Tuesday, March 8, 2022

इन्द्रधनुषी सृजन के मेघदूत : साहिर लुधियानवी


नैसर्गिक प्रतिभा के धनी, प्रत्येक व्यक्ति की पीड़ा में आत्मपीड़ा की अनुभूति, प्रेम के उच्चतम शिखर का स्पर्श, भावनाओं के साथ श्रेष्ठतम शब्दों का सामंजस्य, एक ओर उर्दू के क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग तो दूसरी ओर भारत के आम जनमानस द्वारा बोली जाने वाली उर्दू-मिश्रित हिंदी (जिसे हिंदुस्तानी कहा जाता है) का प्रयोग, ये समस्त विशेषताएँ अगर किसी एक शायर के लेखन में प्राप्त होती हैं, तो वह हैं साहिर।


साहिर लुधियानवी एक ऐसे शायर हैं, जिन्होंने अपने लेखन के द्वारा मानव हृदय की अनुभूतियों के प्रत्येक आयाम को स्पर्श किया है। साहिर लुधियानवी का संबंध उस प्रगतिशील विचारधारा से है, जिसने लेखन के माध्यम से नवीन काव्यशास्त्र का सृजन करके सौंदर्यबोध और भावुकता को नूतन दृष्टि प्रदान की और आम आदमी की पीड़ा, दुःख-दर्द को यथार्थवादी आईने में रखकर उनके संघर्षों को नई अभिव्यक्ति प्रदान की। 


प्रगतिशील लेखक संघ के लखनऊ में आयोजित स्थापना सम्मेलन में कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने अपने ऐतिहासिक वक्तव्य में कहा था "हमें सौंदर्य की कसौटी बदलनी होगी"। साहिर लुधियानवी ने उसी बदली हुई कसौटी को अपने लेखन में आत्मसात किया है।


साहिर का जन्म लुधियाना (पंजाब) में ०८ मार्च, १९२१ ई० को चौधरी फ़ज़्ल मुहम्मद के घर हुआ था। इनका मूल नाम अब्दुल हई था और इनकी माँ सरदार बेगम पिता की ग्यारहवीं पत्नी थीं। साहिर यूँ तो एक जागीरदार बाप के इकलौते बेटे थे, लेकिन पति के साथ निर्वाह न होने के कारण साहिर की माँ अपने भाईयों के पास आ गईं, इस तरह साहिर का लालन-पालन उनके ननिहाल में हुआ। खालसा स्कूल, लुधियाना में इन्होंने १९२७ ई० में दाख़िला लिया और १९३९ ई० में एंट्रेस परीक्षा लुधियाना से ही उत्तीर्ण की, पर इनकी शिक्षा अबाध रूप से नहीं चल पाई। साहिर की ज़ब्तशुदा नज़्में - 'शोलानवाई' साप्ताहिक 'अफग़ान', बंबई में १९३९ ई० में प्रकाशित हुईं, जिसने उस समय के साहित्य जगत में खलबली पैदा कर दी और साहिर ब्रिटिश सत्ता के निशाने पर भी आ गए, नतीजतन १९४० ई० में उन्हें गवर्नमेंट कॉलेज, लुधियाना से निकाल दिया गया। उन्होंने दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर में १९४१ ई० में प्रवेश लिया, परंतु आम जनता के लिए साहित्य रचना के संकल्प और खुले सत्ता विरोध के कारण इन्हें १९४२ ई० में दयाल सिंह कॉलेज, लाहौर से भी निष्कासित कर दिया गया, फिर उसी साल इन्होंने इस्लामिया कॉलेज, लाहौर में बी०ए० में प्रवेश लिया।   


