Tuesday, March 22, 2022

पत्रकारिता और देशोद्धार के अडिग स्तंभ : मुंशी दया नारायण निगम

 
हमारे देश में बीसवीं सदी के शुरू में कुछ संपादक और प्रकाशक ऐसे थे, जो लिखना शुरू करने वालों से छपाई के पैसे लेने की जगह उल्टा उन्हें कुछ धनराशि देते थे; जिससे वे लेखन कार्य हेतु प्रोत्साहित हों और उनकी कुछ आर्थिक मदद भी हो सके। ऐसे कुछ संपादकों में से एक थे, मुंशी दयानारायण निगम। स्कूली शिक्षा शुरू करने से पहले ही उन्होंने उर्दू और फ़ारसी सीख ली थी। स्कूल के बाद की पढ़ाई उन्होंने कानपुर के क्राइस्ट चर्च कॉलेज से की और वहीं कुछ महीने उर्दू और फ़ारसी पढ़ाई। बंगाली, गुजराती और मराठी के भी ज्ञाता थे। बाप-दादा के पारंपरिक पेशे, वकालत से अलग, उनकी पत्रकारिता में गहरी रुचि थी। उनकी प्रतिभा और समर्पण को देखते हुए लेखक मुंशी शिव ब्रत लाल वर्मन ने सन् १९०३ में उन्हें उर्दू पत्रिका 'ज़माना' के संपादक का प्रस्ताव दिया। उन्होंने - महीने पहले ही यह पत्रिका शुरू की थी। मुंशी दयानारायण निगम ने उसे खुशी-खुशी स्वीकार किया। एक बार 'ज़माना' से जुड़ने के बाद उन्होंने अपना पूरा जीवन इसके संपादकत्व को बड़ी ज़िम्मेदारी से निभाने में समर्पित कर दिया।

समकालीन साहित्यकारों के साथ उनके अटूट संबंध थे। उनमें से बृज नारायण चकबस्त, जगत मोहन लाल, पंडित सुदर्शन, जिगर बरेलवी, अकबर इलाहाबादी, हसरत मोहानी, मैथिलीशरण गुप्त, प्रेमचंद आदि के साथ उनका उठना-बैठना होता था। उन्होंने उनमें से कुछ का तो मार्गदर्शन भी किया था ऐसा कहा जाता है कि प्रेमचंद को प्रेमचंद बनाने में उनका बड़ा हाथ था। किसी को यदि भाषा के प्रति अनुराग सीखना हो तो मुंशी दया नारायण निगम से सीखा जा सकता है। जब उर्दू के विरोध ने सिर उठाया, तब निगम उर्दू के लिए ऐसी तड़प के साथ खड़े हुए जैसे कोई माँ अपने बच्चे के लिए होती है। उर्दू से उनके लगाव का एक उदाहरण दृष्टव्य है, 'ज़माना' को चलाए रखने के लिए उन्होंने अपने बाप-दादा की सारी ज़मीन-जायदाद इस पत्रिका में लगा दी थी। उसके बावजूद एक समय ऐसा आया कि पत्रिका पर बहुत अधिक क़र्ज़ हो गया था। तब एक हिंदी-प्रेमी रईस ने निगम को 'ज़माना' उर्दू की जगह हिंदी में निकालने के बदले उसका सारा ऋण उतारने तथा आगे से उसकी सारी आर्थिक ज़िम्मेदारी अपने ऊपर लेने का प्रस्ताव दिया था। लेकिन निगम को वह मंज़ूर नहीं हुआ।    

मुंशी दयानारायण निगम ने सन् १९१२ में एक अन्य उर्दू साप्ताहिक राजनीतिक पत्रिका 'आज़ाद' निकालनी शुरू की, जो आर्थिक दृष्टि से इतनी अच्छी चल रही थी कि उससे 'ज़माना' के घाटे की पूर्ति हो जाती थी, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के अंत में वैश्विक आर्थिक मंदी के चलते उसे बंद करना पड़ा।

