वीकार किए जाने में आसानी होगी। अतः इसमें मेरा ही कुसूर है, क्योंकि उसके बाद मुझ पर सदा के लिए यही ठप्पा लग गया। पर उससे ज्यादा दुःख की बात है की कुछ लोगों ने समझा कि आंचलिक लेखक बनने के लिए कहानी में मात्र कुछ आंचलिक शब्दों के घुसेड़ देने भर की बात है, जैसे की ये कोई ताज़ा फैशन हो।”


उनका पहला कहानी-संग्रह ‘ठुमरी’ १९५९ में राजकमल प्रकाशन से छपा। लेकिन रेणु की कहानियाँ उस दौर में घनघोर उपेक्षा की शिकार हुईं। भारत यायावर के अनुसार इसका कारण था – “आलोचकों के बने-बनाए सांचे में वे फिट नहीं होती थीं। रेणु की कहानियाँ बनी-बनाई परिपाटी से हट कर, कुछ नए जीवन यथार्थ को अपनी तरह से उठा रही थीं। उनकी कहानियाँ ऐसे बेजुबान, बेसहारे, असहनीय पीड़ा में जीते मनुष्यों की भाव-संवेदना को उजागर कर रही थीं, जिनकी ओर अधिकांश लेखक देख नहीं पा रहे थे।“ रेणु की कुछ कहानियो, जैसे ‘बटबाबा’, ‘पहलवान की ढोलक’, ‘कलाकार’, ‘न मिटने वाली भूख’, ‘पार्टी का भूत’ ने ख़ूब धूम मचायी।


१९७० में उन्हें लेखन में योगदान के लिए ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया गया

 

 राजनीति और रेणु

वरिष्ठ कवि, गद्यकार और संपादक विष्णु नागर के अनुसार – ‘राजनीति के बगैर रेणु, रेणु न होते। १९५२ में प्रथम आम चुनाव से पहले ही वे अपने को राजनीति के लिए अनुपयुक्त समझने लगे थे। वह समझ चुके थे कि दलगत राजनीति चाहती है कि बुद्धिजीवी अपनी बुद्धि गिरवी रख कर पार्टी के लिए काम करे, उसके आदेश मानें’। उनकी कहानी “पार्टी का भूत” में सभी पार्टियों से उनकी उकताहट का वर्णन है। रेणु सक्रिय राजनीति से भले अलग हो गए थे, मगर राजनीति से उन्होंने कभी संन्यास नहीं लिया। रेणु कहते थे -”अपने क्षेत्र की राजनीति का सीधा असर मुझ पर अब तक पड़ता रहा है। गांव समाज में संग्रामी -सुराजी किसान का बेटा पहले हूँ- लेखक बाद में। राजनीति हमारे लिए दाल-भात की तरह है।”

बिहार आंदोलन उनके लिए ‘स्वच्छ हवा की एक खिड़की’ खोलनेवाला साबित हुआ। जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में पुन: राजनीति में सक्रिय होकर रेणु ने कहा –

‘मेरा लेखक मर चुका था। बिहार आंदोलन ने उसे पुनः जीवित कर दिया है।

अब मुझे लगने लगा है कि जिस समाज में मैं रह रहा हूँ, वह सुधर सकता है।’

 

रेणु का साहित्य सिनेमा में  

दूरदर्शन ने  ‘मैला आँचल’ पर धारावाहिक बनाया जो १९९०-९१  में प्रसारित किया गयाउस समय के "प्राइम टाइम" का ये दूसरा सबसे लोकप्रिय कार्यक्रम था।   