साहिर का रचना संसार

साहिर की जीवन यात्रा कड़वे अनुभवों और अनुभूतियों की एक राह थी। उनकी शायरी भी यथार्थ के कठोर धरातल को स्पर्श करते हुए मानवीय मनोविज्ञान व संवेदनाओं से परिपूर्ण है और जीवन के सभी पहलुओं को अपने में समाहित कर आम आदमी के दु:ख-दर्द व एक अच्छे और आरामदायक जीवन के लिए उसकी जद्दोजहद के साथ एकाकार होती है। साहिर जब १९३६  ई० में लुधियाना से हाईस्कूल पास कर गवर्नमेंट कॉलेज गए थे, वह समय बहुत ही उथल-पुथल का था। उसी वर्ष लखनऊ में जहाँ प्रगतिशील लेखक संघ का स्थापना सम्मेलन हो रहा था, वहीं पश्चिम में हिटलर और मुसोलिनी के नेतृत्व में नस्लीय हिंसा और नफ़रत से परिपूर्ण फ़ासीवाद पनप रहा था और भारत की जनता अँग्रेज़ी साम्राज्य की गुलामी, अंधविश्वास, अभाव और अशिक्षा का सामना कर रही थी। ऐसे ही समय साहिर ने शोषण से संघर्ष, तर्कशीलता, धर्मनिरपेक्षता तथा आम आदमी के संघर्ष से अपने साहित्य को संयोजित किया।

शुरू में साहिर अलामा इक़बाल की धर्म-संबंधित शायरी से प्रभावित हुए। लेकिन फिर भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, अश्फाक़ उल्ला खाँ जैसे समाजवाद में विश्वास रखने वाले आज़ादी के महानायकों के प्रभामंडल की ओर आसक्त हुए और अपनी साहित्यिक यात्रा को इसी पथ पर जारी रखा।

किशोरावस्था में उन्होंने एक साधारण सी धर्मनिरपेक्ष नज़्म लिखी -

कृष्ण की भेड़ें राम की भेड़ें

बुद्ध मत और इस्लाम की भेड़ें

इनको अल्लाह वाली कहकर

वहदत की मतवाली कहकर

जब जी चाहें मत पलटा दो

मत पलटा दो,भेंट चढ़ा दो।

जब यह नज़्म साहिर ने अपने अध्यापक को दिखाई तो उन्होंने इसे बहुत ही साधारण बताकर निरस्त कर दिया। लेकिन साहिर ने हार नहीं मानी। वह प्रगतिशील लेखन की ओर बढ़ते चले गए। साहिर की नज़्मों व गीतों का संग्रह 'तल्ख़ियाँ' १९४४ ई० में प्रकाशित हुआ, जिसने साहित्य जगत में जनवाद और आम आदमी के संघर्ष व उसकी दशा पर तो रौशनी डाली ही, वहीं युद्ध जैसे भयावह मंज़र तथा युद्ध विरोधी स्वरों को भी अपनी नज्म़ों में ढाला।


साहिर एक डायनामिक एवं प्रतिरोध के शायर भी कहे जाते हैं -

आज से ऐ मज़दूर किसानो! मेरे गीत तुम्हारे हैं

फाकाकश़ इंसानो! मेरे जोग-बिहाग तुम्हारे हैं

जब तक तुम भूखे -नंगे हो, ये नग़्में ख़ामोश न होंगे

जब तक बेआराम हो तुम, ये नग़्में राहतकोश न होंगें

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तुम से क़ुव्वत लेकर अब मैं तुमको राह दिखाऊँगा

तुम परचम लहराना साथी! मैं बरबत पर गाऊँगा

आज से मेरे फ़न का मक़सद ज़ंजीरें पिघलाना है

आज से मैं शबनम के बदले अंगारे बरसाऊँगा।

इसी तरह जब कॉन्गो के प्रगतिशील रहनुमा व प्रथम राष्ट्रपति पैट्रिस एमरी लुमुम्बा का क़त्ल हो जाता है, साहिर की आवाज़ उठती है -

ज़ुल्म फिर ज़ुल्म है बढ़ता है तो मिट जाता है

ख़ून फिर ख़ून है टपकेगा तो जम जायेगा

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ज़ुल्म की बात ही क्या! ज़ुल्म की औक़ात ही क्या!

ज़ुल्म बस ज़ुल्म है, आग़ाज़ से अंजाम तलक

ख़ून फिर ख़ून है, सौ शक्ल  बदल सकता है

ऐसी शक्लें कि मिटाओ तो मिटाये न बने!

ऐसे शो'ले कि बुझाओ तो बुझाये न बने!

ऐसे ना'रे कि दबाओ तो दबाये न बने!'


