ठंडे पानी से नहलातीं
ठंडा चंदन उन्हें लगातीं
उनका भोग हमें दे जातीं
तब भी कभी न बोले हैं,
माँ के ठाकुर जी भोले हैं।
छः-सात वर्ष की अवस्था में भगवान की पूजा करती माँ को देखकर महादेवी जी ने पहली कविता लिखी। माँ के मुख से शिव-पार्वती, नर्मदा, सीता-राम, राधा-कृष्ण के भजन व आरती तथा पर्वों पर बुंदेली गीत सुनकर बचपन से ही महादेवी जी को काव्य तथा हिंदी के प्रति लगाव के संस्कार मिले।
महादेवी जी के भतीजे श्री संजीव वर्मा 'सलिल' जी का कहना है, "पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों का सुफल मुझे इस रूप में मिला कि मैं उनके असीम स्नेह का भाजन बना।" उन्होंने अपनी बुआ को 'महीयसी' कहकर पुकारा है, जिसका अर्थ है, महान व सशक्त नारी। महादेवी जी ने अपने इस भतीजे को एक पत्र में आशीर्वाद देते हुए कहा था कि "महाभारत काल का यह वाक्य स्मरण रखना कि मनुष्य से श्रेष्ठ कुछ नहीं होता और जब धन-संपत्ति या राज्य को मनुष्य से श्रेष्ठ समझ लिया जाता है, तो सब कुछ नष्ट हो जाता है। पत्र के अंत में उन्होंने कहा था कि धन का मोह तुम्हें कभी नहीं व्यापे।"
महादेवी जी रिश्तों को जीती रहीं। प्रयाग में वे सुमित्रानंदन पंत तथा निराला जी को राखी बाँधती थीं। महादेवी जी की भाँजी अचला दीप्ति कुमार जी राखी के प्रसंग का उल्लेख करते हुए बताती हैं कि रक्षाबंधन के दिन पंत जी के आने का समय सुबह का होता था और वे बड़े सौम्य ढ़ंग से आते थे, उनका आना मानो शीतल हवा का झोंका था। इसके विपरीत निराला जी आँधी की तरह आते थे। उनका परिवार रक्त संबंधों से नहीं अपितु स्नेह संबंधों से बना था। अजनबी से अजनबी को अपना बना लेने में उनका कोई सानी नहीं था। वे प्रशंसा का अमृत, आलोचना का गरल, सुख की धूप, दुख की छाँव समभाव से ग्रहण कर निर्लिप्त रहती थीं।
हिंदी साहित्य की अमर साधिका आदर्श, करुणा, दया और ममता का जीवंत रूप महादेवी वर्मा का जन्म १९०७ में २६ मार्च को होली के दिन उत्तर प्रदेश के फ़र्रुखाबाद नामक स्थान पर हुआ था। पिता श्री गोविंद प्रसाद उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद मुख्याध्यापक के रूप में कार्यरत थे और माता हेमरानी देवी भी शिक्षित और धार्मिक विचारों वाली कुशल ग्रहणी थीं। उनकी प्रारंभिक शिक्षा जबलपुर में और उच्च शिक्षा इलाहाबाद में हुई। उन दिनों के प्रचलन के अनुसार महादेवी वर्मा का विवाह ९ वर्ष की उम्र में ही डॉ० स्वरूप नरेन वर्मा से हो गया था। फलस्वरुप वे अपने ससुराल प्रयाग में आ गईं। यहीं पर उन्होंने मिडिल से लेकर एम० ए० संस्कृत तक की औपचारिक शिक्षा प्राप्त की। अपनी शैक्षणिक योग्यता के कारण एम० ए० पास करते ही इन्हें प्रयाग महिला विद्यापीठ के प्राचार्य का पद मिला। इन्होंने अपने दायित्व का सफलतापूर्वक निर्वाह किया। महादेवी वर्मा ने भारत का पहला महिला कवि-सम्मेलन आयोजित किया था और उस आयोजन की अध्यक्षता की थी, 'सुभद्रा कुमारी चौहान' ने जो महादेवी जी की करीबी थीं।
