साहित्यकारों
के मध्य में चमकीले नक्षत्र की भांति चमकने वाले पंडित रामनरेश त्रिपाठी
ग्राम-गीतों का संकलन करने वाले प्रथम कवि थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में लगभग सौ पुस्तकों का प्रणयन
किया और ‘कविता कौमुदी’
के विशाल एवं अनुपम संग्रह-ग्रंथों
का बड़े परिश्रम से संपादन एवं प्रकाशन करके हिंदी काव्य
में अपना अमूल्य योगदान दिया। अप्रतिम हिंदी-सेवी प. रामनरेश त्रिपाठी का नाम लेते
ही एक ऐसे मनीषी की छवि नेत्रों के समक्ष उभरने लगती है जिन्होंने हिंदी साहित्य
में कविता, कहानी, नाटक, जीवनी, बाल-साहित्य,
उपन्यास, संस्मरण इत्यादि सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई।
जिनके “कविता कौमुदी”
के पहले संस्करण पर महात्मा गांधी,
पंडित महावीर प्रसाद द्विवेदी,
महामना पंडित मदनमोहन मालवीय,
लाला लाजपत राय, सर सीताराम, विश्व कवि श्री रवींद्रनाथ ठाकुर, डॉ. राजेंद्र
प्रसाद, पंडित
रामनारायण मिश्र, राष्ट्रकवि
बाबू मैथिलीशरण गुप्त, पंडित
अमरनाथ झा, डॉ. भगवान दास,
बाबू रामानंद चटर्जी, महामहोपाध्याय डॉ. गंगानाथ झा आदि विद्वानों ने
अपनी प्रशंसात्मक सम्मतियाँ भेजी हों उन कवि सम्राट प. रामनरेश त्रिपाठी को उनके
हिंदी भाषा में दिए योगदान के लिए नमन।
जन्म एवं
प्रारंभिक शिक्षा:
प. रामनरेश
त्रिपाठी का जन्म फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी सं.१९४६ (दिनांक ४ मार्च, १८८९) को उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले के
गाँव कोइरीपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित रामदत्त त्रिपाठी था जो
सेना में सूबेदार थे। घर के धार्मिक वातावरण था का प्रभाव प.राम नरेश
त्रिपाठी पर बचपन से ही पड़ा। त्रिपाठी जी ने केवल नवमीं कक्षा तक ही शिक्षा प्राप्त की। वह जौनपुर जिले
में दसवीं की शिक्षा लेने के लिए गए थे पर आगे अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर सके।
उन्होंने औपचारिक शिक्षा तो अधिक नहीं पाई थी पर स्वाध्याय से बांग्ला, मराठी ,गुजराती, उर्दू ,फ़ारसी और अंग्रेज़ी भाषाओँ के ज्ञानी बने।
साहित्यिक सफ़र:
१८ वर्ष की आयु
में वह कलकत्ता चले गए थे। संक्रामक रोग से ग्रस्त हो जाने के कारण वहाँ अधिक समय
तक नहीं ठहर सके और उपचार के लिए जयपुर राज्य के सीकर ठिकाना स्थित फतेहपुर ग्राम
में सेठ रामवल्लभ नेवरिया के पास चले गए। उपचार के बाद रोगमुक्त होने पर उन्होंने
सेठ रामवल्लभ के पुत्रों की शिक्षा का दायित्व पूर्ण निष्ठा से निभाया। अपने
राजस्थान प्रवास के दौरान ही उन्होंने “हे प्रभो आनन्ददाता, ज्ञान हमको दीजिये” जैसी अनमोल प्रार्थना की रचना की जो आज भी
पाठशालाओं में गाई जाती है।
भ्रमणशील होने