साहिर युद्ध के विरुद्ध भी एक मुखर शायर है। साहिर की लंबी ऩज़्म 'परछाईयाँ' चट्टान, लाहौर से १९५५ ई० में प्रकाशित हुई। इस संकलन में द्वितीय विश्वयुद्ध में बरबादी का वर्णन तो था ही, वहीं दूसरी तरफ़ यह युद्ध विरोधी नज़्म शांति और देशों के मध्य आपसी प्रेम और भाईचारे का संदेश भी बनी।


सूरज के लहू में लिथड़ी हुई वो शाम है अब तक याद मुझे

चाहत के सुनहरे ख़्वाबों का अंजाम है अब तक याद मुझे

उस शाम मुझे मालूम हुआ, जब भाई जंग में काम आये

सरमाये के क़हबाख़ाने में बहनों की जवानी बिकती है

उस शाम मुझे मालूम हुआ जब बाप की खेती छिन जाये

ममता के सुनहरे ख़्वाबों की अनमोल निशानी बिकती है।

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चलो कि चल के सियासी मुक़ामिरों से कहें

कि हमको जंगो-जदल  के चलन से नफ़रत है

जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये

हमें हयात के उस पैरहन से नफ़रत है।


फिर साहिर की चेतावनी है -

गुज़श्ता जंग में घर ही जले मगर इस बार

  अजब नहीं कि ये तनहाइयाँ भी जल जायें

  गुज़श्ता जंग में पैकर जले मगर इस बार

  अजब नहीं कि ये परछाइयाँ भी जल जायें

  तसव्वुरात की परछाईयाँ उभरती हैं।


इसी तरह देश के बँटवारे के समय जब ख़ून और दहशत के हौलनाक मंज़र उभर कर सामने आए थे, साहिर ने ११ सितंबर,१९४७ ई० को आल इंडिया रेडियो, दिल्ली से अपनी इस ऩज़्म के माध्यम से भारत-पाकिस्तान दोनों देशों की जनता से शांति की अपील करते हुए बड़े साफ़ शब्दों में कहा -

बर्बरियत के ख़ूँख़ार अफ़रीत

अपने नापाक जबड़ों को खोले

ख़ून पी-पी के ग़ुर्रा रहे हैं

बच्चे माँओं की गोदों में सहमे हुए हैं

इस्मतें सर-बरह् ना परेशान हैं

हर तरफ़ शोरे-आहो-बुक़ा है

और मैं इस तबाही के तूफ़ान में

आग और ख़ून के हैजान में

सरनिंगू और शिकस्ता मकानों के मलबे से पुर रास्तों पर

अपने नग़्मों की झोली पसारे

दर-ब-दर फिर रहा हूँ -

मुझको अम्न और तहज़ीब की भीख दो

मेरे गीतों की लय, मेरे सुर, मेरी नै

मेरे मजरूह होंठों को फिर सौंप दो।

   -----

औरतें, बच्चियाँ-

हाथ फैलाये ख़ैरात की मुन्तज़िर हैं

इनको अम्न और तहज़ीब की भीख दो

माँओं को उनके होंठों की शादाबियाँ 

नन्हें बच्चों को उनकी खुशी बख़्श दो

मुल्क की रूह को ज़िंदगी बख़्श दो।


साहिर की संवेदना और कातरता से भरे स्वर सरहद पार कर भारत-पाकिस्तान और पूरे एशिया में फूलों और रंगों की तरह बिखर गए और वह मासूम शायर शांति, करुणा और दया की भीख़ माँगता रहा। मानों गौतम बुद्ध का करुणामयी अस्तित्व संपूर्ण जगत में विद्यमान हो गया हो।


साहिर के नारी-विमर्श की एक झलक 

ज़िंदगी के तजु़र्बात और समाज की उथल-पुथल का साफ़ अक्स है, साहिर की शायरी। बचपन से ही पिता की अय्याशी और महिलाओं के प्रति उनके बर्ताव ने साहिर के संवेदनशील ह्रदय में स्त्रियों का दर्जा सबसे ऊँचा कर दिया। जब पिता के साथ ऐशो-आराम की ज़िंदगी और माँ के साथ मुश्किलात की ज़िंदगी के बीच चुनाव का समय आया तो साहिर ने बेझिझक माँ का चयन किया। नारी-विमर्श उनकी शायरी का अहम हिस्सा हमेशा बना रहा और आजतक समीक्षक, आलोचक उसकी गहराई और विस्तार पर लिखते नहीं थकते। 

साहिर पुरुष प्रधान समाज की निंदा करते हुए पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था को नकारते हुए कहते हैं -