जीवन के अनुभवों ने महादेवी को आत्मलीन, शांत और एकाकी अवश्य बनाया, लेकिन इनका बहिर्मुखी व्यक्तित्व अत्यंत उदार, मिलनसार और परहित विशेष रूप से दीन-दुखियों की सेवा सहायता की भावना से ओतप्रोत था। 'शृंखला की कड़ियाँ', 'अतीत के चलचित्र' और 'स्मृति की रेखाएँ' जैसे संस्मरण और रेखाचित्रों में इनके बहिर्मुखी व्यक्तित्व की अत्यंत जीवंत अभिव्यक्ति हुई है। छायावाद के चार प्रमुख रचनाकारों में अपना विशिष्ट स्थान बनाने वाली महादेवी जी का संपूर्ण काव्य साहित्य वेदनामय है, तो गद्य साहित्य सर्वथा बेजोड़ मानवीय अनुभूतियों को अपने में समाहित किए हुए है।
समय-समय पर उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार, ज्ञानपीठ पुरस्कार, पद्मभूषण एवं पद्मविभूषण जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उनका निधन ११ सितंबर १९८७ को इलाहाबाद में हुआ। महादेवी जी की काव्य कृतियों में निहार, रश्मि, नीरजा, सांध्यगीत, दीपशिखा, प्रथम आयाम, अग्निरेखा, यामा तथा ८ वर्ष की आयु में रचित बारहमासा विशेष रूप से सराहनीय है। गद्य रचनाओं के रूप में अतीत के चलचित्र, शृंखला की कड़ियाँ, स्मृति की रेखाएँ, पथ के साथी, चिंतन के क्षण तथा मेरा परिवार उल्लेखनीय है।
'मेरा परिवार' में महादेवी जी ने कुछ विशिष्ट मानवेतर प्राणियों (जैसे- गिल्लू, नीलकंठ, गौरा आदि) के प्रति अपनी सौहार्द्र और एकांत आत्मीयता की अभिव्यंजना का जो अपूर्व कला कौशल अपने इन चित्रों में व्यक्त किया है, वह केवल उनकी अपनी ही कला की विशिष्टता की दृष्टि से नहीं, वरन संसार-साहित्य की इस कोटि की कला की दृष्टि से समग्र क्षेत्र में भी बेमिसाल और बेजोड़ है। यह कृतियाँ मानवीय भावना, संवेदना और कलात्मक प्रतिभा के अपूर्व और अद्भुत कलात्मक चमत्कार के नमूने हैं। इन गद्य चित्रों के पात्र भले ही मानव ना होकर पशु-पक्षी हों, पर हैं वे सब मानवीय संवेदना की सूक्ष्मतर अनुभूति से ओतप्रोत। उन सभी मानवेतर पात्रों की गतिविधियों को संवेदनशील दृष्टा के रूप में देखने वाली महादेवी जी का व्यक्तित्व इन चित्रों में अपनी परिपूर्ण मानवीयता के साथ उभरकर पग-पग पर पाठक की चेतना के अणु-अणु में अपने अमृत-स्पर्श का संचार करता चला जाता है।
महादेवी के काव्य में दुख और करुणा का भाव प्रधान है और वे इसे स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं करती कि -
मैं नीर भरी दुख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा
क्रंदन में आहत विश्व हँसा
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली
मैं नीर भरी दुख की बदली।
महादेवी जी की वेदना के उद्गम के बारे में निश्चित तौर पर कुछ कहना संभव नहीं है। उनके एक गीत की पंक्ति है,
शलभ अब मैं शापमय हूँ
किसी का भी दीप निष्ठुर हूँ
उनके पूरे काव्य पटल पर इस तरह के असंख्य बिंब बिखरे पड़े हैं। एक विचित्र-सा सूनापन, एक विलक्षण एकाकीपन बार-बार उनकी कविताओं में उमड़ता दिखाई देता है, किंतु महादेवी की वेदना नितांत वैयक्तिक भी नहीं है। स्वयं उन्होंने अपने जीवन में दुख और अभाव की बात से इंकार किया। महादेवी वर्मा छायावाद की प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। वे अपनी काव्य रचनाओं में अंतर्मुखी रही हैं। महादेवी ने प्रकृति के उपकरणों में जिस सौंदर्य के दर्शन किए, उसी से उनकी प्रणयानुभूति का उद्भव हुआ। वे कहती हैं,
