जे न मित्र दुख होहिं दुखारी। तिन्हहि बिलोकत पातक भारी॥
निज दुख गिरि सम रज करि जाना। मित्रक दुख रज मेरु समाना॥
मित्रता के संदर्भ में लिखी गई इस चौपाई से मनुष्य को यह ज्ञान प्राप्त होता है कि हर समय मित्रता निभाने वाले की भगवान हमेशा सहायता करते हैं। इस चौपाई को अपने जीवन में उतारने वाले हिंदी साहित्य के महान पुरोधा आदरणीय पंडित विजयानंद त्रिपाठी ने सदैव दूसरों के दुखों को समझा। पंडित त्रिपाठी ने अपने लेखन से हिंदी साहित्य में सांस्कृतिक भक्तिमय साधना की अवधारणा के प्रयोग का महत्वपूर्ण कार्य किया। २ अक्टूबर, सन १८८१ में विजया दशमी के दिन काशी, उत्तर प्रदेश में जन्मे पंडित विजयानंद त्रिपाठी ने 'तुलसी साहित्य' और 'रामचरितमानस' का गहन अध्ययन किया था। रामचरितमानस हिंदी साहित्य का सर्वोत्तम महाकाव्य है। इसमें ध्वनि, अलंकार, रीति, दिव्यता और औचित्य का विशेष समन्वय है। पंडितजी ने इसके सैद्धांतिक और प्रयोगात्मक रूप को समझकर अपनी प्रबंधात्मकता के अनुसार 'श्री रामचरित मानस विजया टीका' में विस्तारित किया। 'विजया टीका' हिंदी साहित्य की अमूल्य गौरव निधि है और यह तीन भागों में लिखी गई है। फ़्राँसीसी विद्वान नि० एलन डेला ने अँग्रेज़ी में लिखी अपनी पुस्तक में विजयानंद त्रिपाठी की भूरि-भूरि प्रशंसा की। परोपकार और आत्मीयता उनके रोम-रोम में भरी थी। वह साहित्य एवं जीवन में साधारण काम भी निष्काम भाव से किया करते थे।
त्रिपाठी जी बांकोपुर के बी० एन० कॉलेज में अध्यापन करने के उपरांत बहुत दिनों तक बी० एन० कॉलेजियट स्कूल के हेड पंडित रहे। उनके समय का हिंदी साहित्य भारत के इतिहास के बदलते हुए स्वरूप से प्रभावित था। स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीयता की भावना का प्रभाव साहित्य में भी दिखा। उस काल में ईश्वर के साथ-साथ मानव को भी समान महत्त्व देने का काम शुरू किया जा चुका था। अपनी भावना के साथ-साथ विचारों को पर्याप्त प्रधानता मिले, इसके लिए त्रिपाठी जी ने अपने साहित्य में पद्य के साथ-साथ गद्य का भी समावेश किया। त्रिपाठी जी के साहित्य में सांस्कृतिक गरिमा और गंभीर भाव प्रवाह दिखाई देता है। उनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आलंकारिकता तथा उन्नत कलात्मकता से परिपूर्ण हैं।