लोग औरत को फ़क़त जिस्म समझ लेते हैं

रूह भी होती है उसमें, ये कहाँ सोचते हैं

रूह क्या होती है इससे उन्हें मतलब ही नहीं

वो तो बस तन के तक़ाज़ों का कहा मानते हैं  


साहिर की शायरी में  भारतीय स्त्री की उपेक्षा का गहरा एहसास मिलता है। नए साल के अवसर पर लिखी उनकी 'सुब्हे नौरोज़' नज्म़ में उच्च और निम्न वर्ग की ज़िंदगियों के अंतर को रौशन किया है -

निकली है बंगले के दर से

इक मुफ़्लिस दहक़ान की बेटी

अफ़्सुर्दा मुरझाई हुई- सी

जिस्म के दुखते जोड़ दबाती

आँचल से सीने को छुपाती

मुठ्ठी में एक नोट दबाये

जश्न मनाओ साले नौ के।

साहिर की नज़्म 'चकले' में गुर्बत के कारण वेश्यावृत्ति के अंधे कुएँ में जा गिरीं औरतों की ज़िल्लत भरी ज़िंदगी की तस्वीर है।

यहाँ पीर भी आ चुके हैं, जवाँ भी

तनौमँद बेटे भी, अब्बा मियाँ भी

ये बीबी है, और बहन भी है,माँ भी

सना-ख़्वाने- तक़्दीसे-मशरिक़ कहाँ हैं?

(जिन्हें नाज़  है हिन्द पर वो कहाँ हैं?)

मदद चाहती है, ये हव्वा की बेटी

यशोदा की हम-जिंस, राधा की बेटी

पयम्बर की उम्मत, जुलैख़ा की बेटी

सना-ख़्वाने-तक़्दीसे-मशरिक़ कहाँ हैं?


साहिर का रचना संसार विशाल फ़लक समान फैला है। साहिर के नग़मों ने चलचित्र जगत में निरंतर ख्याति अर्जित की है। लेकिन हक़ और सच्चाई के अपने जज़्बे के कारण सिने-दुनिया की राहें उनके लिए आसान न रहीं। यह साहिर की बदौलत ही है कि गीतकारों का नाम फ़िल्म के पोस्टरों पर लिखा जाने लगा। उन्होंने इस बात का भी लोहा मनवाया कि नग़्मों की प्रसिद्धि के लिए अल्फ़ाज़, संगीत और गायकी तीनों का अच्छा होना ज़रूरी होता है। उनकी धारणाएँ तरक़्क़ी की उनकी राह में सतत रोड़े लगाती रहीं, पर वे उससे कभी विचलित न हुए और अपनी कलम तथा भावों पर भरोसा कर सदाबहार गीत लिखते चले गए। उनकी फ़िल्मी नग़्मों को चलचित्र जगत में हमेशा याद किया जाता रहेगा, पेश हैं कुछ नमूने -


टूटेंगी बोझल ज़ंजीरें, जागेंगी सोयी तक़दीरें     

रात के राही-----(बाबला:१९५३)


ये दुनियां दो-रंगी है

एक तरफ़ से रेशम ओढ़े

एक तरफ़ से नंगी है

एक तरफ़ अंधी दौलत की पागल ऐश परस्ती है 

एक तरफ़ जिस्मों की कीमत रोटी से भी सस्ती है

(चांदी की दीवार:१९६४)


जियो तो ऐसे जियो जैसे सब तुम्हारा है

मरो तो ऐसे  कि जैसे तुम्हारा कुछ भी नहीं। (बहू बेटी:१९६५)


ये महलों ये तख़्तों ये ताजों की दुनिया

ये इंसा के दुश्मन समाजों की दुनिया

ये दौलत के भूखे रिवाजों की दुनिया

ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है। (प्यासा:१९५७)


औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाज़ार दिया। (साधना:१९५८)


ज़िंदगी भर नहीं भूलेगी वह बरसात की रात

एक अंजान हसीना से मुलाक़ात की रात। (बरसात की रात:१९६०)


चलो इक बार फिर से अजनबी बन जायें हम दोनों (गुमराह:१९६३)


मैं पल दो पल का शायर हूँ

और

कभी-कभी मेरे दिल में ख़्याल आता है (कभी-कभी: १९७६)


