शिवानी हिंदी की ऐसी कथाकार हैं, जिनकी कहानियों में कहीं पितृसत्तात्मक समाज में सिर उठा कर अपनी पहचान बनाती सशक्त स्त्रियों की कसक झिलमिलाती है, तो कहीं प्रेम में आकंठ डूबी भोली-भाली पहाड़ी बालाओं की हँसी झरनों की तरह गुनगुनाती है। शिवानी का असली नाम गौरा पंत था। १७ अक्तूबर १९२३ को गुजरात के राजकोट में पैदा हुई शिवानी की पहली कहानी 'सिंदूरी' महज़ १२ वर्ष की उम्र में अल्मोड़ा से निकलने वाली 'नटखट' नामक बाल पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। इसके पश्चात शांति निकेतन की पत्र-पत्रिकाओं में भी उन्होंने नियमित रूप से अपना रचनात्मक कौशल प्रकट किया। १९५१ में धर्मयुग में प्रकाशित उनकी एक लघु रचना 'मैं मुर्गा हूँ' के बाद वे जीवन पर्यंत साहित्य सेवा करती रही। उन्होंने कृष्णकली, कालिंदी, अतिथि, पूतोंवाली, चल खुसरो घर आपने, शमशान चंपा, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, भैरवी, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप और आकाश जैसी कृतियों से समूचे हिंदी जगत को चौंधिया दिया।
शिवानी के लेखन में उदारवाद और परंपरानिष्ठता का अद्भुत समन्वय दिखता है, जिसकी जड़ों में उनकी विदुषी माँ और अँग्रेज़ी के विद्वान पिता का प्रभाव, पहाड़ की पृष्ठभूमि और शांति निकेतन में गुरु रवींद्रनाथ टैगोर का मार्गदर्शन रहा है। गुरु रवींद्रनाथ टैगोर कहते थे कि "हर लेखक को अपनी मातृभाषा में लेखन अवश्य करना चाहिए।" गुरुदेव के इन्हीं वचनों से प्रेरित होकर शिवानी ने जब लेखन प्रारंभ किया, तो सहज ही उनकी लेखनी में साक्षात पहाड़ ही अपनी संपूर्णता के साथ आ विराजा। उनकी हर कहानी में, हर उपन्यास के कथानक में पहाड़ी रीति-रिवाज़, खानपान, बोली इतने सहज ढ़ंग से आ पसरते हैं कि पाठक स्वयं को वहीं के रंग में रंगा अनुभव कर उठता है। और उनकी हर नायिका अपने विलक्षण सौंदर्य व अद्वितीय बुद्धि कौशल से किसी को भी मात दे सकती है। यह शिवानी के लेखन का प्रवाह ही तो है, जिसमें डूबकर, घंटों तक सुध बुध बिसराए उनके पाठक कहानी के ताने बाने में ही सिमटे रह जाते हैं। और मज़े की बात तो यह है कि कहानी खत्म हो जाती है, पर पाठक की और पढ़ने की प्यास और कहानी से जुड़ाव खत्म नहीं होते।
शिवानी के इसी लेखन कौशल के कारण ही हिंदी कहानी के क्षेत्र में पाठकों की रुचि निर्मित करने का श्रेय उन्हें देते हुए उनके योगदान को अमूल्य माना गया। साठ और सत्तर के दशक में शायद ही कोई हिंदी प्रेमी था, जिसके संग्रह में शिवानी का रचना संसार और जिसकी कल्पना में शिवानी की नायिका की अप्रतिम सौंदर्य की मूर्ति न बसती हो। उनके लिखने की शैली ही कुछ ऐसी है कि उन्हें पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ती ही जाती है, यह बात और है कि अमूमन उनकी कहानी का अंत दुखांत ही रहा।
अपनी उदारवादिता, परंपरानिष्ठता एवं भाषाई रवानगी के लिए प्रसिद्ध गौरा पंत 'शिवानी' महादेवी वर्मा, अमृता प्रीतम एवं पुपुल जयकर जैसी श्रेष्ठ महिला लेखिकाओं की समकालीन थी। उनका साहित्य समकालीन महिला लेखिकाओं से अलग, अत्यंत सहज एवं सादगी से परिपूर्ण है। शिवानी के साहित्य में ग्रामीण एवं नगरीय सभ्यता का अद्भुत संगम है। अपनी मातृभूमि कुमायूँ (उत्तराखंड) की मिट्टी की खुशबू उनके संपूर्ण साहित्य में महकती है। यहाँ की लोक संस्कृति, भाषा-बोली, भौगोलिक-प्राकृतिक चित्रण एवं