भारतेंदु युग से द्विवेदी युग तक आधुनिक गद्य के विकास में विभिन्न धर्मोपदेशक पुस्तकों का प्रभाव रहा। इन्हीं में पंडित जी की 'शतपंच चौपाई' भी सम्मिलित है। उन्होंने इस ग्रंथ को भक्ति शास्त्र के स्वरूप में श्रुतिमधुर, मनोहर और चित्राकर्षक चौपाइयों से सृजित किया। यह ग्रंथ भक्तिमय ज्ञान के तुलनात्मक विचार पर एक निरुपम ग्रंथ है। त्रिपाठी जी ने अपनी सुसंस्कृत शब्दशैली में कहा कि "शब्द पराग हैं, उसके भाव मकरंद हैं और भाषा उनके काव्यकलात्मक ग्रंथ हैं।" त्रिपाठी जी साहित्यकला में पारंगत एवं संस्कृत और हिंदी के प्रकांड पंडित थे। उनके रचे हुए संस्कृत और हिंदी भाषीय ग्रंथ अपनी विशेष पहचान रखते हैं। वह वांग्मय के इतने बडे़ जादूगर थे कि जब कभी उनका व्याख्यान या प्रबोधन प्रारंभ होता, उस समय सब लोग आई खाँसी को मुँह से बाहर तक नहीं निकलने देते थे। सुनने वाले उनके व्याख्यानों को सुनकर प्रस्तर की मूर्ति बन जाते थे। उनका कहना था कि "माली के आशातीत मकरंद यदि पुष्प से मधुकर प्रकट हो, तो उससे लाभ उठाने में कोई बुराई नहीं है।"
त्रिपाठी जी कविता में अपना नाम 'श्री कवि' लिखते थे। उन्होंने बाबू हरिश्चंद्र की 'रत्नावली नाटिका' जो अधूरी रह गई थी, उसे पूरा किया। पंडित जी ने 'रणधीर प्रेममोहिनी' नाटक का संस्कृत में अनुवाद किया, जिसकी मुख्य विशेषता यह थी कि मुख्य ग्रंथ में जिस प्रकार शिष्ट और साधारण जन भाषा में जो अंतर है, वैसा ही उन्होंने अपने ग्रंथ में भी रखा। बाबू हरिश्चंद्र का स्वर्गवास होने के पश्चात उन्होंने एक लंबा लेख लिखा था। यह लेख इतना अपूर्व और ऐसी प्रौढ़ भाषा में लिखा गया है कि जिसने उसको एक बार पढ़ा होगा, मेरा विश्वास है, वह उस लेख को आजन्म न भूला होगा।
विजयानंद जी द्वारा रचित 'महाअंधेर नगरी' नाटक अपने ढ़ंग का एक बड़ा विचित्र ग्रंथ है। इस ग्रंथ में आपको सभी रसों की प्राप्ति होगी। पंडित जी के कथाशिल्प, काव्यरूप, अलंकार संयोजना, छंदनियोजना, प्रयोगात्मक सौंदर्य, लोक संस्कृति तथा जीवन मूल्यों का मनोवैज्ञानिक पक्ष श्रेष्ठ होते थे। 'महाअंधेर नगरी' की एक गद्य रचना देखिए और उनके द्वारा लिखित भावों को समझिए - "ईमान बेचने वालों ईमान लो ईमान, टके सेर ईमान, टके पर हम ईमान बेचते हैं। ईमान ही क्या, हम जात-पात, कुलकानि, धर्म, कर्म, वेद-पुरान, कुरान, बाइबिल, सत्य, ऐकमत्य, गुन, गौरव, इज्जत, प्रतिष्ठा, मान, ज्ञान इत्यादि सर्वस टके सेर!"
