Friday, March 11, 2022

ग्राम्य-जीवन के यथार्थवादी और निर्लिप्त चितेरे : हिमांशु श्रीवास्तव

 

मँगरू चाहता है कि बाप के इलाज के लिए ठाकुर से डाक्टर के नाम चिट्ठी लिखवा ले। लेकिन उसका बाप कहता है- "आखरी वक्त यह दाग मत लगवाओ।...हाँ दाग नहीं तो और क्या! तीन पुश्त तक हम लोग इनके दरवाजे की धूर बने रहे हैं। अब ठाकुर हम लोगों का उद्धार कर फेंक दें, वही अच्छा है।"
मँगरू की पत्नी चाहे तो मायके जाकर भूख और गरीबी से जान बचा सकती है। लेकिन वह अपने पति को छोड़कर नहीं जाना चाहती। कहती है- "भूखों मरते अच्छा नहीं लगता, मगर जब रामजी तुम्हारा दिन लौटाएँगे, तो मेरे बदले और कौन सुख करेगा? मैं भाई-बाप के दरवाजे नहीं जाऊँगी।" 
मँगरू अपने मित्र टीपू की पत्नी से कुछ उधार माँगने जाता है। घर की मालकिन सास हैं। टीपू की पत्नी मँगरू से कहती है, "ए बबुआ! घर की मालकिन तो 'वे' हैं। दो पैसे चाहे चार पैसे, सब उन्हीं के पास रहता है। मैं तो काम करना जानती हूँ, मेरे पास कहाँ से आएगा। जब तुम्हारे भाई आते हैं, तो दो-चार आने दे जाते हैं। वही बटोर कर रख दिया है। अगर तुम चाहो तो उसे ले जाओ। अगर उससे तुम्हारा भला हो जाए, तो मैं समझूँगी कि मेरा चोरउका पैसा भी स्वारथ हो गया।" -'लोहे के पंख' से 

प्रेमचंद के गोदान में नगरीय जीवन प्रणाली के प्रति ग्राम्यवासियों के मन में आकर्षण का जो एक छोटा सा अंकुर फूटता है, वह हिमांशु श्रीवास्तव के 'लोहे के पंख' और 'नदी फिर चली' में बड़ा होकर एक वटवृक्ष बन जाता है।
 
ये उस समय की कथाएँ हैं, जब स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद औद्योगिक विकास के कारण नगरों व महानगरों को जीविका की समस्या से निदान पाने के प्रमुख विकल्प के रूप में देखा जाने लगा था और महानगरों का घनत्व बहुत तेजी से बढ़ने लगा था। किंतु जो निदान था, उसकी अपनी समस्याएँ और चुनौतियाँ थीं। पेट भर लेना कुछ आसान अवश्य हो गया था, किंतु मनुष्य के लिए समस्याओं की एक नई पोटली खुल गई थी। जिसमें प्रमुख थे जीवन-शैली में बदलाव और सांस्कृतिक उहापोह व संघर्ष।

नई जीवन प्रणाली अपनाने की होड़ में ग्राम्यवासी अपने नैसर्गिक और प्राकृतिक जीवन शैली से बहुत दूर जाने लगे थे। जैसे कि 'नदी फिर बह चली' का जगलाल अपनी ग्रामीण पत्नी परबतिया के लिए नए सौंदर्य प्रसाधन इसलिए लाया क्योंकि शहरी स्त्रियाँ इसका प्रयोग करती थीं और उसकी मान्यता थी कि इनके प्रयोग से ही एक स्त्री सुंदर लगेगी। सांस्कृतिक उहापोह और संघर्ष तब उभर कर आया, जब परबतिया के साथ सिनेमा देखते हुए जगलाल इस बात पर कुढ़ा कि उसने अपने सीने को आँचल से ढँका हुआ था, जबकि अन्य शहरी स्त्रियाँ सीने पर आँचल या दुपट्टा नहीं रखती थीं और बेपरवाही से पुरुषों के साथ बात करती थीं। 'नदी फिर बह चली' में परबतिया का चरित्र जुझारू एवं संघर्षशील है। वस्तुतः परबतिया के रूप में लेखक ने एक ऐसी सजग स्त्री को गढ़ा, जो नारी जाति को नवजागरण का संदेश देते हुए सामाजिक न्याय और मूल्यों की रक्षा के लिए संघर्ष करती है। 