मुंशी जी ने अंधविश्वास, छुआछूत, जातीय भेदभाव, बाल-विवाह, दहेज प्रथा, विधवा-विवाह, अंतर्जातीय विवाह और महिला शिक्षा जैसे मुद्दों पर समाज को लगातार चेताया। उपन्यास सम्राट प्रेमचंद का आर्य समाज से परिचय निगम ने ही करवाया था। उस ज़माने में हिंदू समाज में विधवा होना बहुत भयंकर बात थी। ऐसे में शिवरानी देवी के पिता मुंशी देवीप्रसाद ने एक क्रांतिकारी क़दम उठाते हुए अपनी बाल-विधवा कन्या शिवरानी के विवाह हेतु अख़बार में विज्ञापन दिया था। प्रेमचंद ने वह विज्ञापन पढ़कर निगम से सलाह ली। निगम ने प्रेमचंद को शिवरानी से शादी करने का सुझाव ही नहीं दिया, बल्कि उनके दिल में, बिरादरी और समाज से विरोध के स्वर उठते देखकर, जो डर बैठ गया था, उससे बेपरवाह होने का हौसला भी बँधाया। केवल इतना ही नहीं, उन्होंने प्रेमचंद से समाज की इस प्रकार की कुरीतियों और बुराइयों को लेखन के ज़रिए उजागर करने के लिए भी कहा। निगम ही उस विवाह के कर्ता-धर्ता थे, -१० लोगों की बारात लेकर, सारी रस्में अदा करते हुए, बाल-विधवा शिवरानी को दुलहन बना कर, वे प्रेमचंद का विवाह करा लाए थे। 

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई केवल तोप-बंदूक की ही लड़ाई नहीं थी, लेखन की भी उसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। निगम ने जनता को राजनीतिक स्तर पर प्रशिक्षित करने और जन-जागृति फ़ैलाने के लिए ख़ूब काम किया था, लेकिन वे सबसे अधिक प्रसिद्ध हुए, मासिक पत्रिका 'ज़माना' के संपादक के रूप में। उसमें उन्होंने साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, शिक्षा अन्य सामयिक मुद्दों पर अनेक संपादकीय लिखे। कुछ तो विशेषरूप से हिंदू-मुस्लिम एकता के महत्त्व पर ज़ोर देने के लिए ही लिखे गए थे। प्रेमचंद समेत मुहम्मद इक़बाल, बृज नारायण चकबस्त, अकबर इलाहाबादी, जोश मलिहाबादी, फ़िराक़ गोरखपुरी, गुलाम भीक नैरंग, लाला लाजपत राय तथा उस दौर के अन्य बड़े-बड़े साहित्यकारों के लेख 'ज़माना' में छपते थे।

इक़बाल का प्रसिद्ध तराना--हिंद 'सारे जहाँ से अच्छा हिंदुस्तान हमारा' सबसे पहले 'ज़माना' में छपा था। प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह 'सोज़--वतन' सन् १९०८ में निगम की प्रेस में छपा था। ब्रिटिश सरकार ने देश भक्ति की भावना से परिपूर्ण उस कहानी संग्रह को ज़ब्त कर लिया था और प्रेमचंद को, जो तब नवाब राय के नाम से लिखते थे, धमकियाँ देकर उनके लेखन पर प्रतिबंध लगा दिया था। तब निगम ने उनकी हिम्मत बढ़ाई और उन्हें 'प्रेमचंद' के नाम से लिखने का सुझाव दिया, जो उन्हें बहुत पसंद आया था। आगे चलकर प्रेमचंद की प्रेस का 'सरस्वती प्रेस' नाम भी निगम ने ही रखा था। 

