Thursday, March 10, 2022

द्विवेदी युग की एक महत्वपूर्ण कड़ी : राय देवी प्रसाद "पूर्ण"

 

बहुमुखी प्रतिभा के धनी राय देवी प्रसाद 'पूर्ण' जी ब्रज भाषा काव्य परंपरा के प्रौढ़ कवि माने जाते हैं। सनातन धर्म के अनुयायी होने के साथ-साथ इनको उपनिषद, वेदांत, संस्कृत साहित्य और उर्दू-फ़ारसी भाषा का अच्छा ज्ञान था। देवी प्रसाद जी की कविताओं में देशभक्ति और राजभक्ति का सुंदर समन्वय मिलता है। सन १८६८ ई० में जबलपुर में जन्मे देवी प्रसाद जी के पिता का नाम राय वंशीधर था। "राय" की उपाधि आपके पूर्वजों को बादशाही शासन काल में मिली थी। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी० ए० और बी० एल० किया। नाटकों तथा रामलीला आदि में अभिनय करने का शौक इन्हें बचपन से ही था। रामलीला में निषादराज की भूमिका में इनके संवाद इतने हृदय स्पर्शी होते थे कि श्रोताओं की आँखें नम हो जाया करती थीं।


साहित्यिक सफ़र

 

पूर्ण जी ने पं० ललिताप्रसाद त्रिवेदी 'ललित' के सानिध्य में ब्रजभाषा में कविता लेखन का अभ्यास किया था। देशदशा, समाजदशा, स्वदेशप्रेम, आचरणसंबंधी उपदेश इन सभी विषयों पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। इनकी रचनाओं, विशेषकर "बसंत वियोग" में भारत की दुर्दशा के भान के साथ-साथ दार्शनिक तत्वों की झलक भी मिलती है। पूर्ण जी का समय वह समय था, जब देश के उद्योग धंधे साम्राज्यवादियों के शोषण से ठप्प हो रहे थे, जिससे लोग और गरीब हो रहे थे। सरकारी लगान जस का तस था, पर ज़मीन सुधारने के लिए सरकार फूटी कौड़ी भी नहीं देती थी। पैदावार बहुत कम होने से कर्ज़ लेना पड़ता था। कर्ज़ न चुका पाने की स्थिति में घर-द्वार, बैल-बछिया सब नीलाम हो जाते थे। भाग्य को कोसते, भोले-भाले भारतवासी दुःख के कारणों को समझ नहीं पा रहे थे। इसे समझा भारतेंदु और द्विवेदी युग के कवियों ने, जिनमें पूर्ण जी प्रमुख थे।


पूर्ण जी का मानना था कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अँग्रेज़ ही थे -

चींटी मक्खी शहद की सभी खोज कर अन्न,

करते हैं लघु जंतु तक ,निज गृह को संपन्न।

निज गृह को संपन्न करो स्वच्छंद मनुष्यों,

तजो तजो आलस्य अरे मतिमंद मनुष्यों।

चेत न अब तक हुआ, मुसीबत इतनी चक्खी,

भारत की संतान, बने हो चींटी मक्खी।


देशप्रेम और राजभक्ति की जैसी समन्वित और संयत प्रवृत्ति भारतेंदु आदि कवियों में दिखलाई पड़ती है, वैसी ही 'पूर्ण' जी में भी प्रत्यक्ष थी। इन्होंने "धारा-धर-धावन" शीर्षक से 'कालीदास' के 'मेघदूत' का पद्यानुवाद किया। 'स्वदेशी कुण्डल' में इन्होंने देशभक्ति से पूर्ण ५२ कुण्डलियों की रचना की है। पूर्ण जी ने 'भक्ति और वेदांत विषयक' छंदों में प्रमुखतया 'जीवन की निस्सारता', 'तपस्वी की महिमा', 'संसार की असारता' आदि विषयों का वर्णन किया है। विष्णु के दो प्रसिद्ध अवतारों, राम और कृष्ण का चरित्र वर्णन 'विपद्विरण स्रोत' में किया है। इन्होंने कई नाटक भी लिखे, पर उचित प्रकाशन न होने की वजह से लोगों  तक पहुँच नहीं पाए। 


पूर्ण जी ने उर्दू फ़ारसी के बहुप्रचलित, सधे हुए शब्दों और मुहावरों के प्रयोग से युक्त बड़ी आकर्षक रचनाएँ की हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने जहाँ परंपरानुगत विषयों को लिया है, वहीं आधुनिक विषय भी उनसे अछूते नहीं रहे। उनकी रचनाओं में एक ओर देशभक्तिपूर्ण पद्य हैं, तो दूसरी ओर सन १९११ वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन भी है। प्रथम उत्थान के कवियों के समान ही पूर्णजी भी प्रारंभ में  ब्रजभाषा में कविता करते थे, एक उदाहरण देखें :

विगत आलस की रजनी भई, रुचिर उद्यम की द्युति छै गई,
उदित सूरज है नव भाग को, अरुन रंग भये अनुराग को,
तजि बिछौनन को अब भागिए,  भरत खंड प्रजागण जागिए।