तितली, कैंजा, कालिंदी, भैरवी जैसी अनेक ग्रामीण स्त्री पात्रों के सुख-दुख उनकी साहित्यिक जीवंतता के परिचायक है। समाज की प्रत्येक समस्या पर शिवानी की दृष्टि केंद्रित हुई, जिसमें स्त्री-व्यथा महत्वपूर्ण है। समाज में व्याप्त पारंपरिक रूढ़ियाँ, गरीबी, अशिक्षा, बेरोज़गारी, नशाखोरी, घरेलू हिंसा, दहेजप्रथा, विधवा स्त्रियों की समस्या, विभाजन के दौरान दंगा पीड़ित महिलाओं की समस्या, महिला तस्करी, वैश्यावृत्ति जैसी अनेक गंभीर समस्याओं को लेखिका ने अपने साहित्य में बेहद संजीदगी से उजागर किया।
बहुभाषाज्ञान एवं अभिव्यक्ति की विलक्षण क्षमता के कारण शिवानी के साहित्य में हिंदी, अँग्रेज़ी, संस्कृत, बांग्ला, गुजराती एवं पहाड़ी (कुमाउँनी) इत्यादि अनेक भाषाओं का व्यापक शब्दभंडार है । पिठ्या (तिलक), चरयो (मंगलसूत्र), गाढ़ (नदी), म्योला (घाटी), गंगज्यू (गंगनाथ), ईजा (माँ) जैसे अनेक ठेठ पहाड़ी लोकप्रचलित शब्दों के प्रयोग से शिवानी का साहित्य अँचल विशेष से जुड़कर अत्यंत स्वाभाविक लगता है। वे मूलतः उत्तराखंड के कुमायूँ मंडल से ताल्लुक रखती हैं। उनके पिता श्री अश्विनी कुमार पांडे राजकोट स्थित राजकुमार कॉलेज के प्रिंसिपल थे, जो कालांतर में मानबदर और रामपुर की रियासतों में दीवान भी रहे। वैदुष्य के बीजारोपण का आरंभिक कारक भी घर-परिवेश ही है। विद्वान माता-पिता एवं दादाजी ने बाल्यकाल से ही उनके जीवन को साहित्य एवं संगीत की लयात्मकता से भर दिया था। उनके पितामह पंडित हरिराम पांडे संस्कृत के प्रकांड विद्वान एवं बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे। पंडित मदनमोहन मालवीय जी के साथ उनकी गहन मित्रता थी। वे प्रायः अल्मोड़ा एवं बनारस में रहा करते थे, अतः शिवानी का बचपन अपने दादाजी के संरक्षण में अल्मोड़ा एवं बनारस में व्यतीत हुआ। किशोरावस्था शांतिनिकेतन में एवं युवावस्था अपने शिक्षाविद पति श्रीयुतपंत जी के साथ उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों में बीता। पति के असमय देहांत के पश्चात भी शिवानी लंबे समय तक लखनऊ में रही, वहाँ से उन्होंने रेडियो प्रसारण के माध्यम से निरंतर अपनी कहानियों का पाठ किया। शिवानी की दो पुत्रियाँ एवं एक पुत्र हैं, जिनमें से एक पुत्री मृणाल पांडे समकालीन ख्यातिलब्ध साहित्यकार एवं पत्रकार हैं, जो दैनिक हिंदुस्तान, हिंदुस्तान टाइम्स, नंदन, कादंबिनी जैसे प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं की संपादक, दूरदर्शन की न्यूज़ एंकर और प्रसार भारती की अध्यक्ष भी रह चुकी हैं।
शिवानी की लेखन क्षमता का वास्तविक परिष्कार शांतिनिकेतन में गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर एवं हजारी प्रसाद द्विवेदी जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तित्व के संरक्षण में हुआ। यहाँ सत्यजीत रे जैसे प्रसिद्ध निर्देशक उनके सहपाठी रहे। शिवानी की प्रशंसा करते हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं,
"गौरा, शांतिनिकेतन की छोटी सी मुन्नी मेरी परमप्रिय बहिन और छात्रा, बचपन से ही बड़ी सूक्ष्म बुद्धि की थीं। उसकी दृष्टि बड़ी पैनी थी।"