समाज सुधारक दयानारायण हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े पक्षधर थे। ब्रिटिश सरकार द्वारा कानपुर में 'पिछले बाज़ार' की मस्जिद गिराने पर उन्होंने ब्रिटिश सरकार का कड़ा विरोध किया था। सन् १९२७ और १९३१ में कानपुर में भयंकर सांप्रदायिक दंगे हुए थे। जिस इलाक़े में निगम का मकान था, वहाँ मिली-जुली आबादी थी, झगड़े हो सकते थे, लेकिन निगम के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण वहाँ शांति कायम रही। आप लड़ाई-झगड़े की राजनीति से दूर रहते थे और अपने मित्रों को भी दूर रहने की सलाह देते थे। इसका एक उदाहरण है, मित्र गणेश शंकर विद्यार्थी के साथ हुई उनकी अंतिम मुलाक़ात। १९३१ के दंगों के समय गणेश शंकर विद्यार्थी शांति मार्च निकालने से पहले उनसे मिलने उनके घर गए थे। वहाँ ८० के क़रीब हिंदू शरण ले रहे थे। निगम ने शहर में सांप्रदायिक तनाव पर विस्तृत चर्चा के दौरान विद्यार्थी जी को दंगे वाले स्थानों पर जाने के लिए बहुत समझाया था, लेकिन विद्यार्थी जी अपने इरादे पर डटे रहे। अंत में निगम गली के नुक्कड़ तक इस उम्मीद से उन्हें छोड़ने गए कि बीच में वे उन्हें वापस चलने के लिए मना लेंगे, लेकिन विद्यार्थी जी नहीं माने। वे दंगे रोकते-रुकवाते हुए मारे गए। 

विचारों की आज़ादी की अभिव्यक्ति के प्रबल समर्थक दयानारायण स्वभाव से बहुत नरम थे। राजनीति में भी वे काँग्रेस के नरम-दल में थे। घरवालों, मित्रों और सभी के लिए उनके दिल में बहुत प्यार था, वे सभी से बराबरी से मिलते थे और सबके शुभचिंतक थे। दूसरों के विचारों का बहुत आदर करते, लेकिन साथ ही किसी को अपने विचारों पर हावी भी नहीं होने देते थे और ही किसी से ज़्यादा बहस करते थे। मतभेद होने पर अपने विचार ऐसे रखते कि बात भी स्पष्ट कह देते और संबंधों पर भी कोई असर पड़ता। व्यवहार कुशल निगम के सबके साथ, यहाँ तक कि कुछ अँग्रेज़ अधिकारियों के साथ भी बहुत अच्छे संबंध थे। गणेश शंकर विद्यार्थी के क्रांतिकारी साप्ताहिक 'प्रताप' पर ब्रिटिश सरकार की दमनकारी गतिविधियों को रोकने के लिए ब्रिटिश अधिकारियों के साथ बैठकें निगम के घर में होती थीं। 

दयानारायण और प्रेमचंद के बीच दोस्ती की जड़ें बहुत गहरी थीं और दोनों एक दूसरे की बहुत क़द्र करते थे। वर्ष १९०३ में जब निगम ने 'ज़माना' का संपादन शुरू किया था, तब उन्हें अच्छा लिखने वालों की तलाश थी और प्रेमचंद को अच्छे पत्र-पत्रिका की, जहाँ वे लगकर लिख सकें। दोनों के मेल ने जहाँ एक-दूसरे को सहारा दिया, वहीं साहित्य एवं पत्रकारिता के क्षेत्र में नए मानदंड स्थापित किए। उनके संबंध मात्र एक प्रकाशक और लेखक के नहीं अपितु इससे कहीं गहरे थे। प्रेमचंद उम्र में निगम से दो साल बड़े थे, फिर भी उन्हें अपना बड़ा भाई, दोस्त और हमदर्द मानते थे। प्रेमचंद कहते थे, "उम्र की गिनती सालों से नहीं, तजुर्बों से होती है।" निगम ने प्रेमचंद के बारे में लिखा है, "बहुत से मामलों में तो जो मेरी राय होती, उसी पर अमल करते।"

प्रेमचंद अपने दुःख-दर्द, सारी योजनाएँ साझा करने तथा कई मामलों पर निगम की राय जानने के लिए अक्सर उन्हें पत्र लिखा करते थे। अमृतराय ने प्रेमचंद की जीवनी 'प्रेमचंद - कलम का सिपाही' में लिखा है, "मियाँ की दौड़ मस्ज़िद तक, मुंशी ने फिर निगम को याद किया..।" जीवन के अंतिम दिनों में जब प्रेमचंद बहुत बीमार थे, हंस पत्रिका के संदर्भ में आ रही कठिनाइयों को दूर करने के लिए निगम को तार देकर बुलवाया था।