तुलसीदास जी की एक चतुष्पदी के उत्तर में टीका करते हुए पंडित त्रिपाठी जी ने कुछ ऐसा लिखा, "प्रयागराज का जो क्षेत्र है, वही किला स्थानीय है। जिसमें न तो शत्रु का प्रवेश हो सकता है, न उनके तोड़े टूट सकता है। शत्रुओं ने कितने ही तीर्थ नष्ट कर डाले। पर प्रयागराज पर उनका बल न कभी चला और न चल सकने का वे स्वप्न ही देख सकते हैं।"
पंडित त्रिपाठी जी ने महाकवि कालिदास कृत संस्कृत नाटक 'मालविकाग्निमित्रम' का भी गद्यमय अनुवाद किया है। पंडित जी ने बड़ी ही लालित्य, माधुर्य, भावगांभीर्य दृष्टि से इस नाटक का गद्यरूप में अनुवाद कर, नाट्य साहित्य में वैभवशाली कार्य किया है। उनका कहना था कि यह नाटक एक काव्य का रूप है, जो रचना श्रवण द्वारा नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराता है। उन्होंने अपने अनुवादित गद्य में लोकरचना को लेखन और मंचन का मूल प्रेरणात्मक स्रोत माना है।
त्रिपाठी जी को 'मानसहरेजा' की सम्माननीय उपाधि से सम्मानित किया गया है। उन्होंने वर्ष १९३९ में 'सन्मार्ग' नामक दैनिक पत्रिका तथा 'सिद्धांत' नामक साप्ताहिक समाचार पत्र का संपादन उस समय किया, जब स्वामी करपात्री महाराज ने 'धर्मसंघ' नामक संस्था स्थापित की। सरकार की सेक्युलर प्रणाली की शिक्षा से लोगों को मुक्त करने के लिए इस संघ की स्थापना की गई थी। धर्मरक्षा के लिए उन्होंने हरिहरानंद सरस्वती उर्फ़ स्वामी करपात्री महाराज के संग भारतभर पैदल यात्रा की। उन्होंने अनेक अधिवेशनों, चर्चासत्र, वेदशाखा सम्मेलन, शास्त्रार्थ सभाओं में संबोधन किया। वर्ष १९४६ में बंगाल में हिंदुओं का सामूहिक हत्याकांड हुआ। भयंकर नरसंहार हुआ। प्रचंड धर्मपरिवर्तन हुआ। इसके विरोध में पंडित त्रिपाठी जी ने स्वामी करपात्री महाराज के साथ मिलकर 'हिंदू कोड बिल' और गौ हत्या का अत्यंत सशक्त शैली में डटकर विरोध किया। यह बिल ऐसी तमाम कुरीतियों को हिंदू धर्म से दूर कर रहा था, जिन्हें परंपरा के नाम पर कुछ कट्टरपंथी ज़िंदा रखना चाहते थे। इसका ज़ोरदार विरोध हुआ। हिंदू कोड बिल का विरोध करने वालों का कहना था कि संसद के सदस्य जनता के चुने हुए नहीं हैं, इसलिए इतने बड़े विधेयक को पास करने का उनके पास नैतिक अधिकार नहीं है। एक और विरोध इस बात का था कि सिर्फ़ हिंदुओं के लिए कानून क्यों लाया जा रहा है, बहुविवाह की परंपरा तो दूसरे धर्मों में भी है। इस कानून को सभी पर लागू किया जाना चाहिए, यानी समान नागरिक आचार संहिता।
भारत में गोवंश की क्या महत्ता है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं है। गौ को माता कहा गया है। अतः भारतवर्ष में गौहत्या न हो और उस पर कानून के द्वारा प्रतिबंध लगा दिया जाए, इसके लिए पंडित जी ने स्वामी करपात्रीजी के साथ मिलकर बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा किया। इस कार्य में श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी निरंजनदेव तीर्थ ने बड़ा सहयोग किया था। इन तीनों सज्जनों ने अपने प्राणों की बाजी लगाकर गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने हेतु आमरण अनशन तक प्रारंभ कर दिया। स्वामी करपात्रीजी और पंडित त्रिपाठी जी के लिखित भाषणों तथा लेखों द्वारा इस आंदोलन को और भी अधिक बलवान बनाया। इसके लिए दिल्ली में प्रदर्शन करने के कारण उन्हें जेल की यातना भी भुगतनी पड़ी थी और अंत में सरकार भी झुक गई और गौहत्या बंद कर देने का पूर्ण आश्वासन दिया।