जो तुम आ जाते एक बार
कितनी करुणा, कितने संदेश
पथ में बिछ जाते वन पराग
गाता प्राणों का तार-तार
अनुराग भरा उन्माद राग
आँसू लेते वे पद पखार
इस प्रकार प्रणय के अनेकानेक मनोभावों के चित्रण उनकी कविताओं में भरे पड़े हैं, वहाँ स्त्री सुलभ लाज संकोच के भी दर्शन होते हैं,
सरल तेरा मृदु हास अकारण यह शैशव का हास
बन गया कब कैसे चुपचाप लाज-भीनी सी मृदु मुस्कान
हम यह कह सकते हैं कि महादेवी वर्मा का काव्य प्रासाद चार स्तंभों पर अवस्थित है, वेदनानुभूति, रहस्य भावना, प्रणय-भावना और सौंदर्यानुभूति। महादेवी जी की संपूर्ण काव्य-यात्रा न सिर्फ़ आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास बनाने का साक्षी है, वरन भारतीय मनीषा की महिमा का भी जीवंत प्रतीक है।
उन्होंने लिखा है, "कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।" लेखन अवधि में उन्होंने एकनिष्ठ होकर अबाध गति से भावमय सृजन और कर्ममय जीवन की साधना में हुई बात को सार्थक बनाया।
एक महादेवी ही हैं, जिन्होंने गद्य में भी कविता के मर्म की अनुभूति कराई और "गद्य कवितां निकष वदन्ति" उक्ति को चरितार्थ किया है। विलक्षण बात तो ये है कि न तो उन्होंने उपन्यास लिखा, न कहानी, न ही नाटक, फिर भी श्रेष्ठ गद्यकार हैं। उनके ग्रंथ लेखन में एक ओर रेखाचित्र, संस्मरण या फिर यात्रावृत्त हैं, तो दूसरी ओर संपादकीय, भूमिकाएँ, निबंध और अभिभाषण, पर सबमें जैसे संपूर्ण जीवन वैविध्य समाया है। बिना कल्पनाश्रित काव्य रूपों का सहारा लिए कोई रचनाकार गद्य में इतना कुछ अर्जित कर सकता है, यह महादेवी जी को पढ़कर ही जाना जा सकता है। उनका कहना था कि "विचार के क्षणों में मुझे गद्य लिखना ही अच्छा लगता है क्योंकि उसमें अपनी अनुभूति ही नहीं, बाह्य परिस्थितियों के विश्लेषण के लिए भी पर्याप्त अवकाश रहता है।"
महादेवी जी ने अपने निबंध संग्रह 'शृंखला की कड़ियाँ' में भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक बिंदुओं से देखने का प्रयास किया है। वे अन्याय के प्रति स्वभाव से ही असहिष्णु थीं। उनका मानना था कि भारतीय नारी भी जिस दिन अपने संपूर्ण प्राण-वेग से जाग सके, उस दिन उसकी गति को रोकना किसी के लिए संभव नहीं।
हमारे देश की जो सांस्कृतिक परंपरा रही है, महादेवी वर्मा जी सच्चे अर्थों में उसकी प्रतिनिधि हैं। वे छायावादी, रहस्यवादी कवयित्री से ऊपर उठकर सांस्कृतिक कवयित्री हैं, जिनमें सृजनात्मक काव्य की सरसता और चिंतनात्मक दर्शन की गंभीरता, दोनों तत्व समान रूप से मिलते हैं। उनका व्यक्तित्व समत्व भाव की साधना में जितना सरल, मधुर, करुण व कोमल है, उनका कृतित्व उतना ही उदात्त, व्यापक, विराट व महान है।
हिंदी की बिंदी तव चरणों में शत वंदन।
भावों की अंजलि अर्पित श्रद्धा का चंदन।
हिंदी साहित्य की सशक्त व महान हस्ताक्षर महादेवी जी को कोटि-कोटि नमन।
महादेवी वर्मा : जीवन परिचय |
जन्म | २६ मार्च १९०७, फ़र्रुखाबाद, उत्तरप्रदेश |
निधन | ११ सितंबर १९८७, प्रयाग, उत्तरप्रदेश |
पिता | गोविंद प्रसाद वर्मा |
माता | हेमरानी देवी |
पति | डॉ० स्वरूप नरेन वर्मा |
शिक्षा | परास्नातक (संस्कृत) |
कर्मभूमि | इलाहाबाद |