प्रेमचंद के महायात्रा पर जाने के बाद दयानारायण ने 'ज़माना' में प्रेमचंद विशेषांक में उन पर कई लेख लिखे थे। सबसे महत्त्वपूर्ण लेख था, 'प्रेमचंद के ख़यालात', जिसमें उन्होंने प्रेमचंद की विचार यात्रा दिखाने के लिए उनसे प्राप्त करीब ५० पत्रों का इस्तेमाल किया था। अमृतराय ने प्रेमचंद की जीवनी में उनका इस्तेमाल किया था तथा उन्हें अलग से पुस्तक-रूप में भी प्रकाशित किया था। 

अब 'ज़माना' की बहुत कम प्रतियाँ बची हैं। पटना की ख़ुदाबख़्श ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के प्रमुख आबिद रज़ा बेदार ने 'ज़माना' की कुछ प्रतियाँ बनवाकर बहुत नेक काम किया था। यह लोकप्रिय पत्रिका उर्दू भाषा के इतिहास और साहित्य के लिए एक बहुमूल्य ख़ज़ाना है। इसमें पिछली सदी के शुरू के चार दशकों का इतिहास, संस्कृति, सभ्यता, राजनीतिक विचार, बौद्धिकता और इनका उतार-चढ़ाव सब मिल जाएगा। 'ज़माना' के एक पन्ने पर उस दौर के किसी एक प्रसिद्ध व्यक्ति की फ़ोटो छपती थी। ये वे लोग थे, जो अपने देश के लिए ख़ुद को न्योछावर कर देना चाहते थे। उनके बारे में तब तो लिखा जाता था, लेकिन बाद में कुछ नहीं लिखा गया। आज यदि कोई उनके बारे में पढ़ना चाहे तो बस 'ज़माना' में ही पढ़ा जा सकता है। 

दयानारायण की मृत्यु के बाद उनके बेटे श्री नारायण ने 'ज़माना' पत्रिका साल और चलाई, फिर आर्थिक तंगी के कारण बंद करनी पड़ी। सन् १९८२ में निगम की जन्मशती पर श्री नारायण ने अपने पिता पर दूसरे साहित्यकारों के लेखों और कविताओं की एक पुस्तक प्रस्तुत की थी। लेखक मोहम्मद अयूब वाक़िफ़ ने निगम द्वारा साहित्यकारों को लिखे ८९ पत्रों का एक संकलन निकाला था। 

अकबर इलाहाबादी और हसरत मोहानी जैसे शायरों ने भी मुक्त कंठ से मुंशी दयानारायण निगम की प्रशंसा की है। निगम ने अपने लेखन से केवल भारत की आज़ादी के लिए ही नहीं, सामाजिक कुरीतियों और बौद्धिक जड़ता के विरुद्ध भी लगातार लड़ाई लड़ी। जब भी देश के प्रति निष्ठा और पत्रकारिता के प्रति समर्पण की बात होगी, मुंशी दयानारायण निगम को हमेशा बड़े आदर भाव से याद किया जाएगा।

मुंशी दयानारायण निगम : जीवन परिचय

जन्म

२२ मार्च १८८२, कानपुर, भारत 

निधन

नवंबर, १९४२, कानपुर, भारत

पिता 

मुंशी कठिया लाल 

पत्नी 

शंतला देवी 

संतान  

श्री नारायण निगम, बिशन नारायण निगम, श्याम नारायण निगम, रामन नारायण निगम, बृज नारायण निगम और दो बेटियाँ