हिमांशु श्रीवास्तव की वर्णन विशदता और अनुभव बहुत बड़े थे, जिसे आज तक कोई और छू नहीं सका है। उनके उपन्यासों में कथा का कैनवास प्रायः बहुत बड़ा होता था, जिस पर वे अत्यंत बारीकी से शब्दकारी करते थे। मूर्द्धन्य समालोचक और साहित्यकार डॉ० रामकुमार वर्मा ने कहा था - "हिमांशु श्रीवास्तव के उपन्यासों ने हिंदी उपन्यास को गंगा जैसी उदात्तता प्रदान की है।"
 
उनकी रचनाओं में यथार्थवाद का उच्चतम शिखर दिखाई देता है। डॉ० शंकर प्रसाद ने कहा था कि यथार्थवादी लेखन की परंपरा में हिमांशु श्रीवास्तव का नाम प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अमृतलाल नागर की श्रेणी में आता है। प्रख्यात लेखक यशपाल ने तो यहाँ तक कह दिया था कि हिमांशु श्रीवास्तव की रचना 'लोहे के पंख' यथार्थवाद के संदर्भ में प्रेमचंद के गोदान से भी आगे निकल जाती है।

इस कथाकार के बेजोड़ शब्द चित्रण और प्रखर यथार्थवाद के अतिरिक्त उनके लेखन की दो और बड़ी विशेषताएँ उनकी तटस्थता और निर्लिप्तता थी। वे अपने शब्दों से चित्र बनाते जाते और उसे किस रूप में लेना है, वह पाठकों पर छोड़ देते। उस समय की एक ज्वलंत सामाजिक समस्या दहेज-प्रथा पर केंद्रित उनका उपन्यास 'पियावसंत की खोज' में यथार्थवाद के साथ-साथ उनकी तटस्थता का उत्कर्ष भी देखने को मिलता है। 

उन्होंने मनोविज्ञान से स्नातकोत्तर किया था, अतः मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं को बहुत अच्छी तरह समझते थे। सम्भवतः यही कारण रहा होगा कि अपने उपन्यासों में समस्या को उन्होंने एक पक्षकार नहीं, अपितु न्यायाधीश की भाँति देखा है। 'पियावसंत की खोज' में दहेज-प्रथा की विभीषिका के साथ-साथ कन्या के माता-पिता के मन की दोहरी गति को भी बहुत ही सहज और प्रभावी ढंग से चित्रित किया गया है। 

ऐसे अद्भुत उपन्यासकार, हिमांशु श्रीवास्तव, का जन्म ११ मार्च सन १९३४ में बिहार के सारण जिलांतर्गत दिधवारा अंचल के हराजी ग्राम में हुआ। उनकी माताजी यशोदा सहाय मिथिलांचल की थीं और दरभंगा महाराज द्वारा संचालित राज कन्या विद्यालय में प्रधान-अध्यापिका थीं। पिताजी, कैलाशपति सहाय को ब्रिटिश शासन द्वारा दरभंगा महाराज के लिए सुरक्षा और आसूचना इकाई के प्रमुख प्रभारी के रूप में नियुक्त किया गया था। आर्थिक संपन्नता और राष्ट्र प्रेम के बीच सदैव अंतर्द्वंद्व रहा। महात्मा गांधी जी के आग्रह पर कैलाशपति जी ने राजकीय सेवा से त्यागपत्र दिया। उसके बाद ब्रिटिश सरकार उन पर निगरानी रखने लगी। हिमांशु छोटे ही थे कि माता-पिता दोनों का निधन हो गया। 'नदी फिर बह चली' उपन्यास में यह तथ्य कथा में गूँथा गया है। मौसी के अत्याचार से पीड़ित बालक हिमांशु भाग कर चाचा के घर चले आते और जैसे-तैसे जीवन व्यतीत करते। उस मातृ-पितृविहीन बालक के लिए स्कूल की फीस के मासिक दस आने भी जुटा पाना भारी काम था। 

