हिंदी साहित्य के स्वर्णकाल के बाद हुए राजनैतिक परिवर्तन से काव्य जगत में काफी उथल-पुथल मची थी। दिल्ली की सत्ता में औरंगज़ेब के आने के बाद हठधर्मिता और सांप्रदायिक कट्टरता इतनी बढ़ गई कि प्रजा त्राहि-त्राहि करने लगी। धर्मिक असहिष्णुता बढ़ने से विशेष रूप से हिंदू समाज के अधिकारों की बात करने वाला कोई नहीं दिख रहा था, उनका कोई नायक नहीं था, वे मौन थे और घनघोर निराशा में जीवनयापन कर रहे थे। ठीक इसी समय आम जन की निराशा को दूर करने की मंशा से एक कवि प्रेरित होता है, ताकि गुलामी, धार्मिक कट्टरता, और सांस्कृतिक बिखराव के युग में नवचेतना का संचार और धर्म एवं राष्ट्र की रक्षा सुनिश्चित की जा सके। उस कवि को संसार भूषण के रूप में याद करता है।
आज से लगभग ४०० वर्ष पूर्व कानपुर ज़िले के टिकवापुर गाँव में जन्मे भूषण को अपने राष्ट्र और संस्कृति से अथाह प्रेम था। हिंदी साहित्य के इतिहासकार उन्हें दरबारी कवि की संज्ञा देते हैं, किंतु सूक्ष्म अवलोकन करने पर आप पाऐंगे कि उन्होंने अपने समकालीन कवियों की तरह राजाओं का शृंगार विषयक महिमामंडन कभी नहीं किया। उन्होंने अपने स्वाभिमान की रक्षा करते हुए दरबार में रहने के बावजूद राजाओं की ख़ुशामद नहीं की, बल्कि उन्हें प्रजा हित में कार्य करने हेतु सदैव प्रेरित किया। इस बात को आचार्य रामचंद्र शुक्ल जी अपने कथन से स्पष्ट करते हैं,
"शिवाजी और छत्रसाल की वीरता के वर्णन को कोई कवि की झूठी खुशामद नहीं कह सकता। वे आश्रयदाताओं की प्रशंसा की प्रथा के अनुसरण मात्र नहीं है। इन दो वीरों का जिस उत्साह के साथ सारी हिंदू जनता स्मरण करती है, उसी की व्यंजना भूषण ने की है। वे हिंदू जाति के प्रतिनिधि कवि हैं।"
उस युग के कवियों की भाव, रस, शिल्प, और भाषा-शैली संबंधी भिन्नता को कवि भूषण ने न केवल एक अलग कलेवर में प्रस्तुत किया, बल्कि नवचेतना के स्वरों को मुखरता भी दी। रीतिकालीन कवियों से अलग हटकर भूषण ने युगबोध को महत्त्व दिया और किसी नायिका के नखशिख आदि का वर्णन करने की अपेक्षा छत्रपति शिवाजी और महाराज छत्रसाल के शौर्य, पराक्रम और युद्ध कौशल को अपनी कविता की विषय वस्तु बनाया।
साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि
सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है
भूषण भनत नाद बिहद नगारन के
नदी-नद मद गैबरन के रलत है
ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल
गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है
तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि
थारा पर पारा पारावार यों हलत है
शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के समर भूमि हेतु प्रस्थान के इस मनोहारी चित्रण से ज्ञात होता है कि भूषण की कविताओं में केवल भाव तत्व ही नहीं, बल्कि शिल्पगत विशेषताएँ भी प्रबल हैं। छत्रपति शिवाजी के व्यक्तित्व एवं अप्रतिम युद्ध कौशल का भूषण ने अपनी कविताओं में अद्भुत और अद्वितीय वर्णन किया है। यद्यपि रीतिकाल के अन्य कवियों की तरह आलंकारिकता सदैव उनके काव्य में रही और ध्वन्यात्मक सौंदर्य के साथ उन्होंने अलंकारों का प्रयोग भी चमत्कार उत्पन्न करने के लिए किया।
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहन वारी,
ऊंचे घोर मंदर के अंदर रहाती हैं।
कंद मूल भोग करैं कंद मूल भोग करैं
तीन बेर खातीं, ते वै तीन बेर खाती हैं।
भूषन शिथिल अंग भूषन शिथिल अंग,
बिजन डुलातीं ते वे बिजन डुलाती हैं।