व्यवसाय 

पत्रकार, संपादक, समाज सुधारक  

भाषा 

उर्दू   

कर्मभूमि 

कानपुर 

शिक्षा एवं शोध

बी० ए० 

क्राइस्ट चर्च कॉलेज, कानपुर, उत्तर प्रदेश  

कार्यक्षेत्र

  • उर्दू मासिक पत्रिका 'ज़माना' के सन् १९०३ से १९४२ तक संपादक

  • उर्दू साप्ताहिक 'आज़ाद' के संपादक  


संदर्भ

लेखक परिचय


डॉसरोज शर्मा

भाषा विज्ञान (रूसी भाषा) में एमए, पीएचडी;
रूसी भाषा पढ़ाने और रूसी से हिंदी में अनुवाद का अनुभव;
वर्तमान में हिंदी-रूसी मुहावरा कोश और हिंदी मुहावरा कोश पर कार्यरत पाँच सदस्यों की एक टीम का हिस्सा। 

16 comments:

  1. बहुत ही संजीदा आलेख। वैसे सरोज जी का हर आलेख बहुत गहराई और गंभीरता से ओत-प्रोत होता है।
    बधाइयां!!!

    ReplyDelete
  2. निगम जी के बारे में पहली बार जाना।बधाई आपको।

    ReplyDelete
  3. सरोज जी नमस्ते। हर लेख की तरह आपका मुंशी दयानारायण निगम जी पर यह लेख बहुत अच्छा है। इस लेख के माध्यम से निगम जी को जानने का अवसर मिला। मेरे लिये तो यह लेख नई जानकारी से परिपूर्ण है। आपने विस्तृत जानकारी को रोचकता के साथ प्रस्तुत किया। आपको लेख के लिये बहुत बहुत बधाई।

    ReplyDelete
  4. हर बार की तरह इस बार भी अप्रतिम लेखन के लिए हार्दिक बधाई सरोज जी।

    ReplyDelete
  5. इस लगभग भुला दिये गए व्यक्तित्व पर इतना बढ़िया लेख लिख कर आपने मन खुश कर दिया. यह है हिंदी की वास्तविक सेवा. बधाई.

    ReplyDelete
  6. Bahut hi upyogi aur avashyak vastusthiti se avgat karate hua lekh. Saroj ji, padhne mein bahut hi sugam tha. Bahut bahut Dhanyavad!

    ReplyDelete
  7. आदरणीया सरोज जी आज आपके आलेख के द्वारा मुंशी दयानारायण जी के बारे में बहुत सी जानकारी प्राप्त हुई है। भारत के इतने बड़े साहित्यकार और समाज सुधारक श्रध्देय निगम जी ने कई सामाजिक कुरीतियों पर अपनी लेखनी से आवाज उठाई है। आपने बहुत ही सुंदर और सहज शब्दों में निगम जी के मनोभाव को अभिव्यक्त किया है। आपके लेख का उद्देश्य निगम जी के साहित्यिक चरित्र, उनका रचनासंसार, कथाविन्यास सभी को सार्थक करता है। अतिउत्तम शब्दकला से लिखा हुआ आलेख प्रस्तुत करने हेतु आपका आभार और हिंदी से प्यार है समूह की योजना के लक्ष्य को पूर्ण रूप से संतुष्ट करता समायोजन।

    ReplyDelete
  8. संग्रहणीय,अनुकरणीय एवम अभिनंदनीय।

    ReplyDelete
  9. Thanks to “HINDI SE PYAAR”, many less known and unknown facts are coming to lime light for contemporary readers as well as for future generation. Dedication and principles of Munshi Dayanarayan Nigam is very inspiring. Well versed informative compilation by Dr. Saroj Sharma.
    Santosh Mishra

    ReplyDelete
  10. ये ऐसे व्यक्तित्व पर आलेख है जो पत्रकारिता के साथ - साथ लेखकों को प्रोत्साहित करते रहते थे । आप साधुवाद के पात्र हैं ।
    - बीजेन्द्र जैमिनी

    ReplyDelete
  11. सरोज, बहुत अच्छा लेख प्रस्तुत किया है तुमने। दया नारायण निगम जो इंटर्नेट पर अंधेरों की चादरों में कहीं गुम थे, केवल मुंशी प्रेमचंद के संदर्भ में ही जिनका ज़िक्र था, तुमने उन परतों को हटाकर उन्हें रोशनी में लाया है। तुम्हारी मेहनत पूरी तरह से झलक रही है। इस नेक लेख के लिए बहुत-बहुत बधाई और आभार।

    ReplyDelete
  12. वाह, बहुत बढ़िया! हमेशा की तरह बड़ी मेहनत, लगन और सादगी से लिखा गया, दिल को छू जानेवाला आलेख! बहुत-बहुत बधाई!