जब वे हाईस्कूल में थे, तब हैदराबाद से प्रकाशित होने वाली साहित्यिक मासिक 'कल्पना' में इनकी पहली कहानी छपी। हिमांशु जी की प्रतिभा का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुत ही कम आयु में उनके नाटक 'उमर खैयाम' का आकाशवाणी से राष्ट्रीय प्रसारण किया गया। पचास के दशक में उनके उपन्यासों का प्रकाशन आरंभ हुआ। उनका पहला उपन्यास 'रात पागल हो गई' अठ्ठारह की वय में प्रकाशित हुआ। तब से चार दशक से अधिक तक वे संघर्ष करते हुए अनवरत लेखन करते रहे। 

'हंस' पत्रिका में हिमांशु जी ने अपने एक संस्मरण में लिखा कि 'लोहे के पंख' उपन्यास की भूमिका लिखने के आड़ में एक चर्चित कवि और सामाजिक सरोकार से प्रतिबद्ध साहित्यकार ने पांडुलिपि को वर्ष भर दबाए रखा। बाद में उन्होंने रचनाकार के रूप में उस उपन्यास की भूमिका स्वयं लिखी - "कलाकार की कौन सी रचना मील का पत्थर है - इसका निर्णय न तो कलाकार ले सकता है, न कोई आलोचक। काल की कसौटी ही कला की आयु निश्चित करती है।" १९५८  में 'लोहे के पंख' उपन्यास प्रकाशित हुआ और देखते-देखते इसकी धूम मच गई। यह उपन्यास समकालीन साहित्यकारों और आलोचकों द्वारा मील का पत्थर माना गया और प्रथम राष्ट्रपति स्वर्गीय राजेंद्र प्रसाद जी द्वारा पुरस्कृत किया गया। 

डॉ० रामविलास शर्मा ने 'समालोचक' के फरवरी १९५९ अंक में लिखा - "हिमांशु श्रीवास्तव का 'लोहे का पंख' नामक उपन्यास इस धारा के उपन्यासों में अत्यंत महत्वपूर्ण है।  . . . इस विद्रोही भावना का तथा मिल मज़दूर के जीवन का जितना यथार्थ चित्रण इस उपन्यास में हुआ है, उतना अन्यत्र अभी तक देखने में नहीं आया।"

करीब चौबीस की वय में अपनी भावी पत्नी राजकिशोरी जी से मिलने के बाद, हिमांशु जन-जीवन के प्रति उन्मुख हुए। राजकिशोरी जी ने उनसे कहा, "इतने कड़वे घूँट पीकर साहित्य के क्षेत्र में पधारे हो, तो अपने साहित्य से सामान्य जनों के दर्द को मुखर करो।" दुनियावी अभावों के बावज़ूद, हिमांशु जी का पारिवारिक जीवन उनकी पत्नी की कर्मशीलता, सहृदयता और त्याग के कारण सुखमय रहा। आर्थिक दुर्दशा में भी उनका सृजन जारी रहा। 'लोहे के पंख' के कीर्तिमान के बाद, उस जैसा दूसरा लोकप्रिय उपन्यास लिखने की जद्दोजहद में उनकी पत्नी ने निपट निर्धनता में भी, काँटों में गुलाब सम, उनका पूरा साथ दिया। सुबह ही काम निबटा, कुछ अन्न मुँह में रख, गोद में डेढ़ साल के बच्चे को ले, वे घर से निकल जातीं और बाहर से दरवाज़े पर ताला जड़ देतीं, कि पूरे दिन हिमांशु जी निर्विघ्न लिख सकें। चार महीने की ऐसी तपस्या के बाद 'नदी फिर बह चली' आई और जनमानस में छा गई। लेकिन उन्होंने उपन्यास में जिन लोगों के कुकर्मों का पर्दाफाश किया, वे उनकी जान के दुश्मन बन गए। उनको सपरिवार स्थान बदलना पड़ा। यह सब उनकी पत्नी ने सहजता से स्वीकार किया। 