के कारण उनके पास वैचारिक अनुभवों का विस्तृत कोश था । उनका जीवन दर्शन संकुचित न होकर आशा का सागर रहा
और एक ऋषि की भांति वह जीवन पर्यंत अखिल मानव मात्र के कल्याण की कामना करते रहे।
१९१५ में त्रिपाठी जी प्रयाग चले गए जो उनका कर्मस्थल रहा।
द्विवेदी युग
और छायावादी युग के संगम पर होने के परिणामस्वरूप उनकी कृतियाँ उपदेशात्मक,
इतिवृत्तात्मक और सुधारात्मक प्रवृति
की परिचायक हैं। ‘पथिक’ तथा ‘मिलन’ जैसे
खंडकाव्यों में उनकी सुधारवादी प्रवृत्ति मुखरित होती है। उनकी कविताओं में करुण,
श्रृंगार, वीर, रौद्र और अद्भुत रस का परिपाक मिलता है। सादगी ही उनकी कला का सौंदर्य
है।
उनकी साहित्य
प्रियता का ही परिणाम था कि उन्होंने हिंदी के बड़े-बड़े खंडकाव्यों की रचना दो-तीन
सप्ताह में कर डाली थी। उन्होंने ‘मिलन’ की रचना १३ दिनों में, ‘ पथिक’ की २१ दिन में, ‘स्वप्न’
की १५ दिनों में और ‘जयंत’ नाटक की रचना केवल ५ दिन में की थी। उन्होंने काव्य के साथ साहित्य की
विभिन्न विधाओं जैसे नाटक, आलोचना,
कहानी, उपन्यास, अनुवाद, संपादन आदि में कीर्ति पाई।
लोक विश्वास और
लोक परंपराओं का सच्चा रूप उनके लोक गीतों में दर्शित होता है। उनके गीतों में
धर्म-दर्शन, अध्यात्म,
कला, साहित्य और संस्कृति के महानतम रूप विद्यमान हैं। भारत की आत्मा
उसके गाँवों में बसती है और ग्रामीण भारतीय स्त्रियाँ अपने गीतों के माध्यम से
जीवन के हर कार्य को, हर
उत्सव को उल्लासित कर देती हैं। स्त्रियाँ जहाँ एक ओर इन गीतों में मनुहार से लेकर
शिकायत करती हैं वहीं दूसरी ओर अपनी खुशियाँ भी दर्शाती हैं। इन गीतों में भारत के
कोटि-कोटि जनसंस्कार समाए हैं। इन ग्राम-गीतों की मधुरता, सरसता और मार्मिकता से त्रिपाठीजी इतना अधिक
प्रभावित हुए कि वे तन-मन-धन से इन ग्राम-गीतों के संग्रह में जुट गए और इसके लिए
उन्होंने गाँव–गाँव, घर–घर
जाकर इन गीतों को चुना। विवाह गीतों और सोहर गीतों को वह रात–रात भर घरों के पिछवाड़े बैठकर सुनते थे।
लगभग १६ वर्षों के अथक परिश्रम से उन्होंने ‘कविता कौमुदी’ संकलन तैयार किया जिसमें कजरी, सोहर, मेला गीत, विवाह
गीत, होरी, विदाई गीत, बिरहा आदि का अदभुत संग्रह है। कविवर रामनरेश
त्रिपाठी जी का मानना था कि किसी भी भाषा-शास्त्री के लिए जनपदीय बोलियाँ कामधेनु
की तरह हैं। इनका अमृतपान किये बिना जन-जीवन का मर्म नहीं समझा जा सकता। त्रिपाठी जी के खंडकाव्यों, नाटक, कहानियों की कथावस्तु सर्वथा मौलिक है जिनके माध्यम से समसामयिक
समस्याओं को उठाकर राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र एकता जैसे भावों को विकसित करने का
प्रयास किया।
त्रिपाठी जी ने
जीवनी और बाल साहित्य जैसी विधाओं में अपनी कभी न मिटने वाली मनीषा से अनुगृहित
किया है। हिंदी साहित्य में “मालवीय जी के साथ तीस दिन” उनके द्वारा लिखी एक ऐसी मौलिक और नवीन अमूल्य