साहिर लुधियानवी का फ़िल्मी गीतों का संसार समुद्र की विशालता और गहराइयों के समान संपूर्ण चलचित्र जगत को अनूठी देन है। 


सन १९४५ में हैदराबाद में आयोजित प्रगतिशील लेखक संघ के वार्षिक अधिवेशन में 'जंग और नज़्म' शीर्षक से साहिर ने मशहूर आलेख पढ़ा, जो साहित्य जगत में युद्ध के विरुद्ध एवं विश्व-शांति के लिए एक अनोखा दस्तावेज़ साबित हुआ। इसमें साहिर ने कहा -

साहित्य ज़िंदगी के लिए है और ज़िंदगी इस जंग (द्वितीय विश्व युद्ध) के कारण हिंसा और नृशंसता के जिन तूफ़ानों में घिर गई थी, मानवीय इतिहास में इसकी मिसाल नहीं मिलती। मौत की एक स्याह आँधी थी, जो तमाम पृथ्वी पर छा जाना चाहती थी और अपने भारी परदों में उन जगमगाते हुए सितारों को ढाँप लेना चाहती थी जो कुचले हुए तबक़ों, पिसे हुए अवाम और लुटी हुई इंसानियत के दामन को नूरानी कलियों से भर देना चाहते हैं।---------’ 


वैसे तो साहिर से मुलाक़ातों, उनके साथ बिताए पलों का बहुत से अदीबों, शायरों, साहित्यकारों, राजनेताओं ने ज़िक्र किया है और तमाम संस्मरण लिखे हैं, परंतु साहिर लुधियानवी और अमृता प्रीतम के रिश्ते का, जो एक विचित्र, आत्मिक रिश्ता प्रतीत होता है, यहाँ उल्लेख करना ज़रूरी लगता है। अमृता प्रीतम ही के शब्दों में -

"---- और इमरोज़ जानता है कि मैंने साहिर से मुहब्बत की थी, लेकिन यह जानकारी अपनी जगह कोई बड़ी बात नहीं है। इससे आगे जाकर इमरोज़ की बढ़ाई यह कि इस मुहब्बत में मेरी नाकामी को इमरोज़ अपनी नाकामी समझता है।"


यह महान शायर २५ अक्तूबर सन १९८० को इस दुनिया से विदा हो गया। अब भी ऐसा प्रतीत होता है कि सांताक्रूज़ क़ब्रिस्तान, जूहू गार्डेन, मुंबई में उसकी क़ब्र से उसके नग़्मों की सदाएँ गूँज रही हैं और समाज को इंसानियत के सभी पहलुओं के प्रति सजग कर रही हैं।


साहिर लुधियानवी : जीवन परिचय

मूल नाम

अब्दुल हई

जन्म 

८ मार्च १९२१, लुधियाना (पंजाब)