इसी  प्रकार 'संग्रामनिंदा' जैसी उनकी अनेक रचनाएँ ब्रजभाषा में ही लिखी गई हैं। बाद में खड़ी बोली की कविता का प्रचार प्रसार होने से बहुत सी रचनाएँ उन्होंने खड़ी बोली में भी कीं। इनमें से कुछ प्रमुख हैं : 'अमलतास', 'वसंतवियोग', 'स्वदेशी कुंडल', 'नए सन (१९१०) का स्वागत', 'नवीन संवत्सर (१९६७) का स्वागत' इत्यादि। 'स्वदेशी', 'देशोद्धार' आदि विषयों पर उनकी अधिकांश रचनाएँ इतिवृत्तात्मक पद्यों के रूप में हैं।

'वसंतवियोग' पूर्ण जी की एक लंबी  कविता है, जिसमें काल्पनिकता की प्रधानता है। इस कविता में भारतभूमि की कल्पना एक उद्यान के रूप में की गई है। प्राचीनकाल में यह उद्यान सत्वगुणप्रधान तथा प्रकृति की सारी विभूतियों से संपन्न था और इसके माली देवतुल्य थे। धीर-धीरे मालियों के प्रमाद और अनैक्य से उद्यान उजड़ने लगता है। यद्यपि कुछ यशस्वी महापुरुष (विक्रमादित्य जैसे) कुछ काल के लिए उसे सँभालते दिखाई पड़ते हैं, पर उसकी दशा गिरती ही जाती है। अंत में उसके माली साधना और तपस्या के लिए कैलाश  मानसरोवर की ओर जाते हैं, जहाँ आकाशवाणी होती है कि विक्रम की बीसवीं शताब्दी में जब 'पच्छिमी शासन' होगा तब उन्नति का आयोजन होगा।
'अमलतास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़ पौधे  झुलसे से रहते हैं, जिस कारण हरियाली और  प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमलतास चारों ओर फूलकर अपनी पीतप्रभा फैला देता है। अमलतास के माध्यम से कवि भक्ति के महत्व को संकेतित  करता है,
देख तव वैभव, द्रुमकुल संत! बिचारा उसका सुखद निदान।
करे जो विषम काल को मंद, गया उस सामग्री पर ध्यान
रँगा निज प्रभु ऋतुपति के रंग, द्रुमों में अमलतास तू भक्त।
इसी कारण निदाघ प्रतिकूल, दहन में तेरे रहा अशक्त


इनकी स्फुट कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' (संग्रहकर्ता- लक्ष्मीकांत त्रिपाठी, एम० ए० ) के नाम से  लखनऊ के गंगा पुस्तक माला कार्यालय द्वारा निकाला गया। आइए देखते हैं, उनकी खड़ी बोली की रचनाओं के कुछ और उदाहरण -

नंदन वन का सुना नहीं है किसने नाम
मिलता है जिसमें देवों को भी आराम
उसके भी वासी सुखरासी, उग्र हुआ यदि उनका भाग
आकर के इस कुसुमाकर में, करते हैं नंदन रुचि त्याग (वसंतवियोग)

************

सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान 

कर सकते हो देश का सभी तरह कल्याण 

सभी तरह कल्यान देश का कर सकते हो 
करके कुछ उद्योग सोक सब हर सकते हो 
जो हो तुममें जान, आपदा, भारी सारी 
हो सकती है दूर, नहीं बाधा सरकारी 
           
पूर्ण जी द्वारा रचित स्वदेशी कुंडल (खड़ी बोली में कुंडलियाँ), धाराधर धावन (मेघदूत का ब्रजभाषा पद्य में अनुवाद), चंद्रकला भानुकुमार (मौलिक सुखांत नाटक), राम-रावण-विरोध (चंपू), राजदर्शन (सन १९११ के दिल्ली दरबार के अवसर पर हिंदी-अँग्रेज़ी मिश्रित), धर्मकुसुमाकर (सनातन धर्म महामंडल की पत्रिका), मृत्युंजय आदि ग्रंथ भी साहित्य में उल्लेखनीय स्थान रखते हैं।

साहित्य सृजन के साथ ही पूर्ण जी धर्म ,साहित्य और समाज की उन्नति के लिए भी आजीवन प्रयत्नशील रहे। वे कानपुर सनातन धर्म महामंडल के सभापति नियुक्त हुए थे। अयोध्या की कुर्बानी के मामले को सुलझाने में उनका योगदान अविस्मरणीय है। कानपुर की रसिक समाज नामक संस्था में ये कार्यरत थे। अधिवेशनों में कविता पाठ करने के साथ-साथ आयोजनों की व्यवस्था करना, स्थानीय और अभ्यागत कवियों को आमंत्रित कर उनके कवितापाठ का प्रबंध करना आदि कार्य रुचि पूर्वक करते थे। कानपुर के रसिक समाज की ओर से पूर्ण जी के मार्गदर्शन में 'रसिक वाटिका' नाम की एक नियमित  पत्रिका भी निकलती थी, जिसमें उस समय के प्रायः सभी  ब्रज भाषा कवियों की रचनाएँ छपी थीं। 