निधि है जो जीवनी लेखन में बिलकुल नया प्रयोग था। उन्होंने बाल साहित्य का बड़ा सूक्ष्म अध्ययन करके
उसका प्रणयन बड़े ही मनोवैज्ञानिक तरीके से किया। एक ओर “हंसू की हिम्मत” बाल काव्य के माध्यम से बालकों में साहस के भाव
जगाए वहीं दूसरी ओर ‘कविता विनोद’ में सरल, सहज भाषा में शिक्षाप्रद कविताओं का संग्रह
प्रकाशित किया। उनके बाल साहित्य से प्रेरणा पाकर अनेक कवियों ने प्रचुर मात्रा
में बाल साहित्य लिखा ।
त्रिपाठी जी का
व्यक्तित्व:
काव्य मीमांसा
में आचार्य राज शेखर ने लिखा है कि “ कवि का जैसा स्वभाव होता है वैसा ही उसका काव्य
होता है।” त्रिपाठी जी का
व्यक्तित्व अनेक दृष्टि से अनुकरणीय और गुणों की खान था। त्याग और अहिंसा के
आदर्शों को जीवन में उतारने वाले प. त्रिपाठी जी गाँधीजी के पद चिह्नों पर चलते थे
और देशभक्ति के कारण उन्हें जेलवास की यातना तक सहनी पड़ी थी । गाँधी जी उन्हें ५
मार्च १९३६ में एक पत्र में लिखा था “मेरी आपके अनुवाद पर श्रद्धा है। ”
कवि मन होने के
कारण वह कल्पना लोक में विचरते थे पर इसके साथ अपने कर्तव्यों से कभी विमुख नहीं
होते थे तभी तो उन्होंने धरती के यथार्थ को कभी नहीं छोड़ा। कलम की नोक से एक ओर
भावों की मृदुता को अंकित करने वाला कवि कृषकों की दयनीय स्थिति को चित्रित करने
में कभी पीछे नहीं रहा।
त्रिपाठी जी
जीवन भर तुलसी और उनके मानस का अध्ययन और मनन करते रहे। तुलसी विषयक उनकी खोजें
बड़ी प्रमाणिक थीं। १९६० में दिल्ली विश्वविद्यालय में तुलसी के जन्म स्थान विषयक
गोष्ठी में तुलसीदास जी का जन्मस्थान ‘सोरों’ में
होने के संदर्भ में उनके दिए गए तर्क सारगर्भित थे।
उनके लिखे ये
शब्द “मैं
प्रकृति का अनुरागी हूँ।” उनके
प्रकृति के प्रति प्रेम के घोतक हैं । वहीँ दूसरी ओर उनके व्यंग अत्यंत कटु और तीर
की भांति प्रहार करते हैं:
१९५२ में उन्होंने श्री बनारसीदास चतुर्वेदी जी को लिखा, “मैं कृमि महोत्सव नाम का एक छोटा सा नाटक लिखने वाला हूँ जिसमें पार्लियामेंट का नाम कृमि मंडल और उसकी बैठकों का नाम कृमि महोत्सव होगा।”
मौलिक प्रतिभा
से संपन्न त्रिपाठी जी जैसा व्यक्तित्व दुनिया में विरलों को ही मिलता है उनकी
कृतियों में पुष्पों की मृदुता और कंटकों के संताप का परिचय मिलता है उनके
व्यक्तित्व की महानता है कि जीवन के संपूर्ण दुःख को सहन करके सुखी जीवन बिताने
में वह सक्षम थे । भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जी ने श्री आनंदकुमार जी को एक पत्र में अपने जेल के
साथी त्रिपाठी जी को बड़े आदर और स्नेह से स्मरण करते हुए लिखा, ‘‘वे बड़े कवि थे और हमारी स्वराज्य की लड़ाई में
मैंने त्रिपाठी जी के महान व्यक्तित्व की ओर प्रकाश डालने का प्रयास किया है। मेरा