    ReplyDelete
  13. सरोज जी, दया नारायण जी निगम पर आपका आलेख पढ़ा। आपने बड़े श्रम से तथ्य एकत्रित किए हैं और सरल , सुंदर प्रवाह में प्रस्तुति दी है। धन्यवाद और बधाई।
    दयानारायण जी के क्रांतिकारी विचार, कर्मठ संपादन , व्यवहार कुशलता एवं सब की मदद करने को तत्पर रहना बहुत प्रेरक गुण हैं। बड़े इंसान थे। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व को नमन। 💐💐

    ReplyDelete
  14. सरोज जी, मुंशी दया नारायण निगम पर लिखा आपका आलेख बहुत सुंदर और विचारपरक है। इतनी महत्वपूर्ण और कर्मठ शख्सियत कहीं नेपथ्य में खो गई, और साहित्य जगत उदासीन रहा।
    आपका आभार, इस व्यक्तित्व के प्रकाश से हमें उजागर करने के लिए।
    साथ ही, साहित्यकार तिथिवार की टीम का भी आभार, जिन्होंने बंधी बंधाई परंपरा का मिथक तोड़ते हुए हर दिन उन साहित्यकारों को खोजने का जिम्मा उठाया है, जो कहीं खो से गए हैं और जिनसे अधिकतर लोग अपरिचित हैं।

    ReplyDelete
  15. सरोज जी नमस्कार l मुंशी दयानारायण निगम पर बहुत सुंदर , पठनीय , ज्ञानवर्धक और काबिले तारीफ लेख के लिए आपको हार्दिक बधाई और साधुवाद l प्रेमचंद जी के साथ उनकी दोस्ती बड़ी प्रसिद्ध थी l प्रेमचंद जी को प्रेमचंद नाम भी निगम साहब ने सुझाया l पहली बार प्रेमचंद नाम से उनकी कहानी "बड़े घर की बेटी" दिसंबर 1910 के जमाना में प्रकाशित हुई l प्रेमचंद जी को जब लगा कि उनकी आखिरी घड़ी आ गई है तो उन्होंने सितंबर 1936 में तार देकर निगम जी को बनारस बुलवाया l निगम जी के बारे में एक कटु सत्य भीष्म साहनी जी ने अपनी आत्मकथा "आज के अतीत" के पृष्ठ 85 पर पर लिखा है कि जब भीष्म जी प्रेमचंद की चिट्ठियों को एकत्रित करने के सिलसिले में आज़ादी से पहले रावलपिंडी ( आज यह पाकिस्तान में है) से कानपुर पहुंचे l जब भीष्म साहनी ने प्रेमचंद जी की चिट्ठियों के संदर्भ में दया नारायण निगम से प्रार्थना की तो निगम साहब बोले-" तुम मुझसे मेरी बीबी के जेवर क्यों नहीं मांग लेते ?" भीष्म जी को जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि निगम साहब प्रेमचंद जी की चिट्ठियों के कितने कद्रदान हैं l लेकिन भीष्म साहनी जी का उत्साह सारा ठंडा पड़ गया जब निगम जी ने कहा कि छत के ऊपर अखबारों के ढेर में कहीं उनकी चिट्ठियां दबी है उनमें से ही खोज के निकालनी पड़ेंगी l यह मुश्किल काम है l ऐसा करो कि आप अगले साल आओ तब मैं खत निकाल दूंगा l भीष्म जी अगले साल रावल पिंडी से फिर कानपुर पहुंचे l इसी दौरान निगम जी का देहांत हो गया था l उनके बेटे से भीष्म जी खतों के बारे में प्रार्थना की बेटे ने अनसुना कर दिया और भीष्म जी निराश लौट आए l सरोज जी निगम जी के बारे में बहुत कम लोग जानते हैं आपके लेख द्वारा बहुत से लोगों को उनके योगदान के बारे में जानकारी मिलेगी l आपको पुनः बधाई l इन्द्रजीत सिंह मॉस्को (रूस)