रेणु की कहानी ‘मारे गए गुलफाम’ पर ‘तीसरी कसम’ बनी। फ़िल्म में राजकपूर और वहीदा मुख्य भूमिकाओं में थे। इसके निर्माता सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र थे, और बासु भट्टाचार्य निर्देशक। ‘तीसरी कसम’ के संवाद स्वयं रेणु ने लिखे थे। फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफलता नहीं मिली, जिससे शैलेन्द्र निराश हो गए थे और अगले ही साल चल बसे। ‘तीसरी कसम’ को १९६७ में राष्ट्रीय पुरस्कार मिला और आज ये फिल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर मानी जाती है। उनकी एक अन्य कहानी “पंचलैट” (पेट्रोमैक्स)  पर २०१७ में फिल्म बनी।

व्यक्तिगत जीवन 

रेणु की तीन शादियाँ हुईं उनकी पहली पत्नी रेखा एक बेटी (कविता) को जन्म देकर चल बसीं। दूसरी पत्नी पद्मा से तीन पुत्रियाँ व तीन पुत्र हुए। पद्मा बाल-विधवा थीं रेणु के जीवन में पद्मा के योगदान को रेखांकित करते हुए हिंदी के आलोचक रामवचन राय कहते हैं, “वे बहुत कर्मठ महिला थीं और एक संगिनी के रूप में उन्होंने रेणु की ग्रामीण चेतना को समृद्ध करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई’। पद्माजी का देहांत २०१३ में हुआ। उनकी तीसरी पत्नी लतिका थीं, जिनसे रेणु की पहली मुलाकात भारत छोड़ो आंदोलन में जेल में टी.बी. हो जाने पर पटना अस्पताल में हुई।बीमारी लौटने पर रेणु लतिका जी के पास गए और उनसे मिलते रहे। अन्त में दोनों ने शादी का फैसला किया। पद्माजी व लतिकाजी में घनिष्ट संबन्ध रहे। यूनियन प्रेस, पटना में ‘मैला आँचल’ के मुद्रण हेतु लतिका जी ने गहने बेचकर रेणु को पैसे दिए। 

 

रेणु ने न केवल जो भोगा वही लिखा, बल्कि जो लिखा उसे जिया भी। उनकी बेटी नवनीता के अनुसार – 

“पिता जी के विचार आधुनिक और सोच क्रांतिकारी थी, धर्म व जाति से ऊपर। तीसरी कसम फिल्म के बाद पिता जी ने छोटी बहिन का नाम वहीदा रखा जिसकी शादी भी वो मुस्लिम परिवार में करने की सोच रहे थे। वे ज़िन्दा रहते तो अवश्य ऐसा ही करते।“

 

११  अप्रैल, १९७७ को फणीश्वर नाथ रेणु का ‘पैप्टिक अल्सर’ इलाज के दौरान निधन हो गया।

 

रेणु - हिंदी साहित्य के संत लेखक 

 

आचार्य रामचंद्र तिवारी ने लिखा है, “रेणु की कहानियों में मनुष्य अपने सहज रूप में अपनी अच्छाइयों-बुराइयों के साथ, अपनी कर्मठता, संघर्षशीलता तथा भावुकता, रसिकता, संवेदनशीलता तथा कठोरता-कोमलता के साथ उपस्थित है। इसलिए उनकी कहानियों में किसी धर्म, जाति, संप्रदाय, समाज, पार्टी, वर्ग या व्यक्ति के विरुद्ध घृणा, द्वेष नहीं मिलता है।”

मूर्धन्य कथाकार और पत्रकार निर्मल वर्मा ने रेणु के निधन पर अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हुए उनके लेखन की कितनी सुन्दर एवं सारपूर्ण समीक्षा की है - “वह समकालीन हिंदी साहित्य के संत लेखक थे। यहाँ मैं  संत शब्द उसके सबसे मौलिक और प्राथमिक अर्थों में इस्तेमाल कर रहा हूँ - एक ऐसा व्यक्ति जो दुनिया की किसी चीज़ को त्याज्य और घृणास्पद नहीं मानता - हर जीवित तत्व में पवित्रता, सौन्दर्य और चमत्कार खोज लेता है - इसलिए नहीं कि वह इस धरती पर उगने वाली कुरूपता, अन्याय, अँधेरे और आँसुओं को नहीं देखता, बल्कि इन सबको समेटने वाली अबाध प्राणवत्ता को पहचानता है; दलदल से कमल को अलग नहीं करता, दोनों के बीच रहस्यमय और अनिवार्य रिश्ते को पहचानता है। रेणु जी का समूचा लेखन इस रिश्ते की पहचान है, इस पहचान की गवाही है और गवाही सिर्फ अपने लेखन में नहीं, जिंदगी के नैतिक फ़ैसलों, न्याय और अन्याय, सत्ता और स्वतंत्रता की संघर्ष-भूमि में भी देते हैं।“  