अपने आत्मकथात्मक संस्मरण 'आमदेर शांतिनिकेतन' में शिवानी ने वहाँ के वातावरण का अत्यंत सूक्ष्म चित्रण किया है। इस पुस्तक में लेखिका ने राष्ट्रपति राजेंद्र बाबू का आश्रम में आगमन, शांतिनिकेतन की विभूतियाँ, आश्रम में गांधी जयंती, खेलकूद, मनोरंजन इत्यादि का सरस चित्रण किया है। 'आश्रम के विकास में गुरुदेव का योग' वाला अध्याय काफी प्रेरणादायक है। गुरुदेव की पत्नी ने जिस प्रकार अपने गहने बेचकर आश्रम की रक्षा की थी और गुरुदेव को अपनी दो पुत्रियों तथा कनिष्ठ पुत्र की मृत्यु के कारण कैसा कठोर आघात पहुँचा, पर वे फिर भी कर्मपथ से विचलित नहीं हुए, यह वर्णन निश्चय ही मर्मस्पर्शी है। शांतिनिकेतन से शिवानी ने स्नातक तक की शिक्षा प्राप्त की थी।
गौरा पंत से 'शिवानी' नाम परिवर्तित करने की भी विचित्र कहानी है। उनकी पुत्री मृणाल पांडे ने इसे एक साक्षात्कार में साझा किया, "मेरी माँ बाल्यकाल से ही लेखन में रुचि रखती थी, विवाह के पश्चात जब उन्होंने मेरे पिता से अपनी रचनाएँ प्रकाशित करने की बात रखी, तो पिताजी ने यह कहकर इंकार कर दिया कि भले घरों की बहू-बेटियों का इस प्रकार खुलकर अपने अनुभवों को साझा करना उचित नहीं है। माँ के बार-बार निवेदन करने पर पिताजी ने साहित्यजगत में नाम बदलकर रचनाएँ प्रकाशित करने की अनुमति दी।" यह वृत्तांत तत्कालीन समाज में अस्तित्वहीन स्त्री का वास्तविक दस्तावेज है। संभवतः अस्तित्वहीनता की यही बेबसी शिवानी के कथानक की पूंजी बन गई। उनके समर्थ, संभ्रांत पुरुष पात्रों में जहाँ आवेश, क्रोध और रौब झलकता है, वहीं उनका अपना दमित आक्रोश मुखर हुआ है, उनकी नायिकाओं के विद्रोही तेवरों और सुदृढ़ निर्भीकता में। यही कारण है कि शिवानी स्त्री के स्वतंत्र व्यक्तित्व की प्रबल पक्षपाती रही हैं।
शिवानी ने उपन्यास, कहानी, निबंध, संस्मरण, रेखाचित्र, यात्रावृत्तांत, रिपोतार्ज़, आत्मकथा, बाल साहित्य इत्यादि लगभग सभी साहित्यिक विधाओं में अपनी कलम चलाई। उनकी अधिकांश रचनाओं में कुमाऊं अँचल की सांस्कृतिक चेतना की झलक मिलती है, साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में प्रचलित कुरीतियाँ, अंधविश्वास, नशाखोरी, गरीबी, अशिक्षा इत्यादि का भी मार्मिक चित्रण मिलता है। कहानी के क्षेत्र में पाठकों की रुचि निर्मित करने में शिवानी का योगदान अविस्मरणीय है। उनके उपन्यासों में प्रेमचंद की यथार्थवादिता एवं शरतचंद्र की भावुकता मिलती है। उनका 'कृष्णकली' उस समय का सर्वाधिक पढ़ा जाने वाला उपन्यास है। वरिष्ठ साहित्यकार पद्मा सचदेव कहती हैं कि, "जब शिवानी का कृष्णकली धर्मयुग में प्रकाशित हुआ उस वक्त उनकी चर्चा साहित्य जगत में विशेष थी", इस उपन्यास में आद्योपांत कुष्ट रोग से पीड़ित एक स्त्री की पीड़ा उजागर की गई है। 'विषकन्या' संसार से अभिशप्त होकर मुँह छिपाई एक युवती की कथा है। 'कालिंदी' एक स्वयंसिद्धा नायिका की कथा है। कालिंदी डॉक्टर है, वह दहेज का विरोध करती है और घर आई बारात को लौटाने का साहस रखती है। 'रतिविलाप' में विवाह और वैधव्य के अभिशाप को सहती नारी का चित्रण है।
उनकी भाषा में संस्कृतनिष्ठ हिंदी की बहुलता मिलती है, और उनका यही गुण उन्हें उनके समकालीन लेखकों से पृथक भी करता है। एक विशेष बात इनके लेखन की यह रही है कि उन्होंने स्त्री जीवन को ही अपने कथानक का आधार बनाया। अपनी कहानियों में उन्होंने स्त्री मन की परतों को भीतर तक उघाड़ कर दिखाया है, जिसकी झलक पाकर पाठक स्वतः ही उन पात्रों से जुड़ जाता है और उनकी पीड़ा को अनुभव कर उठता है, और यहीं लेखिका की कलम अपना स्वर पा जाती है। शिवानी के अनमोल साहित्य पर अमिता चतुर्वेदी लिखती हैं,