'भूषन' भनत सिवराज बीर तेरे त्रास,
नगन जड़ातीं ते वे नगन जड़ाती हैं॥
कुछ विद्वान मानते हैं कि भूषण उस युग के दो श्रेष्ठ कवि चिंतामणि और मतिराम के भाई थे। आचार्य विश्वनाथ मिश्र के अनुसार भूषण का मूल नाम घनश्याम था। आचार्य शुक्ल के अनुसार चित्रकूट के राजा रूद्र सोलंकी ने इनकी प्रतिभा को पहचाना और भूषण की उपाधि से इनको सम्मानित किया। उसके बाद से घनश्याम हिंदी काव्य के इतिहास में भूषण के नाम से अमर हो गए। कई राजाओं के आश्रय के बाद एक बार भूषण औरंगज़ेब के यहाँ पहुँचे। उसी समय पुरंदर की संधि के बाद शिवाजी भी औरंगज़ेब से मिलने वहाँ गए। वहाँ औरंगज़ेब द्वारा अपमानित महसूस करने पर बीच सभा में शिवाजी ने क्रोध प्रकट किया, जिससे औरंगज़ेब सहित समस्त मुग़ल दरबार भयभीत हो उठा। महाकवि भूषण औरंगज़ेब की दमनकारी नीतियों के आलोचक तो थे ही, इस दृश्य को देखकर एक साकारात्मक परिवर्तन की आस में उन्होंने शिवाजी में लोकनायक की छवि देखी और उनके दरबार में रहने का मन बना लिया। उस समय किसी हिंदू शासक में ऐसा शौर्य उन्होंने नहीं देखा। औरंगज़ेब की कैद से निकलकर जब शिवाजी रायगढ़ पहुँचे, तब भूषण भी तमाम समस्याओं का सामना करते हुए उनके पीछे-पीछे रायगढ़ पहुँच गए, और इस तरह शिवाजी उनके प्रमुख आश्रयदाता हो गए।
ऐसा कहा जाता है कि भूषण शिवाजी को अपनी कविता "इंद्र जिमि जम्भ पर" सुनाने की जिद लिए एक मंदिर में ठहरे हुए थे, जहाँ उन्हें एक सिपाही मिला। आने का अभिप्राय पूछने पर भूषण ने बताया कि वे अपनी कविता शिवाजी को सुनाना चाहते हैं। उन्होंने उस सिपाही को ५२ बार कविता सुनाई। आगे कविता सुनाने से मना करने पर सिपाही ने भूषण को दरबार में आने को कहा। जहाँ उन्हें ज्ञात हुआ कि वह सिपाही कोई और नहीं, स्वयं छत्रपति शिवाजी महाराज थे। यह देखकर भूषण बड़े आश्चर्यचकित हुए और प्रसन्न भी। कहते हैं, ५२ बार कविता सुनाने के एवज में शिवाजी ने महाकवि भूषण को ५२ लाख रूपये, ५२ हाथी और ५२ गाँवों से पुरस्कृत करने के साथ ही समुचित आदर व सम्मान दिया।
धीरे-धीरे महाकवि भूषण के काव्य-कौशल तथा विचारों से और अधिक प्रभावित होकर छत्रपति शिवाजी ने उन्हें कवि कुल सचिव नियुक्त कर दिया। चूँकि महाराज छत्रसाल, स्वयं छत्रपति शिवाजी की वीरता, कूटनीति, युद्ध शैली, विचारों आदि से प्रेरित थे। अतः उन्हें भी भूषण प्रिय थे और वे उनका आदर करते थे।
जो विद्वान भूषण को केवल हिंदू जाति का कवि मानते हैं और इस भ्रम में हैं कि इनकी कविताएँ सांप्रदायिक सद्भाव के उदाहरण पर खरी नहीं उतरती है। उन लोगों को अपना नज़रिया बदलने की आवश्यकता है। भूषण को मुसलमान जाति से कोई नफ़रत नहीं थी। भूषण केवल और केवल मुगल शासकों की हठधर्मिता और अत्याचारों, सभ्यता और संस्कृति पर हो रहे प्रहारों, देवालयों पर हमलों आदि से दुःखी थे। उन्होंने इस्लाम धर्म के खिलाफ़ कभी कुछ नहीं कहा। अगर भूषण मुस्लिम विरोधी होते, तो भला औरंगज़ेब के पूर्वजों की प्रशंसा करते हुए ऐसा कैसे लिख सकते थे?,
सत युग त्रेता औ द्वापर कलियुग माहि
आदि भयो नाहि भूप तिनहूँ तै अगरी
अकबर बब्बर हुमायूँ साह सा मन सो
स्नेह ते सुधारी हेय हीरन ते समारी
उस समय हिंदू शोषित और पीड़ित थे, भूषण की कलम उनके साथ थी। शोषित और पीड़ित वर्ग को निराशा से बाहर ले आना ही तो कवि धर्म है। उन्होंने इसी धर्म का पालन किया।