बाबा नागार्जुन जी का रेणु से पारिवारिक संबंध था । वे उन्हें विशेषत: धान-रोपाई के समय बुलाते। बाबा नागार्जुन स्वयं कृषक थे, परिजनों व मजदूरों के साथ धान रोपते। उस समय लिखी इस कविता में नागार्जुन ने मैला आँचल उपन्यास व रेणु के प्रति अपने भाव कुछ यूँ प्रकट किए:

मैला आँचल

पंक-पृथुल कर-चरण हुए चंदन अनुलेपित
सबकी छवियाँ अंकित, सबके स्वर हैं टेपित
एक दूसरे की काया पर पाँक थोपते
औराही के खेतों में हम धान रोपते
मूल गंध की मदिर हवा में मगन हुए हैं
माँ के उर पर, शिशु-सम हुलसित नग्न हुए हैं
सोनामाटी महक रही है रोम-रोम से
श्वेत कुसुम झरते हैं तुम पर नील व्योम से
कृषकपुत्र मैं, तुम तो खुद दर्दी किसान हो
मुरलीधर के सात सुरों की सरस तान हो
धन्य जादुई 'मैला आँचल', धन्य-धन्य तुम
सहज सलोने तुम अपूर्व, अनुपम, अनन्य तुम
                                                                                - बाबा नागार्जुन

 

फणीश्वरनाथ रेणु: जीवन परिचय

जन्म

४ मार्च १९२१

निधन

११ अप्रैल १९७७

जन्मस्थान 

ग्राम  औराही हिंगना, जिला पूर्णिया (अररिया), बिहार

पिता

शीला नाथ मण्डल

जीवनसाथी

रेखा, पद्मा और लतिका रेणु

सन्तान

कविता रॉय, वहीदा रॉय, नवनीता, निवेदिता, अन्नपूर्णा, पद्म पराग वेणु, अपराजित, दक्षिणेश्वर प्रसाद राय,

शिक्षा

इन्टरमीडिएट - काशी हिन्दू विश्वविद्यालय

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

मैला आंचल (१९५४), परती परिकथा (१९५७),  जूलूस (१९६५), दीर्घतपा (१९६४),

कितने चौराहे (१९६६), कलंकमुक्ति (१९७२),  पल्टूबाबू रोड (१९७९)

कथा-संग्रह

ठुमरी (१९५९),  एक आदिम रात्रि की महक (१९६७),  अगिनखोर (१९७३),  एक श्रावणी दोपहर की धूप (१९८४), अच्छे आदमी (१९८६)

प्रसिद्ध कहानियाँ

 

मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम)*; एक आदिम रात्रि की महक; लाल पान की बेगम; पंचलाइट*;  रसप्रिया; तबे एकला चलो रे; बट बाबा; पहलवान की ढोलक; पार्टी का भूत; ठेस; संवदिया;

 * इन कहानियों पर फिल्म बन चुकी हैं।

रिपोर्ताज

ऋणजल-धनजल; नेपाली क्रांतिकथा; वन-तुलसी की गंध; श्रुत अश्रुत पूर्वे; जै गंगा*; डायन कोसी*

* ये रिपोर्ताज़ दुर्लभ व असंकलित हैं।

संवाद लेखन

तीसरी कसमफिल्म

सम्मान

'मैला आंचल' के लिये पद्मश्री (१९७०)

