
संत ज्ञानेश्वर महाराष्ट्र के प्रसिद्ध संत हैं। छोटी उम्र से ही वे एक ऐसे आध्यात्मिक योद्धा थे, जिन्होंने सदियों तक उच्चतम ज्ञान से दूर रखे गए साधारण जन के मन में ज्ञान और भक्ति से भरे आंदोलन द्वारा चेतना जागृत कर समाज में आध्यात्मिकता को पुनः प्रतिष्ठित किया। संत ज्ञानेश्वर ने इंसानों के बीच फैले भेद-भाव और गलत मान्यताओं का खंडन करते हुए सभी के कल्याण पर बल दिया।
संत ज्ञानेश्वर का जीवन विपत्तियों से भरा रहा, जिस कारण उनके जीवन में भी सवा लाखी सवाल उठे। इन सवालों के कारण उन्होंने न केवल स्वयं ज्ञान प्राप्त कर आत्मसाक्षात्कार किया, बल्कि अन्य लाखों-लाख लोगों को भी ज्ञान और भक्ति के मार्ग पर चलने हेतु प्रेरित किया।
संत ज्ञानेश्वर का जीवनकाल मात्र २१ वर्ष का ही रहा। एक इक्कीस साल का युवा अपने सभी कर्तव्य पूरे कर, अव्यक्तिगत पृथ्वी लक्ष्य (पृथ्वी पर रहते हुए ही अपने मन को अकंप, निर्मल बनाकर, प्रेम, आनंद और मौन की अभिव्यक्ति करना) पूरा कर महासमाधि ले लेता है, तो उसके अंदर सत्य के प्रति कैसी दृढ़ता होगी?, उसका ज्ञान किस ऊँचाई पर होगा?, उसमें कैसा आत्मबल और मनोबल होगा?, कितने तप, कितने प्रयासों और परीक्षाओं के बाद उसकी यह अवस्था आई होगी?, ये सब निश्चित ही मनन करने योग्य बातें है। संत ज्ञानेश्वर ने जन-जन को भक्ति के अमृत से भिगोने के लिए तीर्थ यात्राएँ शुरु की, जिन्हें वारकरी यात्रा कहा जाता है। यह महाराष्ट्र प्रांत की संस्कृति का अभिन्न अंग है, जो सैकड़ों वर्षों से नियमित रूप से चली आ रही है। वारकरी शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है। वारी का अर्थ है परिक्रमा और करी का अर्थ है करनेवाला। इस यात्रा में शामिल हुए भक्तों को वारकरी कहते है। वारकरी अपने-अपने गाँव से उस स्थान के प्रमुख संत की पालकी लेकर पंढ़रपुर की ओर पैदल ही चल पड़ते हैं। नाचते-झूमते, भजन-अभंग गाते, विठ्ठल-विठ्ठल जपते हुए, वे भक्ति भाव में डूबकर पद यात्रा करते हैं। संत ज्ञानेश्वर के साथ उनके भाई-बहन की वारकरी यात्रा आठ वर्ष की आयु में शुरू हुई थी। क्या हम कल्पना कर सकते हैं, कि एक १० साल का गुरू अपने आठ वर्ष के शिष्य को ब्रह्मज्ञान दे रहा है और शिष्य न सिर्फ़ ज्ञान ले रहा है, बल्कि उसे अपने जीवन में उतार रहा है। ज्ञानदेव समस्त समस्याओं का सामना कर, ज्ञान के मार्ग पर चलते रहे।
संत ज्ञानेश्वर के अवतार को संघ का अवतार कहा जा सकता है क्योंकि चारों भाई-बहन, निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव और मुक्ताबाई ने एकसाथ मिलकर लोगों का आध्यात्मिक विकास किया। पृथ्वी पर ऐसा बहुत कम हुआ है कि लोगों की समझ और चेतना बढ़ाने के लिए एक पूरे संघ ने अवतार लिया हो।