कर्मक्षेत्र | अध्यापन, लेखन |
विधा | |
साहित्यिक रचनाएँ |
कविता | | दीपशिखा प्रथम आयाम अग्निरेखा यामा
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रेखा-चित्र | अतीत के चलचित्र शृंखला की कड़ियाँ
| स्मृति की रेखाएँ पथ के साथी
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निबंध | क्षणदा साहित्यकार की आस्था संकल्पित
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संस्मरण | |
अन्य | |
पुरस्कार |
'नीरजा' पर सेकसरिया पुरस्कार 'स्मृति की रेखाएँ' पर द्विवेदी पदक मंगला प्रसाद पारितोषिक, उत्तरप्रदेश सरकार का विशिष्ट पुरस्कार उ०प्र० हिंदी संस्थान का 'भारत भारती' पुरस्कार ज्ञानपीठ पुरस्कार पद्मभूषण पद्मविभूषण
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उपाधियाँ |
- विक्रम, कुमाऊँ, दिल्ली, बनारस विश्वविद्यालयों से डी०लिट० की उपाधि।
- साहित्य अकादमी की सम्मानित सदस्या।
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अन्य जानकारी |
स्वाधीनता प्राप्ति के बाद १९५२ में महादेवी वर्मा उत्तरप्रदेश विधान परिषद की सदस्या मनोनीत की गईं। |
संदर्भ
अतीत के चलचित्र
शृंखला की कड़ियाँ
साहित्य शिल्पी
हिंदी साहित्य का एक इतिहास : महादेवी वर्मा
शीर्ष कवयित्री महीयसी महादेवी वर्मा
अमर उजाला
महादेवी का रचना संसार
महादेवी वर्मा - भारतकोश, ज्ञान का महासागर
आधुनिक मीरा : महादेवी वर्मा
हिंदी साहित्य का अध्याय : महादेवी वर्मा
रश्मि बंसल झवर
विगत १५ वर्षों से हिंदी अध्यापन में कार्यरत, लेखन व पठन में गहन रुचि।
विविध अखबारों व पत्रिकाओं में समय-समय पर लेख तथा कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं।
हिंदी भाषा से असीम प्रेम।
ईमेल : rashmizawar74@gmail.com
दूरभाष : 9588440759
Bahot khub
ReplyDeleteBohot badhiya
ReplyDeleteयह टिपण्णी लम्बी होने वाली है, आखिर आज महादेवी का दिन है! उनकी आवाज़ यहाँ सुनें:
ReplyDeletehttps://youtu.be/vT8nI3SQtys
अब आलेख की तरफ चलते हैं! "कला के पारस का स्पर्श पा लेने वाले का कलाकार के अतिरिक्त कोई नाम नहीं, साधक के अतिरिक्त कोई वर्ग नहीं, सत्य के अतिरिक्त कोई पूँजी नहीं, भाव-सौंदर्य के अतिरिक्त कोई व्यापार नहीं और कल्याण के अतिरिक्त कोई लाभ नहीं।"🍀- रश्मि यह तुमने कितना सुन्दर वाक्य उद्धृत किया है! बहुत बढ़िया आलेख! जब ऐसे महान व्यक्तित्व के बारे में लिखना होता है तो मन होता है शब्द सीमा का बंधन हट जाए और हम लिखते रहें -पढ़ते रहें!
मेरे विचार:
"मेरा परिवार" का उनका सूत्र पकड़ कर हर नारी अपने चारों तरफ एक संवेदनशील, सहयोगी, खुशहाल संसार रचना चाहती है! उनकी कविताओं में भी व्यथा के बादल तो होते थे, परन्तु उनमें छिपी एक ओज भरी शिंजनी भी हुआ करती थी, वही चमक कविता को बार-बार पढ़ने को मजबूर करती:
"मैं नीर भरी दुःख की बदली" में भी कितना स्वाभिमान भरा था:
"मेरा पग-पग संगीत भरा
श्वासों से स्वप्न-पराग झरा
नभ के नव रंग बुनते दुकूल
छाया में मलय-बयार पली।!"
यह बानगी देखिये:
"दीप मेरे जल अकम्पित,
घुल अचंचल!
...
मोह क्या निशि के वरों का,
शलभ के झुलसे परों का
साथ अक्षय ज्वाल का
तू ले चला अनमोल सम्बल!"