 

सन्दर्भ:

 लेखक परिचय:

  डॉ राय कूकणा, ऑस्ट्रेलिया

  ·   पर्यावरण क्षेत्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक (चीफ साइंटिस्ट) तथा यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिलेड में प्रोफ़ेसर। लगभग चालीस वर्षों से ऑस्ट्रेलिया में। 

·   हिंदी साहित्य में विशेष अभिरुचि I स्वान्तःसुखाय पठन तथा लेखन कार्य आंचलिक हिन्दी साहित्य के द्वारा सामाजिक विषमताओं को उजागर करने वाले रचनाकारों के प्रति विशेष सम्मान का भाव। 

 ·   संप्रति:  सचिव, ऑस्ट्रेलिया की भारतीय साहित्य और कला संस्था (Indian Literary & Art Society of Australia Incorporated - ILASA)  संपर्क सूत्र: kookana@gmail.com

16 comments:

  1. वाह, पढ़कर आनंद आ गया।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 5, 2022 at 12:36 PM

      जी, जानकर ख़ुशी हुई - आभार !

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  2. वाह सर, जैसा आपका व्यक्तित्व वैसी ही उपलब्धियाँ। रेणु के और आपके बारे में और जानने को मिला। आलेख के लिए बधाई।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:09 AM

      मीनाक्षी जी, आपकी स्नेहपूर्ण टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

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  3. बढ़िया लेख, कुकना जी, तीसरी कसम फिल्म देखने के बाद मैला आंचल पढ़ा था। आंचलिक परिवेश, लोकभाषा की गंध, जमीन से जुड़कर संघर्ष, कहानी में भाषा के साथ गीत,संगीत,कलाकार का संबंध सब कुछ अत्यंत पढ़नीय है। मराठी के प्रसिद्ध पत्रकार,लेखक स्व अनिल अवचट जी ने बिहार के पूर्णिया जाकर पुस्तक लिखी है।अब बिहार कितना बदल गया है।हमारे यहां दक्षिण के बदले बिहार के नवयुवक कलेक्टर, डीएसपी बनकर आ रहे है। बिहार की मिट्टी में सृजन है,प्रतिभा है।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:18 AM

      विजय जी, बिहार का इतिहास समृद्ध रहा है। कितनी ख़ुशी की बात है कि वहाँ का समाज प्रगति के पथ पर नए आयाम स्थापित कर रहा है। रेणु जैसे लेखक व क्रांतिकारी का भी इस में योगदान अवश्य रहा है। आप ने लेख पर प्रतिक्रिया दी, बहुत आभार !

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  4. बहुत बढ़िया लेख डॉ. राय कूकणा जी। आदरणीय फणीश्वरनाथ रेणु जी से अधिकांश साहित्य प्रेमी परिचित हैं। उनका लिखा मैला आँचल और तीसरी कसम सभी को प्रभावित करती है। आपने इस लेख के माध्यम से रेणु जी के सृजन संसार को बखूबी सभी तक पहुँचाया। इस लेख में रोचकता निरन्तर बनी रही। आपको इस लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:21 AM

      दीपक जी, आप को लेख रुचिकर लगा, जानकर हर्ष हुआ। आपके स्नेह के लिए हार्दिक आभार।

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  5. मानवीयता को स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले सहनशील लेखक, एक अकेली आवाज से हिंदी साहित्य में सहजता से अपनी बात रखनेवाले आदरणीय फणीश्वरनाथ रेणु जी आंचलिक कथा शिल्पी के रूप में भी विख्यात थे। आदरणीय डॉ. राय कूकणा जी के संदर्भ शोधपरख वाले आलेख से माननीय रेणु जी को साहित्यिक श्रद्धांजलि प्रस्थापित की है। आपकी लेखनी उनके जीवन परिचय, व्यक्तित्व और साहित्यदर्शन का स्वरूप पाठकमन को उद्वेलित कर रही है। इस उल्लेखनीय, रोचक और अति विस्तृत आलेख के लिए आद. कूकणा जी का आभार और असंख्य शुभकामनाएं।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:26 AM