स्वानुभूत प्रसंगों और वास्तविक चरित्रों को हिमांशु जी ने अपनी  कथाओं में बखूबी इस्तेमाल किया। 'नदी फिर बह चली' की नायिका 'परबतिया' के संग उन्होंने बचपन में खेला था, 'लोहे के पंख' के'बच्चू दादा' को उन्होंने बचपन में देखा था, और 'रथ से गिरी बांसुरी' की 'कावेरी' को भी वे जानते थे।

उनकी अन्य कृतियों में, 'चित्र और चरित्र', 'अपनी-अपनी कंदील', 'रिहर्सल' उनके सामाजिक उपन्यास हैं। 'मन के वन में', 'पूरा-अधूरा पुरुष', 'रात पागल हो गई', 'पीछा करती नज़रें' मनोविश्लेषण की बारीकी से लैस हैं। उन्होंने इतिहास की पृष्ठभूमि पर 'नानाराव पेशवा' और 'सिकंदर' लिखा। नाट्य साहित्य में हिमांशु जी का रेडियो एकांकी में बहुमूल्य योगदान रहा। पाकिस्तान और चीन के आक्रमण के समय उन्होंने जो रेडियो नाटक लिखे, वे जन-जागरण के प्रेरक रहे। 'करवा बढ़ता जाएगा', 'जहाज चलता रहा', 'नए तानसेन', 'राष्टीय सुरक्षा के स्तर' ये बहुचर्चित रेडियो एकांकी हुए। आकाशवाणी प्रसारण सेवा के अंतर्गत अखिल भारतीय नाट्य सप्ताह में ३५ वर्षों तक लगातार उनके नाटकों का राष्ट्रीय प्रसारण किया गया।

पितृतुल्य रामवृक्ष बेनीपुरी जी की प्रेरणा से हिमांशु जी ने बाल-साहित्य में पुख्ता कदम रखा और 'चुन्नू-मुन्नू' पत्रिका के लिए लिखने लगे। उसके बाद इन्होंने अनेक जीवनियाँ, बाल उपन्यास, बाल कहानी संग्रह लिखे। १९६० में छपी अपनी किताब 'पुरुषार्थ के बोलते चित्र (प्रकाश की ओर ले जाने वाले जीवन चरित्र)' में उन्होंने दॉस्तोएव्स्की, चेख़ोव, रामानुजम समेत १५ महान विभूतियों को रेखांकित किया है। इस किताब के आरम्भ में हिमांशु जी ने किशोरों को जीवन का दिशा निर्देश दिया है - घनी अँधेरी रात में, नदी के किनारे श्मशान में तीन आत्माएँ खेद जता रही हैं कि उनका जीवन सार्थक नहीं हुआ, क्योंकि उन्हें औरों से सहयोग नहीं मिला! हिमांशु आगे लिखते है - "तभी नदी तट के अँधियारे से एक प्रकाश पुरुष प्रकट हुआ। उसने आगे बढ़ कर कहा - तुम लोगों को कुछ और नहीं बस आत्मबल और पुरुषार्थ की ज़रूरत थी। तुम लोगों ने अपने-आप में इन्हें नहीं ढूँढा। वरन ये अशेष शक्तियाँ तुम्हें सब कुछ …!" इस तरह वह व्यक्ति के स्वयंसिद्ध होने पर ज़ोर देते हैं। 