और यह देखें, यह तो देवताओं से भी रार ठानी है उन्होंने:
"नमन सागर को, नमन विषपान की उज्ज्वल कथा को
देव-दानव पर नहीं समझे कभी मानव प्रथा को,
कब कहा इसने कि इसका गरल कोई अन्य पी ले,
अन्य का विष माँग कहता हे स्वजन तू और जी ले।
यह स्वयं जलता रहा देने अथक आलोक सब को
मनुज की छवि देखने को मृत्यु क्या दर्पण नहीं है।
अश्रु यह पानी नहीं है, यह व्यथा चंदन नहीं है!"
और वेदना के क्रय में न जाने क्या पा लिया न उन्होंने:
"एक करुण अभाव में चिर-
तृप्ति का संसार संचित;
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत शत;
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?"
और अंत में यह आत्मविश्वास जो उनके जीवन शैली में, उनके गद्य में भी छलकता था:
"यह सपने सुकुमार तुम्हारी स्मित से उजले!
...
पंथ माँगना इन्हें नहीं, पाथेय न लेना,
उन्नत मूक असीम, मुखर सीमित तल देना,
बादल-सा उठ इन्हें उतरना है, जल-कण-सा,
नभ विद्युत् के बाण, सजा शूलों को रज ले!"
ऐसी कवयित्री को व्यथा के काव्य के लिए नहीं, अंतर्चेतना और स्वयंसिद्धा होने के लिए मशहूर होना चाहिए! उन्हें समझने के लिए हमें उनकी कविता के तार, निस्तार पर जाना होगा, ऊपरी आकार पर नहीं। मेरे लिए वह सच्चे फेमिनिस्म का सितारा हैं!
वाह
Deleteरश्मि जी! सादगी और सौम्यता की प्रतीक, साहित्यकार, समाज सुधारक महादेवी जी पर बहुत आदर और मन से लिखा है आपने। इनके विराट व्यक्तित्व और लेखन को सीमित शब्दों में समेटने आसान नहीं है। यह काम करने का आपका प्रयास सराहनीय है। इसके लिए आपको बधाई और आगे के लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteछायावादी कविता के प्रमुख स्तंभ और करुणा की कवियित्री महादेवी वर्मा जी के व्यक्तित्व को शब्दों की सीमाओं में बांधपाना संभव नही। महादेवी जी के काव्य अंतर्वस्तु करुणा, असारता, शून्यता, रहस्यवाद तथा आत्मनिवेदन से भरी होती है। विरह-वेदना के भाव इतने सम्पूरक होते हैं कि विरह ज्वाला में झुलसती पंक्तिया भी उदात्तरूप देकर आत्मा और परमात्मा का वियोग निरूपित करती है। चिरंतन भावयौवना कवियित्री महादेवी जी की अभिव्यक्ति नारी व्यक्तित्व होने के साथ साथ संवेदनाओं का सूक्ष्म विश्लेषित जीवन जे सुखमय और दुखमय स्पर्शो का गूढ़ चित्रण कराती है।
ReplyDeleteआदरणीया रश्मि जी,
आपके आलेख से महादेवी वर्मा जी के यथार्थ साहित्यसंसार को अमर वाणी मिली है।इस लेख से उनकी करुणा भरी समीक्षात्मक कविताए और चित्रकारी का अद्भुत मेल पढ़ने मिल रहा है। आलेख की शब्दरचना, भाषा, उपमान, अलंकार एक शिल्पकार की उत्कृष्ण कला के समान आकर्षित कर रहे हैं। महादेवी जी के आत्माभिव्यक्ति को बड़ी मार्मिकता और संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करने के लिए आपका आभार। बस ! आपकी कलम यूँही चलती रहे और हमारे ज्ञानकोष में वृद्धि होती रहे। अनंत शुभकामनाएं।
रश्मि जी, आपका महादेवी जी पर लिखा आलेख पढ़ा।प्रसन्नता हुई। आपने इस छोटे से आलेख में कितना सब वर्णित कर दिया। आपके शोध की मेहनत एवं अभिव्यक्ति की क्षमता स्पष्ट दिखाई देती है। आपको इस बढ़िया आलेख के लिए बधाई एवं धन्यवाद । 💐🌹
ReplyDeleteहमारे बीच शायद ही कोई हो जिसने बचपन से वयस्क होने तक महादेवी जी की विभिन्न रचनाओं का रसास्वादन न किया हो। उनके रचना संसार का क्या कहना। मेरी प्रिय रचनाओं में एक वह गीत है जिसका एक संगीतबद्ध अंश हमारे विद्यालय में हर मंगलवार को प्रातःक़ालीन प्रार्थना में गाया जाता था :
मधुर-मधुर मेरे दीपक जल!