पूर्ण विश्वास है कि महान गुणों से संपन्न उनका व्यक्तित्व आगामी पीढ़ी के
साहित्यकारों के लिए सदा प्रेरणास्रोत रहेगा। इसमें संदेह नहीं है कि प. राम नरेश
त्रिपाठी लोकप्रिय कवि ,सच्चे
देशभक्त, प्रभावशाली
वक्ता, प्रतिभा संपन्न
साहित्यकार और उच्च कोटि के कलाकार हैं।”
नेहरू जी की
बात पूर्ण रूप से सत्य हुई और उनके ही दिशा-निर्देशों पर चलकर आगे अनेक कवियों और
लेखकों ने हिंदी-साहित्य को संपन्न किया।
‘सम्मेलन
पत्रिका’ के संपादक
पंडित ज्योति प्रसाद मिश्र ‘निर्मल’
ने १९५८ में त्रिपाठी जी से ‘हमारे पूर्वज’ शीर्षक पर कविता भेजने का आग्रह किया और
त्रिपाठीजी ने ८ अप्रैल, १९५८
को एक कविता के रूप में पत्र ‘निर्मलजी’
को भेजा -
पता नहीं है
जीवन का रथ किस मंजिल तक जाये।
ऐसी पंक्तियाँ लिखकर कवि-सम्राट रामनरेश त्रिपाठी ने पौष शुक्ल एकादशी सं. २०१८ (दिनांक १६ जनवरी, १९६२) को ७२ वर्ष की आयु में अपने कर्मक्षेत्र प्रयाग में महाप्रयाण किया। त्रिपाठी जी एक मूर्धन्य साहित्यकार, कुशल अनुवादक, कवि, गद्य लेखक, आचार्य सभी दृष्टि से अपने युग की अनुपम विभूति हैं। हिंदी में ऐसी कोई विधा नहीं है जिसे उन्होंने अपनी लेखनी से न केवल संजोया बल्कि उनमें अभिनव प्रयोग भी किए। उनकी कविता में विभिन्न प्रकार के छंदों को देखकर ऐसा भान होता है कि भाषा उनकी वशवर्तिनी थी। जब जिस छंद में वह लिखना चाहते, भाषा उनके संकेतों का अनुसरण करने लगती थी। उन्होंने खड़ी बोली हिंदी के विकास में अथक परिश्रम किया। लोक साहित्य के महत्त्व को समझने का श्रेय त्रिपाठी जी को जाता है। उन्होंने अपना पूरा जीवन, धन और स्वास्थ्य ग्राम गीतों के संकलन में होम कर दिया और उन्हीं से प्रेरणा पाकर आज लोक साहित्य के संकलन और संरक्षण का कार्य हो रहा है। वे आजीवन हिंदी भाषा की समृद्धि के लिए सक्रिय रहे।
एक आलेख में
उनके साहित्य को समेटना संभव नहीं, पर यह पंक्तियाँ उनके चरणों में अर्पित हैं-
प. रामनरेश त्रिपाठी: जीवन परिचय |
|
जन्म |
फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी सं. १९४६( ४ मार्च,१८८९) ग्राम कोइरीपुर ,सुल्तानपुर जिला,उत्तर प्रदेश, भारत |
निधन |
पौष शुक्ल एकादशी सं. २०१८
(१६ जनवरी १९६२ ) |
पिता |
पं॰ रामदत्त त्रिपाठी |
शिक्षा |
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शिक्षा |
कक्षा नवमी तक स्वाध्याय से बांग्ला , मराठी ,गुजराती, उर्दू ,फ़ारसी और
अंग्रेज़ी भाषाओँ के ज्ञानी |
साहित्य संसार |
|
कहानी |
तरकस,
आखों देखी कहानियाँ,स्वपनों के चित्र,
नखशिख, उन बच्चों का क्या हुआ,
२१ अन्य कहानियाँ |
काव्य संग्रह |
मिलन
(१९१८) पथिक (१९२०) मानसी
(१९२७) स्वप्न (१९२९) |
उपन्यास |
वीरांगना, वीरबाला, मारवाड़ी और पिशाचनी ,सुभद्रा और लक्ष्मी |