भूषण सदैव राष्ट्रहित चिंतक थे और उन्होंने राष्ट्र के रूप में हिंदुओं और मुसलमानों के सहअस्तित्व को कभी नहीं नकारा। उन्होंने मिली जुली संस्कृति का हमेशा समर्थन किया और दोनों वर्गों के सम्मान और हितों की भी रक्षा की।
इसमें कोई दो राय नहीं कि महाकवि भूषण हिंदी काव्य जगत के भूषण हैं। उनका हिंदी साहित्य के रीतिकालीन कवियों में एक विशिष्ट स्थान हैं। वे वीर रस के अद्वितीय कवि थे। समय की पृष्ठभूमि पर कविता करने में उनका कोई जोड़ नहीं। उस समय जब रीतिकाल के अन्य कवि काव्य कौशल द्वारा चमत्कार-प्रदर्शन, नारी के प्रति कामुक दृष्टिकोण और अति शृंगारिकता जैसी प्रवृत्तियों में उलझ कर संकुचित दृष्टि से बाहर नहीं निकल पा रहे थे, तब भूषण ने अपने काव्य द्वारा तत्कालीन असहाय हिंदू समाज को वीरता का पाठ पढ़ाने की ज़िम्मेदारी ली और उसके समक्ष स्वरक्षा के लिए एक आदर्श प्रस्तुत किया। राष्ट्रीयता का सिहंनाद करते हुए हिंदी के सर्वश्रेष्ठ वीर रस के कवि भूषण के ह्रदय में बसे तत्कालीन युगबोध के भाव और सच्चे कवि धर्म को महसूस करते हुए, हजारी प्रसाद द्विवेदी ने उनके विषय में सत्य ही कहा कि- "प्रेम विलासिता के साहित्य का ही उन दिनों(रीतिकाल) प्राधान्य था, उन्होंने वीर रस की रचना की, यही उनकी विशेषता है।"
महाकवि भूषण निस्संदेह हिंदी साहित्य एवं राष्ट्र की अमर धरोहर हैं।
संदर्भ
http://www.mgahv.in/pdf/nrc/Dr-Bharti-Gore-Bhusan-Ki-Rastriya-Evam-Sanskratik-Chetana.pdf
http://hindirang.com/biography/kavi-bhushan-jeevan-parichay/
https://www.hindisahity.com/ritikaal-kavydhara-hindi-sahitya-ka-itihas/
भूषण ग्रंथावली : संपादक : आचार्य विश्वानाथ प्रकाशन मिश्र
लेखक परिचय
निवास स्थान : ग़ाज़ियाबाद (यूपी), भारत।
ईमेल : voice.vinod@gmail.com ; मोबाइल नंबर : 9999047547
बहुत ही प्रेरक आलेख भाई विनोद जी! आलेख में बहुत गहराई है। साधुवाद!
ReplyDeleteसंस्कृति एवं युगबोध को अपने काव्य में उतारने के कारण भूषण महाकवि के रूप में प्रसिद्ध हुए।
ReplyDeleteविनोद जी आपने एक अलग अंदाज एवं दृष्टि से यह लेख लिखा जो पढ़ने में रोचक एवं जानकारी भरा है। लेख की सीमा में रहकर भी आपने विस्तार से महाकवि भूषण के जीवन एवं सृजन से अवगत कराया। लेख के लिये आपको बहुत बहुत बधाई।
बहुत ही सुंदर लेख विनोद जी। चलचित्र की भाँति भूषण जी आँखों के आगे घूमते रहे। इतने अच्छे लेख के लिये साधुवाद
ReplyDeleteआदरणीय विनोद जी का शोधपरख आलेख महाकवि भूषण जी की काव्य धारा और उनके अलंकारों के विधान को अभिव्यंजक रूप से प्रदर्शित कर रहा है। सरल और साफ सुथरे लेख के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद और हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDeleteविनोद जी, आपने बहुत ही सरल और सरस तरीक़े से कवि भूषण को पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत किया है। इस बेहतरीन लेखन के लिए आपको शुभकामनाओं सहित बहुत-बहुत बधाई।
ReplyDeleteविनोद जी, कवि भूषण पर लिखा आपका आलेख उनके वीर-रस काव्य का सुंदर वर्णन करता है।आपके आलेख में तथ्यात्मक खोज स्पष्ट दिखाई देती है। किसी भी कवि के लिए सबसे बड़ा सम्मान यही है कि उसकी कही बात लोकोक्ति बन जाए और आम बोलचाल की भाषा में प्रचलित हो जाए।”तीन बेर खातीं, ते वै तीन बेर खाती हैं “, तो कहावत की तरह प्रयुक्त होता है और भूषण को सदा के लिए स्मरणीय बनाने वाली पंक्तियाँ हैं।
ReplyDeleteआपको इस सुंदर आलेख के लिए बधाई।भविष्य में लेखन के लिए शुभकामनाएँ। 💐