युग-युग प्रतिदिन प्रतिक्षण प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर!
“दीपक चाहे छोटा हो चाहे बड़ा, सूर्य जब अपना आलोकवाही कर्तव्य उसे सौंप कर चुपचाप डूब जाता है तो तब जल उठना ही उसके अस्तित्व की शपथ है - जल उठना ही उसका जाने वाले को प्रणाम है।” ये पंक्तियाँ महादेवी वर्मा द्वारा कवीन्द्र रवींद्रनाथ ठाकुर के सम्बन्ध में लिखे संस्मरण ‘प्रणाम’ से हैं, और ग्यारहवीं कक्षा से आजतक यथा-सामर्थ्य काम करने के मार्ग पर बने रहने में मेरे लिए प्रकाश-स्तम्भ का काम करती हैं। इस महान कवयित्री ने अपने नाम को साहित्य की ‘महादेवी’ बनकर पूरी तरह सार्थक किया है।
ReplyDeleteरश्मि जी, आपने शब्द-सीमा वाले आलेख में इस प्रणम्य साहित्यकारा के व्यक्तित्व और कृतित्व की सुन्दर झाँकी पेश की है। सप्रेम लिखे गए इस बेहतरीन आलेख के लिए बधाइयाँ और आभार स्वीकार करें।
हिन्दी साहित्य की अमर साधिका महादेवी जी के काव्य को हमने केवल पढ़ा नहीं उसे जीया है| उनके बिम्ब और शब्द लालित्य सदा ही चमत्कृत करता है| मानव और प्रकृति का ऐसा कौन सा भाव-अनु अनुभाव है जिसे उन्होंने अपनी कल्पना की तूलिका से सजाया नहीं है| करुणा, समर्पण, विरह-वेदना, संवेदना जैसे अंतर्भावों को उन्होंने मूर्तरूप किया है| इस आलेख के द्वारा रश्मि जी ने उनके लेखन के लगभग हर पहलु को छुआ है|रश्मि जी, आपको बहुत सी बधाई और आभार|
ReplyDeleteरश्मि जी नमस्ते। आपका आज का लेख बहुत अच्छा बना है। आपको इस उत्तम लेख के लिये बहुत बहुत बधाई। इस महत्वपूर्ण लेख पर लगातार आ रही टिप्पणियों ने भी लेख की शोभा बड़ा दी है। महादेवी वर्मा हिंदी साहित्य में छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। वे हिंदी को सर्वाधिक प्रतिभावान कवयित्रियों में से हैं। उनके गद्य और पद्य सृजन को हिंदी से स्नेह रखने वालों ने कभी न कभी अवश्य पढ़ा होगा। उनकी हर कविता अकर्षित करती है और उद्धरित करने योग्य है।
ReplyDelete"मैं क्षितिज-भृकुटि पर घिर धूमिल
चिन्ता का भार बनी अविरल
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नव जीवन-अंकुर बन निकली!"
रश्मि जी महादेवी जी के विशाल सृजन एवं साहित्यिक योगदान को सीमित शब्दों में कहना कठिन है और इस कठिन कार्य को आपने बखूबी किया। आपको पुनः बधाई।
छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक महादेवी वर्मा बेहद संवेदनशील कवयित्री व लेखिका रहीं। उन्होंने भारतीय समाज में स्त्री जीवन के अतीत, वर्तमान व भविष्य का मूल्यांकन करते हुए अपनी संवेदनात्मक चेतना से मानवीयता के गुण धर्म स्थापित किए। रश्मि जी, आज आपके आलेख ने महादेवी वर्मा की लेखनी को पुनः सबकी स्मृतियों में जीवित कर दिया। साधुवाद!
ReplyDeleteरश्मि जी बहुत बढ़िया लेख। महीयसी महादेवी वर्मा के जीवन वृत और रचना संसार को आपने समग्रता के साथ इस लेख में प्रस्तुत किया है। उनके विराट व्यक्तित्व को सीमित शब्दों में बहुत ख़ूबसूरती से समेटा है। बहुत बहुत बधाई आपको।
ReplyDeleteआदरणीय रश्मि जी, डॉ महादेवी वर्मा जी के जीवनी पर आधारित लेख बहुत ही सुंदर और रोचक रुप से प्रस्तुत किया गया है । डॉ महादेव एस कोलूर 🙏
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