भिन्न-भिन्न विषयों और समस्याओं पर अविस्मरणीय छत्तीस उपन्यासों, लगभग पचास बाल उपन्यासों, कई कहानी संग्रहों और रेडियो एकांकियों के रचयिता, हिमांशु जी जीवन पर्यंत मसिजीवी रहे। फिर भी समाज से उन्हें उपेक्षा ही मिली। १९८३ में राजपाल प्रकाशन से छपी अपनी किताब 'शोकसभा' में उन्होंने इस दर्द को वाणी दी। उपन्यास के लेखकीय में हिमांशु जी लिखते हैं - "इल्मो-अदब के लिहाज़ से अपने मुल्क का हाल बेहाल है। कला-संस्कृति के रक्षकों की जन्मकुण्डली में संशोधन करने को वे महाप्रभु बैठ गए हैं, जो नहीं जानते कि कला और संस्कृति क्या है! इसलिए एक कलाकार के दर्द की तस्वीर खींचकर मैंने यह पेशकश की है कि वे चंद रक्तस्नात उँगलियाँ तब तक हमारे कुंडलीचक्र को बनाती-बिगाड़ती रहेंगी, जब तक जनसमाज स्वयं उठकर उन उँगलियों को मरोड़ डालने की दिशा में शंखनाद नहीं करेगा !" यह महज उपन्यास की भूमिका ही नहीं, उनका जीवन अनुभव भी रहा होगा। 

वे हिंदी के उन सौभाग्यशाली लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने साहित्यिक राजनीति के दल से अपने को सर्वथा बचाकर रखा और रचनाधर्मिता के क्षेत्र में अनेक कीर्तिमान स्थापित किए। आज जब हिमांशु श्रीवास्तव की बात आती है, तो मन में एक कसक सी उठती है, कि इतने समर्थ साहित्यकार का इतना समृद्ध कथा संसार हाशिए पर क्यों चला गया? क्यों 'लोहे के पंख' और 'नदी फिर बह चली' का नाम गोदान के साथ नहीं लिया जाता है? क्यों उन्हें उस तरह से पढ़ा-पढ़ाया नहीं जाता है, जिस तरह कि उनकी क्षमता वाले रचनाकारों को पढ़ाया जाता है?

इस संदर्भ में डॉ० शंकर प्रसाद की बातें याद आती हैं, जो उन्होंने एक सेमिनार में कहीं- "साहित्य के मठाधीशों की नजर जिस पर चली जाए, पूछ उसी की होती है। वरना कौन, किसे पूछता है।" उपन्यासकार हिमांशु श्रीवास्तव के साथ ऐसा ही हुआ। वे उस जमात में शामिल नहीं हुए, जिसके सहारे आगे बढ़कर समकालीन उपन्यासकारों ने प्रसिद्धि कमाई। उन्होंने सृजन का रास्ता चुना और धीरे-धीरे मंडलियों से कटते चले गए। ऐसा नहीं था कि मित्रों और प्रशंसकों की कमी थी। विष्णु प्रभाकर जी और सेवाराम यात्री जी अक्सर पटना आते, तो उन्हें साहित्यिक गतिविधियों की जानकारी देते। उनके इकलौते बेटे पद्मसंभव श्रीवस्तव का नामकरण भी राहुल सांकृत्यायन जी द्वारा किया गया। हिमांशु ने अपने साहित्यिक मित्रों पर बहुत से लोकप्रिय संस्मरण भी लिखे। १९९२ से १९९३, वर्षभर नवभारत टाइम्स ने प्रति सप्ताह उनके संस्मरण छापे। इनमें दिनकर, यशपाल, 'आचार्यों के आचार्य' शिवपूजन सहाय, रेणु, रामवृक्ष बेनीपुरी, अमृतलाल नागर शामिल हैं। कहते हैं कि रेणु 'मैला आँचल' के लेखन क्रम में ही वह उपन्यास हिमांशु को पढ़ कर सुनाते थे। 