संत ज्ञानेश्वर को अपने भाई एवं गुरू निवृत्तिनाथ से पूरा ज्ञान मिल चुका था। उन्होंने सत्य प्राप्त कर लिया, मगर वे रुके नहीं। उन्होंने सोचा, वेद-शास्त्रों का ब्रह्मज्ञान संस्कृत जाननेवाले एक वर्ग विशेष तक सीमित नहीं रहना चाहिए, इसे तो जन-जन तक पहुँचना चाहिए। इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए वे कीर्तन और प्रवचन का आयोजन करने लगे और उन्हें सुनने के लिए दूर-दूर के गाँवों से लोग आने लगे। वे अपनी काव्यात्मक शैली का इस्तेमाल करते हुए संस्कृत में उपलब्ध ज्ञान को सरल लोकभाषा में प्रस्तुत किया करते थे। उनके शब्द सरल थे, मगर उन शब्दों में छिपा ज्ञान गुरू-कृपा और उनके स्व-अनुभव से आ रहा था इसलिए वे शब्द संस्कृत भाषा के श्लोकों से भी अधिक प्रभावी सिद्ध हो रहे थे।
संत ज्ञानेश्वर की अमृतवाणी को सुनकर लोगों में भक्ति और प्रेम बढ़ रहा था। उन्हें सुनने हर जाति के लोग आते थे। समाज में असंतुलित स्थिति बनी हुई थी। वर्णभेद और जातिभेद की जड़ें गहराई तक फैली हुई थीं। वेदों में उपलब्ध संस्कृत भाषा में लिखा हुआ ज्ञान निम्न जाति के लोगों की पहुँच से कोसों दूर था। समाज की आवश्यकता को समझते हुए और संत ज्ञानेश्वर के जनसाधारण पर बढ़ते प्रभाव को देखते हुए, संत निवृत्तिनाथ ने उनसे श्रीमद्भगवद्गीता पर भाष्य लिखकर इस पवित्र ग्रंथ को जनसामान्य के समझने योग्य सहज मराठी भाषा में करने को कहा, ताकि हर कोई इस ग्रंथ में छिपे ज्ञान का अमृत पान कर सके। अपने गुरू की आज्ञानुसार संत ज्ञानेश्वर ने इस दिशा में तुरंत कार्य आरंभ कर दिया। मात्र १३ साल की उम्र में संत ज्ञानेश्वर ने ज्ञानेश्वरी को आरंभ किया। इसके अलावा उन्होंने सरल भाषा में हरिपाठ, अनुभवामृत आदि ग्रंथ लिखकर जन सामान्य के लिए ज्ञान के द्वार खोल दिए। आज भी लोग संत ज्ञानेश्वर के उस महान कार्य का लाभ ले रहे हैं। वे अनेक पीढ़ियों के करोड़ों लोगों के लिए ज्ञान प्राप्ति के निमित्त बने। इससे बड़ी मानव धर्म की सेवा और क्या हो सकती है! उन्होंने ज्ञानेश्वरी लिखकर कर्मयोग का और अनुभवामृत लिखकर ज्ञानयोग का मार्ग दिखाया, लेकिन वे यह बात जानते थे कि अधिकांश लोगों को कर्मयोग या ज्ञानयोग को समझने में कठिनाई हो सकती है। अज्ञानी से अज्ञानी मनुष्य भी भक्ति भाव से ईश्वर का नाम लेकर ईश्वर को पा सकता है। इसलिए बहुसंख्य लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए भक्ति योग को लोकप्रिय बनाया।
उन्हें आभास था कि निर्गुण उपासना आम लोगों को रास नहीं आएगी और उनके पल्ले नहीं पड़ेगी। इसलिए उन्होंने सगुण उपासना को भी लोकप्रिय बनाने का बीड़ा उठाया। संत ज्ञानेश्वर ने सिमरन की महिमा का प्रचार किया, भक्ति के अभंग लिखे। उन्होंने भक्ति के महा आंदोलन का प्रारंभ कर पूरे समाज के चिंतन की दिशा ही बदल दी। उन्हें अज्ञान के अंधेरे से निकालकर प्रेम, सद्भावना और भक्ति का उजाला दिया।