    ReplyDelete
  16. Anju Mehta New Delhi - मुंशी दयानारायण निगम पर तुम्हारा सुंदर लेख पढ़कर मन सचमुच प्रफ़ुल्लित हो गया! ख़ास इसलिए भी कि उनके बातों के ज़रिये हमें हिन्दी उर्दू ज़ुबान के सुरमई सारे लेखकों, शायरों और कई दूसरी महान हस्तियों के बारे में जानने का अवसर मिला. लेख बेहद रोचक, मनमोहक व रस से भरा हुआ। तुम्हारे हर नये लेख काम से इंतज़ार रहा करेगा। खूब फलो फूलो! सस्नेह !

    ReplyDelete

आलेख पढ़ने के लिए चित्र पर क्लिक करें।

कलेंडर जनवरी

Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat
            1वह आदमी उतर गया हृदय में मनुष्य की तरह - विनोद कुमार शुक्ल
2अंतः जगत के शब्द-शिल्पी : जैनेंद्र कुमार 3हिंदी साहित्य के सूर्य - सूरदास 4“कल जिस राह चलेगा जग मैं उसका पहला प्रात हूँ” - गोपालदास नीरज 5काशीनाथ सिंह : काशी का अस्सी या अस्सी का काशी 6पौराणिकता के आधुनिक चितेरे : नरेंद्र कोहली 7समाज की विडंबनाओं का साहित्यकार : उदय प्रकाश 8भारतीय कथा साहित्य का जगमगाता नक्षत्र : आशापूर्णा देवी
9ऐतिहासिक कथाओं के चितेरे लेखक - श्री वृंदावनलाल वर्मा 10आलोचना के लोचन – मधुरेश 11आधुनिक खड़ीबोली के प्रथम कवि और प्रवर्तक : पं० श्रीधर पाठक 12यथार्थवाद के अविस्मरणीय हस्ताक्षर : दूधनाथ सिंह 13बहुत नाम हैं, एक शमशेर भी है 14एक लहर, एक चट्टान, एक आंदोलन : महाश्वेता देवी 15सामाजिक सरोकारों का शायर - कैफ़ी आज़मी
16अभी मृत्यु से दाँव लगाकर समय जीत जाने का क्षण है - अशोक वाजपेयी 17लेखन सम्राट : रांगेय राघव 18हिंदी बालसाहित्य के लोकप्रिय कवि निरंकार देव सेवक 19कोश कला के आचार्य - रामचंद्र वर्मा 20अल्फ़ाज़ के तानों-बानों से ख़्वाब बुनने वाला फ़नकार: जावेद अख़्तर 21हिंदी साहित्य के पितामह - आचार्य शिवपूजन सहाय 22आदि गुरु शंकराचार्य - केरल की कलाड़ी से केदार तक
23हिंदी साहित्य के गौरव स्तंभ : पं० लोचन प्रसाद पांडेय 24हिंदी के देवव्रत - आचार्य चंद्रबलि पांडेय 25काल चिंतन के चिंतक - राजेंद्र अवस्थी 26डाकू से कविवर बनने की अद्भुत गाथा : आदिकवि वाल्मीकि 27कमलेश्वर : हिंदी  साहित्य के दमकते सितारे  28डॉ० विद्यानिवास मिश्र-एक साहित्यिक युग पुरुष 29ममता कालिया : एक साँस में लिखने की आदत!
30साहित्य के अमर दीपस्तंभ : श्री जयशंकर प्रसाद 31ग्रामीण संस्कृति के चितेरे अद्भुत कहानीकार : मिथिलेश्वर          

आचार्य नरेंद्रदेव : भारत में समाजवाद के पितामह

"समाजवाद का सवाल केवल रोटी का सवाल नहीं है। समाजवाद मानव स्वतंत्रता की कुंजी है। समाजवाद ही एक सुखी समाज में संपूर्ण स्वतंत्र मनुष्यत्व...