बहुमुखी प्रतिभा के धनी राय देवी प्रसाद 'पूर्ण' जी ब्रज भाषा काव्य परंपरा के प्रौढ़ कवि माने जाते हैं। सनातन धर्म के अनुयायी होने के साथ-साथ इनको उपनिषद, वेदांत, संस्कृत साहित्य और उर्दू-फ़ारसी भाषा का अच्छा ज्ञान था। देवी प्रसाद जी की कविताओं में देशभक्ति और राजभक्ति का सुंदर समन्वय मिलता है। सन १८६८ ई० में जबलपुर में जन्मे देवी प्रसाद जी के पिता का नाम राय वंशीधर था। "राय" की उपाधि आपके पूर्वजों को बादशाही शासन काल में मिली थी। इन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी० ए० और बी० एल० किया। नाटकों तथा रामलीला आदि में अभिनय करने का शौक इन्हें बचपन से ही था। रामलीला में निषादराज की भूमिका में इनके संवाद इतने हृदय स्पर्शी होते थे कि श्रोताओं की आँखें नम हो जाया करती थीं।
साहित्यिक सफ़र
पूर्ण जी ने पं० ललिताप्रसाद त्रिवेदी 'ललित' के सानिध्य में ब्रजभाषा में कविता लेखन का अभ्यास किया था। देशदशा, समाजदशा, स्वदेशप्रेम, आचरणसंबंधी उपदेश इन सभी विषयों पर इन्होंने अपनी लेखनी चलाई है। इनकी रचनाओं, विशेषकर "बसंत वियोग" में भारत की दुर्दशा के भान के साथ-साथ दार्शनिक तत्वों की झलक भी मिलती है। पूर्ण जी का समय वह समय था, जब देश के उद्योग धंधे साम्राज्यवादियों के शोषण से ठप्प हो रहे थे, जिससे लोग और गरीब हो रहे थे। सरकारी लगान जस का तस था, पर ज़मीन सुधारने के लिए सरकार फूटी कौड़ी भी नहीं देती थी। पैदावार बहुत कम होने से कर्ज़ लेना पड़ता था। कर्ज़ न चुका पाने की स्थिति में घर-द्वार, बैल-बछिया सब नीलाम हो जाते थे। भाग्य को कोसते, भोले-भाले भारतवासी दुःख के कारणों को समझ नहीं पा रहे थे। इसे समझा भारतेंदु और द्विवेदी युग के कवियों ने, जिनमें पूर्ण जी प्रमुख थे।
पूर्ण जी का मानना था कि रोग और दुष्काल इन दोनों के मुख्य कारण अँग्रेज़ ही थे -
चींटी मक्खी शहद की सभी खोज कर अन्न,
करते हैं लघु जंतु तक ,निज गृह को संपन्न।
निज गृह को संपन्न करो स्वच्छंद मनुष्यों,
तजो तजो आलस्य अरे मतिमंद मनुष्यों।
चेत न अब तक हुआ, मुसीबत इतनी चक्खी,
भारत की संतान, बने हो चींटी मक्खी।
देशप्रेम और राजभक्ति की जैसी समन्वित और संयत प्रवृत्ति भारतेंदु आदि कवियों में दिखलाई पड़ती है, वैसी ही 'पूर्ण' जी में भी प्रत्यक्ष थी। इन्होंने "धारा-धर-धावन" शीर्षक से 'कालीदास' के 'मेघदूत' का पद्यानुवाद किया। 'स्वदेशी कुण्डल' में इन्होंने देशभक्ति से पूर्ण ५२ कुण्डलियों की रचना की है। पूर्ण जी ने 'भक्ति और वेदांत विषयक' छंदों में प्रमुखतया 'जीवन की निस्सारता', 'तपस्वी की महिमा', 'संसार की असारता' आदि विषयों का वर्णन किया है। विष्णु के दो प्रसिद्ध अवतारों, राम और कृष्ण का चरित्र वर्णन 'विपद्विरण स्रोत' में किया है। इन्होंने कई नाटक भी लिखे, पर उचित प्रकाशन न होने की वजह से लोगों तक पहुँच नहीं पाए।
पूर्ण जी ने उर्दू फ़ारसी के बहुप्रचलित, सधे हुए शब्दों और मुहावरों के प्रयोग से युक्त बड़ी आकर्षक रचनाएँ की हैं। अपनी रचनाओं में उन्होंने जहाँ परंपरानुगत विषयों को लिया है, वहीं आधुनिक विषय भी उनसे अछूते नहीं रहे। उनकी रचनाओं में एक ओर देशभक्तिपूर्ण पद्य हैं, तो दूसरी ओर सन १९११ वाले दिल्ली दरबार के ठाटबाट का वर्णन भी है। प्रथम उत्थान के कवियों के समान ही पूर्णजी भी प्रारंभ में ब्रजभाषा में कविता करते थे, एक उदाहरण देखें :