गीता के उच्चतम ज्ञान को ज्ञानेश्वरी के द्वारा आम जनता तक लाने का महान कार्य संत ज्ञानेश्वर द्वारा हुआ। गुरू निवृत्तिनाथ ने भी संत ज्ञानेश्वर से कहा 'तुमने ज्ञानेश्वरी रच कर आम लोगों में ज्ञान और भक्ति तो जगा दी है, अब तुम सत्य के खोजियों को अपनी साधना के अनुभव बताओ और उन्हें प्रेरित करो।'
अपने गुरू की आज्ञा मानकर उन्हें सम्मान देते हुए संत ज्ञानेश्वर ने दस दिनों तक अपनी साधना के अनुभवों पर प्रवचन दिया। इन प्रवचनों को मिलाकर जो ग्रंथ बना, उसे 'अमृतानुभव' नाम दिया गया।
अमृतानुभव में अद्वैत की स्तुति की गई है। अद्वैत का अर्थ है -'एक', जहाँ दूसरा कोई है ही नहीं। यही अंतिम सत्य और परम चैतन्य का ही रुप है। वहीं दूसरे अध्याय में संत ज्ञानेश्वर ने खोजियों को सद्गुरु की महिमा बताई। उन्होंने कहा है कि मायारूपी जल में डूबने के बाद भी मनुष्य ज्ञानी सद्गुरू की सहायता से तैर सकता है और उसे पार कर सकता है। अमृतानुभव की कुछ पंक्तियों को समझते हैं -
राती नुरेचि सूर्या। नातरी लवण पाणिया।
नुरे जेवी चेइलिया। नींद जैसी।।
कापुराचे थडीव। नुरेचि आगीची बरव।
नुरेचि रूप नाँव। तैसे यया।।
अर्थात जिस प्रकार सूरज के उगने पर रात नहीं बचती, पानी में डालने पर नमक नहीं बचता, जागने पर नींद नहीं बचती, जिस प्रकार कपूर के अलग-अलग नाम, रुपों वाले आभूषणों को आग के पास ले जाने पर वे शेष नहीं बचते, विलीन हो जाते हैं, ऐसे ही सद्गुरू के पास आने पर शिष्य नहीं बचता। यहाँ शिष्य के न बचने का अर्थ है उसका 'मैं' भाव, गुरू से अलग होने का अहंकार नष्ट हो जाता है। उसमें 'मैं अलग', 'गुरू अलग' का भेद समाप्त हो जाता है।
संत ज्ञानेश्वर एक भक्त, ज्ञानी, सिद्ध योगी, दूरदर्शी कवि और सत्य प्रचारक भी थे। इतने सारे गुणों की अभिव्यक्ति संत ज्ञानेश्वर ने मात्र २१ साल के छोटे से जीवनकाल में कर डाली।
संत ज्ञानेश्वर की महासमाधि
एक निस्वार्थ जीवन की इससे बड़ी उपलब्धि क्या होगी कि पृथ्वी पर वह लाखों करोड़ों लोगों की जागृति का निमित्त बने! संत ज्ञानेश्वर के मन में एक ऐसा विचार आया कि संजीवनी समाधि ले ली जाए। उन्होंने गुरू निवृत्तिनाथ से इस विषय पर बात की लेकिन निवृत्तिनाथ मौन रहे, संत ज्ञानेश्वर ने अपनी बात पुनः दोहराई लेकिन फिर भी निवृत्तिनाथ मौन ही रहे। तब संत ज्ञानेश्वर खुश हो गए क्योंकि वे जानते थे कि निवृत्तिनाथ का जवाब 'हाँ' नहीं था, मगर 'ना' भी नहीं था। दोनों के बीच मौन संवाद हुआ था। संत ज्ञानेश्वर समाधि का निर्णय स्वंय ले सकते थे, मगर उन्होंने गुरू की आज्ञा लेना आवश्यक समझा। गुरू की आज्ञा लिए बिना वे समाधि नहीं लेना चाहते थे। उपयुक्त समय आने पर उन्होंने समाधि लेने का निश्चय किया और मात्र २१ वर्ष की आयु में संत ज्ञानेश्वर आलंदी में समाधिस्थ हुए।
समाधि का अर्थ चेतना की उस उच्चतम अवस्था से है जहाँ अनुभव, अनुभवकर्ता और जिसका अनुभव किया जा रहा हो, तीनों का भेद समाप्त हो जाता है।
इयेचें करुनि व्याज। तूं आपण्यातें बुझ।