"लोकप्रिय लेखिका शिवानी की रचनाओं ने पाठकों पर अमिट छाप छोड़ी है। शिवानी का नाम लेते ही कुमाऊँ की पहाड़ियों के दृश्य आँखों के सामने घूम जाते हैं। अपनी रचनाओं में नायिका की सुंदरता का वह इतना सजीव चित्रण करतीं थीं कि लगता था कि वह समक्ष आ खड़ी हुई है। कभी लगता था कि शायद कुमाऊँ की पहाड़ियों पर वह असीम सुंदर नायिका अपनी माँ के बक्से से निकाली हुई साड़ी पहने असाधारण लगती हुई खड़ी हो। कहीं किसी घर में ढोलक की थाप से उत्सव का वर्णन होता है, तो कहीं कोई तेज तर्रार जोशी ब्राह्मण आदेश देता फिरता है।"
शिवानी उन लेखिकाओं में से है, जो साहित्यकार के दायित्व को जानती हैं। सस्ती लोकप्रियता के लिए उन्होंने कभी शालीनता की तिलांजलि नहीं दी। अपनी लेखनी की ईमानदारी के कारण वे आधुनिक लेखिकाओं की पंक्ति से अलग अपना महत्त्व रखती हैं। युगीन समस्याओं के जीवंत चित्रण एवं भाषाई माधुर्य के कारण समाज के प्रत्येक वर्ग का पाठक उनके साहित्य से आत्मिक संबंध बना लेता है। अपने लेखन की उत्कृष्टता एवं साहित्यिक उपलब्धियों के कारण शिवानी को सन १९८२ में पद्मश्री से अलंकृत किया गया। स्त्री के अंतर्मन में उठने वाली हर आवेगमयी लहर को बड़ी संजीदगी से अपनी कलम का स्पर्श देने वाली हिंदी साहित्य की यह अनुपम ज्योति २१ मार्च २००३ को सदा के लिए पंच तत्व में विलीन हो गई। शिवानी का योगदान समाज एवं साहित्य जगत के लिए अमूल्य धरोहर है और स्त्री जीवन की आरंभिक सशक्त पैरोकार के रूप में वे सदैव याद रखी जाएँगी।
गौरा पंत 'शिवानी' : संक्षिप्त परिचय |
मूलनाम | गौरा पंत |
उपनाम | शिवानी |
जन्म | १७ अक्टूबर १९२३, विजयादशमी के दिन, राजकोट (गुजरात)। |
निधन | २१ मार्च २००३ (७९ वर्ष की अवस्था में), नई दिल्ली। |
मूलनिवास | अल्मोड़ा (उत्तराखंड)। |
पिता | श्री अश्विनी कुमार पांडे |
माता | श्रीमती लीलावती पांडे |
पति | श्री श्रीयुत शुकदेव पंत |
शिक्षा | स्नातक (शांतिनिकेतन, पश्चिम बंगाल से) |
साहित्यिक रचनाएँ |
उपन्यास | चौदह फेरे कृष्णकली कालिंदी अतिथि चल खुसरो घर आपने पूतोवाली मायापुरी कैंजा
| गेंदा भैरवी स्वयंसिद्धा शमशान चंपा विषकन्या रतिविलाप आकाश
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कहानी संग्रह | लाल हवेली (१९६५) पुष्पहार (१९६९) अपराधिनी (१९७२) रथ्या (१९७६)
| करिए छिमा कस्तूरी मृग चिर स्वयंवरा
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संस्मरण | आमदेर शांतिनिकेतन स्मृति कलश काल के हस्ताक्षर एक थी रामरति
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यात्रा वृत्तांत | |
रिपोतार्ज़ संग्रह | |
बाल साहित्य | अलविदा हर-हर गंगे राधिका रानी स्वामी भक्त चूहा
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आत्मकथा | |
अन्य | रेडियो चैनलों पर भी वे निरंतर कहानी एवं संस्मरण का पाठ करती रहीं। |
सम्मान |
पद्मश्री (१९८२) रामचंद्र शुक्ल पुरस्कार
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संदर्भ
शिवानी के उपन्यासों का रचना विधान, शशिबाला पंजाबी, पृष्ठ - ५
आमदेर शांतिनिकेतन, शिवानी
मृणाल पांडे का साक्षात्कार, साभार - इंटरनेट
शिवानी की श्रेष्ठ कहानियाँ, शिवानी पृष्ठ- १२९
लेखक परिचय
डॉ० ममता थपलियाल
असिस्टेंट प्रोफेसर (हिंदी) राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय अगस्त्यमुनि, रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड)।