बिहार और उत्तर प्रदेश समेत सुदूर दक्षिण भारत की साहित्यिक संस्थाओं द्वारा उनकी रचनाओं को पुरस्कृत किया गया और उनके लेखन पर पीएचडी शोध हुए। तमिलनाडु और महाराष्ट्र के महाविद्यालयों के पाठ्यक्रम में उनकी रचनाओं को सम्मिलित किया गया। १९९१ में हिमांशु जी को राज्य सरकार द्वारा साहित्यिक जीवन में योगदान हेतु राजकीय सम्मान दिया गया। उनके सुपुत्र पद्मसंभव बताते हैं कि कोई भी पुरस्कार ले कर हिमांशु जी जब घर लौटते, तो शील्ड को एक कोने में रखकर नया उपन्यास पूरा करने में जुट जाते। 
 
जीवन भर रचनाशील रहने वाले इस महान साहित्य सर्जक को अंत समय में बीमारियों ने घेर लिया। २६ मई १९९६ को उन्होंने इस धरती पर अपने अंतिम प्रणाम लिखे और दुनिया से विदा ली। जीते जी समाज ने हिमांशु जी को कुछ नहीं दिया, अब समय है कि साहित्य में उनके अमूल्य योगदान का पुनः मूल्यांकन हो।

हिमांशु श्रीवास्तव : जीवन परिचय 

जन्म

११ मार्च १९३४ हराजी ग्राम, दिधवारा, बिहार

निधन

२६ मई १९९६ 

माता-पिता 

यशोदा एवं कैलाशपति सहाय (बाल्यावस्था में ही चल बसे) 

पत्नी 

राजकिशोरी सहाय 

कर्मभूमि एवं व्यवसाय 

लेखक, पटना; आकाशवाणी पटना 

शिक्षा एवं शोध

उच्च शिक्षा 

एम० ए० - मनोविज्ञान 

साहित्यिक रचनाएँ

उपन्यास

  • लोहे के पंख

  • नदी फिर बह चली

  • पैदल और कुहासे

  • दो आँखों की झील

  • कुहासे में जलती धूपबत्ती

  • मन के वन में

  • पियावसंत की खोज

  • परागतृष्णा

  • शोकसभा

  • प्रियाद्रोही

  • चित्र और चरित्र

जैसे अविस्मरणीय चौंतीस  उपन्यास
  • लगभग पचास बाल उपन्यास 

कहानी संग्रह  

  • कथा सुंदरी (१९५५)

  • जेलयात्रा (१९५५)

  • हंस चुगे ज्यों  सीप से मोती (१९६३)

  • हाथ का जस (१९६४)

रेडियो एकांकी 

  • करवा बढ़ता जाएगा

  • जहाज चलता रहा

  • नए तानसेन

  • राष्टीय सुरक्षा के स्तर

संस्मरण 

४३ संस्मरण, जिसमें १६ साहित्यकारों पर आधारित हैं। 

पुरस्कार व सम्मान

  • 'लोहे के पंख' के लिए राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद जी द्वारा राष्ट्रीय सम्मान, १९५८ 

  • उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा १९७४ में सम्मानित 

  • साहित्यिक योगदान हेतु १९९१ में राजकीय सम्मान

संदर्भ

  • http://www.abhivyakti-hindi.org/lekhak/h/himanshu_shrivastava.htm
  • उनकी एक कहानी 'फर्क' यहाँ पढ़ें: http://www.abhivyakti-hindi.org/kahaniyan/2011/fark/farki2.htm
  • https://www.prabhatbooks.com/piyavasant-ki-khoj.htm
  • https://archive.org/details/in.ernet.dli.2015.552198/page/3/mode/2up?view=theater
  • हमें हिमांशु जी का यह चित्र उनके इकलौते सुपुत्र पद्मसंभव श्रीवास्तव जी के सौजन्य से प्राप्त हुआ। उन्हीं के सहयोग से मिली सूचनाएँ और एक पीएचडी थीसिस से हमें इंटरनेट से इतर महत्वपूर्ण नवीन सामग्री प्राप्त हुई जिसको हमने लेख में इस्तेमाल किया। 
  •  शोध सामग्री : (इस लेख के लिए पद्मसंभव जी ने पीएच डी शोध सामग्री, चित्र, एवं बहुत सी जानकारियााँ उपलब्ध करवाईं। शब्दसीमा के चलते हम उनमें से आंशिक ही यहाँ प्रकाशित कर सके हैं )

शोध सामग्री:
पद्मसंभव श्रीवास्तव जी
हिमांशु जी के इकलौते सुपुत्र हैं। वे पटना कॉलेज से मनोविज्ञान में स्नातक के बाद आकाशवाणी पटना, 'स्वतंत्र भारत' में वरिष्ठ फीचर संपादक, व अन्य पत्रिकाओं में आवरण कथा लेखक के रूप में कार्यरत रहे। उनके संस्मरण और प्रामाणित अभिलेखीय विवरण के आधार पर हिमांशु जी की स्मृति में 'ज्योत्स्ना' पत्रिका के विशेषांक में 'फीनिक्स कभी मरता नहीं' आलेख प्रकाशित। उन्होंने दूरदर्शन के लिए हिमांशु जी के उपन्यासों  पर आधारित धारावाहिकों  का पटकथा लेखन और निर्माण किया और अभी स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। padmashiva5005@live.com

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लेखक परिचय:

प्रताप नारायण सिंह

जन्म - उत्तर प्रदेश। 

प्रकाशित कृतियाँ - 

उपन्यास - 'धनंजय', 'अरावली का मार्तण्ड', 'युग पुरुष : सम्राट विक्रमादित्य', 'योगी का रामराज्य', 'जिहाद'।
कहानी संग्रह - 'राम रचि राखा'।
काव्य - 'सीता : एक नारी' (खंडकाव्य), 'बस इतना ही करना' (काव्य-संग्रह)। 
पुरस्कार - 'जयशंकर प्रसाद पुरस्कार', हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश।




शार्दुला नोगजा
जन्म - मधुबनी, बिहार।

शार्दुला एक सुपरिचित हिंदी कवयित्री हैं और हिंदी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं। वे तेल एवं ऊर्जा सलाहकार के रूप में २००५ से सिंगापुर में कार्यरत हैं। उनकी संस्था 'कविताई-सिंगापुर' भारत और सिंगापुर के काव्य स्वरों को जोड़ती है। शार्दुला 'हिंदी से प्यार है' की कोर टीम से 'साहित्यकार-तिथिवार' परियोजना का नेतृत्व और प्रबंधन कर रही हैं।

shardula.nogaja@gmail.com 

17 comments:

  1. लगभग साहित्य की पृष्ठभूमि पर टिके रहे रचनाकार श्री हिमांशु श्रीवास्तव जी के जीवन-चरित्र सहित रचना-कर्म को उद्भाषित करता आलेख वाकइ अलहदा तो है, कारण स्पष्ट है जिस पर त्रिदेव की कृपा हो तो सफलता को कदम तो चूमना ही होगा। साधुवाद स्वीकार हो!🙏

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  2. नमस्कार शार्दूला जी ��☕������❗
    छोटी बहन के रूप में अस्मीभूत रचनाकार को ढूँढकर आपने मुझे और ब्लॉग के पाठकों को उपकृत किया है।
    मैं इस प्रशंसनीय प्रस्तुति और प्रयास के लिए हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।
    पुनः सप्रेम,
    पद्मसंभव श्रीवास्तव
    पटना (बिहार)