दीप दीपपणें पाहे निज। आपुलें जैसे।।
अर्थात जैसे दीपक खुद अपने ही प्रकाश से प्रकाशित होता है, वैसे ही मैंने जो भी इस पत्र में लिखा है, उसे समझकर तुम अपनी वास्तविकता को पहचानो और खुद ही एकत्व बनो।
संत ज्ञानेश्वर : जीवन परिचय |
मूल नाम | ज्ञानदेव |
जन्म | आलंदी, महाराष्ट्र, १२७५ ई० |
समाधिस्थ | आलंदी, महाराष्ट्र, १२९६ ई० |
पिता | विट्ठल पंत |
माता | रुक्मिणी बाई |
सहोदर | भाई - निवृत्तिनाथ, ज्ञानदेव, सोपानदेव। बहन - मुक्ताबाई। |
गुरू | भाई निवृत्तिनाथ |
साहित्यिक रचनाएँ |
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उपलब्धि |
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संदर्भ
संपूर्ण सुलभ ज्ञानेश्वरी (मराठी), संपादक : का० अ० जोशी।
संत ज्ञानेश्वर (समाधि रहस्य और जीवन चरित्र) सरश्री द्वारा।
लेखक परिचय
पूनम मिश्रा 'पूर्णिमा'
बायोकेमिस्ट्री में स्नातक, पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन में परास्नातक।
१५ वर्ष तक हिंदी व अँग्रेज़ी अख़बार में सहायक संपादक के पद पर कार्यरत रही।
डॉ० एपीजे अब्दुल कलाम का साक्षात्कार।
बॉलीवुड से प्रमुख हस्तियों का साक्षात्कार (यश चोपड़ा, महेश भट्ट, रवि चोपड़ा आदि)।
भाषा ज्ञान : हिंदी, अँग्रेज़ी, मराठी, बंगाली, कन्नड़।
सर्वश्रेष्ठ महिला पत्रकार से मध्य रेलवे द्वारा सम्मानित।
बहुत बढिया लेख, पूर्णिमा जी.
ReplyDeleteसंत ज्ञानेश्रर जी ने ज्ञानेश्वरी ग्रंथ अर्थात "सटीक भावार्थ दीपिका" पूर्ण करने के उपरांत ईश्वर को जो प्रार्थना लिखी थी,उसे 'पसायदान' से मराठी विश्व में ख्याति प्राप्त हुई है। अत्यंत कष्टदायी जीवन बिताने पर गीता ग्रंथ पर सटीक विवरण प्राकृत मराठी में लिखा। संन्यासी के पुत्र के नाम से जाति से बहिष्कृत किया गया। सनातन धर्म की ज्योत प्रज्वलित करके आम लोगों में ज्ञान गंगा प्रवाहित की। तत्कालीन आसान प्राकृत भाषा में गीता का ज्ञान प्रवाहित किया जो वर्षों से संस्कृत भाषा की मर्यादा में बंधा हुआ था।संत ज्ञानेश्वर संतों में क्रांतिकारक संत थे जिहोंने दीन दुखी आम लोगों के लिए धार्मिक कार्य किया। मराठी के प्रथम आद्य कवि, अनुवादक, समीक्षक, मार्गदर्शक संत ज्ञानेश्वर के चरणों पर पसायदान का हिंदी अनुवाद सविनय सादर प्रस्तुत है। मेरी अल्प बुद्धि से यह अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ।
(विजय नगरकर )
*पसायदान*
विश्वरचयिता ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ
मेरे वाक यज्ञ से संतुष्ट होकर
मुझे अनुग्रहित करके प्रसाद प्रदान करें। (1)
दुष्टों की दुर्भावना का अंत हो,
सत्कर्म के प्रति दुष्टों की आस्था बढ़े
विश्व में मित्र भाव प्रवाहित होकर
सभी जीवों में मित्रता बढ़े । (2)
पापी के मन का अज्ञान रुपी अंधकार दूर हो
विश्व में स्वधर्म रुपी उषा काल हो
सभी जीवों की मंगल मनोकामनाएँ पूर्ण हो (3)