पंडित विजयानंद त्रिपाठी जी ने आचार्य योगत्रयानंद शिवराम किंकर नामक बंगाली महात्मा से योगविद्या भी ग्रहण की थी। पंडित जी की अपने जीवन के आरंभकाल से ही अध्यात्म-चिंतन और साहित्य की ओर प्रवृत्ति जागरुक हो गई थी। उनके परिवार का वातावरण भी नितांत धार्मिक था। उनमें जो योग विद्या और धार्मिक साधना की ओर प्रवृत्ति जागरुक हुई, वो उन्हें शास्त्री शिवराम किंकर योगत्रयानंदजी के संपर्क में लाई। शास्त्री योगत्रयानंदजी गृहस्थ संत थे, जो एकनिष्ठ भक्त तथा आध्यात्मशास्त्र के मर्मज्ञ मनीषी थे। इनके अनुपम सानिध्य ने पंडित जी की साहित्यिक दृष्टि ही बदल डाली।
पंडित जी का साहित्यिक संघर्ष मर्यादा और अमर्यादा के बीच ही रहा। पंडित जी ने अपनी रचनाओं में शुद्ध, सहज और सरल जीवन हेतु मार्गदर्शन किया। उनका साहित्य कौशल हमेशा भक्ति से जुड़ा रहा, परंतु उन्होंने इस बात का ध्यान रखा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज के प्रति हरेक व्यक्ति के कुछ कर्तव्य होते हैं। वृत्तियों के उदात्तीकरण के साथ ही उसे समाज का भी उन्नयन करना चाहिए। पंडित विजयानंद त्रिपाठी का निधन १६ मार्च, सन १९५५ में हुआ। जाते-जाते उन्होंने भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता की ऐसी आदर्शमयी और गौरवपूर्ण जीवंत प्रतिमा प्रतिष्ठित की है, जो विश्वभर में अलौकिक असाधारण, अनुपम एवं अद्भुत है।
सूर्या जी नमस्कार। आपको इस महत्वपूर्ण लेख के लिये बहुत बहुत बधाई। आपने काफी शोध और परिश्रम से पंडित विजयानंद त्रिपाठी जी पर यह लेख तैयार किया है। लेख के माध्यम से त्रिपाठी जी के विशाल साहित्यिक योगदान का पता चलता है। त्रिपाठी जी समुचित प्रसिद्दि नहीं पा सके जिसके वो हकदार थे। यहाँ तक कि उनका कोई चित्र भी उपलब्ध नहीं था। यह लेख अधिक से अधिक लोगों को उनके बारे में जानने के लिये प्रेरित करेगा।
ReplyDeleteनमस्कार दिपक जी,
Deleteआपका आभार जो आलेख पढकर इतनी सुंदर प्रतिक्रिया प्रदर्शित करने के खातिर। आदरणीय त्रिपाठी जी का साहित्यिक चरित्र बहुत विशाल और सांस्कृतिक है परंतु अफसोस की साहित्यिक जगत में उनकी प्रसिद्धि ना के बराबर है। आपसे सहमत हूँ कि उन्हें इस लेख के माध्यम से ज्यादा से ज्यादा पाठको तक पहुँचाना जरूरी हैं।
हार्दिक बधाई, सूर्या जी, पंडित त्रिपाठी जी के बारे पढ़ने का प्रथम अवसर प्राप्त हुआ। उनकी भक्ति और नाट्य साहित्य साधना से परिचय हुआ।
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ReplyDeleteसूर्यकांत जी, आपने विजयानंद त्रिपाठी जी पर आलेख लिखकर, उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि तो दी ही है, साथ ही मेरे जैसे लोगों का उनसे परिचय भी कराया। इसके लिए आपको धन्यवाद। सहज, भावपूर्ण और गंभीर आलेख के लिए आपको बधाई और भावी लेखन के लिए शुभकामनाएँ।
सूर्या जी, आपके आलेख के माध्यम से पं० विजयानंद त्रिपाठी का सुंदर परिचय प्राप्त हुआ, आपने Twitter से उनकी तस्वीर भी ढूँढ निकाली।
ReplyDeleteइस जानकारीपूर्ण लेख में आपका शोध स्पष्ट दिखता है। इस अच्छे आलेख के लिए आपको बधाई और आभार।