मृत्यु 

२५ अक्टूबर १९८०, मुंबई 

पिता 

चौधरी फज़्ल़ मोहम्मद

माता

सरदार बेगम  

शिक्षा 

पंजाब, अविभाजित भारत 

कर्मभूमि

  • लाहौर, अविभाजित भारत

  • मुंबई, भारत 

साहित्यिक रचनाएँ

  • शोलानवाई, जब्तशुदा नज़्में- साप्ताहिक अफग़ान, बंबई, १९३९

  • तल्ख़ियाँ संग्रह, प्रीतनगर अमृतसर, १९४४

  • परछाईयाँ, लंबी नज़्म, चट्टान, लाहौर, १९५५

  • गाता जाये बंजारा, राइटर पब्लिशिंग हाउस, मलाड, बंबई, १९५५

  • आओ कि कोई ख़्वाब बुनें, १९७१

संपादन 

  • अदबे-लतीफ़,  सहयोगी संपादक, लाहौर, १९४६ 

  • सवेरा, द्विमासिक,  संपादक, लाहौर, १९४७ 

  • शाहराह,  सहयोगी संपादक, दिल्ली, १९४९ 

कुछ चुनिंदा पुरस्कार व सम्मान

  • सर्वश्रेष्ठ गीतकार फ़िल्म फेयर अवार्ड, फ़िल्म 'ताजमहल', १९६४

  • स्वर्ण पदक, गवर्नमेंट कॉलेज , लाहौर (गोल्डन जुबली समारोह), १९७०

  • पद्मश्री, १९७१ 

  • महाराष्ट्र उर्दू अकादमी अवार्ड, १९७२ 

  • महाराष्ट्र स्टेट लिटरेरी अवार्ड, १९७३ 

  • सोवियत लैंड नेहरू अवार्ड ('आओ कि कोई ख़्वाब बुनें'), १९७३

  • लुधियाना की एक प्रमुख सड़क का नामकरण 'साहिर मार्ग', १९७५

  • सर्वश्रेष्ठ गीतकार फिल्मफेयर अवार्ड, फ़िल्म 'कभी-कभी', १९७७

  • ९२ वीं जन्म-जयंती पर डाक टिकट जारी


संदर्भ

  • 'तल्ख़ियाँ'

  • 'साहिर लुधियानवी : जीवनी सहित रचनाओं का संकलन' - प्रकाश पंडित

  • 'उदभावना' साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी विशेषांक १४४-१४५

  • 'नया पथ' साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी विशेषांक वर्ष-३५ : अंक-०२, अप्रैल-जून,२०२१

लेखक परिचय

गीता भारद्वाज

कवयित्री एवं रचनाकार

अभिव्यंजना संस्था द्वारा महादेवी वर्मा पुरुस्कार से सम्मानित, अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित, जनवादी लेखक संघ व प्रबोधिका की सदस्य

पता - रकाबगंज खुर्द, टाउनहाल के निकट, फ़र्रुखाबाद(उत्तर-प्रदेश),  भारत

मोबाइल - ९५६५८२७५५१

ईमेल-  sunilkatiyar57@gmail.com

6 comments:

  1. शायद हमारी पीढ़ी का कोई ही ऐसा हो जिसे साहिर के नज़्मों और नग़्मों ने मुतासिर न किया हो और उसकी ज़िंदगी की राह के वे हमसफ़र न रहे हों। गीता जी ने अपने संक्षिप्त आलेख में उनकी शख़्सियत और शायरी के सभी अहम् फूलों की ख़ुशबू बिखेरी है। साहिर मेरे पसंदीदा शायर हैं और उनपर इतने भावपूर्ण लेख के लिए गीता जी का तहे दिल से शुक्रिया और उनको बहुत बधाई।

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  2. गीता जी, सुंदर आलेख दिया है आपने और साहिर की शायरी का चिंतनपारक पक्ष उजागर किया है। बधाई। तल्ख़ तो है साहिर की शायरी। वह खुद भी कहते हैं कि जो कुछ दुनिया ने तजुर्बातो-हवादिस की शक्ल में मुझे दिया है, वही लौटा रहा हूँ ।
    मेरे लिए साहिर का मामला व्यक्तिगत है ।संतों, विचारकों ,लेखकों-कवियों को पढ़ते -पढ़ते मेरे उनसे ज़ाती रिश्ते बन जाते हैं ।साहिर और स्वामी विवेकानंद दोनों रास्ता दिखाते हैं ।बस तरीक़े अलग हैं। विवेकानंद कहते हैं : मेरी बात ध्यान से सुनो।ऐसा करो। ऐसा करोगे तो तुम्हारा उद्धार हो जाएगा।साहिर कहते हैं : मेरी बात ध्यान से सुनो।ऐसा मत करो।ऐसा करोगे तो तुम बर्बाद हो जाओगे।
    जिस उम्र में मसें भीगती हैं, दाढ़ी-मूँछें आने लगती हैं, लड़का नौजवान बन रहा होता है , उस उम्र में मैंने इन दोनों को पढ़ा।बड़ा लाभ हुआ।दोनों से सीखने का रिश्ता क़ायम हुआ। साहिर ने दो बड़े सबक़ सिखाए। पहला, गेहूं को गुलाब से अलग रखना।कहीं गेहूं की भूख तुम्हारे गुलाब की ख़ुशबू ना उड़ा ले जाए। साहिर कहते हैं :

    मैंने जो गीत तेरे प्यार के ख़ातिर लिखे
    आज उन गीतों को बाज़ार में ले आया हूँ ।

    दूसरा सबक़ : विवेक को सदा भावुकता से ऊपर रखना।नदी में आनंद है।तैरना सीखना।बह मत जाना।हमारे नाट्य गुरु भी कहते थे : भावुकता से बचना है , भावनाओं में जीना है।
    साहिर की खूबसूरत नज़्म है :