सर्वत्र मंगल वृष्टि से
सकल विश्व को पुलकित करनेवाले
ईश्वरनिष्ठ संत
सभी जीवों पर कृपा करें (4)
वे सभी सुसंवादी संत कल्पतरु समान
उद्यान हैं
चेतनारूपी चिंतामणी रत्नों के पुर हैं
अमृत स्वर की गर्जना करनेवाले समुद्र हैं (5)
बेदाग पूर्णिमा के चंद्र और
ताप रहित सूर्य के समान संत सज्जन
सभी जीवों के मित्र हो जाएं (6)
त्रिलोकों में सर्व सुख सम्पन्न पूर्ण होकर
विश्व के आदि पुरुष की सेवा करें (7)
यह ग्रंथ जिनका जीवन है
वे इस विश्व के दृश्य और अदृश्य
भोग पर विजय प्राप्त करें (8)
इति विश्वेश्वर गुरु श्री निवृत्तिनाथ
आशीर्वाद देकर बोले
यह प्रसाद तुझे प्राप्त हो
यह वर पाकर ज्ञानदेव सुखी हो गया (9)
पूनम जी , संत ज्ञानेश्वर के जीवन एवं कृतित्व पर प्रकाश डालने वाले आपके लेख के लिए धन्यवाद ।संत ज्ञानेश्वर का यह प्रयास कि आध्यात्मिक ज्ञान केवल कुछ लोगों के पांडित्य तक सीमित न रहकर जन-जन तक पहुँचे , सब “एक” ही का अनुभव कर सकें , प्रशंसनीय है। आपके आलेख ने बचपन के उन दिनों की याद दिला दी जब विद्यालय में हमें “संत ज्ञानेश्वर” फ़िल्म दिखाई गई थी और हम अक्सर गाया करते थे:
ReplyDeleteजोत से जोत जगाते चलो।
प्रेम की गंगा बहाते चलो।
💐💐
बहुत बढ़िया लेख पूर्णिमा जी। इस लेख के माध्यम से संत ज्ञानेश्वर के बारे में विस्तार से जानने का अवसर मिला। आपको बहुत बधाई और धन्यवाद।
ReplyDeleteपूनम जी नमस्कार। आपको इस ज्ञानवर्धक लेख के लिये हार्दिक बधाई एवं साधुवाद। इस लेख के माध्यम से मुझे संत ज्ञानेश्वर जी के बारे में विस्तृत रूप से जानने का अवसर मिला। आपने इस लेख को बहुत ही भावपूर्ण एवं रोचक बनाया है। पुनः बधाई।
ReplyDeleteमहाराष्ट्र के आध्यात्मिक योगी वारकरी संत श्री गुरु ज्ञानेश्वर महाराज और उनके भाई और बहन मुक्ताबाई का जीवन अनेक कठनाइयों से घिरा रहा। वह एक साक्षात्कारी एवं शांतप्रिय संत कवि थे। उनके अभंग रचनाओं के द्वारा महाराष्ट्र के साथ साथ सारे देश मे महाराष्ट्र की परंपरा, भक्तिप्रेम और संस्कृति का साहित्य खजाना पहुंचा है। हम बचपन से उनकी संत वाणी हमारे पिताजी के मुख से सुनते आ रहे है। एक दंतकथा में तो यह भी सुना था कि अपनी दिव्य शक्ति से उन्होंने महान ज्ञानी पंडितो के सामने एक भैसे के मतिष्क पर अपना हाथ रखकर गीता के एक श्लोक का उच्चारण कराया था। उनका जन्म स्थान आलंदी हमारे गाँव से सिर्फ 10 किलोमीटर दूरी पर है। आज आदरणीया पूनम जी का मराठी संत महात्मा के बारे में लेख पढ़कर मन गदगद हो गया। बड़े ही अभिव्यंजक और अर्थतापूर्ण ढंग से उन्होंने अपने आलेख में संत ज्ञानेश्वर जी के मराठी अभंग का हिंदी अनुवाद कर पूरे लेख को भक्तिमय कर दिया। आदरणीया पूनम जी इस सुंदर आलेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और असंख्य आभार।
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