हिंदी सेवी राय देवी प्रसाद पूर्ण जीवन पर्यंत पूर्ण मानव बन कर जिए और विविध क्षेत्रों में उनके कार्यों ने समाज को नई दिशा दी। जब ३० जून  १९१५ ई  में पूर्णजी का देहावसान हुआ, उस समय रसिक समाज निरवलंब सा हो गया था।
रसिक समाजी ह्वै चकोर चहुँ ओर हेरैं,
कविता को पूरन कलानिधि कितै गयो। (रतनेश)

राय देवी प्रसाद पूर्ण : जीवन परिचय

 नाम 

 राय देवी प्रसाद पूर्ण

 जन्म 

 १८६८ ई० 

 निधन

३० जून  १९१५ ई० 

साहित्यिक रचनाएँ

  • स्वदेशी कुंडल (खड़ी बोली में कुंडलियाँ)

  • धाराधर धावन (मेघदूत का ब्रजभाषा पद्य में अनुवाद)

  • चंद्रकला भानुकुमार (मौलिक सुखांत नाटक)

  • राम-रावण-विरोध (चंपू)

  • राजदर्शन (सन् १९११ के दिल्ली दरबार के अवसर पर हिंदी-अँग्रेज़ी मिश्रित)

  • धर्मकुसुमाकर (सनातन धर्म महामंडल की पत्रिका)

  • मृत्युंजय 

  • संग्रामनिंदा

  • अमलतास

  • नए सन (१९१०)का स्वागत

  • नवीन संवत्सर(१९६७)

  • वसंत वियोग

  • स्वदेशी

  • देशोद्धार

  • पूर्ण संग्रह 


संदर्भ

लेखक परिचय


संतोष भाऊवाला


इनकी  कविताएँ, कहानियाँ, ग़ज़ल, दोहे आदि विभिन्न  पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी हैं|   


ईमेल :  santosh.bhauwala@gmail.com  

व्हाट्सएप : ९८८६५१४५२६ 

7 comments:

  1. प्रेरक आलेख के लिए संतोष जी को साधुवाद!

    ReplyDelete
  2. आदरणीया संतोष जी, भारतेंदु व् द्विवेदी युग के प्रबुद्ध एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी माननीय "पूर्ण" जी के बारे इतनी सुन्दर तथा नयी जानकारी से सुसज्जित आपके आलेख के लिए हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद!

    ReplyDelete
  3. संस्कृत साहित्य की व्यापक और गंभीर प्रभा रखने वाले श्रध्देय रायदेवी प्रसाद 'पूर्ण' संगीत साधना के भी उपसाधक थे। छंद, रस,अलंकार काव्यशास्त्रीय पक्ष की विवेचना उनके कवितापाठ में अनुभवित होती है। प्रख्यात साहित्यकार और हिंदी सेवी 'पूर्ण' जी के साहित्यिक कार्यो ने समाज को नई दिशा देने का कार्य किया है। आदरणीया संतोष जी के द्वारा रचित 'पूर्ण' जी का आलेख उनकी रसात्मक रचनाओँ के अनुसार ही रसभाव की अनुभूति करा रहा है। आपके शब्द रचना की भावना ने रायदेवी जी के साहित्यिकजीवन वृतांत को लेकर नया अनुभव अवलोकित किया है। अति सुंदर, जानकारीयुक्त, सुसंक्षिप्त आलेख के लिए आपका आभार और अनंत शुभकामनाएं।

    ReplyDelete
  4. संतोष जी, राय देवीप्रसाद 'पूर्ण'जी पर आपने बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराता लेख लिखा है। सचमुच यह 'हिन्दी से प्यार है' समूह की बहुत बड़ी उपलब्धि है, और इस उपलब्धि को हासिल कराने में आपकी मेहनत, आपका शोध साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है। इस सुन्दर, समृद्ध लेख के लिए बहुत बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  5. संतोष जी। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई। श्री राय देवी प्रसाद पूर्ण जी का साहित्यिक योगदान अद्वितीय है। पर ये दुःखद है कि उनको समुचित प्रसिद्धि नहीं मिल पाई। हम लोगों के पास उनका कोई चित्र तक नहीं है! लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  6. संतोष जी, राय देवी प्रसाद पूर्ण जी के साहित्य के विभिन्न आयामों और उनकी विशेषताओं पर रोशनी डालता यह लेख जानकारीपूर्ण और दिलचस्प है। इस शोधपूर्ण कार्य के लिए आपका आभार और बधाई।

    ReplyDelete
  7. पूर्ण जी पर लिखा आलेख उनके पूरे व्यक्तित्व की पूर्णता को उजागर करता है, वास्तव में उनका चित्र भी प्राप्त हो जाए तो सर्वथा पूर्ण हो जाए। पूरी टीम उनके चित्र को जिस तरह खोजने में जुटी है, वह भी उल्लेखनीय है।

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...