'अमलतास' नाम की छोटी सी कविता में कवि ने अपने प्रकृति निरीक्षण का भी परिचय दिया है। ग्रीष्म में जब वनस्थली के सारे पेड़ पौधे झुलसे से रहते हैं, जिस कारण हरियाली और प्रफुल्लता नहीं दिखाई देती है, उस समय अमलतास चारों ओर फूलकर अपनी पीतप्रभा फैला देता है। अमलतास के माध्यम से कवि भक्ति के महत्व को संकेतित करता है,
इनकी स्फुट कविताओं का संग्रह 'पूर्ण-संग्रह' (संग्रहकर्ता- लक्ष्मीकांत त्रिपाठी, एम० ए० ) के नाम से लखनऊ के गंगा पुस्तक माला कार्यालय द्वारा निकाला गया। आइए देखते हैं, उनकी खड़ी बोली की रचनाओं के कुछ और उदाहरण -
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सरकारी कानून का रखकर पूरा ध्यान
कर सकते हो देश का सभी तरह कल्याण
संदर्भ
- https://hi.m.wikipedia.org/wiki/राय_देवीप्रसाद_%27पूर्ण%27
- https://hi.m.wikibooks.org/wiki/द्विवेदीमंडल_के_बाहर_की_काव्यभूमि
- राय देवीप्रसाद पूर्ण का चित्र आभा खरे के प्रयासों से मिला।
लेखक परिचय
संतोष भाऊवाला
इनकी कविताएँ, कहानियाँ, ग़ज़ल, दोहे आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं, जिनमें से कई पुरस्कृत भी हैं|
ईमेल : santosh.bhauwala@gmail.com
व्हाट्सएप : ९८८६५१४५२६
प्रेरक आलेख के लिए संतोष जी को साधुवाद!
ReplyDeleteआदरणीया संतोष जी, भारतेंदु व् द्विवेदी युग के प्रबुद्ध एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी माननीय "पूर्ण" जी के बारे इतनी सुन्दर तथा नयी जानकारी से सुसज्जित आपके आलेख के लिए हार्दिक बधाई एवं धन्यवाद!
ReplyDeleteसंस्कृत साहित्य की व्यापक और गंभीर प्रभा रखने वाले श्रध्देय रायदेवी प्रसाद 'पूर्ण' संगीत साधना के भी उपसाधक थे। छंद, रस,अलंकार काव्यशास्त्रीय पक्ष की विवेचना उनके कवितापाठ में अनुभवित होती है। प्रख्यात साहित्यकार और हिंदी सेवी 'पूर्ण' जी के साहित्यिक कार्यो ने समाज को नई दिशा देने का कार्य किया है। आदरणीया संतोष जी के द्वारा रचित 'पूर्ण' जी का आलेख उनकी रसात्मक रचनाओँ के अनुसार ही रसभाव की अनुभूति करा रहा है। आपके शब्द रचना की भावना ने रायदेवी जी के साहित्यिकजीवन वृतांत को लेकर नया अनुभव अवलोकित किया है। अति सुंदर, जानकारीयुक्त, सुसंक्षिप्त आलेख के लिए आपका आभार और अनंत शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसंतोष जी, राय देवीप्रसाद 'पूर्ण'जी पर आपने बहुत सुरुचिपूर्ण ढंग से महत्वपूर्ण जानकारियाँ उपलब्ध कराता लेख लिखा है। सचमुच यह 'हिन्दी से प्यार है' समूह की बहुत बड़ी उपलब्धि है, और इस उपलब्धि को हासिल कराने में आपकी मेहनत, आपका शोध साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है। इस सुन्दर, समृद्ध लेख के लिए बहुत बधाई और आभार।
ReplyDeleteसंतोष जी। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये हार्दिक बधाई। श्री राय देवी प्रसाद पूर्ण जी का साहित्यिक योगदान अद्वितीय है। पर ये दुःखद है कि उनको समुचित प्रसिद्धि नहीं मिल पाई। हम लोगों के पास उनका कोई चित्र तक नहीं है! लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।
ReplyDeleteसंतोष जी, राय देवी प्रसाद पूर्ण जी के साहित्य के विभिन्न आयामों और उनकी विशेषताओं पर रोशनी डालता यह लेख जानकारीपूर्ण और दिलचस्प है। इस शोधपूर्ण कार्य के लिए आपका आभार और बधाई।
ReplyDeleteपूर्ण जी पर लिखा आलेख उनके पूरे व्यक्तित्व की पूर्णता को उजागर करता है, वास्तव में उनका चित्र भी प्राप्त हो जाए तो सर्वथा पूर्ण हो जाए। पूरी टीम उनके चित्र को जिस तरह खोजने में जुटी है, वह भी उल्लेखनीय है।
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