२० से अधिक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध पत्र एवं आलेख प्रकाशित ।
विनीता काम्बीरी
शिक्षा निदेशालय, दिल्ली प्रशासन में हिंदी प्रवक्ता हैं तथा आकाशवाणी दिल्ली के एफ.० एम० रेनबो चैनल में हिंदी प्रस्तोता हैं। आपकी कर्मठता और हिंदी शिक्षण के प्रति समर्पण भाव के कारण अनेक सम्मान व पुरस्कार आपको प्रदत्त किए गए हैं, जिनमें यूएन द्वारा सहस्राब्दी हिंदी शिक्षक सम्मान, पूर्वोत्तर क्षेत्र विकास मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा नेशनल वुमन एक्सीलेंस अवार्ड और शिक्षा निदेशालय, दिल्ली सरकार द्वारा राज्य शिक्षक सम्मान प्रमुख हैं। मिनिएचर-पेंटिंग करने, कहानियाँ और कविताएँ लिखने में रुचि है।
ईमेल: vinitakambiri@gmail.com
शिवानी कलम से फ़िल्म बनाया करती थीं। उनकी कहानियाँ, उपन्यास इतने दृश्यात्मक होते हैं कि पाठक को लगता है कि सब कुछ उसके सामने घट रहा है। भाषा विन्यास ऐसा अनोखा जिसका पूरे विश्व में एकल स्वामित्व का दावा केवल शिवानी कर सकतीं हैं । उनकी भाषा उनके भीतर से ही उपजी थी। ना तो कोई यह कह सकता है कि उन्होंने फ़लाँ-फ़लाँ लेखक की भाषा से प्रेरणा ली है, ना ही कोई उनकी भाषा में घटना-चक्र का , भावों का वैसा वर्णन कर सकता है। इतने मौलिक भाषा विन्यास का दावा करने वाले लेखक दुर्लभ हैं।
ReplyDeleteममता जी, विनीता जी , आपने उनके जीवन का , कृतित्व का सुंदर चित्रण किया है। बधाई। 💐💐
लेखक द्वय के प्रयास से बहुत ही प्रेरक व ज्ञानार्जक आलेख पढ़ने को मिला। साधुवाद!
ReplyDeleteशिवानी मेरी प्रिय रचनाकार थीं, हैं और रहेंगी। मेरे पास उनके लिखे समग्र हैं
ReplyDelete।
बहुत सुंदर आलेख ममता और विनीता जी पिछले दिनों मुझे भी शिवानी पर लिखने का अवसर मिला, आज आपने मेरे अनुभव संसार को पूर्णता दी
ReplyDeleteहार्दिक आभार और सुंदर आलेख के लिए आप दोनों को अनेकश: बधाई
रोचक आलेख के लिए लेखक द्वय को साधुवाद! मेरा शोध प्रबंध भी शिवानी जी पर है। वे मेरी प्रिय लेखिका थीं।
ReplyDeleteहिंदी साहित्य जगत में कुमाऊँनी समाज पर लिख़ने वाली आदरणीया शिवानी जी अग्रणी लेखिका थी। महामना मदनमोहन मालवीय जी की छत्रछाया उन पर हमेशा बनी रही। गुरदेव टैगोर उन्हें *गोरा* कहकर बुलाते थे। कहानी क्षेत्र में लेखकों की रुचि निर्माण करने तथा केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने का श्रेय शिवानी जी को जाता है। आज के आलेख की लेखिका डॉ ममता जी और आद. बिनीता जी ने शिवानी जी के हिंदी साहित्य की मुख्यधारा तथा उनके व्यक्तित्व में उदारवादिता पर परम्परानिष्टा का अदभुत मेल प्रस्तुत किया है। आलेख की भाषा शैली उनके कृतियों समान ही झलक रही है जो उनके यथार्थ को न बदलते हुए चरित्र चित्रण का संक्षिप्तिकरण कर रही है। इस उम्दा लेख के लिए आप दोनों महिलाओं का हार्दिक आभार और अनंत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteममता जी और विनीता जी आप दोनों को गौरा पंत जी पर यह लेख लिखने के लिये बहुत बहुत बधाई। गौरा पंत जी का साहित्य समाज के और पहाड़ों के जीवन के दर्द से अवगत कराता है। आपने इस लेख में उनके जीवन एवं साहित्य को बखूबी समेट कर पटल पर रखा। लेख पढ़ने में रोचक है और नियत शब्द सीमा में विस्तृत जानकारी देता है। आप दोनों को पुनः बधाई।
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