    अब ना उन ऊँचे मकानों में कदम रखूँगा
    मैंने इक बार यह पहले भी कसम खाई थी।
    अपनी नादार मुहब्बत की शिकस्तों के तुफ़ैल
    ज़िंदगी पहले भी शर्माई थी, झुंझलाई थी।

    मैं साहिर की बहुत इज़्ज़त करता हूँ।
    जिस वक्त बंदा अपनी दिशा निर्धारित कर रहा होता है , उस वक्त साहिर ने मुझे बता दिया की किस दिशा में नहीं जाना है। इसीलिए मैं अब तक इतनी खूबसूरत ज़िंदगी जी सका। शुक्रिया साहिर! अगर साहिर को ठीक से नहीं पढ़ा-समझा होता तो शायद उन्हीं का लिखा हुआ दोहराना पड़ता :

    महफ़िल से उठ जाने वालों
    तुम लोगों पर क्या इल्ज़ाम।
    तुम आबाद घरों के वासी
    मैं आवारा और बदनाम ।
    मेरे साथी ख़ाली जाम।
    🙏💐

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  3. गीता जी, साहिर लुधियानवी जी पर आपका ये लेख बहुत रोचक है। साहिर जी बहुत लोगों के पसंदीदा शाइर हैं। उनका उर्दु अदब में एक विशेष स्थान है। उनके फिल्मी गीतों का भी अलग ही अंदाज है। साहिर साहब की उर्दु और हिंदी दोनों पर बहुत अच्छी पकड़ थी। आपने साहिर साहब की जीवन और साहित्य यात्रा को वर्णित करता हुआ बहुत बढ़िया लेख लिखा है। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई।

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  4. साहिर साहब को इस दुनिया से गुजरे हुए ४१ साल हो रहे है मगर आज भी उनकी शायरी और नग़्मे उनका हमारे बीच मौजूद होने का एहसास कराती हैं। भले ही उनकी उम्र लंबी ना रह सकी परंतु उनकी रचनाओं का सागर इतना विशाल और लंबा है कि आज और आनेवाली भावी पीढ़ी में भी एक मिसाल बनकर रहेंगे। बहुत ही खुशमिज़ाज रहने वाले साहिर साहब हमेशा अपने चाहनेवालों से घुलमिलकर रहते थे।
    एक किस्सा :
    एक दिन साहिर जी ने जाँ निसार अख़्तर जी से कहा, "यार निसार, अब तुमको भी पद्मश्री का खिताब मिल जाना चाहिए।"
    निसार ने पूछा, "क्यों?"
    साहिर ने जवाब दिया, "अब हमसे अकेले ये जिल्लत बर्दाश्त नहीं होती।"
    आदरणीया गीता जी,
    मेरे बेहद पसंदीदा शायर के जीवन वृतांत पर आपका लिखा गया यह लेख अति विशिष्ट और संवेदनशील है। उनके जीवन के कड़वे अनुभवों और अनुभूतियों को अपनी शब्दशैली में बड़ी वृस्तता से प्रस्तुत किया है। साहिर साहब के नग्मों का संक्षिप्त समीक्षाकरण भी अपने आप में अदभुत है। इस खूबसूरत संस्मरणात्मक आलेख के लिए आपका आभार।

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  5. वाह गीता जी बहुत रोचक और भावपूर्ण लिखा है आपने। साहिर साहब हमेशा ही पसंदीदा शायर रहें हैं। उनकी ख़ूबसूरत शायरी, गीत, ग़ज़ल को संदर्भ-दर-संदर्भ कोट करते हुए आपने, उनके जीवन के तमाम पहलुओं से परिचित कराया है। आपको बहुत बधाई।

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  6. गीता जी आपने मेरे पसंदीदा शायर के शुरुआती कलाम से लेकर उनके मशहूर फिल्मी ग़ज़लों और नग़्मे तक के सफर को बहुत खुबसूरती से समेटा है। एक के बाद एक लाजवाब ग़ज़लें और नज़्में याद आते चले गये। उदासी और तल्ख़ के जहाँ से ऐसे गौहर निकाल पाना सिर्फ साहिर जी का जादू ही हो सकता है। आपको इस अद्भुत आलेख के लिए बधाइयाँ।

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2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...