      आदरणीय सूर्यकान्त जी, आप को लेख शोधपरक व रोचक लगा, मेरा परिश्रम सफल हुआ। इतनी उदार टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

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  6. सुन्दर और समृद्ध लेख डॉ. राय कूकणा जी। अमर कथाकार फणीश्वरनाथ रेणु जी के प्रखर व्यक्तित्व और रचना संसार को संदर्भ-दर-संदर्भ उल्लेखित किया है, जिसे पढ़कर आनंद आया। रेणु जी की कहानियों से गुज़रते हुए ये समझा जा सकता है कि भाषा,बोली और परिवेश के माध्यम से वे अपनी कृति को लोकजीवन के बहुत नजदीक रखते रहें हैं। एक और खास बात जो तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफ़ाम में भी पढ़ने को मिलती है ...वो है प्रेम का अबोलापन, जिसे पाठक पन्ने-दर-पन्ने पढ़ते हुए सहज ही समझ लेता है कि यह अव्यक्त भाव दरअसल व्यक्त भाव से भी ज्यादा मुखर है और पात्रों के बीच पनपे गहरे प्रेम को बखूबी महसूस कर पा रहा है। इस समृद्ध और विस्तृत आलेख जे लिए आपको बहुत बधाई।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:30 AM

      आदरणीया आभा जी, इस सारगर्भित टिप्पणी में कितनी बड़ी बात कही आपने - “प्रेम का अबोलापन” और रेणु की अव्यक्त भाव को व्यक्त करने की अनूठी प्रतिभा! “महुआ घटवारिन” जैसी लोक कथाओं व लोकगीतों के माध्यम से “प्रेम के इस अबोलेपन” को शायद ही कोई अन्य साहित्यकार इतना मुखर कर सके जितना रेणु ने अपनी कृतियों में किया है। आपके स्नेहपूर्ण सन्देश से अभिभूत हूँ !

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  7. राय कूकणा जी, आपको इस सार्थक और जानकारीपूर्ण के लिए बहुत-बहुत बधाई। आपने फणीश्वर नाथ रेणु जी के साहित्य पर पड़े उनके व्यक्तित्व के प्रभाव को बख़ूबी प्रस्तुत किया है। आपने विभिन्न उदाहरणों से इस तथ्य की क्या खूबसूरत पुष्टि की है कि रेणु जी ने जो जिया वही लिखा और जो लिखा उसे जिया भी। आपका इस आलेख के लिए तहे दिल से शुक्रिया।

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:36 AM

      आदरणीया प्रगति जी, आपको लेख तथ्यपरक और सन्दर्भ तथा उदाहरण सटीक लगे, ये जानकर मन पुलकित है । ह्रदय तल से धन्यवाद ।

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  8. वाआह आद कूकणा जी, कितना सुंदर, सारगर्भित,समृद्ध करता, सरस आलेख..!
    आनंद आ गया पढ़कर। रेणु जी को इतनी खूबसूरती से समझा और समझाया आपने...!
    उनके जीवन से जुड़े हर पहलू को आपने टटोला और विश्लेषित किया। 8स सुंदर आलेख के लिये बहुत बहुत शुक्रिया एवं बधाई आदरणीय..!

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    1. डॉ. राय कूकणाMarch 6, 2022 at 9:44 AM

      आदरणीया सरस दरबारी जी, जितनी सरसता एवं सुंदरता से आपने प्रतिक्रिया दी तथा लेख का आनन्द लिया, मैं भी उसी अनुपात में आपका आभारी हूँ। आपका अपना ब्लॉग भी अच्छा लगा। हार्दिक शुभ कामनाएँ !

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कलेंडर जनवरी

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आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...