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  3. लोकप्रिय साहित्यकारों पर लिखना आसान होता है ; उनका साहित्य और उस पर समालोचना / विश्लेषण आसानी से उपलब्ध होते हैं। लेकिन ऐसे साहित्यकारों पर लिखना कठिन काम है जिन्होंने सृजन तो खूब किया, उच्च कोटि का किया लेकिन अधिक लोग उनके काम को नहीं जानते। प्रताप जी, शार्दुला जी , आप दोनों ने मन लगाकर आलेख लिखा है। हिमांशु जी के कृतित्व पर बहुत जानकारी प्राप्त हुई इस सुंदर लेख से। आपको धन्यवाद।पद्मसंभव जी ने उत्तम शोध सामग्री दी है आपको। आप सबको बधाई, शुभकामनाएँ।

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  4. हिमांशु श्रीवास्तव जी पर बहुत जानकारी भरा लेख है। मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिये बहुत ही उपयोगी लेख है। ये दुःखद है कि कई महान सहित्यकार गुमनामी में रहे। इस मंच के माध्यम से उन लेखकों पर आने वाले शोधपूर्ण लेख निश्चित ही विशेष महत्व के हैं। प्रताप जी एवं शार्दुला जी को इस महत्वपूर्ण लेख के लिये बहुत बहुत बधाई एवं साधुवाद।

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  5. स्तब्ध रह गया हूँ यथार्थवादी साहित्यकार हिमांशु श्रीवास्तव जी का आदरणीय प्रताप नारायण सिंह और आदरणीया शार्दूला जी के द्वारा लिखित आलेख पढ़कर। आलेख की शुरुवात ही इतने रोचक ढंग से हुई है कि एक नजर भी ओझल करने की इच्छा नही हुई। एक से भले दो की कहावत इस आलेख के द्वारा पूरी तरह से सार्थक हो रही है और उस पर माननीय पद्मसंभव जी का महत्वपूर्ण योगदान तो सोने पे सुहाना का काम कर रहा है। आलेख की शब्दरचना इतनी प्रखरता से इस्तेमाल हुई है कि श्रध्देय हिमांशु जी की रचनाधर्मिता का बड़ी बारीकी से ज्ञान प्राप्त हो रहा है। बड़े ही सहज और प्रभावी ढंग से रचे हुए आलेख के लिए आप दोनों रचेयता का बहुत बहुत आभार और अनंत शुभकामनाएं।

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  6. हिमांशु जी पर लेखक द्वय ने इतनी सुंदरता से लिखा है कि पहलेपहल तो लगा कोई कहानी ही पढ़ रहे हैं, रोचक, सरस और सरल लेखनी से तत्कालीन जीवन शैली का भी परिचय मिला।

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  7. हिमांशु श्रीवास्तव जी की साहित्यिक यात्रा और रचना संसार को मैं इस लेख के माध्यम से जान पायी हूँ। इस महत्वपूर्ण और जानकारियों से भरे लेख के लिए शार्दूला जी और प्रताप जी, आप दोनों का बहुत बहुत बधाई और धन्यवाद।

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  8. अभी पहली बार हिमांशु जी के बारे में जानकारी विस्तार से पढी। सुन्दर प्रस्तुति, आभार लेखकों का

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  9. माननीय श्रीवास्तव जी, सिंह साहिब व शार्दूला जी, ग्राम्य जीवन के यथार्थ को उजागर करने वाले महान लेखक हिमांशु जी से हमारा परिचय करवाने के लिए हार्दिक धन्यवाद व इस शोधपरक व विस्तृत लेख के लिए बधाई। मुझे ये जानकर बहुत अच्छा लगा की “रेणु” जी व हिमांशु जी के घनिष्ठ सम्बंध थे और रेणु “मैला आँचल” लिखते समय उन को पढ़ कर सुनाया करते थे। आज हमें उन जैसे यथार्थवादी लेखकों की और भी ज़्यादा ज़रूरत है। पुनः बधाई! 🙏🏽

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30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...