व्यंग |
दिमाग़ी ऐयाशी, स्वप्नों के चित्र |
नाटक |
जयंत,
प्रेमलोक, वफ़ाती चाचा, अजनबी,पैसा परमेश्वर, बा और
बापू, कन्या का तपोवन |
अनुवाद |
इतना तो जानो (अटलु तो जाग्जो - गुजराती से) कौन जागता है (गुजराती नाटक) |
पुरस्कार व सम्मान |
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हिंदुस्तान अकादमी का
पुरस्कार |
- हिंदुस्तान
की कहानी – जवाहरलाल नेहरू सस्ता साहित्य मंडल नई दिल्ली
- हिंदी
साहित्य के अस्सी वर्ष शिवदास सिंह चौहान राजकमल प्रकाशन दिल्ली
- हमारे
प्रतिनिधि कवि - विशंभर मानव
– लोकभारती इलाहाबाद
- हिंदी
साहित्य का उद्भव और विकास –डॉ केशरी नारायण शुक्ल, नन्द किशोर एंड संस, वाराणसी
- राम नरेश
त्रिपाठी और उनका साहित्य – डॉ राम मूर्ति शर्मा –सुखपाल गुप्त ,आर्या बुक डिपो करोलबाग नई दिल्ली
- http://www.abhivyakti-hindi.org/sansmaran/vyaktitva/ramnaresh_tripathi.htm
- https://epustakalay.com/book/2673-kawita-kumudi-by-ramnaresh-tripathi/
- http://www-lib.tufs.ac.jp/opac/en/recordID/catalog.bib/BB04163711?hit=-1&caller=xc-search
- http://www-lib.tufs.ac.jp/opac/en/recordID/catalog.bib/BA8282175X?hit=-1&caller=xc-search
- https://sg.inflibnet.ac.in/https://www.44books.com/tees-din-maalviy-ji-ke-sath-shri-ramnaresh-tripathi.html
- चित्र
सौजन्य https://www.hindisahity.com/ramnaresh-tripathi/
लेखक परिचय:
शालिनी वर्मा पिछले २० वर्षों से खाड़ी के एक देश दोहा, क़तर में हिंदी भाषा एवं साहित्य की सेवा में कार्यरत हैं। उन्होंने पिछले अठारह वर्षो में दोहा में अनेक अहिंदी भाषियों को हिंदी सिखाने का पावन कार्य किया है। वह “हिंदी से प्यार है” समूह की खेल–खेल में हिंदी परियोजना में सह संपादक हैं और नवचेतना डिजिटल पत्रिका की मुख्य संपादक है। वर्तमान में दिल्ली पब्लिक स्कूल, दोहा में शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं।
+97477104556;
shln.verma2@gmail.com
अहा!बहुत ही सुंदर और उपयोगी लेख।
ReplyDeleteहे शालिनी जी आपने तो मन बाग-बाग कर दिया। आपके पं. रामनरेश त्रिपाठी जी केन्द्रित आलेख को पढ़कर कुछ कहन लिखना तो चाहता हूं, लेकिन शब्द नहीं जुगाड़ पा रहा हूं; फिर भी साधुवाद स्वीकार करने का कष्ट करें।
ReplyDeleteबढ़िया लेख शालिनीजी। साधुवाद। रामनरेश त्रिपाठी जी के लेखन में जो सच्चाई और साफगोई है,उसे आपने पूरी तरह से अत्यंत सहजता से उकेरा है। बधाई
ReplyDeleteअद्भुत,अभिनंदनीय
ReplyDeleteशालिनी जी, पं. रामनरेश त्रिपाठी जी पर आपका लेख बहुत अच्छा है। पंडित जी अपनी रचनाओं में व्याकरण के नियमों का विशेष रूप से ध्यान रखते थे। उनके काव्य की भाषा बड़ी ही सहज सरल शुद्ध खड़ी बोली है। वो उर्दू ,अंग्रेजी, गुजराती और संस्कृत भाषा के भी विद्वान थे। आप को इस ज्ञानवर्धक लेख के लिए हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteद्विवेदी युग के महाकवि आदरणीय रामनरेश त्रिपाठी जी हिंदी साहित्य में खड़ी बोली रचनाओं के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उनकी रचनाओं में देशप्रेम, राष्ट्रीयता और धर्मनिष्ठा के भावों की प्रधानता होती थी। छायावादी शैली का मानवीकरण करके रुमानियत भरी रचनाएं उनके खास पाठकवर्ग को अपनी ओर खींचती थी। आदरणीया शालिनी वर्मा जी ने अपने आलेख द्वारा उनके साहित्यिक जीवन और कला पक्ष की बड़ी आत्मीयता और आदरपूर्वक शब्दमालायुक्त श्रद्धांजलि अर्पित की है। महाकवि त्रिपाठी जी के रचनाओं की संक्षिप्त समीक्षा प्रस्तुतकर नवीन आदर्श और नवयुग का संकेत दिया है। स्वछंदवाद के प्रतिष्ठित कवि का यह ज्ञानवर्धक आलेख उनके साहित्यिक यात्रा, व्यक्तित्व और कृतित्व से भली भांति परिचित करा रहा है। इस अमूल्य लेख के लिए आपका आभार और अग्रिम सभी आलेखों और परियोजनाओं के लिए अपार शुभकामनाएं
ReplyDeleteशालिनी जी, ऋषि तुल्य, बहुआयामी राम नरेश त्रिपाठी जी के अद्भुत व्यक्तित्व और अतुलनीय कृतित्व का क्या समृद्ध खाका खींचा है आपने! आलेख पढ़कर मज़ा आ गया। ऐसे शानदार और जानदार आलेख के लिए आपको बधाई और शुभकामनाएँ।
ReplyDeleteआदरणीया शालिनी जी,
ReplyDeleteप्रतिक्रिया में यह लिखने से वंचित रह गया कि आपने 10-11 संदर्भों की छानबीन कर यह लेखक पूरा किया यह बहुत ही सराहनीय बात है। इस तरह एक एक संदर्भ से जानकारी छाँटकर आलेख में अपनी कलम से पाठकमन को प्रभावित कर दिया है। आपके शोधकार्य और संयमता को प्रणाम करता हूं। हर किसी में यह खूबी नही होती। 😊
अप्रतिम लेखन शालिनी जी, रामनरेश त्रिपाठी जी के व्यक्तित्व व सच्चाई को बहुत ही सुंदर ढंग से आपने कलमबद्ध किया है। साधुवाद,हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत बधाई शालिनी जी त्रिपाठी जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डाल उनकी हिंदी साहित्य साधना से हमें परिचित करवाया वो सराहनीय हैं।
ReplyDeleteवाह...बधाई शालिनी जी। बहुत समग्रता के साथ आपने अपनी लेखनी से पंडित रामनरेश त्रिपाठी जी के जीवन और उनकी साहित्य साधना को संदर्भ-दर संदर्भ रेखांकित करते हुए, हमसे परिचित कराया है। इस समृद्ध आलेख के लिए साधुवाद आपको।
ReplyDeleteशालिनी, बहुत बहुत बधाई इस जानकारीपूर्ण सप्रेम लिखे आलेख के लिए। कितनी अच्छी बात थी उनके चरित्र की, कि दुखों से घिरे जीवन को भी वह ख़ुशी से जीते थे और कहनी और करनी में कोई फ़र्क़ नहीं करते थे। एक बार और वाह! तथा इस लेख के लिए आभार।
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